साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने चाहिए. जिनके
पास जिन जिन वक़्तों के पुरस्कार हैं. वे सब आगे आएं और अपने पुरस्कार लौटा दें.
इस फेर में न फंसे कि इसका कोई मूल्य नहीं, कि ये निजी शहादत है, कि इसका कोई
हासिल नहीं, कि पैसा कैसे चुकाएंगें, कि साहित्य अकादमी तो सरकारी यूं भी नहीं हैं
आदि आदि. और इधर तो एक जालसाज़ी ये भी हो रही है कि कह रह हैं कीर्ति भी लौटाओ.
जैसे कीर्ति वहां से अर्जित हुई होगी. पूरा हिसाबकिताब ऐसे ढंग से पेश किया जा रहा
है कि ख़बरदार अगर लौटाया तो ये हिसाब ध्यान रखना. ऐसी बेशर्मी, ऐसी ख़ुराफ़ात,
ऐसा मज़ाक, ऐसी अपमान और ऐसा फ़ाशीवादी रवैया इस देश में आन पड़ा है तो क्या अचरज?
वरिष्ठो, आगे आइए और ये पुरस्कार लौटा दीजिए. इसके
गहरे निहितार्थ होंगे. आप सब जानते हैं. दुनिया भर के लोगों में संदेश जाएगा. जा
रहा है. प्रतिरोध आंदोलनों को मज़बूती मिलेगी. लोग और जुटेंगे. एक बड़ी अभूतपूर्व
अंतरराष्ट्रीय एकजुटता का समर्थन होगा. एक चेन बनेगी. विश्व शक्तियों की नई
धुरियों का नया जनतांत्रिक और अवाम केंद्रित विलोम तैयार होगा. आप पुकारे जाएंगें.
आपको सलाम होगा.
और हम, साथियो, हम लोग न ताकें न रुकें न चुप
रहें. बोलें. भरसक. लिखें. आश्वासन और राहतें और छलावे और पेशकशें और ऑफ़र लौटा
दें. सरकारों को ख़बरदार करें. आपने यूं ही जन्म नहीं लिया है. एक सार्थक जीवन की
परिभाषा और उद्देश्य क्या होता है. ये बताने का पुरज़ोर समय है. हम लोग दलाली नहीं
कर सकते हैं. हमारे वरिष्ठ दलाल नहीं हो सकते हैं. हम लोग मनुष्य हैं और हम लोगों
का एक जीवन है जो सुंदर है जिसमें प्रेम है, परिवार है परिजन और दोस्त और संबंधी
हैं, और ये सारी की सारी दुनिया है. हम लोग ख़ुशकिस्मत हैं फिर घेरा डाले हुए
हमारे आसपास ये ताक़तें कौन हैं. ये हमारा अच्छा बुरा क्यों तय करेंगी, हम खुद
क्यों नहीं? इन घेरों की जगह तो हमारी सदियों से बनाई हुई मनुष्यता के डेरे होने
चाहिए.
लोग सवाल कर रहे हैं और इस विश्वव्यापी प्रायोजित
जय-जय के बीच संदेह में हैं. कि आखिर ये जयगान उस देश से आ रहा है जहां मांस और
इंसान के बीच जीवन और मौत का संघर्ष चल रहा है. पूंजीवादी व्यवस्थाएं जब फ़ाशीवाद
से गठबंधन करती हैं तो ऐसा ही होता है. ऐसा इस देश की प्राचीनता में नहीं हुआ था. इतिहास
की विकृति हावी है. और ये कहने वाले लोग कम होते जा रहे हैं कि भारत में ऐतिहासिक
सच्चाई ये है कि यहां मांस खाया जाता था.
अब इस मांस भक्षण का विरोध इतना प्रबल है कि
मनुष्य भक्षण पर आमादा ताक़तें फैल गई हैं और उन्होंने जैसे विचार पर ही क़ब्ज़ा
कर लिया है.
लोग या तो मांस के नाम पर मारे जा रहे हैं या
महिमा न करने के अपराध में. अगर आप अनवरत जयजय में शामिल नहीं हैं तो आप समाज
विरोधी, जाति विरोधी, धर्म विरोधी और देशद्रोही हैं.
तो साथियो, जो किसी भी तरह की फ़ाशीवादी सुविधा
के घेरे में हैं उन्हें छोड़ें, जिनके पास सरकार के दिए पुरस्कार हैं, उन्हें लौटा
दें. भले ही वो किसी भी पार्टी या समूह या गठबंधन की सत्ता के दौरान के हों. या
किसी और दौर के.
आज क्या कर सकते हैं और किस चीज़ का क्या अर्थ हो
सकता है, इसे सोचें. लेकिन इसमें आगामी जीवन का मोलभाव न सोचें. आगामी सिर्फ़ मौत
है या उससे कम कोई दयनीय हालत. आप हंसेंगे, दैनन्दिन काम निपटाएंगें, दावतों में
जाएंगें, घरबार करेंगें लेकिन मौत आपके साथ ऐसे चलेगी जैसे आप उसकी गिरवी रखी हुई
कोई चीज़ हों.
वरना तो मौत स्वाभाविक रूप से आती ही है. आकस्मिक
भी आती है, और लड़कर भी.... लेकिन आप उस समय इंसान होते हैं- विवशता, इच्छा, लालच,
किंकर्तव्यविमूढ़ता, फ़र्माबरदारी और जहालत से भरा हुआ कोई बोरा नहीं जिसे किसी ने
जीवन के कगार से हमेशा हमेशा के लिए धकेल दिया हो.
पेंटिंग : Renato Guttuso, The Massacre 1943, Oil on canvas
पेंटिंग : Renato Guttuso, The Massacre 1943, Oil on canvas
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