दोस्तों,
हमारे समय के बेहतरीन कवि असद जैदी और मंगलेश डबराल इन दिनों बेहद कुत्सित दिमागों द्वारा घृणित ढंग से निशाने पर हैं. पिछले दिनों सामान की तलाश शीर्षक से असद की एक महतवपूर्ण कविता आयी. १८५७ को लेकर लिखी गयी यह कविता तब और अब के व्यापक संकटों, तब और अब हमारे इलीट की गद्दारी आदि को भी सामने रखती है. ये इस कवि का कसूर ही मान लिया गया और पुराने नवजागरण में बाधा बने रहे वर्ग के वंशज उन्हें सांप्रदायिक और न जाने क्या-क्या करार देने लगे. सामान की तलाश शीर्षक से ही आए संग्रह की कई महत्वपूर्ण कविताओं का भी मुर्खता और धूर्तता के मिश्रण से कुपाठ परोसकर वितंडा खडा करनेकी कोशिश की गयी. हैरत की बात यह है कि इस अभियान की खुलकर अगुआई करने वाले शख्स ख़ुद को लेफ्ट केक्रन्तिकारी धडे से भी बताते रहे हैं जबकि उनका कुल योगदान पुनरुथानवाद को बेहद सामंती, जातिवादी और साम्प्रदायिक ढंग से हवा देने भर का रहा है, तो क्या यह नही माना जाय कि इस तरह कि प्रविर्त्ती आर एस एस में ही नहीं बल्कि हमारे उदार, वामपंथी और अति वामपंथी धडों के बीच भी बेहद आराम से पलती रहती है, बल्कि कहा जाय कि यदि हमारे भीतर जरा भी आत्म्शंश्य है तो हमें देखना चाहिए कि हमारे भीतर ही एक आर आर एस मजे मेंपलता रहता है. पुराना नवजागरण सिर्फ़ एक ओट होता है, जिसकी आड़ में हम अपने सामंती, जातिवादी और साम्प्रदायिक खेल खेलते रहते हैं. मुझे लगता है कि यह मसला किसी एक मंगलेश, किसी एक असद का नही है बल्कि पूरे हिन्दी समाज के संकट का है. कहने की जरुरत नहीं है कि इस पीढी के मंगलेश, उदय प्रकाश, विष्णु नागर, मनमोहन, असद जैदी, अरुण कमल, राजेश जोशी आदिसभी ने अपने-अपने ढंग से कविता को समृद्ध किया,उसे नया मुहावरा दिया. दुखद यह भी है कि नए दौर ने विमर्श और आदान-प्रदान की जगह कम की हैऔर हमारे कई समझदार व् जिम्मेदार लोग भी ऐसे मसलों पर निजी बैर याद कर या तोचुप्पी साध बैठते हैं या फिर.....। देश और समाज जिस संकट से दो-चार है, उसके मद्देनज़र हमारे समर्थ और जिम्मेदार रचनाकारों से हम ज्यादा व्यापक एकजुटता की उम्मीद रखेंगे ही और संवेदनशील व् जागरूक लोगों से भी.
5 comments:
आपके विचार इस दिशाहीन बहस को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत को रेखांकित करते हैं. इस लिहाज़ से यह पोस्ट बहुत ज़रूरी और महत्वपूर्ण है.
कुपाठ की यह प्रवृत्ति असद ज़ैदी या मंगलेश डबराल को सिर्फ़ दो नामों की तरह देखती है.
हिन्दी साहित्य कई दशकों से इने-गिने संकुचित मानसिक वृत्ति वाले आलोचक-रचनाकारों के हाथों पिटता रहा और दस हज़ार खेमों में बांट दिया गया: हालात यहां तलक पहुंचे कि खेमों की तादाद पाठकों की तादाद से कई गुना बढ़ गई. और इस सत्कार्य में अगर कोई कमी रह गई थी तो साल-दो साल पहले ब्लॉगिंग में आए बेलगाम, अपढ़ सामन्ती महापुरुषों ने त्वरित तत्परता के साथ अपने हिसाब से अपनी खु़शफ़हमी में हिन्दी साहित्य के एक बड़े और महत्वपूर्ण हिस्से की अन्त्येष्टि भी कर दी.
अब वे सगर्व अपने मोहल्लों में साप्ताहिक हास्य कवि सम्मेलन आयोजित कर सकते हैं: 'कीचड़' मुज़फ़्फ़रपुरी, 'कै' कलकतवी और 'मेढक' टांडवी जी की कविताओं में अच्छी बात यह होती है कि वे पान-मूंगफली चबाते, कान खुजाते और लघु/दीर्घ शंका तक करते हुए समझ में आ जाती हैं. दिमाग खपाने की आवश्यकता नहीं पड़ती.
ye dukhad masla hai ki karmendu jaise nafrat bhare dimaag walon ko kuchh log sameekshak batate hain
dhiresh, tere shahar ka hee hoon main...abe apne pita ke aryasamaaji hone ka khyaal to rakh, pitrahanta
dharm badal liya kya.....maulana dhiresh..
"ना मैं मोमिन विच मसीताँ, ना मैं विच कुफ्र दियां रीताँ।"
हम तो बुल्ला कबीर के वंशज है कम से कम हमें तो हिंदू मुसलमान, पंडत मौलवी कह गाली न दो। भाई बेनामी पंडत अपनी घटिया संघछाप हिंदू संस्कृति की नुमाईश करते हर किसी को जात-पात-धर्म के नाम पर फिकरे कसकर तुम खुद की संस्कृति को एक्सपोज ही कर रहे हो। आपके इन कायराना कृष्ण कर्मो से आपके पालको का सीना फक्र से चौडा होने से रहा, इसिलिये अपना परिचय छुपा दूसरे के बाप-दादाआे तक पहुचते फिरते हो।
अगर थोडी सी हिम्मत नैतिकता या आत्मसम्मान बचा हो तो अपने परिचय के साथ उपर लिखी टिप्पणी लिख कर दिखावो, अगर हिम्मत नहीं है तो दफा हो जावो क्यो दूसरो के घर में पीक थूकते हो।
धीरेश भाई, इस सार्थक बहस में खलल डालने पहुचे इन बेनामीयो का जल्द इलाज किया जाना अच्छा होंगा। मेंरा आग्रह है कि इन बेहुदा टिप्पणीयो को डिलीट कर दिया जाये।
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