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कवि-लड़का (मनमोहन का मथुरा के छात्र दिनों का फोटो) |
आग
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आग
दरख्तों में सोई हुई
आग, पत्थरों में खोई हुई
सिसकती हुई अलावों में
सुबकती हुई चूल्हों में
आँखों में जगी हुई या
डरी हुई आग
आग, तुझे लौ बनना है
भीगी हुई, सुर्ख, निडर
एक लौ तुझे बनना है
लौ, तुझे जाना है चिरागों तक
न जाने कब से बुझे हुए अनगिन
चिरागों तक तुझे जाना है
चिराग, तुझे जाना है
गरजते और बरसते अंधेरों में
हाथों की ओट
तुझे जाना है
गलियों के झुरमुट से
गुजरना है
हर बंद दरवाजे पर
बरसना है तुझे
(१९७६-७७)
मशालें...
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मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर
मशालें जिन्हें लेकर
हम गाढ़े अंधेरों को चीरते हैं
और बिखरे हुए
अजीजों को ढूंढते हैं
सफ़र के लिए
मशालें जिनकी रोशनी में
हम पाठ्य पुस्तकें पढ़ते हैं
वैसे ही पनीले रंग हैं
इनकी आंच के...जैसे
हमारी भोर के होंगे
लहू का वही गुनगुनापन
ताज़ा...बरसता हुआ...
मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर
(1976)