(बांग्ला
अखबार 'एई
समय' में
प्रकाशित आशीष लाहिड़ी के लेख
का वरिष्ठ कवि व वैज्ञानिक लाल्टू का किया अनुवाद। आशीष लाहिड़ी नैशनल
काउंसिल ऑफ साइंस म्युज़ियम
में विज्ञान के इतिहास के
अध्यापक हैं)
वैज्ञानिक
मेघनाद साहा कम उम्र में ही
ताप-आधारित
आयनीकरण की खोज
कर दुनिया भर
में प्रख्यात हो चुके थे। उनका
मन हुआ कि बचपन के गाँव
जाकर
आम लोगों से बातचीत कर आएँ।
एक बूढ़े वकील ने उनसे पूछा,
'बेटा,
का खोजा
है तुमने कि एतना नाम हो गया।'
मेघनाद
ने समझाने की कोशिश की
कि सूरज
के प्रकाश में रंगों का विश्लेषण
कर वहाँ मौजूद या जो मौजूद
नहीं हैं,
उन तत्वों
को जानने का तरीका निकाला है।
सुनकर उम्रदराज वकील साहब
बोले, 'हँ:,
इसमें
नया का है,
सब्ब
बेद में बा।'
ताप-आधारित
आयनीकरण की जगह पिथागोरस के
प्रमेय या अंग
ट्रांस्प्लांटेशन
(गणेश
इसके प्रमाण हैं)
ने ले
ली है। एन आर आई की ताकत के
बल
पर पहलवान बने बजरंगबली की
पूँछ में तीन 'म'शालें
धू-धू
जल रही हैं -
मनी,
मैनेजमेंट,
मीडिया।
हाल में इस मशाल की लपटें
विज्ञान महासभा तक
धधक उठीं।
भले लोग आतंकित हैं। पर अगर
ऐसा नहीं होता तो क्या हिसाब
ठीक रहता?
पढ़े
लिखे लोगों ने बीजेपी से इससे
अलग और क्या अपेक्षा रखी
थी?
पिछली
बार बीजेपी के सत्ता में आने
पर विश्वविद्यालयों में ज्योतिष (हस्तरेखा)-
'विज्ञान'
को अलग
विषय मानकर पढ़ाना लगभग चालू
ही हो गया था। नार्लिकर
समेत
दीगर वैज्ञानिकों ने विरोध
जताया था। यह सब जानकर ही तो
पढ़े लिखे
लोगों ने बीजेपी को
सत्ता दी है। तो फिर बंधु अब
क्यों चीखो मम्मी,
मम्मी...!'
सवाल
प्रधानमंत्री या बीजेपी के
आचरण का नहीं है। सवाल यह है
कि लोग
आज क्यों चौंक रहे हैं?
इसमें
बड़ी बेईमानी है। अगर बीजेपी
सत्ता में नहीं भी
होती,
तो क्या
देश के लोगों के बड़े हिस्से
की, वैज्ञानिकों
की भी, आस्था
क्या
ऐसी ही नहीं है?
सब्ब
बेद में होने की परंपरा तो
आधुनिक हिंदू-चेतना
में
अमिट,
अमर
है। विद्यासागर ने 1853
में कहा
था, 'भारत
के पंडितों'
के लिए
वैज्ञानिक सच गौण हैं,
गैरज़रूरी
हैं, वे
यह देखते हैं कि इस सच के साथ हिंदुओं
के शास्त्रों के किसी विचार
का सही या कल्पित मेल कितना
है। अक्षय दत्त ने
आजीवन ऐसे
खयालों का विरोध करते हुए खुद
को समाज से बहिष्कृत तक
करवा
लिया, पर
क्या इससे किसी का विचार बदला?
जी नहीं,
अगर
बदला
होता तो विवेकानंद क्यों
कहते कि न्यूटन के जन्म के एक
हजार साल पहले ही
हिंदुओं ने
गुरुत्वाकर्षण की खोज कर ली
थी। विवेकानंद के हमउम्र
प्रकांड
विद्वान योगेशचंद्र
राय विद्यानिधि ने इसका विरोध
करते हुए कहा था,
'कम
जानकारी रखने वाले कुछ लोग
भास्कराचार्य के कथन पेश कर
न्यूटन के महत्व
को कम करना
चाहते हैं। उन्हें यह जानना
चाहिए कि दोनों में ज़मीं
आस्मान का
फर्क है। मेघनाद
साहा स्वभाव से तीखा लिखते
थे, 'इस
देश में कई लोग
सोचते हैं कि
ग्यारहवीं सदी में भास्कराचार्य
गुरुत्वाकर्षण पर धुँधला सा
कुछ
कह गए तो वे न्यूटन के बराबर
हो गए। और न्यूटन ने नया क्या
किया है? पर
ये
'नीम
हकीम खतरे जान'
वाले
श्रेणी के लोग भूल जाते हैं
कि भास्कराचार्य ने
कहीं यह
नहीं कहा कि धरती और दीगर ग्रह
सूरज के चारों ओर अंडाकार
परिधि
में घूम रहे हैं। उन्होंने
कहीं यह सिद्ध नहीं किया कि
गुरुत्वाकर्षण और गति के
नियमों को जोड़कर धरती और दीगर
ग्रहों के गति-कक्ष
पता लगाए जा सकते
हैं। इसलिए
भास्कराचार्य या कोई हिंदू,
ग्रीक
या अरब केप्लर-गैलीलिओ
या
न्यूटन के बहुत पहले ही
गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत
खोज चुके हैं,
ऐसा
कहना
पागल का प्रलाप ही होगा।
बदकिस्मती से इस मुल्क में
ऐसे अंधविश्वास फैलाने
वाले
लोगों की कमी नहीं है,
ये लोग
सच के नाम पर महज खाँटी झूठ
फैला रहे
हैं।'
इससे
हमारी निष्क्रिय चेतना पर
कोई खरोंच पड़ी क्या?
नहीं,
अगर
पड़ती तो
हिग्स बोज़ोन की खोज
के बाद देश के उच्च-शिक्षित
लोग क्यों कह रहे थे कि
अब भारत
ने जो वेदांतिक सच खोजा था,
वह सिद्ध
हुआ।
1961
में
रवींद्रनाथ की विज्ञान-चेतना
की चर्चा करते हुए परिमल
गोस्वामी ने
लिखा था,
'प्राचीन
भारत में सब कुछ ग्रामीण
मान्यताओं पर आधारित था,
इस
देश
में विज्ञान के आने के बाद कई
पढ़े-लिखे
लोगों में इसका असर दिखने
लगा
था।... बिना
प्रमाण और तर्क के कई बार ऐसा
कहा गया है कि आधुनिक
यूरोपी
विज्ञान असल में प्राचीन
भारतीय विज्ञान के एक छोटे
से हिस्से की खोज
मात्र है।
मेरे विचार में बंगाल में आधुनिक विज्ञान को पूरी आस्था
के साथ
स्वीकार करने वाले पहले
व्यक्ति अक्षयकुमार दत्त थे।
पर अकेले उनके प्रचार
की औकात
ही क्या कि वह नए उभरते घमंड
के बनिस्बत तर्कशीलता की
प्रतिष्ठा करे। रवींद्रनाथ
के वक्त झूठे घमंड में बढ़ोतरी
होती चली थी।'
और
इसके
विरोध में रवींद्रनाथ ने
वयंग्य के औजार की मदद ली थी।
हेमंतबाला को
लिखे अमर ख़तों
में रवींद्रनाथ ने इस मूढ़ता
की जम कर खिंचाई की थी। क्या
उस तिरस्कार कोई असर हम पर
पड़ा था? नहीं।
किसी भी बात से हम पर
कोई असर
नहीं पड़ने वाला।
1891
में
ज्योतिराव फुले ने लिखा था,
'कुछ
साल पहले मराठी में लिखी एक
पुस्तक में मैंने ब्राह्मणों
के संस्कारों के असली रुप की
पोल खोली थी।'
उसी
महाराष्ट्र में गणेश आगरकर
ने लिखा था,
'इंसान
के चमड़े के रंग से उसकी
काबिलियत
कैसे पहचानी जा सकती है?
इस
चतुर्वर्ण प्रथा को किसने
शुरू
किया?
किस ने
यह अतिवादी कथा चलाई कि ब्राह्मणों
का जन्म 'समाजपुरुष'
नामक
किसी पुराणकल्पित आदमी के
मुँह से और अछूतों का उसके पैर
से
जन्म हुआ?
ऐसे
अन्यायी शास्त्रों का विनाश
हो।' विनाश
हुआ क्या?
नहीं।
इसीलिए फुले-आगरकर
की चेतावनी के सौ सालों से भी
ज्यादा समय के बाद
उसी महाराष्ट्र
में ब्राह्मणवादी ताकतों के
हाथों तर्कशील जनसेवक चिकित्सक
नरेंद्र दाभोल्कर की मौत हुई।
सनातन धर्म संस्था के सिद्धांतों
के नेता डा.
जयंत
अठवले ने अपनी निजी मानविकता
का ब्रांड दिखलाते हुए सार्वजनिक
रूप से कहा,
हत्यारे
के हाथों मारा जाना दाभोलकर
का कर्मफल है;
अच्छा
ही
हुआ, डॉक्टर
की छुरी सहकर,
ऑपरेशन
टेबल पर मरने से तो यह तो बेहतर
है! उस
प्रांत के कुछ वैज्ञानिकों
के अलावा हममें से और किसी के
सीने में कहीं
कोई आग धधकी?
नहीं
धधकी। रोशनी नहीं चमकी।
हाँ,
यह मानना
पड़ेगा कि अंधविश्वास और
अंधविश्वास मौसेरे भाई हैं।
हिंदुत्ववादी सब्ब वेद में
है कहकर जो हुंकार देते हैं,
उसकी
बिल्कुल एक जैसी
प्रतिध्वनि
पश्चिमी सीमा के पार सुनाई
पड़ती है। बस 'बेद'
की जगह
वे 'कुरान'
कहते
हैं। पाकिस्तान के प्रसिद्ध
नाभिकीय भौतिकी के माहिर परवेज
हूदभाई ने
इसके कुछ नमूने पेश
किए हैं। जैसे 'इस्लामाबाद
में विज्ञान सम्मेलन में एक
जर्मन प्रतिनिधि ने कहा कि
उन्होंने गणितीय टोपोलोजी
का इस्तेमाल कर सिद्ध
कर दिया
है कि वे 'अल्लाह
का कोण' माप
सकते हैं। यह है पाई बटा n,
जहाँ
पाई का मान है 3.1415927...
और n
का मान
अनिश्चित है। पाठक इस
बात को
मानने से इन्कार कर सकते हैं।
सही है, ऐसा
अजीब हिसाब किसी के
दिमाग में
कैसे आ सकता है?
पर
पाकिस्तान के विज्ञान और
प्रौद्योगिकी
मंत्रालय के
इस्लामी विज्ञान सम्मेलन के
संक्षिप्त विवरण-ग्रंथ
(1983) के
पृ.
82 को
देखिए। अगर देखें तो अपनी ही
आँखों पर यकीन नहीं कर पाएँगे।
पाठक यह भी जान लेंगे कि इस
पागल को पाकिस्तान सरकार ने
निमंत्रण कर
उसकी आवभगत का
खर्च तक उठाया था। सवाल उठ
सकता है कि इस
आदमी को ईश निंदा
के ज़ुर्म में क्यों नहीं पकड़ा
गया? इसकी
दो वजहें हैं। एक
तो इस आदमी
की ऊल-जलूल
बातें (जो
छपी हैं) ऐसी
निरर्थक हैं,
कि वह
किसी के समझ नहीं आ सकतीं।
दूसरी बात यह कि उस सभा में वे
अकेले ऐसे
पागल नहीं थे।'
क्या
मुंबई विज्ञान कॉंग्रेस की
सभा में मौजूद विद्वान जन
हूदभाई
की इस पुरानी टिप्पणी
से वक्त रहते कोई सीख ले पाए?
इसलिए,
बीजेपी
का काम बीजेपी कर रही है,
इससे
दुखी होने का नाटक करने
से
पहले, हे
साधुजन, अपनी
नज़र साफ करो।
5 comments:
इस आलेख का फोण्ट बहुत छोटा है। क्या मैं इसे अपने ब्लाग 'अनवरत" पर पुनर्प्रकाशित कर सकता हूँ?
अच्छी चीज़ों के प्रसार में देरी क्यों हो, द्विवेदी जी?
शुक्रिया दिनेश जी।
अच्छी जानकारियां मिलीं।
काफी जानकारी थी
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