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Tuesday, October 14, 2008

मनमोहन की दो पुरानी कविताएं


कवि-लड़का (मनमोहन का मथुरा के छात्र दिनों का फोटो)
मनमोहन हमारे समय के बड़े कवि हैं, 80 के दशक की कविता का शिल्प तय करने वाले प्रमुख कवि और ठीक पहली कविता के तेवरों की वास्तविकता की पड़ताल का रिस्क उठाने वाले आलोचक भी। छपने से परहेज बरतते रहे इस कवि का एक संग्रह `ज़िल्लत की रोटी` आया है, जिसमें बाद की कविताएं है. 1969 से कविता लिख रहे इस कवि की आपातकाल में बहुचर्चित `राजा का बाजा` समेत कई पुरानी कविताएं मेरे हाथ लगी हैं, जिन्हें एक-दो सीरीज़ में ही टाइप कर पाऊंगा। हाल में उन्हें हरियाणा साहित्य अकादमी ने कविता पर लखटकिया सम्मान दिया है। एक लाख रुपये की यह राशि उन्होंने सामाजिक-सांस्कृितक क्षेत्र में काम कर रही संस्था `हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति` को भेंट कर दी है। इस मौके पर उनकी कविताओं पर असद जैदी की टिप्पणी और खुद उनका (मनमोहन का) वक्तव्य देने का भी इरादा है। फिलहाल उनकी दो पुरानी कविताएं- 

आग
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आग
दरख्तों में सोई हुई
आग, पत्थरों में खोई हुई

सिसकती हुई अलावों में
सुबकती हुई चूल्हों में

आँखों में जगी हुई या
डरी हुई आग

आग, तुझे लौ बनना है
भीगी हुई, सुर्ख, निडर
एक लौ तुझे बनना है

लौ, तुझे जाना है चिरागों तक
न जाने कब से बुझे हुए अनगिन
चिरागों तक तुझे जाना है

चिराग, तुझे जाना है
गरजते और बरसते अंधेरों में
हाथों की ओट
तुझे जाना है

गलियों के झुरमुट से
गुजरना है
हर बंद दरवाजे पर
बरसना है तुझे
(१९७६-७७)


मशालें...
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मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर

मशालें जिन्हें लेकर
हम गाढ़े अंधेरों को चीरते हैं
और बिखरे हुए
अजीजों को ढूंढते हैं
सफ़र के लिए

मशालें जिनकी रोशनी में
हम पाठ्य पुस्तकें पढ़ते हैं

वैसे ही पनीले रंग हैं
इनकी आंच के...जैसे
हमारी भोर के होंगे

लहू का वही गुनगुनापन
ताज़ा...बरसता हुआ...

मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर
(1976)