नवभारत टाइम्स के दिनों में अनुराग अन्वेषी बेहद शिद्दत से अपनी मां शैलप्रिया जी को याद करते थे। उन दिनों उन्होंने उनकी कुछ कविताएं भी सुनाई थीं और उनकी स्मृति में एक ब्लॉग ‘शेष है अवशेष’ नाम से बनाया था। कुछ देर पहले अनुराग भाई से ही पता चला कि शैलप्रिया स्मृति सम्मान शुरू करने का निर्णय लिया गया है और इस संबंध में कवि-कथाकार प्रियदर्शन (शैलप्रिया जी के बड़े बेटे) ने जानकीपुल ब्लॉग पर पोस्ट लगाई है। वही पोस्ट यहां साझा कर रहा हूं-
18 साल पहले मां नहीं रही।
तब वह सिर्फ 48 साल की थी। तब समझ में नहीं आता था, लेकिन आज अपनी 45 पार की उम्र
में सोचता हूं, वह कितना कम जी सकी। हालांकि वह छोटा सा जीवन संवेदना और सरोकार से
भरा-पूरा था। घर-परिवार-शहर और स्त्रियो के लिए अपने स्तर पर बहुत सारे संघर्षों
में वह शामिल रही। कविताएं लिखती रही, कुछ कहानियां भी। उसके रहते उसके दो कविता
संग्रह ‘अपने लिए’ और ‘चांदनी आग है’ भी प्रकाशित हुए। बाद में
‘घर की तलाश में यात्रा’,
‘जो अनकहा रहा’ और ‘शेष है अवशेष’ नाम की किताबें भी आईं।
लेकिन सबकुछ जैसे छूटता चला गया। हिंदी के विराट संसार में रांची की एक अनजान और
दिवंगत कवयित्री को कौन याद करता- भले ही उसके पास स्त्री संवेदना से जुड़ी कुछ
बहुत अच्छी कविताएं हों। हमारा संकोच हमें बार-बार रोकता रहा कि हम अपनी ओर से
उसकी चर्चा करें। हम, उसके बच्चे, अक्सर सोचते रहे कि कभी उसकी स्मृति में भी कुछ
कर पाएं। अब जाकर एक संयोग बनता दिख रहा है। हमने महिला लेखन के लिए15000 रुपये का शैलप्रिया स्मृति सम्मान देने का निश्चय किया है।
पहला सम्मान उसके जन्मदिन पर इस 11 दिसंबर को रांची में दिया जाएगा। बाकी घोषणाएं
बाद में होंगी। फिलहाल उनके संग्रह ‘चांदनी आग है’ की पांच कविताएं आपके लिए
प्रस्तुत हैं। बरसों पहले छोटे भाई अनुराग अन्वेषी ने मां की स्मृति में वहीं से
ये कविताएं से ली हैं- प्रियदर्शन
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1.
फुरसत में
जब कभी
फुरसत में होता है आसमान,
उसके नीले विस्तार में
डूब जाते हैं
मेरी परिधि और बिंदु के
सभी अर्थ।
क्षितिज तट पर
औंधी पड़ी दिशाओं में
बिजली की कौंध
मरियल जिजीविषा-सी लहराती है।
इच्छाओं की मेघगर्जना
आशाओं की चकमकी चमक
के साथ गूंजती रहती है।
तब मन की घाटियों में
वर्षों से दुबका पड़ा सन्नाटा
खाली बरतनों की तरह
थर्राता है।
जब कभी फुरसत में होती हूं मैं
मेरा आसमान मुझको रौंदता है
बंजर उदास मिट्टी के ढूह की तरह
सारे अहसास
हो जाते हैं व्यर्थ।
2.
ज़िंदगी
अखबारों की दुनिया में
महंगी साड़ियों के सस्ते इश्तहार हैं।
शो-केसों में मिठाइयों और चूड़ियों की भरमार
है।
प्रभू, तुम्हारी
महिमा अपरम्पार है
कि घरेलू बजट को बुखार है।
तीज और करमा
अग्रिम और कर्ज
एक फर्ज।
इनका समीकरण
खुशियों का बंध्याकरण।
त्योहारों के मेले में
उत्साह अकेला है,
जिंदगी एक ठेला है।
3.
एक सुलगती नदी
मैं नहीं जानती,
कब से
मेरे आस-पास
एक सुलगती नदी
बहती है।
सबकी आंखों का इंद्रधनुष
उदास है
अर्थचक्र में पिसता है मधुमास।
मैं देखती हूं
सलाखों के पीछे
जिंदगी की आंखें
आदमियों के समंदर को
नहीं भिगोतीं।
उस दिन
लाल पाढ़ की बनारसी साड़ी ने
चूड़ियों का जखीरा
खरीदा था,
मगर सफेद सलवार-कुर्ते की जेब में
लिपस्टिक के रंग नहीं समा रहे थे।
मैं नहीं जानती,
कब से
मेरे आस-पास बहती है
एक सुलगती नदी।
4.
उत्तर की खोज में
एक छोटे तालाब में
कमल-नाल की तरह
बढ़ता मेरा अहं
मुझसे पूछता है मेरा हाल।
मैं इस कदर एक घेरे को
प्यार क्यों करती हूं?
दिनचर्याओं की लक्ष्मण रेखाओं को
नयी यात्राओं से
क्यों नहीं काट पाती मैं?
दर्द को महसूसना
अगर आदमी होने का अर्थ है
तो मैं सवालों के चक्रव्यूह में
पाती हूं अपने को।
मुक्तिद्वार की कोई परिभाषा है
तो बोलो
वे द्वार कब तक बंद रहेंगे
औरत के लिए?
मैं घुटती हुई
खुली हवा के इंतजार में
खोती जाऊंगी अपना स्वत्व
तब शेष क्या रह जाएगा?
दिन का बचा हुआ टुकड़ा
या काली रात?
तब तक प्रश्नों की संचिका
और भारी हो जाएगी।
तब भी क्या कोई उत्तर
खोज सकूंगी मैं?
5.
फाग और मैं
एक बार फिर
फाग के रंग
एक अनोखी जलतरंग छेड़ कर
लौट गये हैं।
मेरे आंगन में फैले हैं
रंगों के तीखे-फीके धब्बे।
चालीस पिचकारियों की फुहारों से
भींगती रंगभूमि-सी
यह जिंदगी।
और लौट चुके फाग की यादों से
वर्तमान में
एक अंतराल को
झेलती हूं मैं
अपने संग
फाग खेलती हूं मैं।