Wednesday, October 30, 2013

विचारधारा ही ज़बान और बयान को तय करती है - असद ज़ैदी


`प्रभात खबर` अख़बार में छपा वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी का इंटरव्यू

‘कविता’ आपके लिए क्या है?

कविता समाज में एक आदमी के बात करने का तरीक़ा है। पहले अपने आप से, फिर दोस्तों से, तब उनसे जिनके चेहरे आप नहीं जानते, जो अब या कुछ बरस बाद हो सकता है आपकी रचना पढ़ते हों। कविता समाज को मुख़ातिब करती बाहरी आवाज़ नहीं, समाज ही में पैदा होने वाली एक आवाज़ है। चाहे वह अंतरंग बातचीत हो, उत्सव का शोर हो या प्रतिरोध की चीख़। यह एक गंभीर नागरिक कर्म भी है। एक बात यह भी है कि कविता आदमी पर अपनी छाप छोड़ती है - जैसी कोई कविता लिखता है वैसा ही कवि वह बनता जाता है और किसी हद तक वैसा ही इन्सान।


लेखन की शुरुआत स्वत: स्फूर्त थी या कोई प्रेरणा थी?

खुद अपने जीवन को उलट पुलटकर देखते, और जो पढ़ने, सुनने और देखने को मिला है उसे संभालने से ही मैं लिखने की तरफ़ माइल हुआ। घर में तालीम की क़द्र तो थी पर नाविल पढ़ने, सिनेमा देखने, बीड़ी सिगरेट पीने, शेरो-शाइरी करने, गाना गाने या सुनने को बुरा समझा जाता था। यह लड़के के बिगड़ने या बुरी संगत में पड़ने की अलामतें थीं। लिहाज़ा अपना लिखा अपने तक ही रहने देता था। पर मिज़ाज में बग़ावत है, यह सब पर ज़ाहिर था।


आपने शुरुआत कहानी से की थी फिर कविता की ओर आये. कविता विधा ही क्यों?

शायद सुस्ती और कम लागत की वजह से। मुझे लगता रहता था असल लिखना तो कविता लिखना ही है। यह इस मानी में कि कविता लिखना भाषा सीखना है। कविता भाषा की क्षमता से रू-ब-रू कराती है, और उसे किफ़ायत से बरतना भी सिखाती है। कविता एक तरह का ज्ञान देती है, जो कथा-साहित्य या ललित गद्य से बाहर की चीज़ है। वह सहज ही दूसरी कलाओं को समझना और उनसे मिलना सिखा देती है। हर कवि के अंदर कई तरह के लोग - संगीतकार, गणितज्ञ, चित्रकार, फ़िल्मकार, कथाकार, मिनिएचरिस्ट, अभिलेखक, दार्शनिक, नुक्ताचीन श्रोता और एक ख़ामोश आदमी - हरदम मौजूद होते हैं।


अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में बताएं.

मैं अक्सर एक मामूली से सवाल का जवाब देना चाहता हूँ। जैसे : कहो क्या हाल है? या, देखते हो? या, उधर की क्या ख़बर है? या, तुमने सुना वो क्या कहते हैं? या, तुम्हें फ़लाँ बात याद है? या, यह कैसा शोर है? जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, मेरे प्रस्थान बिंदु ऐसे ही होते हैं। कई दफ़े अवचेतन में बनती कोई तस्वीर या दृश्यावली अचानक दिखने लगती है जैसे कोई फ़िल्म निगेटिव अचानक धुलकर छापे जाना माँगता हो। मिर्ज़ा ने बड़ी अच्छी बात कही है - 'हैं ख़्वाब में हनोज़ जो जागे हैं ख़्वाब में।'

दरअसल रचना प्रक्रिया पर ज़्यादा ध्यान देने से वह रचना प्रक्रिया नहीं रह जाती, कोई और चीज़ हो जाती है। यह तो बाद में जानने या फ़िक्र में लाने की चीज़ है। यह काम भी रचनाकार नहीं, कोई दूसरा आदमी करता है - चाहे वह उसी के भीतर ही बैठा हो - जो रचना में कोई मदद नहीं करता।

मुक्तिबोध से बेहतर चिंतन इस मामले में किसी ने नहीं किया, वह इन मामलात की गहराई में गए थे। 'कला का तीसरा क्षण' निबंध और 'बाह्य के आभ्यंत्रीकरण' और 'अभ्यन्तर के बाह्यकरण' का चक्रीय सिद्धान्त जानने और समझने की चीज़ें हैं। लेकिन मुझे यक़ीन है कवि के रूप में मुक्तिबोध 'तीसरे क्षण' के इन्तिज़ार में नहीं बैठे रहते थे।


अपनी रचनाशीलता का अपने परिवेश, समाज और परिवार से किस तरह का संबंध पाते हैं?

संबंध इस तरह का है कि 'दस्ते तहे संग आमदः पैमाने वफ़ा है' (ग़ालिब)। मैं इन्ही चीज़ों के नीचे दबा हुआ हूँ, इनसे स्वतंत्र नहीं हूँ। लेकिन मेरे लेखन से ये स्वतंत्र हैं, यह बड़ी राहत की बात है।


क्या साहित्य लेखन के लिए किसी विचारधारा का होना जरूरी है?

पानी में गीलापन होना उचित माना जाए या नहीं, वह उसमें होता है। समाज-रचना में कला वैचारिक उपकरण ही है - आदिम गुफाचित्रों के समय से ही। विचारधारा ही ज़बान और बयान को तय करती है, चाहे आप इसको लेकर जागरूक हों या नहीं। बाज़ार से लाकर रचना पर कोई चीज़ थोपना तो ठीक नहीं है, पर नैसर्गिक या रचनात्मक आत्मसंघर्ष से अर्जित वैचारिक मूल्यों को छिपाना या तथाकथित कलावादियों की तरह उलीचकर या बीनकर निकालना बुरी बात है। यह उसकी मनुष्यता का हरण है। और एक झूटी गवाही देने की तरह है।


आप अपनी कविताओं में बहुत सहजता से देश और दुनिया की राजनीतिक विसंगतियों को आम आदमी की जिंदगी से जोड़ कर एक संवाद पेश करते हैं. क्या आपको लगता है कि मौजूदा समय-समाज में कवि की आवाज सुनी जा रही है?

मौजूदा वक़्त ख़राब है, और शायद इससे भी ख़राब वक़्त आने वाला है। यह कविता के लिए अच्छी बात है। कविकर्म की चुनौती और ज़िम्मेदारी, और कविता का अंतःकरण इसी से बनता है। अच्छे वक़्तों में अच्छी कविता शायद ही लिखी गई हो। जो लिखी भी गई है वह बुरे वक़्त की स्मृति या आशंका से कभी दूर न रही। जहाँ तक कवि की आवाज़ के सुने जाने या प्रभावी होने की बात है, मुझे पहली चिन्ता यह लगी रहती है कि दुनिया के हंगामे और कारोबार के बीच क्या हमारा कवि ख़ुद अपनी आवाज़ सुन पा रहा है? या उसी में एबज़ॉर्ब हो गया है, सोख लिया गया है? अगर वह अपने स्वर, अपनी सच्ची अस्मिता, अपनी नागरिक जागरूकता को बचाए रख सके तो बाक़ी लोगों के लिए भी प्रासंगिक होगा।


आपके एक समकालीन कवि ने लिखा है (अपनी उनकी बात: उदय प्रकाश) आपके साथ ‘हिंदी की आलोचना ने न्याय नहीं किया.’ क्या आपको भी ऐसा लगता है? इसके पीछे क्या वजहें हो सकती हैं?

मैं अपना ही आकलन कैसे करूँ! या क्या कहूँ? ऐसी कोई ख़ास उपेक्षा भी मुझे महसूस नहीं हुई। मेरी पिछली किताब मेरे ख़याल में ग़ौर से पढ़ी गई और चर्चा में भी रही। कुछ इधर का लेखन भी। इस बहाने कुछ अपना और कुछ जगत का हाल भी पता चला।


लेखन से जुड़े पुरस्कारों को कितना अहम मानते हैं एक लेखक के लिए?

मुझे अपने मित्र पंकज चतुर्वेदी की कविता 'कृतज्ञ और नतमस्तक' की याद आ रही है। यह कालजयी रचना बहुत थोड़े शब्दों में वह सब कह देती है जो इस मसले पर कहा जा सकता है।


कृतज्ञ और नतमस्तक
पंकज चतुर्वेदी

सत्ता का यह स्वभाव नहीं है
कि वह योग्यता को ही
पुरस्कृत करे
बल्कि यह है
कि जिन्हें वह पुरस्कृत करती है
उन्हें योग्य कहती है

अब जो पुरस्कृत होना चाहें
वे चाहे ख़ुद को
और पूर्व पुरस्कृतों को
उसके योग्य न मानें
मगर यह मानें
कि योग्यता का निश्चय
सत्ता ही कर सकती है

अंत में योग्य
सिर्फ सत्ता रह जाती है
और जो उससे पुरस्कृत हैं
वे अपनी-अपनी योग्यता पर
संदेह करते हुए
सत्ता के प्रति
कृतज्ञ और नतमस्तक होते हैं
कि उसने उन्हें योग्य माना


आप अपनी सबसे प्रिय रचना के तौर पर किसका जिक्र करना चाहेंगे?

इस बारे में राय बदलता रहता हूँ, किसी समय कोई कविता ठीक लगती है किसी और समय दूसरी। मेरे दोस्तों से पूछिए तो कहेंगे मेरी ज़्यादातर रचनाएँ अप्रिय रचनाएँ हैं। यह भी ठीक बात है। उन लोगों को जो पसन्द हैं - या सख़्त नापसंद हैं - वे कविताएँ हैं : बहनें, संस्कार, आयशा के लिए कुछ कविताएँ, पुश्तैनी तोप, दिल्ली दर्शन, कविता का जीवन, अप्रकाशित कविता, सामान की तलाश, आदि।


इन दिनों क्या नया लिख रहे हैं? और लेखन से इतर क्या, क्या करना पसंद है?

कुछ ख़ास नहीं। वही जो हमेशा से करता रहा हूँ। मेरी ज़्यादातर प्रेरणाएँ और मशग़ले साहित्यिक जीवन से बाहर के हैं, लेकिन मेरा दिल साहित्य में भी लगा रहता है। समाजविज्ञानों से सम्बद्ध विषयों पर "थ्री एसेज़" प्रकाशनगृह से किताबें छापने का काम करता हूँ। और अपना लिखना पढ़ना भी करता ही रहता हूँ। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, ख़ासकर ख़याल गायकी, सुनते हुए और विश्व सिनेमा देखते हुए एक उम्र गुज़ार दी है।


ऐसी साहित्यिक कृतियां जो पढ़ने के बाद ज़ेहन में दर्ज हो गयी हों? क्या खास था उनमें?

चलते चलते ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते। मैं पुराना पाठक हूँ। जवाब देने बैठूँ तो बक़ौल शाइर - 'वो बदख़ू और मेरी दास्ताने-इश्क़ तूलानी / इबारत मुख़्तसर, क़ासिद भी घबरा जाए है मुझसे।' कुछ आयतें जो बचपन में रटी थीं और अन्तोन चेख़व की कहानी 'वान्का' जो मैंने किशोर उम्र में ही पढ़ ली थीं ज़ेहन में नक़्श हो गईं हैं। इसके बाद की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है।
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`प्रभात खबर ` में इस बातचीत के कुछ पैराग्राफ नहीं हैं।

Saturday, October 19, 2013

हिटलर के यातना शिविर हैं ये गांव- शंबूक

देसां म्हैं देस हरियाणा जित......

30 मार्च, शनिवार तक़रीबन शाम साढ़े 5 बजे के आस-पास का बात है, जब मदीना गांव, भैराण रोड़ नहर पर दबंग जाति के लोगों द्वारा खेतों में मेहनत-मजूरी करके लौट रहे दलितों के साथ जमकर ख़ून की होली खेली गई। ताक़तवर दबंग जाति के ये बिगड़े हुए शोहदे बकायदा योजनाबद्ध तरीके से, हथियारों से लैस होकर, नहर के पास झाड़ियों में घात लगाए बैठे थे। दलित मज़दूरों में महिलाएं भी थीं और बच्चे भी। दिन भर की कड़ी मेहनत और पसीने से रवां शरीर, मज़दूरी ख़त्म होने के बाद जब शाम को सूरज ढल रहा होता है, दोबारा से नई ताज़गी हासिल कर लेता है। क्योंकि इस बात का इत्मीनान होता है कि आाज का काम ख़त्म। चेहरे पर मेहनत की लकीरें चुहलबाज़ी करने लगती हैं और हल्की-फुल्की चुटकियां लेते मज़दूर घर को लौटने लगते हैं। इसी वक़्त परींदे भी अपने घोंसलों को लौटते हैं। ये दलित परीवार भी इसी तरह अपने घर को लौट रहा था। इस बात से अनभिज्ञ कि नहर पर मौत उनका इंतज़ार कर रही है।
जैसे ही दलितों की बुग्गी नहर पर पहुंची, बदमाशों ने हमला बोल दिया। अंधाधुंध फायरिंग कर दी। एक 10 साल के बच्चे के सिर में गोली लगी और बच्चा ख़ून से लथपथ तड़पने लगा। एक नौजवान की छाती में गोली लगी और उसकी मौके पर ही मौत हो गई। एक नौजवान की जांघ में गोली लगी जो आज भी मेडिकल में ज़िंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है। महिलाओं और लड़कियों ने खेतों में भागकर, छिपकर अपनी जान बचाई।
हादसे का कारण ये है कि दलितों ने बस्ती में महिलाओं के साथ बदसलूकी करने वाले दबंग जाति के इन बदमाशों को टोक दिया था। ये घटना कोई 8-9 महीने पहले की है। दबंग जाति के ये नौजवान एक मरतबा रात को जबरन एक दलित परिवार के घर में घुस गये अैर महिलाओं के साथ बदतमीज़ी करने लगे तो दलितों ने उसकी जमकर पिटाई की। गौरतलब है कि दलित बस्ती में गांव के सरपंच ने अपना अड्डा बना रखा है जहां दिन-रात लफंगे पड़े रहते है। राब पीते हैं, अय्याशी करते हैं और कहीं भी खड़े होकर पेशाब करने लगते हैं। पानी भरने या अन्य किसी काम से भीतर-बाहर जाने वाली लड़कियों के साथ बदतमीज़ी करते हैं। शौच के लिये बाहर जाना पड़ता है, इस वक़्त महिलाओं को तंग किया जाता है और जोर-जबरदस्ती तक की नौबत आ जाती है। इन लफंगों ने पहले भी कई बार बस्ती में महिलाओं के साथ बदतमीज़ी की है और कहासुनी हुई है। ये मामला 8-9 महीने पुराना है। इस दरम्यान पुलिस थाने में भी कई बार इतिल्ला दी गई लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नही की। आज गांव में सन्नाटा पसरा हुआ है और दलित ख़ौफ के साये में हैं।
ऐसा ही सन्नाटा उस वक़्त पसरा था जब दलितों ने दबंग जाति के नौजवान की पिटाई की थी। तब जाटों ने योजना बनाई थी कि दलितों को गांव से खदेड़ दिया जाये। लेकिन गांव के ही एक पूर्व चेयरमैन और ज़िला प्रशासन के हस्तक्षेप से बड़ा हादसा टल गया था। बहरहाल उसी मौके पर लड़के ने भरी पंचायत में ऐलान कर दिया था कि मैं जेल से छूटते ही इन (दलित) लोगों को क़त्ल करूंगा। अभी कुछ दिन हुये ये लड़का जेल से छूटकर आया था। इसने आते ही अन्य बदमाशों को इकठ्ठा किया, गैंग बनाया और दलितों की बर्बरतापूर्ण हत्या कर दी। गांव के लोंगों का मानना है कि अगर पुलिस समय रहते कार्रवाई करती तो ये हादसा टल सकता था।
गौरतलब है कि हरियाणा में ये कोई पहली घटना नही है और ना ही मदीना में पहली घटना है। मदीना में पहले भी दबंगों ने एक दलित की हत्या की थी और पंचायत आदि करके मामले को रफा-दफा कर दिया गया था। जाटों ने पीड़ित परिवार को मुआवज़ा देने की बात तय की थी लेकिन गांव गवाह है कि आज तक कोई मुआवज़ा नही दिया गया। इसके अलावा गाहे-बगाहे दलितों के साथ मारपीट आम है। एक बार एक दबंग जाति के किसान ने दलितों की चैहनीशमशानघाट पर कब्ज़ा कर लिया था और मात्र थोड़ी सी ज़मीन छोड़ दी। दलित बस्ती के लोग इकठ्ठा होकर तुरंत मौके पर पहुंचे तब शान घाट पर बाड़ की जा रही थी। दलितों ने ऐतराज़ जताया तो उन्होंने बहुत बेहूदा और घटिया अंदाज़ में कहा था कि ‘‘के सारे चूड़े कठ्ठे मरोगे, जो इतना बड़ा शान घाट चाहिये।’’
रविदास जयंति पर मदीना गांव में ही कुछ दबंग जाति के नौजवान जानबूझकर बार-बार महिलाओं में घुस रहे थे। वहीं पर पास में कढ़ाई चढा रखी थी, प्रसाद के लिये। कुछ नौजवान वहां बैठकर सब्ज़ी काट रहे थे, आलू वगैरह छील रहे थे। इन दलित नौजवानों ने जब उन लफंगों को टोका तो उन्होंने चाकू से हमला कर दिया। जिसमें तीन नौजवान घायल हुए। एक नौजवान का ज़ख़्म आज तक नही भरा है। इसके अलावा वाल्मीकि जाति के नौजवान पंकज को सर्दियों में दबंगों ने तक़रीबन जान से मार दिया था। ख़ुदा की ख़ैर है कि वो बच गया लेकिन छः महीने तक खाट भुगती। सर्दियों की बात है, सुबह 6-7 बजे के आस-पास पंकज शौच आदि से निवृत्त होकर घर लौट रहा था। कोल्हू के पास दबंग जाति के नौजवान छिपे हुये थे। उन्होंने गुड़ बनाने वाले गरम पलटों से हमला बोल दिया....। मात्र मदीना ही नही बल्कि हर गांव में दलित उत्पीड़न के महाकाव्य हैं।
हरियाणा के गांव हिटलर के यातना शिविर बने हुए हैं। हर गांव में बर्बर हादसे सिर दबाये बैठे हैं। ये हर रोज़ गर्दन निकालते हैं और दलित ख़ून का घूंट पीकर, अपमान झेलकर, माफी आदि मांगकर इन हादसों को दो क़दम दूर ठेल देते हैं। रोजमर्रा के स्वाभाविक काम मसलन भीतर-बाहर आना-जाना, बच्चों का स्कूल जान, पानी लाना, दुकान से सौदा लाना, टट्टी-पेशाब जाना आदि अत्यंत अपमान से गुजरकर अंजाम पाते है। अगर कोई व्यक्ति ये स्वाभाविक क्रियाएं करने के लिये भी सौ बार सोचे तो आप समझ सकते हैं कि क्या स्थिति है। ग़रीबों का पूरा कुनबा खटता है तब पेट भरता है। दिहाड़ी-मजूरी करनी ही पड़ती है। दिहाड़ी के लिये इन्हीं के खेतों में जाना होता है। मजूरी के पैसे के लिये झगड़े होते हैं। ईंधन लेने जाने वाली महिलाओं के पीछे दबंग जाति के ये तथाकथित इज़्ज़तदार लोग और इनके सुपुत्र कपड़े निकाल कर भाग पड़ते हैं। अैसी कई घटनाएं सामने आई हैं। गुजारे के लिये कुछ परिवार पशुपालन करते हैं मसलन एकाध मुर्गी, बकरी या सुअर पालते है। इन पशुओं को लेकर दलितों को आये दिन धमकाया जाता है, पीटा जाता है। कई मरतबा पषुओं को ज़हर दे दिया जाता है। गांव में गुजारा कैसे हो? गांव में गुजारे के साधन यही हैं- ज़मीन, शुपालन या फिर दिहाड़ी-मजूरी। ज़मीन चाहे खेती योग्य हो या शामलाती, सब जगह वे ही पसरे पड़े हैं। जातिगत उत्पीड़न का ताल्लुक़ ज़मीन से सीधा है। हरियाणा में भूमि सुधार लागू किया जाना चाहिये और बेज़मीनी दलित परिवारों को भूमि आवंटित की जानी चाहिये।
दलित महिलाएं ताक़तवर तबकों के निशाने पर हैं। हरियाणा में पिछले दिनों हुई सामूहिक बलात्कार की घटनाओं में ज़्यादातर शिकार दलित लड़कियां हैं। दलित महिलाओं के साथ छेड़खानी, बलात्कार करना दबंग जाति के ये लफंगे अपना अधिकार समझते हैं। शायद गाम-राम, मौज़िज़ लोग, पुलिस और प्रशासन भी। तभी तो कोई कार्रवाई नही होती। उल्टा अगर दलित ऐतराज़ ज़ाहिर करते हैं, महिलाएं विरोध करती हैं तो सबमें कभी खुली तो कभी छिपी प्रतिक्रिया होती है। मात्र मदीना ही नही तक़रीबन हर गांव में दलित बस्ती को इन लफंगों ने अपनी चारागाह बना रखा है। अगर कोई टोक दे तो मारपीट, क़त्ल, दंगा, आगजनी।
कितने अैसे मामले हैं जिनमें टोकने पर दलितों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया और पंचायत में माफी भी मंगवाई और बेइज़्ज़त भी किया। सवाल उठता है कि ये असामाजिक तत्व इतना बेख़ौफ़ क्यों है? जवाब स्पष्ट है कि पुलिस, क़ानून, कोर्ट किसी बात का डर नही है। क्योंकि इन सब ने बार-बार दलित और महिला उत्पीड़न के मामलों में इन ताकतवर जातियों और लफंगों के साथ ही प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है। गौरतलब है कि दुलीना में पुलिस चौकी के अंदर पांच दलितों की पीट-पीट कर हत्या की गई थी, गोहाना में पुलिस की मौजूदगी में दलित बस्ती को आग लगाई और मिर्चपुर के दलित जब न्याय के लिये प्रतिरोध कर रहे थे तब उन पर लाठियां भांजी गई। सामूहिक बलात्कारों और यौन हिंसा के खि़लाफ रोहतक में प्रदर्शन कर रही महिलाओं पर लाठीचार्ज किया गया। प्रदर्शन में पीड़ित लड़कियां, उनके परिजन और पूर्व सांसद वृंदा करात भी थी। इन असामाजिक तत्वों को दूसरी ताक़त मिलती है जात से, ज़मीन से, दलाली से आयी नई पूंजी से, खाप पंचयतों से, पुरूष होने के दंभ से। हरदम ग़रीबों की जान हलक़ में अटकाये रखने वाले ये बदमाश हरियाणा की राजनीति को चलाने के महत्वपूर्ण क़िरदार हैं। इनको बकायदा राजनैतिक संरक्षण प्राप्त है। क्योंकि दलित, अल्पसंख्यक, महिलाओं के साथ मनमर्ज़ी करना, अपमान करना, बेगार कराना इन बातों को सामाजिक स्वीकार्यता है, हरियाणा के दंभी समाज में।
इसलिये इस तरह की घिनौनी हरकतों को टोल बनाकर, गैंग बनाकर भीड़ बनाकर अंज़ाम दिया जाता है। इसके कई फायदे हैं ताकत तो बढ़ती ही है, इसके अलावा क़ानूनी चोर दरवाज़ों की मदद भी मिलती है। चाहे दुलीना का मामला हो, चाहे मिर्चपुर हो, हरसौला हो या फिर गोहाना हो या फिर मदीना हो, टोल बनाकर, इकठ्ठे होकर ये लोग अपनी ताकत का झण्डा कमजोरों की छाती में गाड़ते हैं। परिणामस्वरूप केस ज़्यादा लोगों के ख़िलाफ दर्ज़ होता है। इस बात पर और अधिक प्रतिक्रिया होती है। यहां तक कि कई संवेदनषील व समझदार लोग भी बेक़सूरोंको बचाने की दुहाई देने लगते हैं। ये फिनोमिना की तरह सामने आया है। मिर्चपुर में बेक़सूरोंको बचाने के लिये पंचायतें हुई। प्रगतिषील लोगों ने भी सुर में सुर मिलाया। आॅनर किलिंग के मामलों में भी अैसी बात सामने आई और अब मदीना में भी 1 अप्रैल को जाटों की पंचायत हुई। जिसमें यही बात सामने आई कि बेक़सूरोंके नाम भी लिखे गये हैं। मदीना कांड मामले की जांच कर रहे एसपी राजेष दुग्गल का कहना है कि ‘‘मामला गंभीर है और बेक़सूरों को सजा नही मिलनी चाहिये।’’ कमाल है बिना किसी कार्रवाई, पूछताछ, जांच, गिरफ्तारी के इन्हें कैसे मालूम पड़ जाता है कि कौन बेक़सूर है। दलित उत्पीड़न के केस में ये अधिकारी जांच करने की बजाय अंतर्यामी बन जाते हैं। गौरतलब है कि गांव के सरपंच जितेन्द्र के ख़िलाफ भी एफआईआर है। लेकिन वो गांव में खुला घूम रहा है और उसी ने गांव में पहलकदमी करके समानांतर पंचायत का आयोजन किया। जिसमे दलितों के किसी प्रतिनिधि और पीड़ित परीवार को पक्ष रखने के लिये षरीक तक नही किया गया। इससे साफ पता चलता है कि इस तरह की पंचायतों के क्या रूझान हैं। जिस पर गुजरी है वो ढंग से एफआईआर भी नही करा सकता। ये सुनिष्ति करना बहुत ज़रूरी है कि पीड़ितों के द्वारा दर्ज़ कराई गई एफआईआर को ही जांच का आधार बनाया जाये और भविष्यवाणी के आधार पर स्वयंभू न्यायधीष बनने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई हो।
इन गांवों की रोजमर्रा की ज़िंदगी में फासीवाद पसरा पड़ा है। प्रतिदिन का अपमान और उत्पीड़न, थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद बर्बर हमले और उसके बाद न्याय की लड़ाई। न्याय की प्रक्रिया और भी कष्टकारी है। क्येंकि बाद में धमकियों का दौर षुरू हो जाता है। डराया जाता है, कर्ज़ वापसी का दबाव बनाया जाता है, स्कूलों से बच्चों को निकाल दिया जाता है, दुकानों से सामान नही लेने दिया जाता मतलब पूरी ज़िंदगी अस्त-व्यस्त। हरियाणा में कितनी ही बार दलित विस्थापन की नौबत आई है। 200-250 परिवार, बुजुर्ग, महिलाएं, बच्चे, पषु वगैरह खुले आसमान के नीचे मौसम की मार खाते हैं। मिर्चपुर के ज़्यादातर परिवार अभी गांव से बेदखल हैं।
प्रष्न ये उठता है कि पुलिस, नौकरषाह, राजनेता, न्यायपालिका क्या अफीम खाये बैठे हैं। कब तक महिला सषक्तिकरण और दलित उत्थान के गूंगे ढोल पीटते रहेंगे। हरियाणा में दलित आयोग का गठन क्यों नहीं किया जा रहा है। ये सुनिश्चित किया जाये कि आयोग में ऐसे लोग हों जो सामाजिक न्याय और जातिगत मसलों पर संवेदनशील हों, जिनका इन मसलों पर संघर्ष करने का रिकार्ड हो। वर्ना महिला आयोग की तरह ही खानापूर्ति होगी। जगजाहिर है कि हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्ष ने लड़कियों के लिये ड्रैस कोडकी वकालत की थी। यूं तो 6-7 महीने पहले ही हरियाणा में मानवाधिकार आयोग बनाया गया है, जो ख़ुद दयनीय हालत में है। आयोग के नाम पर बेहूदा मज़ाक। ये और भी ज़्यादा भयानक बात है क्योंकि उत्पीड़ित तबकों के हक़ों, मान-सम्मान और सुरक्षा के लिये बनी महत्वपूर्ण एजेंसी प्रहसन बन जाती है। उत्पीड़ितों के बचे-खुचे एकाध सहारे भी छीन लिये जाते हैं, उनका अपहरण कर लिया जाता है।
जिस भी इलाके में जातिगत हिंसा होती है वहां पर कार्रवाई ना करने वाले पुलिसकर्मियों और अधिकारियों को दोषी करार दिया जाये, सजा मिले। चुने हुये प्रतिनिधियों की जवाबदेही फिक्सकी जाए। इस तरह के मामलों पर उल-जुलूल बयान देने वाले राजनेताओं और पंचायतियों पर भी कार्रवाई की जाये। केस के दौरान होने वाली पंचायतों पर अंकुश लगे जो गुण्डों को बचाने के भोंडे तर्क देते हैं। पीड़ितों पर दबाव बनाते हैं और जांच प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। दलित उत्पीड़न के केसों में पीड़ितों के द्वारा बार-बार जोर दिये जाने के वजूद भी एससीएसटी एक्ट नही लगाया जाता। मात्र पुलिस ही नही बल्कि आमतौर पर समाज में भी जातिगत हिंसा को आम झगड़े व अपराध की तरह देखने का रुझान है। दुख और हैरानी की बात ये है कि संवेदनशील लोग भी इस रुझान की चपेट में आ जाते हैं। असल में एफआईआर दर्ज़ कराना ही महाभारत है और अगर हो भी जाये तो साधारण मारपीट, झगड़े आदि के केस बनाये जाते हैं। एफआईआर दर्ज़ करने की प्रक्रिया सुगम बने और कार्यरत प्रभारी कर्मियों की मनमानी पर अंकुश लगाने और उन्हें मॉनीटर करने का प्रबंध किया जाये। एफआईआार दर्ज़ ना करने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई हो। असल में विडम्बना ये है कि बदमाशों के पास आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक ताकत है, साथ ही औपचारिक और अनौपचारिक ढांचे भी कहीं न कहीं इन्हें ही सर्पोट मुहैया कराते हैं। ग़रीब, दलित और महिलाओं के मदद, सुरक्षा और न्याय के लिये बनी एजेंसियों मसलन थानों आदि तक से ये तबके तौबा करते हैं, डरते हैं। ये बड़ा प्रश्न है कि कानूनों को व्यवहारिक तौर पर अमल में कैसे लाया जाये? थाने, तहसील, कोर्ट, पुलिस, प्रशासन को अपना क़िरदार बदलना होगा। ताकि पीड़ित लोग बेहिचक अपनी शिकायतें दर्ज़ करा पाएं और बदमाशों के आत्मविष्वास को ढीला किया जाये। वर्ना एफआईआर, शिकायत तो दूर की बात, अभी तो हालत ये है कि आपका कलेजा निकाल लें और रोने भी ना दें।

नोटः- गौरतलब है कि मदीना काण्ड में 18 लोगों के खि़लाफ एफआईआर दर्ज़ है लेकिन अब तक मात्र चार लोगों को ही गिरफ्तार किया गया है। इसी दरम्यान पबनावा कैथल में भी जातिगत उत्पीड़न का गंभीर मामला सामने आ चुका है। हिसार ज़िला के कल्लर भैणी गांव में 15 साल के बच्चे से दबंगों ने पानी का बर्तन छीन लिया, बर्तन का पानी उड़ेला और पीने के पानी के बर्तन में पेषाब किया। लड़के के मामा ने विरोध किया तो जातिसूचक गालियां दी, लाठियों और बल्लम से उस पर हमला बोल दिया। यहां भी दबंग जाति के इन लफंगों ने दलित बस्ती को अपना अड्डा बना रखा है।
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(मार्च 2013 में मदीना कांड के बाद दिल्ली से वहां गए एक दलित युवक ने ये बातें मेल के जरिये भेजी थीं। तब से जींद में दलित युवती के साथ रेप और उसकी हत्या समेत जाने कितनी वारदातें हो चुकी हैं। उन सभी को इस मेल की रोशनी में देखा जा सकता है कि हर बार सरकार और उसकी मशीनरी का रवैया वही रहता है। चाहें तो हरियाणा के पड़ोसी राज्यों और देश के बाकी हिस्सों के गांवों को भी इस मेल की रोशनी में देख-समझ सकते हैं। इसीलिए इस पुराने मेल को इतने दिन बाद भी पूरी तरह प्रासंगिक पाकर यहां चिपका रहा हूं।-धीरेश)

Wednesday, October 9, 2013

चे के शहादत दिवस पर गणेश विसपुते की कविता



महान क्रांतिकारी और वामपंथी विचारक अर्नेस्टो चे गुएवारा दुनिया भर में वंचित तबकों के संघर्षों के प्रतीक और प्रेरणास्रोत हैं। अर्जेन्टीना में जन्मे (14 जून 1928) डॉक्टर अर्नेस्टो क्यूबाई क्रांति के लिए हुए सशस्त्र संघर्ष में फिदेल कास्त्रो के चे (साथी) थे और फिर क्यूबा के हर नागरिक के। दुनिया भर में पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ गरीब जनता के पक्ष में क्रांति का सपना देखने वाले चे ने लातिनी अमेरिकी देशों में जनता के संघर्षों में सीधे भागीदारी की। और इसी संघर्ष में हिस्सा लेते हुए वे आज ही के दिन 9 अक्टूबर 1967 को बोलीविया में शहीद हो गए। उनके शहादत दिवस पर मराठी कवि, चित्रकार, चिंतक गणेश विसपुते की यह कविता `मोटरसाइकिल डायरीज़` भारतभूषण तिवारी ने हिंदी में अनुवाद करके भेजी है। गौरतलब है कि `द मोटरसाइकिल डायरीज़` चे का मशहूर यात्रा वृत्तांत है जो अमेरिकी अत्याचारों और जनता के बुरे हालातों से उनके साक्षात्कार का दस्तावेज भी है। इसी शीर्षक से फिल्म भी बन चुकी है।
 
मोटरसाइकिल डायरीज़

डेढ़ सौ कुर्सियों वाले हॉल में तीन सौ लड़के
पसीने से तरबतर होते हुए भीड़ लगाए देख रहे हैं झुककर
चे गुएवारा की डायरी में
दो उँगलियों के बीच बेफिक्री से सिगार पकड़े हुए
चे लिख रहे हैं डायरी मग्न होकर
पीछे माउंट माक्चूपिक्चू का ऊंचा नीला पहाड़
उनकी डायरी में झांकते हुए पढ़ हे हैं लड़के
किसी उत्साही संस्था द्वारा रखे गए फ्री शो के लिए आए हुए
हॉल में भीड़ लगाए

सिगार से उठ रहे हैं धुएँ के छल्ले
चे लिखते हुए बैठे हैं डायरी
ऊपर से झांकते हुए धुएँ के छल्लों में
धूसर नज़र आते हैं उनकी डायरी के हर्फ़
मगर लड़कों ने पढ़ डाला है उन्हें स्पष्ट दिखाई देने वाला शब्द
लड़के भी लिखने लगे हैं डायरियाँ विसंगतियों की

दमे के मरीज चे की साँस फूल रही है और वे
नदी पार कर रहे हैं बड़े प्रयत्नपूर्वक
ऑक्सीजन पाने का प्रयास कर रहे हैं
डूब रहे-उतरा रहे हैं लड़के हाथ पैर मार रहे हैं
उन्हें चाहिए सीधी ज़िंदगी
उम्मीदों के बोझे तले से
उछल कर निकल जाने का प्रयास कर रहे हैं लड़के.
 

हिमालय के निर्जन की जमा देने वाली रात में
सार्च्यू के पठार पर सांय-सांय हवाएँ बहती हैं
पानी जमने लगता है
तम्बू से बाहर निकल कर ऊपर देखते हुए
जादुई सितारों की जगमगाती दुनिया
इंडिगो ब्लू आसमान में नीचे आ चुका होता है
सार्च्यू का पठार और दक्षिण अमेरिका के रास्तों की
फिल्में एक-दूसरे पर सुपरइम्पोज़ होती हैं

हिमालय के निर्जन में सार्च्यू के पठार पर
मोटरसाइकिलों पर कुछ लड़के आकर रुकते हैं
कड़कड़ाती उँगलियों से चाय के कप पकड़े
बातें करते हैं आगे के सफर की
आगे का रास्ता लेह को जाता है
शायद वही रास्ता और आगे भी जाता होगा
जहाँ पहुँचे थे
चे गुएवारा

गणेश विसपुते

















Tuesday, October 1, 2013

लाल सिंह दिल की कविताएं



कुत्ते पुकारते हैं
`मेरा घर, मेरा घर`
जगीरदार
`मेरा गाँव, मेरी सल्तनत`
लीडर
`मेरा देश, मेरा देश`
लोग सिर्फ कहते हैं
`मेरी क़िस्मत, मेरी क़िस्मत`
मैं क्या कहूँ?
 (दिल की कविता का एक अंश)

लाल सिंह दिल की कविताओं को पढ़ने के लिए जीवट चाहिए। तल्ख़ हकीकतों में सने इक़लाब के ख़्वाब, इन ख़्वाबों की तामील के लिए संघर्ष, कड़े संघर्षों और लगभग न जी सकने के हालात में भी ज़िंदगी की दुर्लभ छवियां, एक ऐताहिसक पराजय की विडंबनाओं का गहरा बोध...। उम्मीदों और अवसादों का एक अटूट सिलसिला। एक क्लासिक कविता जिसकी भाषा और शिल्प में एक सुच्चा अनगढ़पन है और पुख़्तापन भी, वैचारिक संज़ीदगी है, अद्भुत सौंदर्यबोध है, मुहब्बतों, ख़्वाबों से भरी आग है और झूठी तसल्लियों के लिए कोई जगह नहीं है। फूल, पत्ती, कुहुक, गांव-गांव चिल्लाकर लोक-लोक करने के बजाय यहां गांव, किसानी, मजूरी, जात और इनसे जुड़ी ज़िल्लतों, कमबख्तियों के बीच संघर्षों का असली लोक है।
नक्सल आंदोलन के असर में उभरे पंजाबी कवियों पाश, अमरजीत चंदन, सुरजीत पातर आदि के समकालीन दिल की ज़िंदगी की दास्तान कम कमबख़्तियों से भरी नहीं है। लेकिन, उसका जिक्र बाद के लिए, हालांकि वह हमारे समाज के टुच्चेपन की भी दास्तान है। वे दलित थे और इस सच ने इंकलाबी होने, बड़ा कवि होने और इस्लाम कबूल करने के बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ा, इस दास्तान का एक मार्मिक पहलू है। एक लंबी इंतजार और कवि के जाने के बाद ही सही, आधार प्रकाशन ने उनकी कविताओं के हिंदी अनुवाद के प्रकाशन का ऐतिहासिक काम कर दिखाया है। अनुवाद का `आग का दरिया दिल से` गुजारने जैसा काम संवेदनशील हिंदी कवि सत्यपाल सहगल ने किया है। और उनकी कविताओं के मिजाज सा ही कवर डिजाइन कवि भूपेंद्र सिंह बराड़ का है। 
संग्रह से कुछ कविताएं-


मातृभूमि

प्यार का भी कोई कारण होता है?
महक की कोई जड़ होती है?
सच का हो न हो मकसद कोई
झूठ कभी बेमकसद नहीं होता!

तुम्हारे नीले पहाड़ों के लिए नहीं
न नीले पानियों के लिए
यदि ये बूढ़ी माँ के बालों की तरह
सफेद-रंग भी होते
तब भी मैं तुझे प्यार करता
न होते तब भी
मैं तुझे प्यार करता
ये दौलतों के खजाने मेरे लिए तो नहीं
चाहे नहीं
प्यार का कोई कारण नहीं होता
झूठ कभी बेमकसद नहीं होता

खजानों के साँप
तेरे गीत गाते हैं
सोने की चिड़िया कहते हैं।


लहर

वह
साँवली औरत
जब कभी बहुत खुशी से भरी
कहती है
``मैं बहुत हरामी हूं!``

वह बहुत कुछ झोंक देती है
मेरी तरह
तारकोल के नीचे जलती आग में
मूर्तियाँ
किताबें
अपनी जुत्ती का पाँव
बन रही छत
और
ईंटें ईंटें ईंटें।



हृढ़

वे तो हमें वहाँ फेंकते हैं
जहाँ शहीद गिरा करते हैं
, गिरते आये हैं
नहरों दरियाओं में जो, वही हमारे हैं
, कानून की चिताओं में
जो वही, अंग्रेंज वाले हैं
वहाँ लाखों करोड़ों देशभक्तों की राख है
उन्होंने सरमायेदार तो
एक भी नहीं जलाया
उन्होंने तो जट्टों सैणियों के लड़के
, झीवर पानी ढोते ही जलाये हैं
, भट्टों में कोयला झोंकने वाले लोग
काले काले प्यारे नैन-नक्श वाले पुरबीए।

वे तो हमें फेंकते हैं
हरी लचकीली काही* में
या पहाड़ी कीकरों की महक में, हम उनको
नालियों में
गोबरों में
कुत्तों के बीच से
लोगों की जूतियों के नीचे से घसीटेंगे

 * काही- नदियों, नहरों के किनारे उगने वाले सरकंडे



प्रतिकांति के पैर

सपना ही रह गया
कि फंदा पहनायेंगे
बुरे शरीफज़ादों को
वे लकीरें निकालेंगे नाक के साथ
हिसाब देंगे लोगों के आगे।

प्रतिक्रांति के पैर
हमारी छातियों पर आ टिके
ज़लील होना ही हमारा
जैसे एकमात्र
पड़ाव रह गया।


गैर विद्रोही कविता की तलाश


मुझे गैर विद्रोही
कविता की तलाश है
ताकि मुझे कोई दोस्त
मिल सके।
मैं अपनी सोच के नाखून
काटना चाहता हूँ
ताकि मुझे कोई
दोस्त मिल सके।
मैं और वह
सदा के लिए घुलमिल जायें।
पर कोई विषय
गैर विद्रोही नहीं मिलता
ताकि मुझे कोई दोस्त मिल सके।


हमारे लिए

हमारे लिए
पेड़ों पर फल नहीं लगते
हमारे लिए
फूल नहीं खिलते
हमारे लिए
बहारें नहीं आतीं
हमारे लिए
इंकलाब नहीं आते


जात

मुझे प्यार करने वाली
पराई जात कुड़िये
हमारे सगे मुरदे भी
एक जगह नहीं जलाते
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लाल सिंह दिल (1943-2007) 

आधार प्रकाशन
एस.सी.एफ. 267, सेक्टर-16
पंचकूला-134113 हरियाणा।