Tuesday, August 14, 2012

खूनी खाप पंचायतें, अब भेड़ की खाल में...



रविवार 15 जुलाई 2012 के हिंदी अखबारों के मुखपृष्ठ खापमय हो गए थे। उस दिन मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली इलाके के अपने गांव हसनपुर लुहारी में था और मेरे हाथों में `हिन्दुस्तान` अखबार था। अखबार की लीड जींद जिले के बीबीपुर गांव में हुई महापंचायत में कन्या भूण हत्या के खिलाफ लिया गया फैसला था तो बॉटम स्टोरी भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष और बालियान खाप के चौधरी नरेश टिकैत (दिवंगत महेंद्र सिंह टिकैत के उत्तराधिकारी) का इंटरव्यू था। भयावह यह था कि हिन्दुस्तान जैसे अखबार ने बीबीपुर की कथित महापंचायत का सिर्फ महिमांडन किया था और उसे जरा भी क्रिटिकल ढंग से देखने की कोशिश नहीं की थी। दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर (हरियाणा) आदि सभी अखबारों का सुर एक जैसा था। नवभारत टाइम्स के दिल्ली संस्करण में `खाप की नई पहल` और `कोख की बेटियों को खाप का आशीर्वाद` शीर्षक दिए गए थे। दलितों-स्त्रियों के उत्पीड़न और प्रेमी जोड़ों की हत्याओं जैसे असंवैधानिक फरमानों के लिए कुख्यात खाप पंचायतों के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी। यह समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं था कि महापंचायत का सोचा-सामझा मकसद दुनिया की आंखों पर परदा डालने, अपना चेहरा चमकाने और इससे भी बढ़कर असंवैधानिक कार्यवाहियों/कार्रवाइयों के लिए लेजिटिमेसी हासिल करने की बड़ी कोशिश थी, जिसमें मीडिया सहयोगी बन गया था। बेटियों के पिता की संपत्ति में हिस्से के अधिकार के खिलाफ फरमान जारी करने वालीं, शादीशुदा जोड़ों को भाई-बहन करार दे देने वालीं, स्त्रियों के बुनियादी मानवीय अधिकारों की जबरदस्त मुखालफत करने वालीं, छेड़खानी और बलात्कार के आरोपी दबंगों के समर्थन में बार-बार खड़ी होते रहने वालीं खाप पंचायतें मजे से बगुला भगत की भूमिका में आ गईं। कोई पूछने वाला नहीं था कि पितृसत्ता की मानसिकता को चुनौती दिए बिना किस तरह कन्या भ्रूण हत्या पर अंकुश लगाया जा सकता है। हास्यास्पद यह भी था कि खुद बीबीपुर गांव का रेकॉर्ड लिंगानुपात के लिहाज से बद से बदतर हुआ है। फिर भी हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अगले ही दिन खाप महापंचायत की तारीफों के पुल बांध दिए और बीबीपुर गांव के विकास के लिए एक करोड़ रुपये देने का ऐलान कर दिया। हुड्डा ने खाप पंचायतों का सामाजिक जन आंदोलनों के लिए आगे आने का आह्वान भी किया। 
जाहिर है कि हरियाणा के मुख्यमंत्री का खाप प्रेम नया नहीं था और वे खापों के `आंदोलनों` के स्वरूप से नावाकिफ भी नहीं थे। हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में मुख्यमंत्री की जाति के किसानों ने दलितों के घर फूंक दिए थे और एक विकलांग दलित लड़की को जिंदा जला दिया था तो खाप पंचायतें खुलकर आरोपियों के पक्ष में जा खड़ी हुई थीं। ऐसे नाजुक मौके पर भी मुख्यमंत्री इन बर्बर, असंवैधानिक स्वयंभू खाप पंचायतों की तुलना एनजीओज़ से कर उनकी पीठ थपथपा चुके थे। मनोज-बबली हत्याकांड व ऑनर किलंग की दूसरी सनसनीखेज वारदातों के बाद केंद्र सरकार ने नया सख्त कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू की तो भी हुड्डा ने केंद्र सरकार को कहा कि ऑनर किलंग की वारदातें मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है जबकि इन्हें व्यापक संदर्भों में देखा जाना चाहिए। 
दिलचस्प यह है कि उत्तर भारत में जाटों के अलावा भी लगभग सभी ताकतवर जातियां स्त्रियों और दलितों के साथ एक जैसा ही सलूक करती रही हैं लेकिन हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खाप-पंचायतों की मुहिम की धुरी सामाजिक-राजनैतिक रूप से बेहद ताकतवर हैसियत रखने वाले जाट ही रहते हैं। हरियाणा की सत्ता संभालने के बाद से ही हुड्डा की कोशिश जाटों में देवीलाल-चौटाला से ज्यादा स्वीकार्यता हासिल करने की रही है। खापों की असंवैधानिक कारगुजारियों पर चुप्पी और उनका महिमामंडन ऐसी ही कोशिशों का हिस्सा है। जिस वक्त हुड्डा खाप पंचायतों से जनांदोलनों के लिए आगे आने का आह्वान कर रहे थे, तब भी हिसार जिले के भगाना गांव के दलित ऐसी ही एक पंचायत के फरमान के बाद गांव से पलायन कर हिसार और दिल्ली में इंसाफ के लिए डेरा डाले हुए थे। बताया जाता है कि बतौर इंसाफ उत्पीड़ितों पर ही संगीन धाराओं में मुकदमे लाद दिए गए हैं। हिसार के दौलतपुर गांव में पानी का बर्तन छूने पर दलित व्यक्ति के हाथ काट देने की घटना पुरानी नहीं है। दलित उत्पीड़न की अनगिन वारदातें रोज होती हैं और गोहाना, मिर्चपुर व कुंजपुरा जैसी दलित उत्पीड़न की चर्चित वारदातों की तरह हर बार खाप पंचायतें आरोपियों का पक्ष लेते हुए दलितों को भाईचारा कायम करने की चेतावनी देती हैं। भाईचारे का सीधा मतलब होता है कि दलित जातियां उत्पीड़न के खिलाफ मुंह न खोलें।
जाहिर है कि ऐसे मसलों पर हरियाणा में विपक्ष यानि ओमप्रकाश चौटाला भी चुप्पी ही साधे रहे। वैसे भी जाट नेताओं और इन खाप-पंचायतों का रिश्ता दिलचस्प है। खाप-पंचायतों के मुखिया (यहां तक कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ताकतवर किसान नेता व बालियान खाप के मुखिया दिवंगत महेंद्र सिहं टिकैत भी) कभी सीधे इलेक्शन जीतने-जिताने की स्थिति में नहीं होते हैं। मानो एक कबीला अपने कुछ लोगों को सीधे सरकार में रहने की भूमिका देता हो और कुछ को सरकार से बाहर रहकर ही माहौल बनाए रखने और कबीले की सामाजिक सत्ता बरकरार रखने की भूमिका देता हो। 
जींद की बीबीपुर की महापंचायत के महिमामंडन के बाद खाप-पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देने की पुरानी मांग जोर-शोर से उठाया जाने लगी है। मीडिया और सरकार खापों को नई पहल करने का तमगा दे रही हों तो ऐसा होना स्वाभाविक भी था। खापों के लिए बेहद उर्वर बागपत-मुज़फ़्फ़रनगर, शामली जिलों में तो इन पंचायतों का सिलसिला सा शुरू हो गया। आसरा और बागपत की पंचायतों के अलावा दूधाहेडी, मोघापुर, जसोई, हैबतपुर आदि कई गांवों में देखते ही देखते पंचायतें आयोजित कर दी गईं और असली एजेंडा भी जाहिर कर दिया गया। लड़कियों के जींस न पहनने, लड़कियों के मोबाइल फोन का इस्तेमाल न करने व 40 साल से कम उम्र की स्त्रियों को अकले घर से न निकलने देने आदि फरमान धड़ल्ले से दोहरा दिए गए। कहा गया कि अपनी परंपराओं की तरह `अपनी` स्त्रियों और बेटियों की सुरक्षा करना हमारा अधिकार है। प्रेम विवाहों पर पाबंदी, गौत्र व गांव में शादी न होने देने जैसे पुराने सुर भी जोर-शोर से बजने लगे। नरेश टिकैत ने साफ तौर पर कहा कि बेटा-बेटी समान हैं पर पिता की संपत्ति में बेटियों को हिस्सा नहीं दिया जा सकता है। जाट आरक्षण संघर्ष समति के अध्यक्ष यशपाल मलिक कह रहे हैं कि रमजान के बाद देशव्यापी आंदोलन चलाया जाएगा और खाप पंचायतों के पक्ष में कानूनी अधिकार हासिल किए जाएंगे। ऑनर किलंग की वारदातों में खाप पंचायतों की संलिप्तता और केंद्र सरकार के नए सख्त कानून बनाने की प्रक्रिया के मद्देनजर ऐसी मांगों के महत्व को समझना कठिन नहीं है। अपने गृह क्षेत्र बागपत में हुई इन पंचायतों को लेकर केंद्रीय मंत्री अजित सिंह और उनके बेटे जयंत के स्वर भी हिमायत भरे ही रहे। दिलचस्प है कि अजित अपने पिता चौधरी चरण सिंह की विरासत संभालने अमेरिका से भारत आए थे और उनके बेटे जयंत भी सियासत में आने से पहले अपने अंतरजातीय विवाह का हवाला देते हुए इस तरह के विवाहों को जातिवाद खत्म करने के लिए जरूरी बताते थे।   
बीबीपुर की महापंचायत में महिलाओं की मंच पर भागीदारी भी बड़ी उपलब्धि के रूप में गिनाई गई। पंचायतों में स्त्रियों की गैरमौजूदगी को लेकर सवालों के घेरे में रहती आई खापों ने पहले ही मंचों पर स्त्रियों की प्रतीकात्मक नुमाइंदगी शुरू कर दी थी। अपने ढांचे और फैसलों में धुर स्त्री विरोधी इन खाप-पंचायतों के मंचों पर कुछ स्त्रियों का उनकी हां में हां मिलाना किसी को हैरानी भरा लग सकता है लेकिन एक ताकतवर समूह में शामिल रहकर (उसके भीतर उत्पीड़न झेलते हुए भी) प्रिविलेज होने के फल लगातार मिलते हों, तो ऐसा स्वाभाविक है। हालांकि यह विडंबना ही है कि जिस तरह दलित विरोध इस तरह की खाप-पंचायतों को `व्यापक स्वीकृति` प्रदान करता है, उसी तरह इस ढांचे की बड़ी ताकत औरतों पर पुरुषों के वर्चस्व के फरमान ही हैं। यह एक ऐसा पहलू है जो खाप-पंचायतों के हिंन्दूवादी संगठनों से गहरे गठजोड़ (दुलीना में पांच दलितों की जलाकर हत्या से लेकर हिंदू विवाह अधिनियम में बदलाव की मांग तक ) के बावजूद मुसलमानों को भी (यहां तक कि दलितों को भी) आकर्षित करता है। बेवजह नहीं कि मुसलमान गांवों में भी ऐसी पंचायतें हो रही हैं और उलेमा भी जाट नेताओं के सुर में सुर मिला रहे हैं। यह एक ऐसी `सर्वानुमति` है जो खापों के जाट केंद्रित होते हुए भी उनके 36 बिरादरी के जुमले को किसी हद तक सही साबित कर देती है। 
इस बीच सबसे बड़ी विडंबना प्रगतिशील इंसाफपसंद ताकतों के असमंजस की है। जाहिर है कि ऐसी ताकतें लगातार वलनरेबल भी हुई हैं। बीबीपुर महापंचायत के निहितार्थों को यह सोचकर जोर-शोर से उजागर न करना कि उन पर कन्या भ्रूण हत्या जैसे मसले पर भी नकारात्मक नजरिए के इस्तेमाल का आरोप लग सकता है, नासमझी ही कही जा सकती है। खाप-पंचायतों के खिलाफ बेहद खतरा उठाकर मुखर रहे साथी कई बार खाप-पंचायतों को सीधे असंवैधानिक कहने के बजाय उनकी कुछ `अच्छाइयों` के साथ उनकी गलतियां गिनाते हुए बीच का रास्ता निकालने या उनका हृदय परिवर्तन कर देने की उम्मीद बांधने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि यह सब किसी कबीलाई जहालत, नासमझी या पिछड़ेपन का नतीजा नहीं है बल्कि सोची-समझी फलदायी पॉवर प्रेक्टिस है।
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(समयांतर के अगस्त अंक में `भेड़ की खाल में` शीर्षक से प्रकाशित`) कार्टून `द हिंदू` से साभार

5 comments:

indianrj said...

अजब तो ये है जब आजकल न्यूज़ चैनलों पर कुछ चुनिन्दा जाट चेहरे बहस में प्रतिभागी होते हैं जो कि पिछड़ेपन का जीता जागता सबूत हैं. आखिर कुछ लोगों द्वारा चुने गए लोग एक बड़े समुदाय के प्रतिनिधि कैसे हो सकते हैं. मैं खुद जाट हूँ और मुझे बड़ी आपत्ति है इन लोगों के टीवी पर आने से. आखिर ऐसे लोग जाटों को कैसे इतना संकीर्ण मानसिकता का प्रस्तुत कर भ्रम फैला रहे हैं, दुखद है.

कविता रावत said...

सुन्दर सार्थक चिंतनशील प्रस्तुति
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!

Anonymous said...

खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि
खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद
और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी
झलकता है...

हमारी फिल्म का संगीत वेद
नायेर ने दिया है... वेद जी को अपने संगीत कि
प्रेरणा जंगल में चिड़ियों
कि चहचाहट से मिलती है.
..
My blog post खरगोश

Anonymous said...

पाँव की जूती पाँव में ही रक्खो

भगवान का सतयुग आ ही रहा हैं,
इस्लामका झंडा लहराने लगा हैं
पाँव की जूती पाँव में ही रक्खो
समतासे कैसे चलेगा काम?
अल्लाहु-अकबर! जय श्रीराम!

जाट मैं यमला, नारीपे हमला
कुरु क्षेत्रपर धरमका मामला,
घूंघट उतारके रास्तेपे आयी
कोलेजमें पहुचीं तो आसिड का काम,
अल्लाहु-अकबर! जय श्रीराम!

हिन्दू और मुस्लिम के तब्लीकी भाई
एक हैं खाटीक, एक हैं कसाई,
नारी ये बकरी बीचमें फ़साई
एक के फतवे में दुसरे का काम,

पाँव की जूती पाँव में ही रक्खो
समतासे कैसे चलेगा काम?
अल्लाहु-अकबर! जय श्रीराम!

मिलिंद पदकी

Anonymous said...

font bahut kharaab hai, padhna mushqil hai...