Monday, May 24, 2010

इतिहास का अंत


इतिहास की प्रवृत्ति है अपने को दुहराना, यह मार्क्स की प्रसिद्ध उक्ति है; इतिहास के अंत की घोषणाओं के बारे में ही यह बात सबसे ज़्यादा खरी है. न्यू टेस्टामेंट से लेकर हेगल तक ऐसे मृत्यु-सन्देश अनेकों बार जारी किये गए हैं. इतिहास के अंत की घोषणा फ़कत हमारे पास पहले से मौजूद इतिहास में एक टुकड़ा और जोड़ देती है, इतिहास को जीवित रखने में मदद करती है और इस प्रकार अजीब ढंग से आत्मघाती साबित होती है.
पचास के दशक का तथाकथित विचारधारा का अंत आन्दोलन पिछले दिनों दिए गए इतिहास के, या साफ़-साफ़ कहें तो विचारधारा के निष्कासन के आदेशों में एक था. वियतनाम, ब्लैक पावर और आसन्न छात्र आन्दोलन के दौर में वह एकदम असंगत भविष्यवाणी साबित हुई. अब जबकि हमारे अपने समय में यह घोषणा दुहराई गई है, तो हमें वह बात याद करनी होगी जैसे उसकी ओर ध्यान ऑस्कर वाइल्ड ने दिलाया हो - इतिहास के अंत के बारे में एक बार गलत होना बदकिस्मती है, जबकि उसी बारे में दुबारा गलत होना निपट लापरवाही.

(टेरी ईगल्टन की पुस्तक "दि गेटकीपर: अ मेमो'आ" से, अंग्रेजी से अनुवाद: भारत भूषण तिवारी)

Wednesday, May 12, 2010

लौट आ, ओ धार!


लौट आ, ओ धार!
टूट मत ओ साँझ के पत्थर
हृदय पर।
(मैं समय की एक लंबी आह!
मौन लंबी आह!)
लौट आ, ओ फूल की पंखडी!
फिर
फूल में लग जा।
चूमता है धूल का फूल
कोई, हाय!!
***

आज शमशेर जी की पुण्य तिथि है. उनकी यह तस्वीर जापान के क्योटो से लक्ष्मीधर मालवीय से वाया असद ज़ैदी प्राप्त हुई है.

Saturday, May 8, 2010

कसाब के बहाने उन्माद का जश्न

अदालत ने कसाब को फांसी की सजा सुना दी है। दुनिया ने भारतीय न्याय प्रक्रिया में मुल्क की डेमोक्रेसी को देखा जो मुल्क के बाहरी और भीतरी दुश्मनों को रास नहीं आती है। लेकिन मीडिया अदालत के फैसले का इंतज़ार करने के पक्ष में नहीं था।उसने फैसला आने से पहले ही उन्माद का जश्न परोसना शुरू कर दिया था। अखबारों के क्षेत्रीय संस्करणों के लोकल पन्ने भी इस बारे में परिचर्चाओं से रंगे पड़े थे। परिचर्चा क्या थी, सवाल और जवाब सब पहले से ही तैयार। जो जितना `जोशीला` बोले, उतना बड़ा देशभक्त। आरएसएस आखिर ऐसे ही `राष्ट्रवाद` की ज़मीन तैयार करता रहता है जो संविधान और अदालत का काम अपने हाथों में लेकर ही मजबूत होता है। अब तो कांग्रेस भी इस अभियान में खुलकर शामिल हो गयी है। सो, एक आवाज मुख्य थी कि कसाब पर मुकदमा क्यूँ चलाया, कानूनी प्रक्रिया पर पैसा क्यों ख़र्च किया, अदालत ने इतना लम्बा समय (हालांकि यह सबसे तेज सुनवाई थी) क्यूँ लिया। और यह भी कि कसाब को सरेआम सड़क पर क्यूँ नहीं लटका दिया जाता। जाहिर है कि बीजेपी का `राष्ट्रवाद` ऐसी ही फासीवादी और बर्बर कारगुजारियों का नाम है। (आरएसएस गांधी की हत्या से लेकर गुजरात में नरसंहार तक सरेआम कत्लो-गारत का `अनुष्ठान` करता भी रहा है।)

लेकिन कोई ऐसी सेंसिबल आवाज क्यूँ नहीं सुनायी दी कि हिन्दुस्तान को किसी आतंकवादी हमले से नहीं तोडा जा सकता है, बल्कि उसकी डेमोक्रसी को बेमानी करके ही यह काम किया जा सकता है? आरएसएस गांधी की हत्या से लेकर गुजरात में नरसंहार तक सरेआम कत्लो-गारत का `अनुष्ठान` करता भी रहा है। लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि तमाम हमलों के बावजूद हिन्दुस्तान में लोकतंत्र आधा-अधूरा ही सही, उसके मंसूबों में बाधक भी बन जाता है।

इस दौरान हिन्दुवाद के नाम पर खड़े किये गए आतंकवादी संगठनों के खिलाफ भी लगातार सबूत मिल रहे हैं। जाहिर है कि इन कारगुजारियों के लिये भी न्याय प्रक्रिया के तहत ही कठोरतम सजा मिलनी चाहिए। जो नागरिक मुल्क और उसके लोकतंत्र में आस्था रखते हैं, उन्हें निश्चय ही उन्माद में बहने के बजाय विवेकपूर्ण ढ़ंग से लोकतंत्र पर मंडरा रहे खतरे को टालने के लिये संघर्ष करना चाहिए। उन्माद फैलाकर ही साम्प्रदायिक राजनीति करना आसान होता है और उन्माद फैलाकर ही आदिवासियों की जमीन पूंजीपतियों को लुटाने के लिये सैनिक अभियान चलाना सुगम हो जाता है। उन्माद फैलाकर ही यह काम आसान होता है कि किसी भी न्यायप्रिय , डेमोक्रेटिक, देशभक्त आवाज़ को पाकिस्तान या नक्सलवाद समर्थक करार दे दिया जाय।