कवि-लड़का (मनमोहन का मथुरा के छात्र दिनों का फोटो) |
आग
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आग
दरख्तों में सोई हुई
आग, पत्थरों में खोई हुई
सिसकती हुई अलावों में
सुबकती हुई चूल्हों में
आँखों में जगी हुई या
डरी हुई आग
आग, तुझे लौ बनना है
भीगी हुई, सुर्ख, निडर
एक लौ तुझे बनना है
लौ, तुझे जाना है चिरागों तक
न जाने कब से बुझे हुए अनगिन
चिरागों तक तुझे जाना है
चिराग, तुझे जाना है
गरजते और बरसते अंधेरों में
हाथों की ओट
तुझे जाना है
गलियों के झुरमुट से
गुजरना है
हर बंद दरवाजे पर
बरसना है तुझे
(१९७६-७७)
मशालें...
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मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर
मशालें जिन्हें लेकर
हम गाढ़े अंधेरों को चीरते हैं
और बिखरे हुए
अजीजों को ढूंढते हैं
सफ़र के लिए
मशालें जिनकी रोशनी में
हम पाठ्य पुस्तकें पढ़ते हैं
वैसे ही पनीले रंग हैं
इनकी आंच के...जैसे
हमारी भोर के होंगे
लहू का वही गुनगुनापन
ताज़ा...बरसता हुआ...
मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर
(1976)
7 comments:
मनमोहन जी की इन्हीं कविताओं की तलाश थी धीरेश जी ! ये उनके संकलन में आने से रह गयीं। दरअसल उनका पहला संकलन तो आया ही नही ! जो आया उसे दूसरा कहना चाहिए!
मुझे अगली पोस्ट का इंतज़ार है!
मनमोहन की इन कविताओं को पढ़ कर 75-85 का वक्त स्मरण हो आया। मनमोहन से रूबरू होना और कविता सुनना सब कुछ।
आशा कोटिया द्वारा चलाये जाने वाले हल्ला गुल्ला बाल नाट्य शिविर में सनत कुमार जी के निर्देशन में हमने राजा का बाजा कविता पर आधारित नाटक का मंचन किया था। उस समय कविता भी पढने को मिली थी, लगभग 20 बरस बीत चुके अब कविता कुछ खास याद नहीं आ रही है।
मनमोहन जी की राजा का बाजा व अन्य कविताआे के इंतजार में...
अच्छी कविता, सच्ची कविता।
सैनी साहब होटलनुमा अस्पताल से वापस आ गई हूं और अपने ब्लॉग का कार्यभार भी संभाल लिया है। अच्छी कविताएं पढ़वाते रहना।
दोस्त, जिल्लत की रोटी संग्रह पढ़ चूका हूँ, ऐसी कवितायेँ जिनका इस समय दूसरा उदाहरण नहीं, विमर्श की गहराई, प्रतिबद्धता, भाषा और शिल्प का सहज कमाल. और उसकी भूमिका सबके लिए एक राह जैसी. संयोग से मैंने दो बार उन्हें सुना और उन पर बोलते हुए मैनेजर पाण्डेय और मंगलेश डबराल को भी सुना. मुझे हैरानी हुई कि इतना बड़ा कवी इतनी चुप्पी के साथ क्यों एक तरफ बैठा है, मैनेजर पाण्डेय जी ने उनकी `आ रजा का बाजा बजा, चतुर लाल, खलील खां फाख्ता नहीं उडाते, बिल्ली आ गयी मुंडेर पर` आदि का हवाला दिया था और याद किया था कि जेएनयु में इमरजेंसी के खिलाफ ब्रेष्ट और मनमोहन की कवितायेँ चरों तरफ लगी हुई थीं. मुझे कहना ये है कि इस दौर की मनमोहन की कवितायेँ उतनी ही वाजिब हैं, जितनी उस दौर में उस वक़्त के थीं. कवी को उसी वक़्त में अटका न रहने दो और न खुद को उसी वक़्त में फिक्स रखो
धीरेश भाई, कहां हो? न फोन न संदेश। ब्लॉग देखकर लगता है कि सक्रिय हो। तुम्हारी तबियत अब कैसी है। इलाज किस शहर में हो रहा है। मनमोहन जी के बारे में अप्रत्यक्ष परिचय तो तुम्हारे जरिए बहुत पहले ही हो गया था, पता नहीं हिंदी साहित्य के धड़ेबाजों ने मनमोहन जी का नाम हम जैसों के बीच आने नहीं दिया। तुम्हारे जरिए उनकी कविताएं पढ़ने को मिल रही हैं, यही क्या कम है। बहरहाल, इधर कई घटनाएं हुईं जब तुम्हारी याद आई, खासकर तुम्हारी प्रतिबद्धता के संदर्भ में। जल्द अच्छे हो जाओ और सक्रिय भी। शेष मिलने पर।
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