भाई
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दिवंगत बड़े भाई के लिए
जहाँ तक छायाचित्र संबंधी समानता का प्रश्न है
बड़े भाई लगभग मुक्तिबोध जैसे दिखलायी देते थे
चेहरे पर उभरी हड्डियाँ और तीखी नाक
जीवन रहा दोनों का एक जैसा कारुणिक
और विषम
वह एक प्रतीक जो आया कविता में
जहाँ होता रहा पुनरावलोकन जीवन और समय का
जिसमें फ़ैली रही तंबाखू की गंध और
ऐसी ही चीज़ें तमाम बहिष्कृत
भाई बीड़ी पिया करते थे और
करता हूँ याद वह काला सफ़ेद छायाचित्र
जिसमें गहरी तल्लीनता में डूबे मुक्तिबोध
सुलगा रहे अपनी बीड़ी
लगभग एक सी जीवन शैली
एक सी ज़िद दोनों की
और २७ जनवरी १९७८ को
कैंसर वार्ड से प्रेषित
भाई का यह अंतिम पोस्टकार्ड मैं पढ़ता
उसी तरह
जैसे कविता मुक्तिबोध की।
***
उसने कहा
उसने उदास भाव से कहा
भयावह मंदी का दौर है यह
उसके आसपास हर चीज़ पर
छाई थी धूल की एक परत
मंदी का आलम यह था कि
पड़ोस के सेवानिवृत्त विद्युतकर्मी ने
फेंका एक रूपये का सिक्का
और खरीदी दो फ़िल्टर बीड़ी
हम चुपचाप घंटे भर बैठे रहे
"मौत और ग्राहक का भरोसा नहीं
कब आ जाये," उसने कहा
मैंने कहा
"अब ग्राहक आने से रहा"
उसने बदरंग कपड़ा उठाया
और उस तख्ती को पोंछने लगा
जहाँ लिखा था
"उधार प्रेम की कैंची है"
जिंसों के बीच
हम दोनों
लगभग जिंसों की तरह बैठे रहे
धूल की एक तह
हम पर भी चढ़ती रही
बदस्तूर।
***
बाजरे की रोटियाँ
बहुत सारे व्यंजनों के बाद
मेज़ के अंतिम भव्य सिरे पर रखी थीं
बाजरे की रोटियाँ
मैंने नज़रें बचाते-बचाते
कुछ रोटियाँ उठाईं
एक कुल्हड़ में भरा छाछ का रायता
और समारोह से बाहर एक पुलिया पर आ बैठा
अब मेरे पास
भूख थी
और
एक दुर्लभ कलेवा
मैंने पुलिया पर बैठे-बैठे वर वधू को आशीष दिया
और उस अंधकार की तरफ बढ़ा
जहाँ मेरा घर था।
***
(वरिष्ठ कवि नरेन्द्र जैन का यह कविता संग्रह आधार प्रकाशन, SCF-267 सेक्टर 16 , पंचकुला, हरियाणा 134113 से आया है.)
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दिवंगत बड़े भाई के लिए
जहाँ तक छायाचित्र संबंधी समानता का प्रश्न है
बड़े भाई लगभग मुक्तिबोध जैसे दिखलायी देते थे
चेहरे पर उभरी हड्डियाँ और तीखी नाक
जीवन रहा दोनों का एक जैसा कारुणिक
और विषम
वह एक प्रतीक जो आया कविता में
जहाँ होता रहा पुनरावलोकन जीवन और समय का
जिसमें फ़ैली रही तंबाखू की गंध और
ऐसी ही चीज़ें तमाम बहिष्कृत
भाई बीड़ी पिया करते थे और
करता हूँ याद वह काला सफ़ेद छायाचित्र
जिसमें गहरी तल्लीनता में डूबे मुक्तिबोध
सुलगा रहे अपनी बीड़ी
लगभग एक सी जीवन शैली
एक सी ज़िद दोनों की
और २७ जनवरी १९७८ को
कैंसर वार्ड से प्रेषित
भाई का यह अंतिम पोस्टकार्ड मैं पढ़ता
उसी तरह
जैसे कविता मुक्तिबोध की।
***
उसने कहा
उसने उदास भाव से कहा
भयावह मंदी का दौर है यह
उसके आसपास हर चीज़ पर
छाई थी धूल की एक परत
मंदी का आलम यह था कि
पड़ोस के सेवानिवृत्त विद्युतकर्मी ने
फेंका एक रूपये का सिक्का
और खरीदी दो फ़िल्टर बीड़ी
हम चुपचाप घंटे भर बैठे रहे
"मौत और ग्राहक का भरोसा नहीं
कब आ जाये," उसने कहा
मैंने कहा
"अब ग्राहक आने से रहा"
उसने बदरंग कपड़ा उठाया
और उस तख्ती को पोंछने लगा
जहाँ लिखा था
"उधार प्रेम की कैंची है"
जिंसों के बीच
हम दोनों
लगभग जिंसों की तरह बैठे रहे
धूल की एक तह
हम पर भी चढ़ती रही
बदस्तूर।
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बाजरे की रोटियाँ
बहुत सारे व्यंजनों के बाद
मेज़ के अंतिम भव्य सिरे पर रखी थीं
बाजरे की रोटियाँ
मैंने नज़रें बचाते-बचाते
कुछ रोटियाँ उठाईं
एक कुल्हड़ में भरा छाछ का रायता
और समारोह से बाहर एक पुलिया पर आ बैठा
अब मेरे पास
भूख थी
और
एक दुर्लभ कलेवा
मैंने पुलिया पर बैठे-बैठे वर वधू को आशीष दिया
और उस अंधकार की तरफ बढ़ा
जहाँ मेरा घर था।
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(वरिष्ठ कवि नरेन्द्र जैन का यह कविता संग्रह आधार प्रकाशन, SCF-267 सेक्टर 16 , पंचकुला, हरियाणा 134113 से आया है.)