Sunday, November 8, 2009

वीरेन डंगवाल के कविता संग्रह पर मधुसूदन आनंद



`स्याही ताल` वीरेन डंगवाल का तीसरा कविता संग्रह है। इससे से पहले `इसी दुनिया में` (१९९१) और `दुश्चक्र में सृष्टा` (२००२) उनके दो कविता संग्रह आए और पर्याप्त प्रशंसा पाई। उनका ताजा संग्रह सात साल बाद आया है जो बताता है कि डंगवाल का अपनी कविता के साथ संबंध बेहद धैर्य, संयम और परफेक्शन वाला होना चाहिए। डंगवाल की कविता में आज का समय अपनी समस्त ध्वनियों, छवियों और मुद्राओं के साथ उपस्थित है और उनकी सफलता इस बात में है कि वे तमाम प्रतिकूलताओं और संकटों के बीच भी जीवन की लय ढूंढ लेते हैं। इस तरह इस बुरे समय में भी वे बुनियादी रूप से जीवन के कवि बन जाते हैं। उनकी कविता की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है और जब वह संग्रह की पहली ही कविता `कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा` में कहते हैं: `दरअसल मैंने तो पकड़ा ही एक अलग रास्ता/ वह छोटा नहीं था न आसान/ फकत फितूर जैसा एक पक्का यकीन/ एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने,` तो उसका मतलब जीवन को उसकी समस्त साधारणता में देखने, समझने और उसे बिना किसी नाटकीयता के पूरी ईमानदारी के साथ व्यक्त करने से होता है। वैसे भी कौन सा ऐसा महत्वपूर्ण रचनाकार है जो अलग रास्ता नहीं पकड़ता। महत्वपूर्ण यह होता है कि उस काव्य अनुभव से गुजरने के बाद वह अन्ततः खोज कर क्या लाता है और वह खोज मनुष्यता को किस तरह समृद्ध करती है। यह कविता उत्तर भारतीय समाज में तेजी से बेरोजगार होती जा रही उन बेसहारा स्त्रियों के दुःख, शोषण, मामूली से सपनों और सबसे बढ़कर जिजीविषा को हमारे सामने लाती है, जिन्हें सफेदपोश अपराधी पुरुषों ने अपने जैसा बना लिया है और वह सुरक्षा कवच दिया है कि बस्ती का कोई आदमी उनकी तरफ़ आँख उठाकर देखने की भी हिम्मत नहीं कर पाता। एक कछार में जहां हरी सब्जियां पैदा हो रही हैं और जिनकी अपनी शोभा है, पिछड़ी जाति की एक विधवा कच्ची (शराब) खींचने को विवश है। उसका एक बेटा मार दिया गया है और दूसरा जेल में है। बची १४ साल की रुकुमिनी जिस पर सबकी लोलुप नज़र है। चौदह बरस की रुकुमिनी और उसकी बूढी मां जानती हैं कि `सड़ते हुए जल में मलाई सा उतरने को उद्यत/ काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा भविष्य भी/ क्या तमाशा है।` उसकी मां का दिल भी उपले की तरह सुलगता रहता है और वह हर पल शरीर और आत्मा को गला देने वाले अपने दुःख को अच्छी तरह जानती भी है लेकिन वह इस स्थिति को बदल भी नहीं सकती। कवि उसके दुःख को अनेक अदेखे सुदूर अनाम लोगों की अश्रु विगलित सहानुभूति से जोड़ देता है और उसे यहाँ आकर कहना पड़ता है कि `मनुष्यता उन्हीं की प्रतीक्षा का खामोश गीत गाती है।` अनाम साधारण लोगों पर कवि का यह भरोसा कविता को असाधारण बना देता है। फीके पड़ते आकाश के अकेलेपन में टिमटिमाते भोर के तारे के तले कछार में फैला नरम हरा कच्चा संसार अपनी संरचना और सौन्दर्य से भी इस कविता को समृद्ध करता है। फिर इसमें स्त्री अपने दुखों के साथ आती है मगर वह रोती नहीं सुलगती है और अंत में आती है प्रतीक्षा, जो इस कविता को यादगार बना दती है। यह कविता बड़े अर्थों में एक शाश्वत संसार से कछार की दुनिया और कछार की दुनिया से एक असहाय स्त्री की दुनिया में जिस खूबी के साथ प्रवेश करती है, वह उसकी सबसे बड़ी शक्ति है। और दिलचस्प यह है कि कवि को इसे सम्भव करने के लिए कोई अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ता। जैसे कवि एक दुनिया से दूसरी और दूसरी से तीसरी में अत्यन्त सहजता से हमें ले जा रहा हो और फिर भी उसमें कोई दर्प क्या उसका बोध तक न हो।

डंगवाल की कविता में कहीं नन्हा पीला पहाड़ी फूल है, कहीं वसंत के विनम्र कांटे हैं, कहीं पुराना तोता है, कहीं बकरियां हैं, कहीं साइकिल है, कहीं रद्दी बेचने वाला लड़का है, पिता और उनका शव है तो गंगा भी है और इलाहाबाद-कानपुर भी हैं और नैनीताल में दीवाली भी है। सबसे बढ़कर जो चीज है वह अपने संसार के प्रति गहन आत्मीयता है। प्रकृति इन कविताओं में कुछ अलग तरह से आती है। संग्रह की कुछ कवितायें तो बार-बार पढ़े जाने को विवश करती हैं।
(यह टिप्पणी `नई दुनिया` में `अलग रास्ते पर चलने वाला कवि` शीर्षक से छप चुकी है।)




कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा
(क्षुधार राज्ये पृथिबी गोद्योमोय*)


मैं थक गया हूं
फुसफुसाता है भोर का तारा
मैं थक गया हूं चमकते-चमकते इस फीके पड़ते
आकाश के अकेलेपन में।
गंगा के खुश्क कछार में उड़ती है रेत
गहरे काही रंग वाले चिकने तरबूज़ों की लदनी ढोकर
शहर की तरफ चलते चले जाते हैं हुचकते हुए ऊंट
अपनी घंटियां बजाते प्रात की सुशीतल हवा में

जेठ विलाप के रतजगों का महीना है

घंटियों के लिए गांव के लोगों का प्रेम
बड़ा विस्मित करने वाला है
और घुंघरुओं के लिए भी।

रंगीन डोर से बंधी घंटियां
बैलों-गायों-बकरियों के गले में
और कोई-कोई बच्चा तो कई बार
बत्तख की लंबी गर्दन को भी
इकलौते निर्भार घुंघरू से सजा देता है

यह दरअसल उनका प्रेम है
उनकी आत्मा का संगीत
जो इन घंटियों में बजता है

यह जानकारी केवल मर्मज्ञों के लिए।
साधारण जन तो इसे जानते ही हैं।

♦♦♦

दरअसल मैंने तो पकड़ा ही एक अलग रास्ता
वह छोटा नहीं था न आसान
फकत फितूर जैसा एक पक्का यकीन
एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने।

जब मैं उतरा गंगा की बीहड़ कटरी में
तो पालेज में हमेशा की तरह उगा रहे थे
कश्यप-धीमर-निषाद-मल्लाह
तरबूज़ और खरबूज़े
खीरे-ककड़ी-लौकी-तुरई और टिंडे।

खटक-धड़-धड़ की लचकदार आवाज़ के साथ
पुल पार करती
रेलगाड़ी की खिड़की से आपने भी देखा होगा कई बार
क्षीण धारा की बगल में
सफेद बालू के चकत्तेदार विस्तार में फैला
यह नरम-हरा-कच्चा संसार।

शामों को
मढ़ैया की छत की फूंस से उठता धुआं
और और भी छोटे-छोटे दीखते नंगधड़ंग श्यामल
बच्चे-
कितनी हूक उठाता
और सम्मोहक लगता है
दूर देश जाते यात्री को यह दृश्य।

ऐसी ही एक मढ़ैया में रहती है
चौदह पार की रुकुमिनी
अपनी विधवा मां के साथ।

बड़ा भाई जेल में है
एक पीपा कच्ची खेंचने के ज़ुर्म में
छोटे की सड़ी हुई लाश दो बरस पहले
कटरी की उस घनी, ब्लेड-सी धारदार
पतेल घास के बीच मिली थी
जिसमें गुज़रते हुए ढोरों की भी टांगें चिर जाती हैं।

लड़के का अपहरण कर लिया था
गंगा पार के कलुआ गिरोह ने
दस हज़ार की फिरौती के लिए
जिसे अदा नहीं किया जा सका।

मिन्नत-चिरौरी सब बेकार गयी।

अब मां भी बालू में लाहन दाब कर
कच्ची खींचने की उस्ताद हो चुकी है
कटरी के और भी तमाम मढ़ैयावासियों की तरह।

♦♦♦

कटरी के छोर पर बसे
बभिया नामक जिस गांव की परिधि में आती है
रुकुमिनी की मढ़ैया
सोमवती, पत्नी रामखिलौना
उसकी सद्य:निर्वाचित ग्रामप्रधान है।
प्रधानपति - यह नया शब्द है
हमारे परिपक्व हो चले प्रजातांत्रिक शब्दकोश का।

रामखिलौना ने
बन्दूक और बिरादरी के बूते पर
बभिया में पता नहीं कब से दनदना रही
ठाकुरों की सिट्टी-पिट्टी को गुम किया है।
कच्ची के कुटीर उद्योग को संगठित करके
उसने बिरादरी के फटेहाल उद्यमियों को
जो लाभ पहुंचाये हैं
उनकी भी घर-घर प्रशंसा होती है।
इस सब से उसका मान काफी बढ़ा है।
रुकुमिनी की मां को वह चाची कहता है
हरे खीरे जैसी बढ़ती बेटी को भरपूर ताककर भी
जिस हया से वह अपनी निगाह फेर लेता है
उससे उसकी सच्चरित्रता पर
मां का कृतज्ञ विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है।

रुकुमिनी ठहरी सिर्फ चौदह पार की
भाई कहकर रामखिलौना से लिपट जाने का
जी होता है उसका
पर फिर पता नहीं क्या सोचकर ठिठक जाती है।

♦♦♦

मैंने रुकुमिनी की आवाज़ सुनी है
जो अपनी मां को पुकारती बच्चों जैसी कभी
कभी उस युवा तोते जैसी
जो पिंजरे के भीतर भी
जोश के साथ सुबह का स्वागत करता है।

कभी सिर्फ एक अस्फुट क्षीण कराह।
मैंने देखा है कई बार उसके द्वार
अधेड़ थानाध्यक्ष को
इलाके के उस स्वनामधन्य युवा
स्मैक तस्कर वकील के साथ
जिसकी जीप पर इच्छानुसार विधायक प्रतिनिधि
अथवा प्रेस की तख्ती लगी रही है।

यही रसूख होगा या बूढ़ी मां की गालियों और कोसनों का धाराप्रवाह
जिसकी वजह से
कटरी का लफंगा स्मैक नशेड़ी समुदाय
इस मढ़ैया को दूर से ही ताका करता है
भय और हसरत से।

एवम प्रकार
रुकुमिनी समझ चुकी है बिना जाने
अपने समाज के कई जटिल और वीभत्स रहस्य
अपने निकट भविष्य में ही चीथड़ा होने वाले
जीवन और शरीर के माध्यम से
गो कि उसे शब्द समाज का मानी भी पता नहीं।

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

♦♦♦

रुकुमिनी का हाल जो हो
इस उमर में भी उसकी मां की सपने देखने की आदत
नहीं गयी।
कभी उसे दीखता है
लाठी से गंगा के छिछले पेटे को ठेलता
नाव पर शाम को घर लौटता
चौदह बरस पहले मरा अपना आदमी नरेसा
जिसकी बांहें जैसे लोहे की थीं;
कभी पतेल लांघ कर भागता चला आता बेटा दीखता है
भूख-भूख चिल्लाता
उसकी जगह-जगह कटी किशोर
खाल से रक्त बह रहा है।

कभी दीखती है दरवाज़े पर लगी एक बरात
और आलता लगी रुकुमिनी की एड़‍ियां।

सपने देखने की बूढ़ी की आदत नहीं गयी।

उसकी तमन्ना ही रह गयी:
एक गाय पाले, उसकी सेवा करे, उसका दूध पिए
और बेटी को पिलाए
सेवा उसे बेटी की करनी पड़ती है।

काष्ठ के अधिष्ठान खोजती वह माता
हर समय कटरी के धारदार घास भरे
खुश्क रेतीले जंगल में
उसका दिल कैसे उपले की तरह सुलगता रहता है
इसे वही जानती है
या फिर वे अदेखे सुदूर भले लोग
जिन्हें वह जानती नहीं
मगर जिनकी आंखों में अब भी उमड़ते हैं नम बादल
हृदयस्थ सूर्य के ताप से प्रेरित।
उन्हें तो रात भी विनम्र होकर रोशनी दिखाती है,
पिटा हुआ वाक्य लगे फिर भी, फिर भी
मनुष्यता उन्हीं की प्रतीक्षा का खामोश गीत गाती है
मुंह अंधेरे जांता पीसते हुए।

इसीलिए एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने
फितूर सरीखा एक पक्का यकीन
इसीलिए भोर का थका हुआ तारा
दिगंतव्यापी प्रकाश में डूब जाने को बेताब।
(*उप-शीर्षक : बहुत ही कम आयु में दिवंगत हो गये बांग्ला कवि सुकांत भट्टाचार्य की एक प्रसिद्ध कविता का शीर्षक : क्षुधार राज्ये पृथिबी गोद्योमोय अर्थात भूख के राज्य में धरती गद्यमय है)

2 comments:

शरद कोकास said...

वीरेन जी के संग्रह से यह परिचय करवाने के लिये धन्यवाद । वीरेन जी 13 नवम्बर को यहाँ दुर्ग-भिलाई आ रहे है । उनसे इस बात का ज़िक्र तो होगा ही ।

दीपा पाठक said...

बढ़िया विवेचनात्मक पोस्ट। वीरेनदा मेरे पसंदीदा कवियों में से एक हैं।