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Wednesday, April 10, 2019

बेटे, जब तक ये दलीप सिंह है, घबराने की ज़रूरत नहीं

ज़हूर साहब और निशात आपा

(डीयू से सेवानिवृत्त असोसिएट प्रफेसर ज़हूर सिद्दीक़ी प्रग्रेसिव मूवमेंट से जुड़े रहे हैं। वे रटौल में अपने पुश्तैनी घर में ग़रीब लड़कियों के लिए स्कूल चलाते हैं। इन दिनों बीमार हैं। फोन पर बात की तो वे मुज़फ़्फ़रनगर शहर जो मेरा भी शहर है, पहुंच गए। फिर एसडी इंटर कॉलेज जो मेरा भी स्कूल था। जब उन्होंने अपने टीचर दलीप सिंह को याद किया तो मैं रो पड़ा। यह लिखते हुए भी यही हाल है। दलीप सिंह की बहुत ज़रूरत है। ज़हूर साहब से हुई बातचीत यहां पोस्ट कर रहा हूँ।) 

जब मुल्क़ का बंटवारा हुआ तो बहुत दिनों तक अफवाहों का बाज़ार गरम रहा करता था। मैं मुज़फ़्फ़रनगर में एसडी में पढ़ता था। अफ़वाह फैल गई कि कोई ट्रेन आई है जिसमें लोगों को मारकाट के भेजा गया है। मेरी माँ ने उस दिन मुझे स्कूल नहीं भेजा। अगले दिन...। वो गोल चेहरा, सुंदर..। वो पर्सनालिटी...एक दम से वो चेहरा पूरा का पूरा उभर आता है। वो हमारे टीचर...शानदार। दलीप सिंह। दलीप सिंह था उनका नाम। बोले, `कल क्यों नहीं आए?`  मैंने कहा कि अम्मी ने नहीं आने दिया। बोले, `बेटे जब तक ये दलीप सिंह है, घबराने की ज़रूरत नहीं है। जो होगा पहले दलीप सिंह को होगा, तब कोई किसी बच्चे तक पहुंचेगा।` 80 साल का हो गया हूँ। अब तक मेरे दिल पर उस बात का असर ज्यों का त्यों बना हुआ है। ऐसे लोग थे। ऐसे ऊंचे कि माहौल कैसा भी हुआ, डिगे नहीं।

मेरे पिता नुरुद्दीन अहमद सिद्दीक़ी मुज़फ़्फ़रनगर में पोस्टेड थे। डिप्टी कलेक्टर। एससडीएम जानसठ। अंग्रेज कलेक्टर को उनकी ईमानदारी पर यक़ीन था। बाहर से रिफ्युजी आ रहे थे। उनको सही सामग्री मुहैया कराने, उनके रहने की जगह का इंतज़ाम कराने जैसी बड़ी ज़िम्मेदारी थी। मुज़फ़्फ़रनगर में ठीक रहा। इंतज़ामात ठीक रहे। दंगे नहीं हुए। सहारनपुर से दिल्ली तक रेलवे स्टेशनों के पास के शहरों-कस्बों में रिफ्युजीज की बड़ी तादाद थी। ज़्यादातर दुकानदार लोग थे। सौदागरी जानते थे। वे छोटी-छोटी चीज़ें बेचने लगे। बहुत कम रेट पर। जैसे मैं अपनी रिश्तेदारी में सहारनपुर था। मुझे याद है, वहां भी बाज़ार में छोटे-छोटे बच्चे छोटी-मोटी चीज़ें बेच रहे थे। मसलन, लड्डू। बाज़ार में डेढ़ रुपये-दो रुपये पाव मिलने वाला लड्डू चार आना पाव बेचते थे। कम से कम मुनाफा लेकर। कुछ क्वालिटी में समझौता करके। मसलन बेसन कुछ कम करके, चीनी कुछ ज़्यादा करके, देसी घी के बजाय वनस्पति घी का इस्तेमाल करके। रेट को काफ़ी कम रखके। टॉफियां, छोटी-छोटी मीठी गोलियां वगैराह। देहात से जो लोग शहर आते तो लौटते वक़्त बच्चों के लिए ये सस्ते दामों वाली चीज़ें पाकर ख़ुश होते। मतलब, मुश्किलों में इधर आए लोगों की बाज़ार में बहुत दिलचस्पी थी और मेहनत का जज्बा था।

आज़ादी के बाद इधर का ज़्यादातर मुसलमान आज़ादी की लड़ाई के नेताओं पर भरोसा करके यहीं रहना चाहते थे। जो जाने की चाहत रखते थे, वे 10 फीसदी होंगे। बहुत से हिस्सों में फ़सादात के बावजूद इधर देहात में, शहरों-कस्बों में भी भाईचारा बना रहा। कुछ बातें हो जाती थीं पर भरोसा बना रहा। देहरादून में मुसलमानों को दंगों का सामना करना पड़ा तो लोग इकट्ठा होकर सहारनपुर में मौलवी मंज़ूर उल नबी के पास आए। वे बड़े सादे शख़्स थे। लोगों में और नेताओं के बीच उनकी इज़्ज़त थी। लोगों ने उन्हें कहा कि हम तो आपके भरोसे पर हिंदुस्तान में रह गए पर अब क्या करें। आप ने तो कहा था कि आज़ादी के बाद एक नयी दुनिया होगी। कांग्रेस के राज में सब को एक नज़र से देखा जाएगा। मौलवी साहब ने कहा कि मैं तो कोई हाकिम नहीं, मेरे पास तो कोई ओहदा, कोई ताक़त नहीं, जो तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं। लेकिन, मौलवी साहब लखनऊ रवाना हो गए। लखनऊ पहुंचे तो मुख्यमंत्री पंत सुबह-सुबह अचानक उन्हें देखकर हैरान रह गए। नाश्ता कराया, बात सुनी और कहा कि अच्छा, मौलवी साहब आप जाइए। उनके लौटने से पहले नये कलेक्टर रामेश्वर दयाल पहुंच चुके थे। नये कलेक्टर ने सुबह-सुबह गाड़ी लगाने के लिए कहा तो स्टाफ ने जानना चाहा कि जाना कहां है। लेकिन, उन्होंने किसी को बताया नहीं ताकि उनकी योजना लीक न हो। वे बाज़ार पहुंचे तो कुछ लोग दुकानों के ताले तोड़ रहे थे। कलेक्टर ने शूट एट साइट का हुक्म दिया। शूट एट साइट का मतलब पांवों के पास गोली चलाना ही हुआ करता था। फायरिंग हुई, दंगाई भाग खड़े हुए और दूर-दूर जिलों तक मैसेज चला गया।

चौ. चरण सिंह मंत्री बने। देहात में पढ़ाई को लेकर उत्साह पैदा हुआ। देहात से लोग चौधरी साहब के पास पहुंचते थे, बेटों के लिए नौकरियां मांगने। वे कहते थे कि पढ़ाई कीजिए। देहात के लोग अंग्रेजी तालीम में भी आगे बढ़े। बड़ी नौकरियों में जाने लगे। फ़ौज़ में सिपाही भी बने।

इतनी उम्र हो गई। ज़माना बदल गया पर उस ज़माने के दोस्त याद आते हैं। उनके नाम याद आते हैं। दोस्तों में, उनके घरवालों में हिंदू-मुसलमान का भेदभाव नहीं था।

अफ़सोस कि दलितों की स्थिति अच्छी नहीं थी। वे बहुत भेदभाव का सामना करते हुए, संघर्ष करते हुए आगे बढ़े हैं। 
ज़हूर साहब और निशात आपा के घर (जो लड़कियों का स्कूल है) पर हम