Monday, November 26, 2012

लोकतांत्रिक महिलावादः एलिस वॉकर




हाल में अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में बहुत सारे उदारवादी ओबामा के पक्ष में `कम बुरे` का तर्क दे रहे थे। हमारे यहां भी इस तरह कॆ तर्क खूब दिए जाते हैं। अमेरिकी चुनावी नतीजों के तुरंत बाद गाज़ा पर अमेरिकी पिट्ठू इस्राइल के बर्बर हमले के बाद इन `उदारवादियों` के न जाने क्या तर्क होंगे पर एलिस वॉकर ने इस कविता के जरिए इन तर्कों को पूरी तरह खारिज कर दिया था। कविता में वॉकर `लोकतांत्रिक महिलावाद` का जो प्रारूप पेश करती हैं, वह भी गौरतलब है। इस कविता का हिंदी अनुवाद भारतभूषण तिवारी ने किया है।



लोकतांत्रिक महिलावाद
वंगारी माथाई (1940-2011) के लिए

आप पूछते हैं मैं क्यों मुस्कुरा उठती हूँ
जब आप मुझसे यह कहते हैं कि
आगामी राष्ट्रीय चुनावों में 
आप बड़ी अनिच्छा के साथ आप
दोनों में से कम बुरे विकल्प के पक्ष में वोट देंगे.

मुस्कुराने की एक वजह ये है कि
हमारे सामने बुरे विकल्प दो से ज़्यादा हैं

दूसरी यह कि हमारे पुराने मित्र नॉस्त्रदमस
याद आते हैं, अपनी चार सौ सालों पुरानी
डरावनी भविष्यवाणी के साथ: कि हमारी दुनिया
और उनकी भी
(हमारे "शत्रु"- जिन में बहुत से बच्चे शामिल हैं)
हमारे जीवन काल में ही
(आणविक नकबा या होलोकॉस्ट की वजह से) ख़त्म हो जायेगी.
ये सब बातें चुनावों के विचार और उन पर
ज़ाया किये जाने वाले अरबों डॉलर को
तनिक मूर्खतापूर्ण साबित करती है.

मैं अमेरिका के दक्षिण वाली अश्वेत,
मेरे लोगों को अपना वोट
बेहद प्यारा था
जबकि दूसरे, सदियों तक,
अपने वोट से खेलते नज़र आये.

जिस एक बात के प्रति मैं आपको
आश्वस्त कर सकती हूँ वह यह कि: 
बुरे विकल्प को वोट देकर मैं कभी
ऐसे पाक दिलों को धोखा नहीं दूँगी
चाहे बुराई उसमें सूक्ष्म प्रमाण में ही क्यों न हो
जो, जैसा कि समाचार प्रसारणों में, उनके रुझान के बावजूद
आप देख सकते हैं
कि सूक्ष्म मात्रा में नहीं है

मैं कुछ और चाहती हूँ;
एक अलग व्यवस्था
पूरी तरह से.
जैसी इस धरती पर
हज़ारों सालों में न देखी गई. जैसे भी.
लोकतांत्रिक महिलावाद.
Democratic Womanism

गौर करिए कि इस शब्द में man कैसे उसके बीचोंबीच है?
यह एक वजह है कि यह मुझे पसंद है. वह वहीं है, सामने और बीच में. मगर वह घिरा हुआ है
मैं उस जीवन पद्धति के पक्ष में वोट देना चाहती हूँ और काम करना चाहती हूँ
जो स्त्रैण का सम्मान करे;
वह पद्धति जो स्वीकार करती है
उस अक्लमंदी की चोरी को
जो महिला और काले मातृ नेतृत्व ने
शायद हमेशा से हमारे अंतरिक्षयान को मुहैया कराई है

मैं टीवी पत्रकार किस्म की लड़की
की नहीं सोच रही:
जो ख़ुशी-ख़ुशी  इस दुनिया के 
बुरे से बुरे लड़कों के साथ घुल-मिल जाए
उसकी आँखें मानों एक दरार
उसका मुँह मानों ज़िप चेन

नहीं, मैं एक असली
व्यवस्था परिवर्तन की बात कर रही हूँ.
जिसमें औरतें 
एक साथ उठें
इस धरती के कमज़ोर और नाकाम जहाज़
का नियंत्रण अपने हाथों में लेने के लिए

जहाँ हर एक हज़ार सालों की
हमारी ख़ामोशी खेदपूर्वक परखी जाती है,
और जिस क्रूर अंदाज़ में करुणा और दयालुता
के हमारे मूल्यों की
खिल्ली उड़ाई गई है
उन्हें दबाया गया है
आज के दौर की त्रासदी को अंजाम देने के लिए

मेरा मानना है, अतीत को बड़े ध्यान से परखा जाना चाहिए
उस से पहले कि हम उसे पीछे छोड़ दें. 
मैं सोच रही हूँ लोकतांत्रिक, और शायद 
समाजवादी, महिलावाद के बारे में.
क्योंकि माँओं, दादियों, दीदियों
और चाचियों के अलावा 
आपस में बाँटने के बारे में गहराई से
और किसे पता होगा?

स्त्री और पुरुष दोनों को
प्यार और दुलार करना?
बीच वालों की तो बात ही छोडिये.
पूरे समुदाय को 
पोषित, शिक्षित और
सुरक्षित रखना?

लोकतांत्रिक महिलावाद
लोकतांत्रिक समाजवादी
महिलावाद, के आइकन होंगे
भलाई के लिए लड़ने वाले प्रखर योद्धा
जैसे वंदना शिवा,
आंग सान सू ची,
वंगारी माथाई
हैरिए टबमन, 
योको ओनो,
फ्रीदा काहलो,
एंजेला डेविस,
और बारबरा लुईस,
और जिधर देखो उधर से, नए-नए आइकन आते ही रहेंगे
आपका नाम भी इस फेहरिस्त में है
मगर यह इतनी बड़ी है (आइसिस* का नाम बीच में आएगा) कि मुझे यहीं रुकना होगा
वरना कविता ख़त्म नहीं हो पायेगी!
तो ज्ञात हो कि मैंने आपको उस समुदाय में शामिल किया है जिसमें
मेरियन राइट इडलमन, एमी गुडमन, सोजोर्नर ट्रुथ, ग्लोरिया स्टीनम और मेरी मेक्लौयड बेथ्यून भी हैं.
जॉन ब्राउन, फ्रेडरिक डगलस, जॉन लेनन और हॉवर्ड ज़िन हैं.
अपने को घिरे हुए पाकर खुश हैं!

कोई व्यवस्था नहीं हैं
कोई व्यवस्था नहीं है फिलवक्त यहाँ
जो रुख बदल सके उस
बर्बादी के रास्ते का जिस पर धरती चल रही है

कोई शक?

धरती के पुरुष नेताओं ने
लगता है कि अपने विवेक को ताक पर
रख दिया है
हालाँकि लगता है कि
बहुत से पूरी तरह
अपने दिमागों में रहते हैं.

वे क़त्ल करते हैं इंसानों और दूसरे जानवरों का
जंगलों नदियों और पहाड़ों का 
हर दिन
वे काम में लगे होते हैं
और लगता नहीं कि वे कभी इस बात
पर ध्यान भी देते हैं

वे विनाश को खाते और पीते हैं
दुनिया की औरतों
दुनिया की औरतों
क्या हम ये विनाश हैं?
तेल के लिए (या किसी और चीज़ के लिए) 
हम समूचे महाद्वीपों को ख़त्म कर देंगे
बजाय इसके कि हम जिन्हें पैदा करते हैं
उन उपभोक्ता औलादों की संख्या पर रोक लगाएँ

एक शासन व्यवस्था
जिसका ख़्वाब हम देख सकते हैं, कल्पना कर सकते हैं और साथ मिल कर 
तैयार कर सकते हैं. व्यवस्था जो स्वीकार करती है
प्रकृति माँ की हत्या में कम से कम छह हज़ार सालों तक 
क्रूरता से लागू की गई सहभागिता
मगर देखती है छह हज़ार साल आगे तक
जब हम झुकेंगे नहीं

हमें क्या चाहिए होगा? योजना बनाने के लिए
कम से कम सौ साल: (जब दुनिया इतनी डरी
हुई है तो हमें ख़ुशी-ख़ुशी
पांच सौ साल दे दिए जायेंगे)
जिसमें महिलाओं के समूह आपस में मिलेंगे,
अपने आप को संगठित करेंगे, 
और उन पुरुषों के साथ मिलकर
जिनमें महिलाओं के साथ खड़े होने का साहस है
आदमी जिनमें औरतों के साथ खड़े होने का साहस है
हमारे ग्रह की परवरिश कर उसे सेहत के एक अच्छे दर्जे तक 
ले आयेंगे.

और किसी क्षमा-याचना के बिना --
(जितनी गन्दगी मचाई जा चुकी है उस से ज्यादा 
मचाना आगे मुमकिन नहीं) --
समर्पित कर दें अपने आप को, विरोध की परवाह किये बिना,
अथक सेवा कार्य में और हमारी मातृ नौका को पुनर्जीवित करने में
और उसने जो हमारी देखभाल की है
उसके प्रति कृतज्ञता के साथ 
श्रद्धापूर्वक उसे पुनःस्थापित
करने हेतु प्रतिबद्ध हों.

*मिस्र की प्राचीन धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आइसिस प्रकृति की संरक्षक देवी है.

(इस कविता का एक छोटा अंश `समकालीन सरोकार` पत्रिका में छप चुका है।)

Thursday, November 15, 2012

दलित उत्पीड़न का जातीय समीकरण



दिल्ली से सटा हरियाणा देसी-ग्रामीण मिजाज वाले विकसित राज्य के तौर पर जाना जाता है। यहां की सड़कें, यहां के गबरू जवान, यहां की बोली-बानी, यहां के खिलाड़ी लड़के-लड़कियां, यहां के नेता, यहां तक कि यहां की बदतमीजियां सब कुछ ग्लेमर के साथ पेश की जाती हैं। अहा ग्राम्य जीवन के सुरूर में जीने वालों को ग्रामीण समाज की भयंकर विसंगतियां कभी विचलित नहीं करती हों तो हरियाणा में हाल-फिलहाल में हुई बलात्कार की एक के बाद एक करीब बीस वारदातों से भी उन पर कोई असर पडऩे वाला नहीं है। तब तो शायद बिल्कुल भी नहीं जबकि उत्पीडि़त परिवार दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हों। लेकिन हरियाणा की घटनाएं भारतीय लोकतंत्र के लिए भयंकर चेतावनी और चुनौती की तरह हैं। सबसे ज्यादा शायद इसलिए कि व्यवस्था ने न्याय करने के चिर-परिचित नाटक तक को जरूरी नहीं समझा। सत्ताधारी कांग्रेस और विपक्ष दोनों खुलकर उत्पीड़कों की हिमायत में खड़े हो गए। अधिकांश वारदातों में आरोपी युवक हरियाणा के समाज और राजनीति में मजबूत पकड़ रखने वाली किसान जाट जाति से ताल्लुक रखते हैं। ऐसे में स्वाभावकि था कि कुख्यात खाप पंचायतें सक्रिय हो गईं और बलात्कारियों को कड़ी सजा देने और उत्पीडि़तों की सुरक्षा और विश्वास बहाल करने की मांग के बजाय बलात्कार की वजहों के बेशर्म विश्लेषण शुरू हो गए। पश्चिमी संस्कृति और लड़कियों की चाल-ढाल से लेकर युवाओं की बेरोजगारी तक तमाम वजहें गिनाकर अपराध को एक स्वाभाविक और अनिवार्य सी घटना की तरह पेश करने की होड़ लग गई। खाप प्रतिनिधियों ने लड़कियों का विवाह कम उम्र में कर देने की मांग करते हुए कानून में बदलाव की मांग की और इंडियन नैशनल लोकदल के मुखिया व पूर्व मुख्मंत्री ओमप्रकाश चौटाला ने इसकी खुली हिमायत की। खापों को एनजीओ करार दे चुके और ऑनर किलिंग जैसे मामलों तक में खापों की भूमिका का बचाव कर चुके मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने चौटाला के बयान की भरपाई के लिए अपने सिपेहसालारों को आगे किया। कांग्रेस के एक जाट नेता धर्मवीर गोयत ने कहा कि रेप की वारदातें लड़कियों की मर्जी से होती हैं। वे अपने किसी प्रेमी के साथ कहीं चली जाती हैं और उनका प्रेमी अपने साथियों को बुलाकर लड़की को सामूहिक बलात्कार का शिकार बना लेता है। ऐसे बयानों से देश भर में प्रगतिशील तबका सन्न था लेकिन हरियाणा के मुख्यमंत्री को कोई फिक्र थी तो सिर्फ यह कि जाट उनसे नाराज न हों। कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इस सिलसिले में हरियाणा का दौरा किया तो हुड्डा उन्हें ऐसे गांव में ले गए जहां उत्पीडि़त और आरोपी दोनों दलित समुदाय से ताल्लुक रखते थे और इस तरह जाटों के नाराज होने का खतरा नहीं के बराबर था। इस बारे में आवाज उठाने वाले संगठनों को जातिवाद न फैलाने की चेतावनी दी गई और दलित संगठनों को गांवों का कथित भाईचारा कायम रहने देने की सलाह दी गई। जनवादी महिला समिति ने विभिन्न महिला संगठनों के साथ मिलकर रोहतक में प्रदर्शन किया तो पुलिस ने लाठियां बरसा दीं। कहने का मतलब यह कि डेमोक्रेसी में इंसाफ न करते हुए भी इंसाफ करने का जो प्रहसन मजबूरी माना जाता है उससे पूरी तरह मुक्ति पा ली गई।
उत्पीड़कों को राजनीतकि संरक्षण के असर के लिहाज से अकेले हिसार जिले की कुछ वारदातों पर नज़र डालना मददगार हो सकता है। 21 अप्रैल 2010 को हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में जाट समुदाय के लोगों ने बाल्मीकि समुदाय के लोगों के घरों में आग लगा दी थी। एक विकलांग युवती सुमन और उसके पिता ताराचंद की मौके पर ही मौत हो गई थी। इस रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना में सरकार और उसकी मशीनरी का रवैया बेहद शर्मनाक रहा। खापों और जाट महासभा ने बाकायदा बयान जारी कर दलितों को मुकदमे वापस लेने की धमकियां दीं और आरोपियों के पक्ष में खूब हंगामा किया। आखिर, दलितों को गांव से पलायन करना पड़ा। मिर्चपुर के बहुत सारे दलित परिवार आज भी हिसार में वेदपाल तंवर नाम के एक चर्चित व्यापारी के फार्म हाउस पर झोपडिय़ां डालकर रहने को मजबूर हैं। मिर्चपुर कांड के एक प्रमुख गवाह विक्की के पिता धूप सिंह के मुताबिक, करीब एक साल पहले विक्की की भी हत्या कर दी गई है लेकिन इस बारे में कोई मुकदमा तक दर्ज नहीं है। इसी फार्म हाउस पर खरड़ अलीपुर गांव से जाट किसानो द्वारा खदेड़ दिए गए कुछ बावरिया परिवार भी शरण लिए हुए हैं। दलितों का
मानना है कि मिर्चपुर की घटना में सरकार के रवैये ने उत्पीड़कों के दुस्साहस को दोगुना कर दिया। बाद में जाटों को आरक्षण की मांग को लेकर हिसार से सटे मइयड गांव में जाटों ने रेलवे ट्रेक पर डेरा डाल दिया। महीनों तक रेलवे लाइन पर कब्जा जमाए रखने और जमकर तोडफ़ोड़ करने के बावजूद उत्पातयिों के प्रति सरकार पूरी तरह नरम रही। मइयड ताकतवर जाटों के लिए एक सफल प्रयोग साबित हुआ और इसके बाद गांवों में दलितों पर उत्पीडऩ की वारदातें और तेज हो गईं। सदियों से चुपचाप सहते चले आने वाले दलितों की युवा पीढ़ी में प्रतिरोध की जिद ने भी प्रतिहिंसा को बढ़ावा दिया। हिसार में मिनी सेक्रेट्रिएट परिसर में लंबे समय से धरने पर बैठे भगाना से खदेड़े गए दलितों की यही कहानी है।

भगाना गांव में जाटों ने करीब 280 एकड़ शामलात की जमीन पर कब्जे के साथ ही खेल के मैदान पर भी कब्जे की कोशिश की तो दलित युवकों ने इसका विरोध किया औप प्रशासन को शिकायत भेज दी। जाटों ने पंचायत कर दलित युवकों के पिताओं को सख्त चेतावनी दी जिसे युवाओं ने मानने से इंकार कर दिया। आखिरकार, दलितों के घरों में तोडफ़ोड़ कर दी गई, उनके सामाजिक बहिष्कार का ऐलान कर उन्हें गांव से खदेड़ दिया गया। कुछ दलितों के घरों के दरवाजों के बाहर दीवारें चुनवा दी गईं। गांव से पलायन कर मिनी सेक्रेट्रिएट पहुंचे दलितों के पशु जब्त कर गौशाला भेज दिए गए और छह दलितों के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा कायम कर दिया गया। भगाना के दलित अभी तक मिनी सेक्रेट्रिएट परिसर में डेरा डाले हुए हैं और वे दिल्ली में भी प्रदर्शन कर चुके हैं लेकिन इंसाफ मिल पाना तो दूर की बात उनके सम्मान व सुरक्षा के साथ गांव लौट पाने की संभावनाएं भी नहीं बन पा रही हैं। इसी जिले के डावडा गांव की नाबालिग दलित छात्रा के साथ गांव के ही किसान परिवारों के करीब 12 युवकों ने 9 सितंबर को न केवल सामूहिक बलात्कार किया बल्कि मोबाइल से फिल्म बनाकर एमएमएस भी जारी कर दिए। करीब नौ दिन बाद लड़की के पिता ने आत्महत्या कर ली और दलितों ने बलात्कारियों की गिरफ्तारी तक शव का पोस्टमार्टम न होने देने की चेतावनी दी तो हडकंप मच गया। पांच दिनों तक शव रखा रहा और खासी जद्दोजहद के बाद एक आरोपी पकड़ा गया तो 23 सितंबर को शव का अंतिम संस्कार किया गया। अभी तक सारे आरोपी गिरफ्तार नहीं हो पाए हैं और दलितों के खिलाफ जाटों का ध्रुवीकरण हो चुका है। उत्पीडि़त परिवार आतंक के साये में हैं। प्रशासन कुछ युवकों को बचाना चाहता है जिनमें से एक राजकुमार की मां उत्पीड़ित छात्रा को धमकी देने के लिए उसके मामा के हिसार स्थित घर ही जा पहुंची। आरोपियों में इनेलो और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के नेताओं से जुड़े युवा हैं और इस बात की संभावनाएं कम हैं कि लंबी लड़ाई में उत्पीड़ित को इंसाफ मिल पाएगा।

इसमें कोई शक नहीं है कि अपराधों में बढ़ोतरी के पीछे आर्थिक वजहें भी हैं। आज़ादी  के बाद हरियाणा में भूमि वितरण कानून लागू नहीं हो सका था। यही वजह रही कि पड़ोसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान बीघे को मानक मानते हुए बात करता है तो हरियाणा में किल्ले (एकड़) को मानक मानकर। यहां किसान खुद को जमींदार कहना ही पसंद करता रहा है। अब खेती की जोतें छोटी हो रही हैं और बेरोजगारी बढ़ रही है तो युवा अपराधों की तरफ बढ़ रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति ने लुंपनिज़्म को बढ़ावा दिया है और आखिरकार लुंपन समूहों की मार औरतों और दलित औरतों पर सबसे ज्यादा पड़ रही है जिन पर पहले ही ज़मीन के नाम पर कुछ नहीं था। जाहिर है कि कोई भी विश्लेषण जातीय पहलू को शामिल किए बिना नाकाफी है क्योंकि सबसे ज्यादा आसान शिकार व नाइंसाफी के लिए अभिशप्त दलित तबका ही है और दलितों के प्रति उत्पीडऩ में शामिल तबके के युवाओं के पास ही प्रदेश में नौकरी की गारंटी सबसे ज्यादा है जिसे अब आरक्षण की मांग के साथ और पुख्ता करने की कोशिश की जा रही है। हरियाणा की सांस्कृतिक परंपरा की बात की जाए तो यहां नवजागरण का असर नहीं के बराबर रहा। आर्य समाज के असर वाले इस इलाके ने बंटवारे के खूनखराबे के साथ ही मिलीजुली सेक्युलर संस्कृति से भी रिश्ता खत्म कर डाला। बाद में इसके असर को पूरी तरह धो-पोंछ कर नया हरियाणा खड़ा किया गया। यहां बीजेपी खुद अकेली बड़ी राजनीतिक ताकत भले न हो लेकिन आरएसएस का नेटवर्क पूरे प्रदेश में बेहद मजबूत है। गाय के सहारे गांवों खासकर जाटों में सक्रिय रहने वाले आर्य समाज के साथ आरएसएस ने भी गांवों में असर बढ़ा लिया है। दुलीना में पांच दलितों को गाय के नाम पर जिंदा जला दिया गया था तो आर्य समाज और आरएसएस दोनों ने खाप-पंचायतों के साथ मिलकर हत्यारों के पक्ष में आवाज उठाई थी। दलित उत्पीडऩ की ताजा घटनाओं में भी आरएसएस की संदिग्ध सक्रियता से इंकार नहीं किया जा सकता है। दिल्ली में भी आरएसएस के राकेश सिन्हा जैसे प्रवक्ता टीवी बहसों में खाप प्रतिनिधियों के सुर में सुर मिला ही रहे हैं। 

इस तरह के मामलों में एक बड़ी बाधा संगठित प्रतिरोध का अभाव है। हिसार जिले का ही उदाहरण लें तो अलग-अलग धरनों के बावजूद एक सामूहिक संघर्ष खड़ा नहीं हो पाया है। यूं भी दलितों की चमार, धानक और बाल्मीकि जातियों में खासी दूरियां हैं और तीनों के ही पास न सामूहिक और न अलग-अलग विश्वसनीय नेतृत्व है। ऐसी परिस्थितियों में सबसे आसान माहौल जाट बनाम गैर जाट की सियासत करने वालों को नज़र आ रहा है। भजनलाल और देवीलाल परिवार लंबे समय तक इसी आसान सियासत का फायदा उठाते रहे। यह साफ है कि जाटों की तरह ही दूसरी ताकतवर जातियां भी अपने-अपने असर वाले इलाकों में दलितों और औरतों के साथ दुश्मनी का सलूक ही करते आए हैं। जहां तक नवजागरण और प्रगतिशील बदलाव की कोशिशों में जुटी ताकतों को सवाल है तो वे काफी बेबस नज़र आती हैं। लगातार मोर्चा लेने के बावजूद नई परिस्थितियों से कैसे निपटा जाए,इसकी तैयारी और समझ दोनों का अभाव साफ नज़र आता है।
खेत मजदूर सभा और ट्रेड यूनियन के सहारे सीपीएम ने हरियाणा के किसानों-मजदूरों के बीच खासा काम किया है और हिसार में अभी तक इसकी जड़ें काफी गहरी हैं। जनवादी महिला समिति ने भी उत्पीडऩ के मामलों में प्रतिरोध की भूमिका अदा की है। लेकिन, नया दलित उभार वाम ताकतों के साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार नहीं है और खुद वाम ने इतने लंबे समय तक दलित कार्यकर्ताओं के साथ काम करते हुए दलित नेतृत्व तैयार नहीं किया।
---------------

हरियाणा में दलित उत्पीड़न की वारदातों पर एक आधी-अधूरी टिपण्णी जो समयांतर नवंबर 2012 अंक में छपी है।