Thursday, March 19, 2009

वरुण गांधी जैसी भाषा बोलता ब्लॉग


आप गौर करें इन दिनों एक ब्लॉग संचालक व उस पर अवतरित हो रहे `हिंदी साहित्यकारों ' की भाषा और वरुण गांधी की भाषा में कोई फर्क नहीं मिलेगा। यह ऐसी कुटिल भाषा है जो अपनी लफंगई और बेशर्मी का लाभ चाहती है। इनमें से एक तो बाकायदा नवजागरण के `पुरोधा' है, `क्रांतिकारी' हैं पर उनके साथ ये विशेषण वैसे ही हैं जैसे वरुण के साथ गांधी शब्द चिपका है। एक साहित्यकार हैं जो कुछ वक्त पहले खुद युवा लेखन पर एक टिप्पणी को लेकर बुरी तरह पिट रहे थे। हालांकि अपना मानना यही रहा है कि उस टिप्पणी में उनके कुछ जेनुइन कंसर्न थे जिन पर गौर करने के बजाय उन पर लफंगई ढंग के हमले शुरू कर दिए गए थे। हैरानी की बात यह है कि अब वे खुद ऐसी भाषा पर उतर आए हैं। एक पत्रकार महोदय हैं, जिनके लिए साहित्य महज किसी खबरी तड़के की तरह है। हालांकि पिछले दिनों वे खुद शर्मनाक आरोपों से घिरे हुए थे। हिंदी पट्टी का यह घोर दुर्भाग्य ही है।
अपने प्रिय कवि-विचारक मंगलेश डबराल पर किए जा रहे घटिया हमलों की निंदा करते हुए मैं अपने मित्रों के साथ उनकी कुछ कविताएं ही पढ़ना चाहता हूं -

अभिनय
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एक गहन आत्मविश्वास से भरकर
सुबह निकल पड़ता हूँ घर से
ताकि सारा दिन आश्वस्त रह सकूँ
एक आदमी से मिलते हुए मुस्कराता हूँ
वह एकाएक देख लेता है मेरी उदासी
एक से तपाक से हाथ मिलाता हूँ
वह जान जाता है मैं भीतर से हूँ अशांत
एक दोस्त के सामने ख़ामोश बैठ जाता हूँ
वह कहता है तुम दुबले बीमार क्यों दिखते हो
जिन्होंने मुझे कभी घर में नहीं देखा
वे कहते हैं अरे आप टीवी पर दिखे थे एक दिन


बाज़ारों में घूमता हूँ निश्शब्द
डिब्बों में बन्द हो रहा है पूरा देश
पूरा जीवन बिक्री के लिए
एक नई रंगीन किताब है जो मेरी कविता के
विरोध में आई है
जिसमें छपे सुन्दर चेहरों को कोई कष्ट नहीं
जगह जगह नृत्य की मुद्राएँ हैं विचार के बदले
जनाब एक पूरी फ़िल्म है लम्बी
आप ख़रीद लें और भरपूर आनन्द उठाएँ


शेष जो कुछ है अभिनय है
चारों ओर आवाज़ें आ रही हैं
मेकअप बदलने का भी समय नहीं है
हत्यारा एक मासूम के कपड़े पहनकर चला आया है
वह जिसे अपने पर गर्व था
एक ख़ुशामदी की आवाज़ में गिड़गिड़ा रहा है
ट्रेजडी है संक्षिप्त लम्बा प्रहसन
हरेक चाहता है किस तरह झपट लूँ
सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार ।
(1990)


पत्तों की मृत्यु
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कितने सारे पत्ते उड़कर आते हैं
चेहरे पर मेरे बचपन के पेड़ों से
एक झील अपनी लहरें
मुझ तक भेजती है
लहर की तरह कांपती है रात
और उस पर मैं चलता हूं
चेहरे पर पत्तों की मृत्यु लिए हुए

चिड़ियां अपने हिस्से की आवाज़ें
कर चुकी हैं लोग जा चुके हैं
रोशनियां राख हो चुकी हैं
सड़क के दोनों ओर
घरों के दरवाज़े बंद हैं
मैं आवाज़ देता हूं
और वह लौट आती है मेरे पास.
(1979)


कविता
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कविता दिन-भर थकान जैसी थी
और रात में नींद की तरह
सुबह पूछती हुई :
क्या तुमने खाना खाया रात को?
(1978)


Fascism Grows in Black Rain Painting by Adam Gillespie

8 comments:

Ek ziddi dhun said...

ये पोस्ट देर रात की थी किंतु कुछ तकनीकी भूल की वजह से यह डिलीट कर दोबारा साया की गई है। इस पर शिरीष जी का जो कमेंटआया था वो यूं है-
शिरीष कुमार मौर्य said...
कविता दिन-भर थकान जैसी थी
और रात में नींद की तरह
सुबह पूछती हुई :
क्या तुमने खाना खाया रात को?
- - -
ये जो हो रहे हैं महज हमले नहीं हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि हमलावरों के दिमाग़ में बुराई का हमल ठहर गया है!
बहुत ज़रूरी और ईमान वाली पोस्ट! शुक्रिया धीरेश भाई!

Udan Tashtari said...

कवितायें अच्छी लगी.

Anonymous said...

मंगलेश डबराल की कवितायें पढ़वाने के लिए शुक्रिया.
हमें नहीं पता है कि आपका इशारा किस ब्लॉग की और है पर इतना जरूर है कि अपने ब्लॉग जगत में वरुण जैसी भाषा बोलने वाले एक नहीं कई ब्लॉग हैं. इनके लिए बेहतर शब्द छद्म राष्ट्रवादी है

Nakul said...

Baat Manglesh ki nahi hai..manglesh bade kavi hai..baat manglesh chalisa likhne walo ki hai..dheeresh mujjafari bhi chalisa likhne walo me samil ho jaye to ashcharya nahi hoga.

Kavita Vachaknavee said...

रचनाओं से गुज़रना अच्छा लगा।

Rajesh Sharma said...

These poems leave the heart empty and harrowed. So much pain! With such restraint! Sahitya Zindabad!

Anonymous said...

छद्मधर्मनिर्पेक्षता वादियों का नया इंवेंशन छद्म राष्ट्रवाद :) अच्छी बौखलाहट है।

Unknown said...

देखिये, यह प्रकरण हिंदी जगत के दारिद्रय को उजागर करता है. रचनाओं के बजाय तमाम कुंठाओं के प्रदर्शन पर शक्ति लगायी जा रही है. अब क्या इससे इनकार किया जा सकता है कि जलेस हो या जसम सब जगह एक पतन जैसा वातावरण बढ़ रहा है. विचार से कन्नी कट जाने पर ऐसा ही होता है. मंगलेश जी की पीढी भी अछूती नहीं इससे.
जो कुछ ब्लॉग और पत्रिकाएं कर रही हैं, वह नितांत निंदनीय है. मंगलेश जी अच्छे, बहुत अच्छे कवी हैं, हालाँकि असद आदि की तरह यह कहना बेवकूफी है कि वे बस महानतम कवी या संत व्यक्ति हैं, जैसे असद जैसे बेहतरीन कवि को कुछ कथित महान मुसलमान कवि बताने लगे थे. ये सब ऐसा ही है जैसे कोई यौन कुंठित हिंदी अध्यापक दिल्ली विवि से पत्रिका छापकर राजेश जोशी को महानतम कहने लगा था. या फिर केदारनाथ सिंह ने तमाम उम्र इसी बात में लगा दी कि किसी तरह रघुवीर सहाय छोटे कवि साबित हो जाएँ. एक-आध को छोड़ दें तो कम ज्यादा लगभग सभी पुरस्कार और नंबर १, नंबर २ की सियासत करने वाले कवि दिखाई दे रहे हैं. मंगलेश भी अपवाद नहीं हैं पर कर्मेंदु जैसे घटिया लोग कहाँ के साहित्यकार हैं, समझ नहीं आता. बेहतर हो कि लेखक और पाठक दोनों विचारधारा के स्टार पर लड़ें. नामवर सिंह की तरह नहीं.
......कवितायेँ बहुत अछि हैं और मंगलेश जी के रचनात्मक शिखर का परिचय हैं.