Monday, November 10, 2008

विष्णु नागर की एक पुरानी कविता



मेरे भाई ने लिखी चिट्ठी
लिखा आना
आना कि इस बार
बहन भी आ रही है
आना तो ख़ूब मज़ा रहेगा

गांव से भाई कहे आना
तो मैं क्यों न जाऊं?

मैं आऊंगा भाई
सोचना मत कि कैसे आऊंगा
800 मील की दूरी भी
बीड़ी पीते पार हो जायेगी
बीड़ी फिर भी न होगी खत्म
(1977-78)

Saturday, November 8, 2008

आबिद आलमी की दो गज़लें



आबिद आलमी यानी रामनाथ चसवाल. ४ जून १९३३ को रावलपिंडी की गूज़रखान तहसील के ददवाल गाँव में पैदा हुए और १९४७ में हरियाणा (तब पंजाब का ही हिस्सा) आये. शायरी को बेहद पाक मानते हुए शायर होने के `दंभ' से पूरी तरह दूर रहे और सुखन के कारोबारियों का क्या पड़ी कि उन पर गौर फरमाते. फिर विभिन्न कॉलेजों में अंग्रेजी अध्यापन और बतौर शिक्षक संगठनकर्ता दिन-रात खपते हुए आलमी साहब को इस सबकी की परवाह करने की फुर्सत भी नहीं थी. वे बीमारी से जूझते हुए ९ फरवरी १९९४ को दुनिया से रुखसत हुए. प्रदीप कासनी की कोशिशों से उनका संग्रह `अलफाज़' आधार प्रकाशन से साया हुआ है.

(1)
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घरौंदे नज़रे-आतिश और ज़ख्मी जिस्मो-जां कब तक
बनाओगे इन्हें अख़बार की यों सुर्खियाँ कब तक

यूँ ही तरसेंगी बाशिंदों की खूनी बस्तियाँ कब तक
यूँ ही देखेंगी उनकी राह गूंगी खिड़कियाँ कब तक

नहीं समझेगा ये आखिर लुटेरों की जुबां कब तक
हमारे घर को लुटवाता रहेगा पासबाँ कब तक

रहीने-कत्लो-गारत यूँ मेरा हिन्दोस्तां कब तक
लुटेंगी अपनों के हाथों ही इसकी दिल्लियाँ कब तक

कहो सब चीखकर हम पर बला का कहर टूटा है
कि यूँ आपस में ये सहमी हुई सरगोशियाँ कब तक

गिरा देता है हमको ऊंची मंजिल पर पहुँचते ही
हम उसके वास्ते आखिर बनेंगे सीढियाँ कब तक

यूँ ही पड़ती रहेगी बर्फ़ ये कब तक पसे-मौसम
यूँ ही मरती रहेंगी नन्ही-नन्ही पत्तियाँ कब तक

कहीं से भी धुआं उठता जब घर याद आता है
यूँ ही सुलगेंगी मेरी बेसरो-सामानियाँ कब तक

हमारे दम से है सब शानो-शौकत जिनकी ऐ `आबिद'
उन्हीं के सामने फैलायेंगे हम झोलियाँ कब तक


(2)
रात का वक़्त है संभल के चलो
ख़ुद से आगे ज़रा निकल के चलो

रास्ते पर जमी हुई है बर्फ़
अपने पैरों पै आग मल के चलो

राह मकतल की और जश्न का दिन
सरफ़रोशो मचल मचल के चलो

खाइयाँ हर कदम पे घात में हैं
राहगीरो संभल संभल के चलो

दायें बायें है और-सा माहौल
राह `आबिद' बदल बदल के चलो

Painting : Iraqi artist, Jabel Al-Saria, 2006.

Monday, November 3, 2008

`ख़ामोशी ही से निकले है जो बात चाहिए`



मनमोहन की कविता और उसका मिज़ाज - असद ज़ैदी
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एक कवि और कवि-चिन्तक के रूप में मनमोहन काफी समय से मशहूर हैं ; उनकी अपनी तरह की शोहरत रही है- ऐसी शोहरत जो शोहरत के औजारों का इस्तेमाल किए बिना, सिर्फ़ उनके काम की पहचान से बनी है। तब भी वरिष्ठ होने के कगार पर खड़े हिन्दी कवियों में मनमोहन ही ऐसे हैं जिनका नाम अक्सर सूचियों में नहीं होता। हिन्दी का आलोचना प्रतिष्ठान, जो इन फेहरिस्तों को वक्त-वक्त पर जारी करता है, आम तौर पर वोटर लिस्ट के नवीनीकरण की पद्धति से काम करता है; या तो जब उनके आदमी मोहल्लों में आए हुए हों तो आप घर और मुहल्ले में मौजूद मिलिए या निश्चित तिथि तक उनके दफ्तर जाकर विधिवत प्रार्थनापत्र देकर और समुचित प्रमाण संलग्न करके अपना नाम दर्ज करा आइये। फिर यह चौकसी रखिये कि आपका नाम, पता, उम्र वगैरा सही सही दर्ज हैं या नहीं - कई बार दर्ज नाम तकनीकी आधारों पर खारिज हो सकता है। मनमोहन का नाम अब से तीन-चार पहले तक फेहरिस्तों में अगर नहीं था तो मनमोहन की अपनी लापरवाही या बेगानगी तो एक गौण कारण है: एक कारण बताया जाता था कि एक सुनिश्चित पते - यानी पुस्तक रूप में प्रकाशित संग्रह - का अभाव। आखिरकार ढाई साल पहले उनका कविता संग्रह `ज़िल्लत की रोटी` एक नामी प्रकाशनगृह से छपकर आया और यह झंझट ख़त्म हुआ। अब अध्यापकों और आलोचकों के रजिस्टरों में उन्हें हाज़िर दर्ज किया जाता है। पर यह एक मामूली रद्दो-बदल है।

मनमोहन के सिलसिले में वोटर लिस्ट या हाज़िरी रजिस्टर के रूपक खींचने के पीछे एक वजह और एक मंशा है। जैसा कि ज़िक्र हुआ है, मैं नहीं समझता कि हिंदी कविता का पाठक मनमोहन की कविता से परिचित नहीं था या उनके समकालीन कवि उनकी उपस्थिति से नावाक़िफ़ थे। उनकी आवाज़ अपनी पीढ़ी की प्रतिनिधि आवाज़ों में है। उनमें शुरू से ही हर अच्छे और रैडिकल युवा कवि की तरह उपलब्ध काव्य संसार के प्रति असंतोष का जज़्बा और उसके नैतिक पुनर्गठन की ज़रूरत का अहसास रहा है। यह उनका एक बुनियादी सरोकार है। वह उन गिने चुने कवियों में हैं जिन्होंने समकालीन हिंदी कविता के व्याकरण और मुहावरे को बनाने का और पुराने नियमों और परिपाटियों को बड़ी समझदारी से और धैर्य के साथ बदलने का बुनियादी काम किया है। उनकी कविता सत्तर और अस्सी के दशक में उभरी समकालीन कविता के अवचेतन में समाई हुई है। इस तरह की मौजूदगी और इसकी एतिहासिकता समकालीन हिंदी कविता की मूल्यवान धरोहर है।
लिहाज़ा यह एक विचारणीय विषय है क जो कविता अपने समय की रचनाशीलता के संवेदन बिंदुओं बल्कि स्नायु तंत्र के इतना नज़दीक रही है, वह आलोचना, शोध और विवेचना की स्थापित व्यवस्थाओं की पहुंच से इतना दूर क्यों थी? इस सवाल का संबंध हमारे साहित्य के समाजशास्त्र से भी है और संस्कृति की राजनीति से भी। हिंदी साहित्य की शोध और विमर्श की विभिन्न परंपराओं के बीच इतिहास और संस्कृति के बुनियादी सवालों को लेकर एक डरावनी और दीर्घकालीन सहमति का माहौल है। हिंदी भाषा और साहित्य के राज्य-समर्थित और वेतन-पोषित उद्योग से जुड़े लोगों के दरम्यान प्रगतिशीलता, यथास्थितिवाद और दक्षिणपंथी परंपरावाद एक दूसरे के विकल्प बनकर कम, पूरक बनकर ज़्यादा आते हैं - इनकी ट्रेड यूनियन एक है और नई यूनियन कभी बनी नहीं। मनमोहन की कविता और आलोचना इस सुलह (या अकबरकालीन `सुल्हे-कुल') को चुनौती देती है। हिंदी की लोकतांत्रिक समकालीन कविता और आलोचना व्यवस्था के बीच, या दूसरे शब्दों में सार्थक, प्रतिबद्ध रचनाशीलता और हिंदी प्रतिष्ठान के बीच जो मूल अंतर्विरोध है, वह इसी `पोलिटकल इकोनमी' से निकलता है। नेहरू-युग में ही फल-फूलकर परवान चढ़ चुकी इस राजनीतिक-सांस्कृतिक सर्वानुमति के मद्देनज़र आलोचनात्मक और काव्यात्मक विपक्ष का काम भी कवि-रचनाकार को ही करना पड़ा है - न सिर्फ़ काव्य-व्यवहार के बल्कि चिंतन और विमर्श के स्तर पर, और काव्यालोचना के स्तर पर। मुक्तिबोध से शुरू होकर रघुवीर सहाय से होता हुआ यह सिलसिला मनमोहन तक चला आता है।
इस अर्थ में मनमोहन की उपस्थिति गौण उपस्थिति नहीं, अपने दौर की एक प्रधान और प्रभावशील उपस्थिति है। उन्होंने प्रगतिशील और जनवादी परंपरा की हिफ़ाज़त करने और नई परिस्थिति में उसकी जोत जलाए रखने का काम किया है। यह काम सिर्फ़ वैकल्पिक राजनीति की हिमायत में खड़ा होना नहीं है, बल्कि कविता और काव्य चिंतन के मैदाने-अमल में इसको तब्दील करने, अपनी राह ढूंढने और रास्ता बनाने का काम है। जो इस खामोश मेहनत को नहीं पहचानते, वे मनमोहन की कविता की गहराइयों और मुश्किलों को ठीक से नहीं देख पाएंगे। ग़ालिब का एक अमर शे`र - जो अक्सर अमर चीज़ों की तरह आजकल भुला दिया गया है - याद आता है :
नश्वो-नुमा है अस्ल से ग़ालिब फ़ुरो` को
ख़ामोशी ही से निकले है जो बात चाहिए

ग़ालिब ने ख़ामोशी को जड़ (मूल, अस्ल) और बातों को उससे निकलती टहनियां (फ़ुरो`,शाखें) कहा है। मनमोहन के काम में और उनके काम की दुनिया में ख़ामोशी और बातों का रिश्ता ठीक एसा ही है।
इस टिप्पणी के अंत में मैं वे बातें दोहरा दूं जो मैंने `ज़िल्लत की रोटी' के प्रकशन के मौके पर कही थीं। ये मनमोहन के रचना संसार की संपूर्णता या उसकी चुनौतियों का अहाता तो नहीं करतीं, पर उनकी कविता की कुछ ख़ूबियों को ज़रूर बयान करती हैं :
मनमोहन की कविता में वैचारिक और नैतिक आख्यान का एक अटूट सिलसिला है। उनके यहां वर्तमान जीवन या दैनिक अनुभव के किसी पहलू, किसी मामूली पीड़ा या नज़ारे के पीछे हमेशा हमारे समय की बड़ी कहानियों और बड़ी चिंताओं की झलक मिलती रहती है : वह मुक्तिबोधियन लैंडस्केप के कवि हैं। उनकी भाषा और उनके शिल्प को उनके कथ्य से अलग करना नामुमकिन है। यहां किसी तरह की कविताई का अतिरिक्त दबाव या एक वैयक्तिक मुहावरे के रियाज़ की ज़रूरत नहीं है, एक मुसलसल नैतिक उधेड़बुन है जो अपने वक्त की राजनीतिक दास्तानों और आत्मीय अनुभवों के पेचदार रास्तों में गुज़रकर उनकी भाषा और शिल्प को एक विशिष्ट `टेक्सचर' और धीमा लेकिन आशवस्त स्वर, और एक वांछनीय ख़ामोशी प्रदान करती हैं। मनमोहन अपनी पीढ़ी के सबसे ज़्यादा चिंतामग्न, विचारशील और नैतिक रूप से अत्यंत शिक्षित और सावधान कवि हैं। एक मुक्तिबोधीय पीड़ा और महान अपराधबोध उनके काव्य संस्कार में हैं, इन्हें एक रचनात्मक दौलत में बदलने की प्रतिभा और तौफ़ीक़ उनके पास है, और इनका इस्तेमाल उन्होंने बड़ी विनम्रता, वस्तुनिष्ठता और सतर्कता से किया है।
मनमोहन उस जगह के कवि हैं जहां `अपनी आवाज़ ने बताया/कितनी दूर निकल आये हम/अपनी आवाज़ ने बताई/निर्जनता'। वह ऐसे समय के कवि हैं जहां `अगर जीवित मित्र मिलता है/उससे ज़्यादा उसकी स्मृति उपस्थिति रहती है।' जहां मां एक `अजनबी स्त्री के वेश में' आकर अपने गंजे होते अधेड़ बेटे को `सपने में जगाती है' और `भूखी हूं' यह `पूरे तीस साल बाद' बताती है। जहां शोकसभा में आये लोग ख़ुद `पहले ही कहीं जा चुके हैं'। या जहां लोग कभी मिल नहीं पाते, सिर्फ़ उनकी छायाएं आपस में मिलती हैं।
मनमोहन की कविता में एक `गोपनीय आंसू' और एक `कठिन निष्कर्ष' है। इन दो चीज़ों को समझना आज अपने समय में कविता और समाज के, राजनीति और विचार के, और अंतत: रचना और आलोचना के रिश्ते को समझना है।

मनमोहन की कुछ कविताएं

मेरी ओर

मैं तुम्हारी ओर हूं

ग़लत स्पेलिंग की ओर
अटपटे उच्चारण की ओर

सही-सही और साफ़-साफ़ सब ठीक है
लेकिन मैं ग़लतियों और उलझनों से भरी कटी-पिटी
बड़ी सच्चाई की ओर हूं

गुमशुदा को खोजने हर बार हाशिए की ओर जाना होता है
कतार तोड़कर उलट की ओर
अनबने अधबने की ओर

असम्बोधित को पुकारने
संदिग्ध की ओर
निषिद्ध की ओर
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यकीन

एक दिन किया जाएगा हिसाब
जो कभी रखा नहीं गया

हिसाब
एक दिन सामने आएगा

जो बीच में ही चले गए
और अपनी कह नहीं सके
आएंगे और
अपनी पूरी कहेंगे

जो लुप्त हो गया अधूरा नक्शा
फिर खोजा जाएगा
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उम्मीद

आज
कमरे का एक कोना छलक रह है

माँ की आँख
बालक का हृदय छलक रहा है

छलक रह है एक तारा
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इच्छा

एक ऐसी स्वच्छ सुबह मैं जागूँ
जब सब कुछ याद रह जाय

और बहुत कुछ भूल जाय
जो फालतू है
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अपनी आवाज़ ने

अपनी आवाज़ ने बताया
कितनी दूर निकल आये हम

अपनी आवाज़ ने बताई
निर्जनता
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हमारा जातीय गौरव

आधी से ज़्यादा आबादी
जहां खून की कमी की शिकार थी
हमने वहां ख़ून के खुले खेल खेले

हर बड़ा रक्तपात
एक रंगारंग राष्ट्रीय महोत्सव हुआ

हमने ख़ूब बस्तियां जलाईं
और खूब उजाला किया

और छत पर चढ़कर चिल्लाकर कहा
देखो, दुनिया के लोगो
देखो हमारा जातीय गौरव!
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उसकी थकान

यह उस स्त्री की थकान थी
कि वह हंस कर रह जाती थी

जबकि वे समझते थे
कि अंतत: उसने उन्हें क्षमा कर दिया है
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उसकी पीठ

उसकी पीठ
जब जाने के लिए मुड़ती है
तो उसी क्षण एक सूनी, अकेली और निष्ठुर जगह बनाती है
जो अनिवार्य है

जाते हुए उसकी पीठ को देखना
ठीक ठीक सबसे ज़्यादा अपने साथ होना है
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तुम्हारा प्यार

यह स्त्री डरी हुई है
इस तरह
जैसे इसी के नाते
इसे मोहलत मिली हुई है

अपने शिशुओं को जहां-तहां छिपा कर
वह हर रोज़ कई बार मुस्कुराती
तुम्हारी दूरबीन के सामने से गुज़रती है

यह उसके अंदर का डर है
जो तुममें नशा पैदा करता है

और जिसे तुम प्यार कहते हो
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