शिवप्रसाद जोशी 1991 से कविताएँ लिख रहे हैं।
1947 के बँटवारे और व्यापक साम्प्रदायिक हिंसा के बाद गाँधी का क़त्ल कर अपनी
ताक़त और मंशा का प्रदर्शन कर चुके जिन फ़ासिस्टों को सेकुलर लोकतांत्रिक नेताओ और
बुद्धिजीवियों ने अलग-थलग कह कर आँखें मूँद ली थीं, वे 1991 तक एक पुरानी मस्जिद
को निशाना बनाकर एक बड़ा फासीवादी-जन-अभियान खड़ा कर चुके थे। 1992 बीतते-बीतते
उन्होंने एक बड़े लाव-लश्कर के साथ अयोध्या की उस बाबरी मस्जिद को नेस्तनाबूद कर
दिया था। उन दिनों बुद्धिजीवियों ने अपनी लिखत-पढ़त के ज़रिये और सड़कों पर उतर कर
फ़ासिज़्म के निरंतर प्रतिरोध का इरादा भी जाहिर किया था। लोकतांत्रिक संस्थाओं के
ढहने और क़त्ल-ओ-गारत के क़रीब तीन दशकों के इस वक़्फे ने राजनीतिक प्रतिरोध के
बहुत से दलों और उनके नेताओं को गिरते हुए या समर्पण की मुद्रा अपनाते हुए देखा
है। अफ़सोस कि इस गिरने-बदलने में बहुत से बुद्धिजीवी भी शामिल रहे। 30 सालों का यह
हृदय-विदारक सिलसिला शिवप्रसाद जोशी ने एक छोटी सी कविता `गिरना` में इस तरह दर्ज कर दिया है कि यह उनकी
और इस दौर की प्रतिनिधि कविता कही जा सकती है।
फ़ासिस्टों के हाथों हुए विध्वंस के निशान उनकी
कविताओं में एक निरंतर यातना की तरह मौजूद रहते हैं। कई बार लगता है कि साहित्य और
राजनीति के साथ संगीत व विभिन्न कला रूपों व विज्ञान आदि विषयों में अपनी गहरी
दिलचस्पी के सहारे इस तकलीफ़ से बच निकलने का एक रास्ता उनके पास था बशर्ते यह उनके
दिल पर न गुज़र रही होती। इस लिहाज़ से `रिक्त स्थान और अन्य कविताएँ` संग्रह की पहली कविता `इन दिनों` का ज़िक्र करना ज़रूरी है। इस कविता
के उप शीर्षक देखकर मुझे यही लगा कि कवि ने विभिन्न ऋतुओं के सौंदर्य और विशिष्ट
प्रभावों का और शायद उनसे जुड़े रागों का कोमल चित्रण किया है। लेकिन, यह कविता बारहमासी
यातनाओं की कविता है। इन दिनों हर ऋतु में सदाबहार अन्यायों से गुज़रने की कविता। इसमें
यंत्रणाओं से सहमी भाषा, ठहरा संगीत, संताप का बर्फ़, इस शासक से मुक्ति की चाह
है, तीखा पतझ़ड़, गिरते गुंबद, आग से घिरा बसंत है, गटर में उतरने की विडंबना को
अध्यात्म कहने की अश्लीलता की इंद्राजी है, भीगी हुई गाय है और खून से भीगा हुआ
मनुष्य है।
इन दिनों या पिछले दस-पंद्रह सालों में कामयाब
कवियों और उनकी कविताओं ने जो कलाएं दिखाई हैं, उनके आगे ये कविताएँ कहीं नहीं
ठहरती हैं। न इनमें अचानक चमक और चर्चा हासिल करने वाले वैसे लटके-झटके हैं और न `इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए` वाली वैसी होशियारी। एक साथ
प्रगतिशील और दक्षिणपंथी दोनों तरह के इशारों वाला हुनर यहाँ नहीं ह। ये उन कवियों
में शामिल कवि की कविताएँ नहीं हैं जिन्हें हर चार-पाँच साल में किसी सितारे, किसी
उम्मीद या किसी अनूठी प्रतिभा की तरह पेश किया गया और फिर पेश करने वालों ने ही अपनी
खोज पर शर्मिंदगी का ऐलान किया। इन दिनों यह बड़ी तसल्ली की बात कही जा सकती है कि
दमन-पतन और उसके बरअक्स नये संघर्षों के दौर में कोई कवि और उसकी कविताएँ जन-पक्षधर
इंसानों को शर्मिंदा न करें। एक ज़रूरी ग़ैरत इन कविताओं की ताक़त है और जो कवि को
जानते हैं, वे कह सकते हैं कि जैसा कवि है, वैसी ही उसकी ये कविताएँ हैं। जितनी अंतर्मुखी
और ख़ामोश, प्रतिबद्धता और प्रतिरोध का स्वर उतना ही मुखर और बेबाक।
संग्रह से कुछ छोटी कविताएँ यहाँ ली गई हैं। संगीत
से जुड़ी कविताओं में से एक कविता टीएम कृष्णा पर है जिसका एक टुकड़ा यहाँ लिया गया
है। टीएमके शास्त्रीय संगीत के साथ जोड़ दिए गए पवित्रता और रहस्य के ब्राह्मणवादी मिथ
पर लगातार चोट करते हैं जिसका उल्लेख कवि ने भी किया है।
`रिक्त स्थान और अन्य कविताएँ` संग्रह को काव्यांश प्रकाशन ने छापा है। दिल्ली से दूर छोटी जगहों से भी सलीक़े के साथ किताबें निकलती हैं, यह ज़िक्र भी ज़रूरी है।
इन
दिनों
1
शिशिर
काँप
मैं इसिलए नहीं रहा कि
यह
ग्लोबल वॉर्मिंग है
या
मैंने पहाड़ी भेड़ की ऊन का स्वेटर पहन लिया है
मफ़लर
टोपी जुराब दस्ताने
या
मेरी हड्डियाँ मज़बूत हैं
या
मैंने अदरक तुलसी का काढ़ा पी लिया है
या
कैंटीन की रम मेरे खून में सुलग रही है।
क्या
बताऊँ किसलिए काँप रहा हूँ मैं
थरथर।
2
बर्फ़
जैसे
ही देखता हूँ मेरे भीतर एक सिल्ली जम जाती है
संगीत
ठहर जाता है
भाषा
सहम जाती है
धूप
मुझसे मेरी बेटी की तरह चिपक जाती है
नसें
उतझ जाती हैं
बर्फ़
मेरा संताप है।
मुक्ति
चाहता हूँ मैं
इस
शासक से
3
पतझड़
आँखें
गिरीं
नाक
मुँह हाथ हृदय यकृत वृक्क फेफड़े
देह
के नाले में गिरे
मैं
एक को उठाता तो दूसरा गिर जाता
इतना
तीखा है पतझड़
एक
दिन साथ चलती हवा गिरी
गुंबद
तो कबके गिरे
इस
पतझड़ में
धूल
के गिरने का पुनरावलोकन
मैंने
अपने भीतर देखा
खून
का गिरना
एक
आदमी घसीटा जाता हुआ पत्ते की तरह
पीछे-पीछे
घसीटी जाती हमारी यह पृथ्वी।
4
वसंत
देखकर
फूल को तितली हटी
गिलहरी
ने पेड़ छोड़ा मुँडेर पर छलाँग लगाई
बीज
में दुबका रहा वसंत
पतंगों
ने गिराई चिड़िया
लोगों
को किया लहूलुहान
आग से
घिरा वसंत।
5
हेमंत
वर्षा
के बाद और शिशिर से पहले
वह
इतना बेआवाज़ आया
जैसे
मेरी हत्या का समाचार
मेरी
थरथराहट पर जुमले फेंके गए
गटर
में मेरे उतरने की विडंबना को
मेरा
अध्यात्म कहा
नाइंसाफ़ी
से जब मेरी हड्डियाँ थरथराईं
फ़ौरन
मुझे गिरफ़्तार कर लिया।
6
बारिश
चाबुक
की तरह बरसती है
या
काटती है तलवार की तरह
टीवी
पर छाताधारियों की बहस
भीगी
हुई गाय कितनी देर रहेगी
खून
से भीगे हुए मनुष्य के पास।
7
ग्रीष्म
धधकते
कुंड सी हो गई देह
गिरती
हैं आहुतियाँ
जयकारे
का ईंधन छींटा जाता है
त्वचा
पर फफोले
गर्मी
न सह पाने की अकुशलता के कहे गये
खदेड़े
जाने से पहले बुलाया गया
अपना
पसीना दान में देने के लिए
तब
मेरे पास अमीर ख़ान के सिवाय कोई न था
उमस
की तरह धँसी हुई चोट पर
राग
मेघ का मरहम।
(2017)
गिरना
जनवरी
में सफ़दर गिरा
दिसंबर
में मस्जिद
दरमियान
गिरा पड़ोस
अर्थ
और मर्म क्यों न गिरते
कायरता
और शर्म के साथ
आँसू
गिरते रहे
किसी
ने कहा: अरे आसमान तो नहीं गिरा !
हम
गिरते चले गए
एक
साल से दूसरे साल में।
(2019)
लक्ष्मण
तक्ष्मण
और मैं
साथ-साथ
आए इस शहर
वह
आया भागकर
नौवीं
में हुआ फेल
मैं
आया सारे दर्जे पास कर
घर
में उसे कहा
बहुत हुआ
अब बस जा
पैसा
कमा
मुझे
कहा
अच्छा
जाते हो
कैसे
भेजें पर जीवन बनेगा
इसलिए
जाओ
मैं
जहाँ जीवन बनाता हूँ
लक्ष्मण
वहाँ कप धोता है
और
चाय बनाता है।
(1994)
आह
देश!
तनमन
की भेंट देकर भारत की लाज रखना
किसके
लिए लिखा
किसे
कहा शकील बदाँयूनी
शायर
देश की लाज पर जुनून की
गाज
गिरी है
जन के
तन-मन पर
शूल
चुभे हैं
धर्म
धर्म धर्म
ज़ोर
से गुर्राती है आवाज़
मर्म
मर्म मर्म
कराहती
है लाज
अँधेरे
से घिरी इंसाफ़ की डगर पर
जा
रहे हैं बच्चे
तुम्हारे
गीत के प्रकाश में।
(2002)
16 अप्रैल
आज
कितनी शांत है सुबह
स्मृति
बैठी है चिड़िया की तरह
गरमी
का अहसास ही नहीं
ठंड़क
पहुँचाते हैं बादल
उमड़-घुमड़
तो दिल-दिमाग में है
इतना
ढोल बज रहा
इतना
प्रचार दिन भर
जहाँ-तहाँ
काफ़िले और सेनाएँ
शाम होते-होते लॉन्च कर दी गई
उर्दू
में वेबसाइट भी।
(2015)
प्रेम
उसे
गोद की दरकार नहीं
गोंद
की तरह चिपकना नहीं
चाहते
वे
सिर
सहला दें
हाथों
में हाथ फँसा लें
या
चूम लें
उन्हें
गवारा नहीं
वे बस
बातें करते हैं
गुजरात
से आघात तक की।
(2002)
कलाएँ
गूँगी
बच्ची को पीठ पर उठाए
बजरंगी
भाई जान नाचना बंद करो
आसिफ़ा
तु्म्हें देख रही है
गुजरात
की पतंगे
तुम्हें
देख रही हैं
जिस
घास पर तुम दौड़ कर निकले
लो!
उसने
भी तु्म्हें देखा उचककर।
टीएम
कृष्णा
2
झपट्टा मारते जब आततायी निवाले पर
तब संगीत की साधना को उनके ख़िलाफ़ लड़ाई में
बदल देना
कोई उससे सीखे
कर्नाटक संगीत को एक तड़पते जैज़ में ढाल
देना
भीमराव अम्बेडकर के नाम की ज्वाला जगा देना।
पेरुमल मुरुगन
की कथा एक बंदिश है
टीएम कृष्णा के संगीत में
जैसे मृदंगम एक दलित कथा है
साज़ से पहले
जिसे लिखने की ठानी उसने
कहाँ कीन हो गमनवा
टीएमके
मंच से उतरकर चले जाते हो मछुआरों के बीच
जाल बुनते हो गाने का
अकेले अ-बामन संगीत के
डरे नहीं।
(2018-21)
नोट: भीमराव अंबेडकर पर पेरुमल मुरुगन ने एक
प्रशस्ति और आह्वान गीत लिाखा है। अंबेडकर को समर्पित ये उनका ``कवडी चिंदु`` है। टीएमके संतों, भक्त-कवियों, आंदोलनकारियों और कवियों को गाते हैं, चिंतक-एक्टिविस्ट हैं और मृदंगम के दलित
इतिहास पर रोशनी डालने वाली पहली किताब के बेजोड़ लेखक हैं।