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निमंत्रण
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जे एन यू के हमारे गुरु और भारतीय साहित्य के गौरव पुरुष
डाक्टर नामवर सिंह
के जन्म दिन पर
आइए उनके साथ रात का भोजन करें.
हमारे निवास १५ लोधी स्टेट, नई दिल्ली-३ में
२९ जुलाई २००९ को शाम ७ बजे से आपके आने तक.
आपके
पुतुल सिंह
दिग्विजय सिंह
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नामवर सिंह ८३ के हो चुके हो चुके हैं। ८० के होने के बाद उनकी उपाधियाँ तेजी से बढ़ रही हैं। `आलोचना का शीर्ष पुरुष` पहले `हिन्दी साहित्य का शीर्ष पुरुष` हुआ और अब `भारतीय साहित्य का गौरव पुरुष` हुआ। नया तमगा उन्हें पुतुल सिंह और दिग्विजय सिंह ने उनके सम्मान में दिए जा रहे रात्रिभोज के निमंत्रण पत्र में दिया है। जल्द वे `विश्व साहित्य के शीर्ष या गौरव पुरुष` कहलावें, ऐसी अपनी शुभकामना है। हैप्पी बर्थडे।
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दावत के मेजबान दिग्विजय सिंह वही ठाकुर साहेब हैं जो एक्स पी एम चंद्रशेखर के मंत्रिमंडल में शामिल थे। बाद में वे बीजेपी की सरपरस्ती में बनी सरकार में भी मंत्री रहे। कृपया तिल का ताड़ न बना दीजियेगा। ये किसी का भी निजी मसला है कि कोई किस सरकार में मंत्री बने और कोई किसे अपनी दावत का प्रायोजक बनाये। अपने प्रगतिशील लेखक संघ के `शीर्ष पुरुष` के फंडे तो यूँ भी साफ हैं और अब उन्होंने उदय प्रकाश सिंह के योगी आदित्यनाथ के हाथों `सम्मानित` होने के मसले में भी इसका सबूत इस तरह दिया है - `किसी लेखक का मूल्यांकन उसकी साहित्यिक कृतियों से ही होगा। तिल का ताड़ बनाना अच्छा नहीं।`
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नामवर सिंह के फंडे हमेशा ही साफ़ रहे हैं। शायद ही कभी किसी घड़ी में कोई फ़ैसला लेते उन्हें किसी तरह की झिझक रही हो। जाने कितने आपातकाल और कितने विध्वंस इस शीर्ष पुरुष ने आखिर यूँ ही खुशी-खुशी नहीं गुजर जाने दिए। २८ जुलाई को उनका हैप्पी बर्थडे दिल्ली में ही त्रिवेणी सभागार में मान्य गया, वहां उन्होंने कम से कम दो साल और जीने का संकल्प लिया और जनता ने उनसे कम से कम सौ साल जीने की गुजारिश की। इस मुश्किल वक्त में वे हर जटिल मसले पर हमेशा की तरह निश्चिंत रहें, द्वंद्व और बेचैनी को पास न फटकने दें तो निश्चय ही उनके सानिध्य से इस कलि काल में जनता को प्रेरणा मिलती रहेगी।
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त्रिवेणी सभागार में वक्ताओं को बोलने के लिए शीर्षक दिया गया था - `जेएनयू में नामवर सिंह`। मगर रामाधिकार कुमार यानी आर कुमार यानी जेएनयू के रेक्टर यानी नेक्स्ट टू वी सी कुछ ऐसे भावुक हुए कि नामवर सिंह को भूलकर जेएनयू के छात्रों और छात्र आन्दोलन पर बरसते रहे। अपने नॉन स्टॉप लंबे भाषण में वे आरक्षण की बखिया भी उधेड़ते चले। जेएनयू की जुझारू छात्र राजनीति का हिस्सा रहे कई भूतपूर्व छात्र इस प्रवचन के दौरान असमंजस में रहे (शर्मसार होते रहे? )। लीलाधर हमेशा की तरह निश्चिंत मंद-मंद मुस्कारते रहे । अलबत्ता जेएनयू के एक छात्र से न रहा गया और उसने झूठ बोल रहे रेक्टर को ललकारा. लीलाधर फिर भी मुस्कराते रहे, मानो कह रहे हों, `कैसी नादानी कर बैठे वत्स? मैंने भी छात्रों के साथ यही सुलूक किया था। विरोध करने वाले प्रतिभाशाली छात्रों का क्या हश्र हुआ और मलाई छात्रों की किस भक्त जमात को मिली, यह तो पहचानते वत्स`.
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रामाधिकार कुमार भले ही नामवर पर कम बोले पर जो कुछ वाक्य उन्होंने इस बारे में उच्चारित किए, काफी से ज्यादा ही थे। उन्होंने भारतीय भाषा केंद्र की स्थापना से लेकर जेएनयू में जाने क्या-क्या रच देने का श्रेय नामवर के श्री चरणों में अर्पित किया। यह बात अलग कि भारतीय भाषा केन्द्र की स्थापना के पीछे सक्रिय रहे उस समय के छात्रों में से एक इस अर्पण पर गुस्से में जलते-भुनते रहे। नामवर बोलने उठे तो उन्होंने नीलकंठ की तरह झूठ के गरल को भी खुशी-खुशी यह कहकर स्वीकार किया कि मैं तो मात्र निमित्त हूँ।
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गुरुजी के शिष्यों ने अलबत्ता दक्षिणा देने में कंजूसी की। उन्होंने गुरुजी की ढेरों बड़ी उपलाब्धियों का जिक्र ही नहीं किया। किसी ने नहीं कहा कि नामवर जी राजस्थान से जेएनयू में सावित्री चंद्रा (जिनकी एकमात्र योग्यता थी यू जी सी के तात्कालीन चेयरमैन सतीश चंद्रा की पत्नी होना ) को रीडर नियुक्त करने के लिए बुलाये गए थे। बाद में नामवर जी जेएनयू के हो ही जाने थे। बताते हैं कि इन्हीं सावित्री चंद्रा ने अपने साहित्य शोध में किसी मिठाई बनाने की विधि भी लिखी थी.
किसी ने नामवर जी की गुरुभक्ति का भी जिक्र नही किया कि कैसे उन्होंने बनारस में अपने गुरुजी का मकान बनाने वाले चिंतामणि को जेएनयू में अध्यापक बनाकर गुरु दक्षिणा दी थी।
किसी ने यह भी नहीं बताया कि इन दो अध्यापकों की अयोग्यता से परेशान हिंदी के छात्रों ने उनकी क्लास का बहिष्कार किये रखा था। बाद में आपातकाल ने नामवर जी को ताकत दी तो इन `दुस्साहसी छात्रों` को `ठीक` किया गया। यह जिक्र खासा प्रेरक हो सकता था.
लेकिन शिष्य आख़िर क्या-क्या बताते- हरि अनंत, हरि कथा अनंता।
चलिए एक मशहूर शेर का यह मिसरा याद करें -
"पहुँची वहीं पे ख़ाक जहाँ का ख़मीर था."