Friday, March 13, 2009

जी, वही मुज़फ़्फ़रनगरी



मेरी पिछली पोस्ट पर एक बेनामी टिप्पणी आई है - 'वाह-वाह! क्या बात है! "वही धीरेश मुज़फ़्फ़रनगरी है शायद"... (शमशेर जी से क्षमायाचना के साथ). ऐसे ही लिखते रहो प्यारे भाई. शमशेर जी ने यह पढा होता तो खुश होते. कुछ अपने बचपन की बातें बताते, कुछ तुम्हारा हाल पूछते...।'

लगता है कि बेनामी कोई परिचित ही हैं। नहीं जानता कि वे बेनामी क्यों बने। दरअसल मैं अक्सर 'जी को लगती है तेरी बात खरी है शायद/वही धीरेश मुज़फ़्फ़रनगरी है शायद' बोल दिया करता था और फिर शमशेर जी का सही शेर पढ़ता था, क्षमायाचना के साथ। दरअसल, अपने शहर बल्कि पूरे जिले की पहचान बेहद नकारात्मक वजहों से बना दी गई है। मुज़फ़्फ़रनगर यानी क्राइम केपिटल। यहां की सियासत यानी बूथ कैप्चरिंग, दबंगों की धींगामस्ती और सांप्रदायिक दंगे। समाज सेवा भी लगभग असामाजिक कृत्यों जैसी। मुद्दत पहले खंदरावली गांव में हुई प्रेमी युगल की हत्या की चर्चित वारदात पर कोई 'समाजसेवी' शर्मिंदा नहीं हुआ था। सामाजिकता के नाम पर प्रेमी जोड़ों की हत्याओं के कीर्तिमान गढ़ने का सिलसिला जारी ही है। गन्ने और गुड़ के उत्पादन में अगुआ इस जिले की किसान राजनीति भी ऐसी कि अति पछड़े और दलित थरथरा कर रह जाएं।

एक ऐसी जगह जहां युवाओं के 'हीरो' माफिया और दबंग राजनीतिज्ञ हों, वहां जी को लगती खरी बात कहने वाला कोई शमशेर हुआ। यह बात कम से कम मुझे मुज़फ़्फ़रनगरी होने के गौरव का मौका देती है। वर्ना 1999 में अमर उजाला ने मुज़फ़्फ़रनगर से यमुनापार करनाल (हरियाणा) भेजा तो मुज़फ़्फ़रनगर का बाशिंदा होने के नाते कई लोगों ने कमरा किराए पर देने से मना कर दिया था। दूसरी ओर, एक प्रोफेसर अबरोल थे जो शमशेर मुज़फ़्फ़रनगरी वाला शेर सुनकर खुश हो गए। अलबत्ता उन्होंने शमशेर के मुज़फ़्फ़रनगरी होने और जाट परिवार से होने पर प्यार से चुटकी जरूर ली थी। अब ये शमशेर के इस शेर का कमाल ही था कि कई बड़े साहित्यकारों ने मुझे लगाव बख्शा। आलोक धन्वा ने तो बाकायदा वायदा लिया कि मैं मुज़फ़्फ़रनगर में शमशेर की याद में कुछ शुरू करुंगा। उन्होंने मुझे बीच में कई बार इस बारे में याद भी दिलाया। अचानक बीमारी ने बेहाल कर दिया और मैं हाल नवंबर में लौटकर बुद्धु की तरह गांव गया तो असद जैदी ने भी शमशेर के गांव जाने का कई बार सुझाव दिया। पर, मेरी हालत तेजी से बदतर होती गई और मैं ठंड़ से बचने के लिए केरल भाग लिया।

हर किसी के अपने शहर की तरह मुज़फ़्फ़रनगर मुझे बेहद अजीज़ है। एक शहर जो मेरी आरजुओं का शहर रहा, जहां मेरे खाब बनते-टूटते रहे और जहां मुझे मुहब्बतें और बदनामियां नसीब हुईं। ऐसे वतन की बुराइयां गिनाना वाकई बेवफाई है मगर मुझे लगता है कि इस बदहाली पर लानतें न भेजना और भी ज्यादा बेवफाई होगी। अर्ज यह कि मुज़फ़्फ़रनगर जिले के बाशिंदों को कोई अहसास दिलाए कि यहां किराना (जिले का कैराना कस्बा) जैसे संगीत घराने और अहसान दानिश जैसे शायरों की भी लंबी गौरवशाली परंपरा है। इसका मैं यदा-कदा उल्लेख भी करना चाहता हूं।

बहरहाल, अपने इस महान मुज़फ़्फ़रनगरी के ये शेर-


जी को लगती है तेरी बात खरी है शायद
वही शमशेर मुज़फ़्फ़रनगरी है शायद

आज फिर काम से लौटा हूँ बड़ी रात गए
ताक़ पर ही मेरे हिस्से की धरी है शायद

मेरी बातें भी तुझे ख़ाबे-जवानी-सी हैं
तेरी आँखों में अभी नींद भरी है शायद!

10 comments:

Manish Kumar said...

रुड़की में रहते हुए हम भी मुजफ्फरनगर की बदनाम पहलुओं से ही ज्यादा वाजिफ़ रहे। इतनी बातें होती रहीं पर कभी ये चर्चा में नहीं आया कि इस भूमि ने इतने महान शायर भी पैदा किए। सुक्रिया मेरी जानकारी में इज़ाफा करने के लिए .

वर्षा said...

वाह जी वाह

Ek ziddi dhun said...

इस पोस्ट पर श्री असद ज़ैदी का मेल (राज की बात शीर्षक से) मिला है जिसका कुछ हिस्सा यूं है--

`....मुज़फ्फरनगर का ज़िक्र चल ही रहा है, और इस जनपद की दो महान
हस्तियों – शमशेर बहादुर सिंह और अब्दुल करीम खाँ – का नाम लिया जा चुका
है तो मैं भी कुछ नाम जोड़ दूं : उर्दू के अफ़सानानिगार इन्तिज़ार हुसैन
(जन्म 1923) डिबाई के हैं, और मशहूर मार्क्सवादी चिन्तक और साहित्यालोचक
एजाज़ अहमद कैड़ी के हैं. मुज़फ्फरनगर में यह राज़ किसी को बता न देना.'

असद

--
Three Essays Collective
B-957 Palam Vihar
GURGAON (Haryana) 122 017
India

Nakul said...

mujaaaferpur wale ab sarif dikhne ke liye paresaan hai our samsher ke naam ka sahara le rahe hai. khud samser bhi sarminda rahe honge ki kaha mujjaferpuriyon ke beech phas gaye...

Ek ziddi dhun said...

मुजफ्फररपुर नहीं, मुजफ्फरनगर। रही शर्मिंदा होने की बात तो इस वक्त तो हर शहर अपने बाशिंदों पर शर्मिंदा है।

Ashok Pande said...

असद जी की मेल quote कर के आपने पोस्ट को और समृद्ध कर दिया धीरेश भाई!

Ek ziddi dhun said...

अशोक भाई,क्या खूबसूरत संयोग है कि आप पर भी मैं शमशेर के अंग्रेजी अनुवाद की किताब पढ़कर ही फिदा हुआ था। और ये दीवानगी कायम है। वो किताब तो मनमोहन-शुभा के घर है और उसे दोबारा उपलब्ध कराने का वादा आपने पूरा नहीं किया। सो शिकायत भी कायम है।

नीलोफर said...

तो शुभा की सौत आप हो। इसीलिए आपके ब्लाग का नाम एक जिद्दी धुन है।

Anonymous said...

Aaj bahut dino baad tumhari yaad aai to socha tumhara kuchh likha padhun. achchha laga ki aag aaj bhi kayam hai. dharmvir
dvharyana@gmail.com

vikalp thinking said...

कौन कहता है की मुज़फ्फरनगर अपने बाशिंदों पर शर्मिंदा है? या मुज़फ्फरनगर एक अच्छी जगह नहीं है... साहित्य के बात करे तो दुष्यंत और विष्णु प्रभाकर, रविंद्रनाथ त्यागी, ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे लोग मुज़फ्फरनगर के ही रहने वाले है, पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली हो या फिजी के महेंद्र सिंह ... यहाँ के बाशिंदों ने सदा इस शहर को गौरवान्वित किया है ... यूँ के ऊँगली रखो और गलती समझ न आये तो देश का एक कौना बता दीजिये... खैर जो भी हो आपका ये ब्लॉग पढ़ कर बहुत सुखद एहसास हुआ, और साथ ही शमशेर जी को पढने की इच्छा व्यक्त हुई... और मेरे जैसे लोग अपनी मिटटी से बहुत प्यार करते है और आप लोगों की शिकायत एक दिन जरूर कम कर देंगे .... विकल्प त्यागी
मुज़फ्फरनगर / इंदौर