Friday, February 24, 2017

प्रतिरोध की नई संवेदना से जुड़िए : शिवप्रसाद जोशी

प्रशांत ने अस्पताल से लौटकर युवाओं का आह्वान करते हुए कमोबेश यही कहा, देवी ने भी कुछ यही कहा एक ईमेल में कि मैं स्थिर हूं, ऊर्जा से भरा हूं और कोई आत्मग्लानि नहीं, अफसोस बस यह है कि proletariat में भी बर्बरता का वितरण हो रखा है.``
 

हमला पहला नहीं है. और होंगे. अभिव्यक्ति की आज़ादी और सत्ता व्यवस्था की टकराहटें और होंगी. सवाल ये है कि प्रतिरोध की संस्कृति को सत्ता की संस्कृति से सतत संघर्ष हम व्याख्याओं और विमर्शों में ही निपटते रहेंगे या ऐसा समाज बनाने की उन्मुख होंगे जहां प्रतिरोध की आवाज़ों का भी एक आयाम बना रहेगा और सत्ता के आयाम उसे निगलेंगे नहीं.
 
इस मामले में अमेरिकी लोकतंत्र की दाद देनी होगी जहां विभिन्न आवाज़ों के लिए स्पेस कभी कम नहीं हुआ है। अमेरिकी इतिहास जितना सत्ता राजनीति और भूमंडलीय वर्चस्व और अन्य देशों पर थोपे गये युद्धों का इतिहास है उतना ही प्रतिरोध और हाशिये की आवाज़ों के प्रस्फुटन और आंदोलन का इतिहास भी है.

भारत में भी प्रतिरोध की परंपरा रही है. लेकिन उसे कुचलने के लिए यहां सिस्टम भरसक सक्रिय रहता है. क्योंकि यहां एक फाशीवादी मनोवृत्ति वाली सत्ता आकांक्षा जड़े जमा चुकी हैं. वो 2014 में पहली बार नहीं प्रकट हुई थी. हमने उसका अपने अपने ढंग से निर्माण होने दिया. उसकी भूख नई और फैल गई है. वो निगल लेना चाहती है. मैंने सपना देखा कि एक सांप मेरी ओर आता है और उसका मुंह किसी शार्क की तरह खुला हुआ है. मैं पानी में पड़ा हुआ हूं लाचार और कातर. सिर्फ़ उस अजीबोग़रीब जीव को देखता हुआ.

बहुसंख्यकवाद के पास भीमकाय डैने आ गए हैं. उसने धूल उड़ा दी है और आसमान को ढकने का अभियान छेड़ा है. वे विरोध को सीधा देशद्रोह कह देता है और कार्रवाई पर उतारू रहता है. लेकिन भूल जाता है कि जितना ज़्यादा वो अपना दमन ढालता है उतना ही दबी कुचली आवाज़ें न जाने किन अनचीन्हें अनजाने कोनों से फूटने लगती हैं. 

ये कोने एक संगठन के भीतर भी हो सकते हैं एक समुदाय के भी और एक व्यक्ति के भी. दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक, कवि-चिंतक प्रशांत चक्रवर्ती हों या हिंदी के वरिष्ठ कवि लेखक फिल्मकार देवीप्रसाद मिश्र, अपने अपने ढंग से उनके प्रतिरोध को सबक सिखाने की कोशिश की गई.

क्या इतना आसान है प्रतिबद्धता को ख़ामोश कर देना. भारत समेत विश्व का समकालीन, आधुनिक इतिहास और प्राचीन इतिहास भी अगर टटोल लें तो ऐसा कहां हो पाया है. कभी नहीं. अवाक, स्तब्ध, हमले से लगभग बेसुध प्रशांत हों या ऐन सड़क पर, शाम आवाजाही के प्राइम टाइममें घायल किए गए देवीप्रसाद, जिनकी नाक से बहा ख़ून भी जैसे उनकी थरथराती, बेचैन आवाज़ की भाप से वहीं थम गया हो- वे एक जीवित परंपरा में अपनी सक्रियता को उड़ेल कर अपनी रोज़मर्रा जद्दोजहद में लौट जाते हैं ख़ुद को प्रामाणिक, विश्वसनीय और सच्चा मनुष्य बनाए रखने के लिए.
जैसे आइन्शटाइन, ब्रेष्ट, दाभोलकर, पानेसर, कलबुर्गी, पेरुमल, चॉमस्की, अरुंधति लौटे थे. जैसे क़रीब 600 दिन पहले इस देश के कवि-लेखक, रंगकर्मी, इतिहासकार, वैज्ञानिक, फिल्मकार लौटे थे. एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी समुदाय का विकास हो रहा है. मीडिया और अन्य हलचलों से बाहर ये सक्रियता अपना फ़र्ज़ निभा रही है. वरना देवी को अपने दफ़्तर से सीधे घर ही लौटना था. प्रशांत भी घर लौटकर यूं आते ही. अब ख़तरे की घंटी है जिसे बादशाह नहीं बजाएंगें. ये सत्ताओं के ख़िलाफ़ है. उम्मीद बनी हुई है. लेकिन ये पीछे थमी रह जाने वाली उम्मीद न हो कि सब ठीक हो जाएगा, आखिर कब तक चलेगा आदि आदि. इस ऑप्टिमिज़्म से सावधान!  छात्र-छात्राओं की एक बिरादरी सघन उत्तेजना और उत्साह से भरी हुई है. जो लोग ये कहते हैं कि नये लोग नाकाम और नाकाफी और निस्तेज और निष्क्रिय हैं, उन्हें थोड़ा रुकना चाहिए और अपने अतीत की हलचलों में झांकना चाहिए. आप इस नई छात्र संवेदना से जुड़िए, निहारते और पीछा छुड़ाते मत रहिए.
प्रशांत ने अस्पताल से लौटकर युवाओं का आह्वान करते हुए कमोबेश यही कहा, देवी ने भी कुछ यही कहा एक ईमेल में कि मैं स्थिर हूं, ऊर्जा से भरा हूं और कोई आत्मग्लानि नहीं, अफसोस बस यह है कि proletariat में भी बर्बरता का वितरण हो रखा है.

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