इज़हारे-अक़ीदत और वक़्त की कैफ़ियत
1941 में प्रकाशित अपने पहले संकलन का नाम फ़ैज़ ने 'नक्शे फ़रियादी' रखा. ये 'दीवाने ग़ालिब' के पहले दो शब्द हैं. क़रीब एक चौथाई सदी बाद सन 1965 में अपने चौथे संकलन का नाम फिर उन्होंने ग़ालिब ही से लिया - 'दस्ते-तहे-संग' (चट्टान के नीचे दबा हाथ). ये कोई संयोग नहीं था. पुरानी रिवायत है कि दीवान की शुरूआत हम्द (ईश-वन्दना) से हो : "नक्शे-फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए तहरीर का / काग़ज़ी है पैराहन हर पैकरे-तस्वीर का." ग़ालिब पहले ही शेर में ऐसी कैफ़ियत सामने रख देते हैं कि पता नहीं चलता वह शरारत भरे अंदाज़ में आत्म-स्तुति कर रहे हैं, या अल्लाह की तारीफ़. अब ज़रा दस्ते-तहे-संग को देखें : "मजबूरी ओ दावा-ए गिरफ़्तारी-ए उल्फ़त / दस्ते-तहे-संग आमदः पैमाने वफ़ा है." हाथ एक भारी पत्थर के नीचे दबा हुआ है, और हम कह रहे हैं कि जन्म-जन्मान्तर तक तुम्हारे प्यार के क़ैदी रहने की क़सम खाए हुए हैं.
फ़ैज़ ने अपनी सारी ज़िंदगी ग़ालिब के साए में गुज़ारी. वह जब भी अपने से थक जाते हैं तो ग़ालिब की ज़मीन पर लौट आते हैं. उनकी तबीअत और मिज़ाज ग़ालिब से अलग हैं : ग़ालिब की ज़राफ़त, विडम्बना-बोध, कड़वाहट, खुद पर हँसने की आदत और अनासक्ति फ़ैज़ के यहाँ कम ही नज़र आती है. पर ग़ालिब के बिना उनको अपनी अस्मिता खतरे में लगती है. बिना ग़ालिब को याद किये वह ग़ज़ल तो लिख ही नहीं सकते. अपनी अंतिम ग़ज़ल में भी फ़ैज़ बिलकुल उस्ताद के पहलू में बैठे दिखाई देते हैं : 'हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ / कि लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है // करे न जग में अलाव तो शेर किसमक़सद / करे न शहर में जल थल तो चश्मे नम क्या है // अज़ल के हाथ कोई आ रहा है परवाना / न जाने आज की फ़ेहरिस्त में रक़म क्या है.'
मौलाना अल्ताफ़ हुसैन 'हाली' के बाद ग़ालिब की केन्द्रीयता को पहचानने और फिर उसे कविता में लाज़िम करने की ज़िम्मेदारी जिन लोगों ने उठाई उनमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ सर्वोपरि हैं. हालाँकि जितना ध्यान इस बात पर दिया जाना चाहिए दिया नहीं गया है.
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इक़बाल के निधन के वक़्त फ़ैज़ 27 साल के थे और इक़बाल का असर पंजाब और उत्तर-पश्चिमी भारत में वैसा ही सघन था जैसा बंगाल में रवीन्द्रनाथ का. इक़बाल की तरह फ़ैज़ की पैदाइश भी सियालकोट ही की है. फ़ैज़ इक़बाल के दबदबे और मार से कैसे बचे रह सके यह भी एक गौरतलब चीज़ है. फ़ैज़ ने खुद इक़बाल के महत्त्व से इनकार नहीं किया, और उनको अक़ीदत पेश करते हुए दो नज़्में भी लिखीं, लेकिन 'इक़बालियत' के काले बादल से खुद दूर रहे. फ़ैज़ की भावी महानता और उर्दू शायरी के विकास में उनकी ऐतिहासिक भूमिका की चाबी शायद यहीं पर है. फ़ैज़ ने उर्दू शायरी के रिवायती साज़ो-सामान और तरीक़े-कार को फिर से सम्हाला, इक़बाल-युग में जो ढांचागत टूट-फूट हुई उसकी मरम्मत की और बड़े इत्मीनान से उसी पुरानी बुनियाद पर फिर से वही दरो-दीवार खड़े किये. उन्होंने नए से पुराने का काम लेने के बजाए पुराने से नए का काम लिया. उन्होंने उर्दू शायरी को इक़बाल के परवर्ती अतिमानववादी फ़लसफ़े और नए अस्मितावाद से बचाया. उन्होंने इक़बालियत को सीधी चुनौती देने के बजाए उर्दू की परम्परागत प्रगतिशीलता, नॉन-कन्फर्मिज्म और ग़ालिबियन आधुनिकता की राह पकड़ी. फ़ैज़ ने अपने उदाहरण से साबित किया कि शाइरी में ग़ालिब की परम्परा ही में आगे का रास्ता है, परवर्ती इक़बाल का रास्ता एक अंधी गली है. अल्लामा इक़बाल को सफ़ाई और आत्मविश्वास के साथ बाईपास करना फ़ैज़ के बड़े कारनामों में शुमार किया जाना चाहिए.
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राष्ट्रवाद आधुनिक इतिहास की एक केन्द्रीय संचालनकारी शक्ति रही है, ख़ासकर उन देशों में जो पश्चिम के उपनिवेश रहे. हिंदुस्तान जैसे मुल्कों में राष्ट्रवाद ने अनिवार्य साम्राज्यवाद-विरोधी जागरण का रोल अदा किया. लेकिन क़ौमी जागरण हर क़ौमी बीमारी का इलाज नहीं है इस बात को फ़ैज़ से पहले प्रेमचंदऔर इक़बाल ने, और इनसे पहले रवीन्द्रनाथ ने देख लिया था. राष्ट्रवाद कई रंगों में और कई नामों से आता है और इसके अनेक प्रकार ऐसे हैं जो सुधार के नाम पर और पुराने समाजों में चली आ रही और दो-ढाई हज़ार सालों में विकसित मानववादी परम्पराओं और एकताओं को नष्ट भ्रष्ट भी कर सकता है. फ़ैज़ ने बहुत जल्दी राष्ट्रवाद की इस विनाशकारी सम्भावनाओं को पहचाना और अपनी कविता में सार्वभौमिक मानववादी परम्पराओं और प्रतिरोध की अवामी रिवायतों को बुनियादी आधार बनाया. उन्होंने जनजीवन में रची बसी रोमानी-मुक्तिकामी परम्पराओं (सूफ़ी और ग़ैर-सूफ़ी) के साथ हमदर्दी का रिश्ता बनाया और उनके सहारे यथास्थिति के विरोध और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण को अपने यूटोपिया का हिस्सा बनाया. फ़ैज़ हमेशा यूटोपिया पर बल देते हैं. व्यवस्थाएँ बनती बिगड़ती रहती हैं, लेकिन यूटोपिया कभी नष्ट नहीं होते, बुनियादी क़द्रों के किए इंसान की लड़ाई जारी रहती है. उनके काव्य में वतन से प्यार झलकता है लेकिन कहीं भी"परबत वो सबसे ऊंचा" जैसा घमंड या उग्र राष्ट्रवाद नहीं है. दूसरी तरफ़ वह राष्ट्रीय दुखान्तों के प्रतिनिधि कवि हैं : 'निसार तेरी गलियों के ए वतन कि जहाँ / चलीहै रस्म कि कोई न सर उठा के चले' या कि 'ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गजीदः सहर'.
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दुनिया में बंदी-जीवन और निर्वासन या वतन-बदरी के फ़ैज़ जैसे शाइर कम ही हुए हैं. इस तरह के दो शाइरों - नाज़िम हिकमत और महमूद दरवीश - से अक्सर उनकी तुलना की जाती है. फ़ैज़ से इन दोनों की दोस्ती भी थी और नाज़िम हिकमत का तो उन्हों ने अनुवाद भी किया था. क़ैद और निर्वासन पर इन सभी का काम लगता है एक बहुत लम्बी, बहुभाषीय आलमी कविता का हिस्सा है.
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'निसार तेरी गलियों के ए वतन...' में फ़ैज़ अपने प्रतिनिधि रूप में मौजूद हैं :
बहुत हैं ज़ुल्म के दस्ते-बहाना-जू के लिए / जो चंद अहले-जुनूँ तेरे नामलेवा हैं // बने हैं अहले-हवस मुद्दई भी मुंसिफ़ भी / किसे वकील करें किससे मुंसिफ़ी चाहें //मगर गुज़ारने वालों के दिन गुज़रते हैं / तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबहो-शाम करते हैं ... ग़रज़ तसव्वुरे-शामो-सहर में जीते हैं / गिरफ्ते-साया-ए-दीवारो-दर में जीते हैं ...यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़ / न उनकी रस्म नई है न अपनी रीत नई ... जो तुझसे अहदे-वफ़ा उस्तवार रखते हैं / इलाजे-गर्दिशे-लैलो-निहार रखतेहैं.'
यहाँ शाइर की अपने वतन से और वतन के लोगों से मुहब्बत और देशभक्ति के नाम पर वतन पर क़ाबिज़ ज़ालिमाना जमातों से नफ़रत एक साथ मौजूद है. उसका यह अंदाज़ उसे बीसवीं सदी की कविता की मशहूर बाग़ी आवाज़ों की उस सफ़ में खड़ा कर देता है जिसमें ब्लोक, लोर्का, नाज़िम हिकमत, नेरूदा, ब्रेख्त,पासोलिनी, महमूद दरवीश, मीगेल एर्नान्देज़ और अर्नेस्तो कार्देनाल मौजूद हैं. इन आवाज़ों में उदासी और उम्मीद और विषमताओं के निरंतर, स्थायी प्रतिरोधकी प्रतिज्ञा` है.
फ़ैज़ पराजय के बाद की पस्ती और चुप्पी को भी इन्तिज़ार के एक वक्फ़े, प्रतिरोध की एक मुद्रा, और शाश्वत इन्तिज़ार की निरंतरता में देखते हैं. यह बात उर्दू नज़्म के लिबास में और विरह-मिलन, क़फ़स और सैयाद, शामो-सहर, बहारो-खिज़ां की ज़बान में आता है तो सुनने वाले को इससे ऐसी तसल्ली और ताक़त मिलती है जो इक़बाल की ओजपूर्ण, ग़ैरत को ललकारती आवाज़ से नहीं मिलती. फ़ैज़ कहते नज़र आते हैं : लड़ाई बुरी नहीं थी, और शिकस्त भी बुरी नहीं है. वह हताशा की गोद से उम्मीद उठा लाते हैं. जैसा ग़ालिब कहते हैं: 'वफ़ादारी बशर्ते-उस्तवारी अस्ले-ईमाँ है'.
वह वर्तमान को धिक्कारते नहीं, उसे गुलशन के कारोबार का हिस्सा मानते हैं. यह कौन सा कारोबार है, और यह किसका इन्तिज़ार है? बीसवीं सदी के मध्य तक आते आते फ़ैज़ उर्दू ग़ज़ल और नज़्म के बाह्य रूप, बुनियादी उपकरणों, केन्द्रीय रूपकों और तरकीबों को छेड़े बग़ैर एक अंदरूनी इंक़िलाब ला देते हैं. वह उर्दू शायरी के पुराने श्रोता वर्ग को खोए बग़ैर प्रेम और विरह के कवि नहीं रहते, उनका माशूक कोई मानवीय या आध्यात्मिक शै नहीं रहता, उनका गुलशन कोई गुलशन नहीं रहता -- वह अपनी शायरी को सामाजिक क्रान्ति, इंसाफ़ और आज़ादी की मुस्तकिल तशवीश और उम्मीद की शायरी बना देते हैं, और छिछली इश्क़िया शायरी का रास्ता लगभग बंद कर देते हैं. उनका आशिक़ हस्बे-मामूल कू-ए यार से निकलकर सू-ए दार की तरफ़ जाता है, लेकिन इस आमदो-रफ्त के मानी स्थायी तौर पर बदल चुके हैं. वह सूफ़ियाना मज़मून के धागों से समाजी और सियासी इंक़िलाब का नया मिथक बुन देते हैं, और यह मिथक उर्दू में जदीदियत और उत्तर-आधुनिकतावाद के शोर, धूल और धुएँ के बीच अपनी जगह या चमक नहीं खोता. वाम-विरोधी समूह भी फ़ैज़ से अदब से ही मुखातिब होते हैं, लेकिन फरियादियों वाला "काग़ज़ी पैराहन" पहनकर.
इस तरह फ़ैज़ बीसवीं सदी में ग़ज़ल को फिर से (और उसके साथ युवतर विधा नज़्म को) प्रासंगिक बनाते हैं. ग़ज़ल अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी की प्रधान विधा रही. उन्नीसवीं सदी ग़ालिब की सदी थी. पर इसे बीसवीं सदी में जिलाए रखने में भी ग़ालिब के लोगों ही का योगदान सबसे ज़्यादा है -- उन लोगों में फ़ैज़ सबसे आगे हैं. फ़ैज़ की शायरी में ग़ालिब से इजहारे-अक़ीदत और और जिरह भरी हुई है. दोनों को एक दूसरे से काम पड़ता रहता है.
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(नया पथ के फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक से साभार, अगली किस्त में समाप्य)
4 comments:
बहुत स्तरीय पोस्ट.व्याख्या भाव मन के करीब लगा.बधाई एवं नववर्ष की शुभकामनाएं.
Bahut badhiya.lekin iqbal ko negatively kyon project kiya gaya hai.saare jahan se achha me thodi andh desh bhakti to hai,par ise ugra rashtrawad nahi kaha ja sakta.iski kuchh panktiyan bahut achhi hain
पढ़कर बहुत मज़ा आया। शायराना मज़ा।
behtreen....
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