अहमद परवेज़ की पेंटिंग |
कराची में हाल ही
में तामीर हुए क्लिफ्टन फ़्लाइ-ओवर का अच्छा-ख़ासा हिस्सा सूफ़ी संत अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी
की मज़ार से होकर गुज़रता है. कुछ दो महीने पहले उस पर ड्राइव करते हुए मुझे लगा कि
मैंने एक मलंग को देखा है जिसे मैं कभी जानता था.
फ़्लाइ-ओवर जहाँ ख़त्म
होता है उसके दाहिनी तरफ बने फुटपाथ पर वह पड़ा था. करीब से देख सकूँ इसलिए मैंने
गाड़ी धीमी की और वाकई वही था हालाँकि अब वह सत्तर पार की उम्र में था. मैंने उसे
तेईस सालों से नहीं देखा था मगर मुझे उसकी शक्ल अच्छी तरह याद थी और खासकर उसका
नाम: खस्सू.
मैंने गाड़ी फुटपाथ
के करीब ली जहाँ वह बड़े आराम से से सोया हुआ था. गाड़ी का शीशा नीचे कर मैं
चिल्लाया, ‘खस्सू!खस्सू!’
मगर खस्सू जवाब ही
नहीं दे. मैंने अपनी गाड़ी फुटपाथ के किनारे खड़ी करने की कोशिश की ताकि नीचे उतर सकूँ,
मगर गाड़ियों का एक रेला मेरी गाड़ी के पीछे जमा होना शुरू हो गया था, और उनके
ड्राइवर इस कदर दीवानावार हॉर्न बजा रहे थे जैसे कि उनकी ज़िंदगियाँ उस पर टिकी हुई
हों.
मैंने सहज बोध से गाड़ी
बाएँ लेकर रास्ते के बीच में ली और आगे बढ़ा. करीब हफ़्ते भर बाद मैं खस्सू को
ढूँढने फिर गया मगर वह कहीं नहीं मिला.
लगभग 1995 तक अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी
मज़ार के बिलकुल पीछे कुछ अपार्टमेंट्स की कतार हुआ करती थी. ये अपार्टमेन्ट साठ के
दशक में बने थे और वहां पार्किंग की काफी बड़ी जगह थी. मैं और मेरे कुछ दोस्त वहाँ अक्सर
क्रिकेट खेलने जाया करते. ये अस्सी और नब्बे के दशक के शुरूआती सालों के दरमियान
की बात है.
1995 के बाद उन अपार्टमेंट्स को तोड़ने की शुरुआत हुई
और आज उस प्लाट पर रियल इस्टेट टाइकून मलिक रियाज़ द्वारा एक विशाल इमारत बनाई जा
रही है.
अस्सी के दशक के
आखिरी सालों में मैं अपने दोस्तों के साथ शाह ग़ाज़ी मज़ार पर (ज़्यादातर कुतुहलवश)
अक्सर जाया करता, खासकर जुमेरात की शामों को जब वहाँ कव्व्वाली की महफ़िलें लगतीं.
पता नहीं वे महफ़िलें अब भी लगती हैं या नहीं मगर नब्बे के दशक के शुरूआती सालों तक
हर जुमेरात को दस बजे से लेकर आधी रात तक कव्वाली की महफ़िलें बिलानागा लगा करतीं.
खस्सू से से मेरी
पहली मुलाक़ात यहीं हुई थी. मेरा ख़याल है ये 1987 की बात है. हमने उम्र के महज बीस साल पूरे किए
थे. खस्सू वहाँ था, हमेशा हरे रंग के लहराते कुर्ते में, बहुरंगी फ़कीराना टोपी,
सफ़ेद होती छोटी दाढ़ी और कलाइयों पर बहुत से कड़े पहने.
अगर वह कव्वाली में
नहीं है (जहाँ वह आम तौर पर होता) तो एक लफ्ज़ न बोलता. जब गाना-बजाना अपने
चक्करदार उरूज पर पहुँचता तो खस्सू नंगे पैर कूद कर एक दिलचस्प अराजक नृत्य (धमाल)
शुरू करता; लगातार ‘हक़, हक़, हक़ अल्लाह!’ चिल्लाता हुआ. कव्वाली के बाद फ़ौरन वह
अपनी हमेशा की ग़मगीन अवस्था में लौट जाता.
एक दिन मेरे एक
दोस्त ने एक और मलंग से पूछा कि खस्सू की क्या दास्ताँ है. उसने हमें बताया कि
खस्सू को उसके बचपन में मज़ार के फाटक पर छोड़ दिया गया था (जो पचास के दशक का आखिरी
दौर रहा होगा). तब से वह यहीं रह रहा है.
उस मलंग ने हमें
बताया कि खस्सू हमेशा से इस तरह खामोश (या ग़मगीन) नहीं था. और फिर एक शानदार कहानी
सामने आई. उसने कहा, ‘खस्सू इंतज़ार कर रहा है.’
किसका इंतज़ार?’कूलर
साहब का....’ उसने जवाब दिया. वह दरअसल कहना चाहता था कलर साहब.
कूलर साहब कौन थे?
वह मलंग तुरंत उर्दू छोड़ पंजाबी पर आ गया: ‘कूलर साहब (मज़ार के मलंगों के) अज़ीज़
दोस्त थे. खासकर के खस्सू के. खस्सू अब भी उनका मुन्तज़िर है.
कूलर साहब गए कहाँ?
“ख़ुदा के पास,’ मलंग ने हमें बताया.
फिर खस्सू क्यों अब
भी उनका मुन्तज़िर है? कूलर साहब ने उससे कहा था कि के वह उस ड्राइंग को
पूरा करने लौटेंगे जो वह खस्सू के लिए बना रहे थे,’ मलंग ने समझाया. ‘मगर वह कभी
नहीं आए. हमें पता चला कि उनका इंतकाल हो गया. मगर खस्सू ने कभी इस बात पर यकीन
नहीं किया. वह अब भी उनका इंतज़ार कर रहा है.
अगले कुछ महीनों में
हमें मालूम हुआ कि कूलर साहब कोई और नहीं बल्कि पाकिस्तान के अग्रणी मुसव्विरों
में से एक अहमद परवेज़ थे. परवेज़ का 1979 में इंतकाल हो गया था.
रावलपिंडी में पैदा
हुए परवेज़ ने चित्रकार के तौर पर अपने करियर की शुरुआत पंजाब विश्वविद्यालय से की
थी. चूंकि वे एक बेचैन रूह के मालिक थे, वे जल्द ही 1955 में लन्दन चले गए.
साठ के दशक के आखिरी
दौर में वे पाकिस्तान लौटे और कराची में आ बसे. सत्तर के दशक में मुल्क के प्रमुख
कलाकारों में उनका शुमार होने लगा और कराची शहर के उस वक़्त फलते-फूलते कला पटल पर
उनका गहरा प्रभाव था.
अपने प्रशंसकों से
घिरे होने के बावजूद बेचैन और बेक़रार बने रहे, कभी संतुष्ट न होने वाले.
उनकी जीवन शैली और
भी अनियमित होने लगी. यूके, यूएस और पाकिस्तान के कला समीक्षकों द्वारा जीनियस कहे
जाने को लेकर और अपनी कृतियों के लिए बड़ी आसानी से खरीदार पाने को लेकर बेपरवाह
परवेज़ के बारे में उनके एक समकालीन ने टिप्पणी की कि वे पैसे के साथ ऐसा बर्ताव
करते थे ‘जैसे उससे उन्हें नफरत हो.’
कला समीक्षक सलवत
अली ने (डॉन अखबार में) परवेज़ के प्रोफाइल में लिखा कि ‘उपद्रव और बातचीत में बेहद
उत्तेजित हो जाना परवेज़ की प्रवृत्ति थी.’ ग्लोबल पोस्ट की उप-सम्पादक और कला
समीक्षक मरिया करीमजी अपने पाठकों को बताती हैं कि ‘1970 के दशक में मुल्क के माने
हुए कलाकारों में से एक अहमद परवेज़ अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी मज़ार में नियमित रूप से आते
थे और उन्हें वहां हाथों में चिलम लिए अक्सर देखा जा सकता था.’
कला समीक्षक और
परवेज़ के समकालीन बताते हैं कि उन्होंने जितना पैसा कमाया वह सब शराब पर खर्च हो
जाता था. जो लोग उनकी सोहबत में आ रहे थे, उनसे उकताकर वे कराची की विभिन्न सूफ़ी मज़ारों
पर जाने लगे. कराची की अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी मज़ार पर वे नियमित रूप से आने लगे.
कला समीक्षक ज़ुबैदा
आग़ा अहमद परवेज़ पर केन्द्रित एक आलेख में कहती हैं कि जैसे-जैसे उनकी शोहरत बढ़ती
गई, वैसे-वैसे उनकी जीवन शैली और भी अनियमित और ‘अस्वास्थ्यकर’ होती गई.
1970 के दशक के अंत तक वे लगभग स्थायी रूप से
अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी मज़ार के मैदानों पर रहने लगे. उसी दौरान खस्सू के साथ उनका
याराना हुआ होगा.
लाहौरवासी कलाकार
मक़बूल अहमद ने, जो 1970 के दशक के आखिरी सालों में लाहौर कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स के छात्र
थे, मुझे बताया कि कैसे वे अपने आदर्श अहमद परवेज़ से मिलने कराची आए मगर जो दिखाई
दिया उससे भौंचक्का रह गए. ‘ये 1978 की बात है. परवेज़ ख़स्ताहाल थे. न उन्होंने मेरी तारीफ़
तस्लीम की और न मौजूदगी. वे बेहद परेशान थे, मगर किसी की समझ में नहीं आता था कि
ऐसा क्यों था.’
मक़बूल ने बताया कि परवेज़
लाखों रुपये कमा सकते थे: ‘उन्होंने थोड़ा पैसा कमाया भी मगर ऐसा लगता था कि उनकी
उसमें दिलचस्पी नहीं थी. वे ऐसा बर्ताव करते जैसे वे उन लोगों को अपनी आत्मा बेच
रहे हों जिन्हें इस बात का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि उनकी कला के मानी क्या हैं.’
मक़बूल ने फिर कयास लगाया, ‘शायद इसी अपराध बोध ने उन्हें बेघर मलंगों के हाथों में
पहुँचा दिया?’
सरकार द्वारा
प्रतिष्ठित प्राइड ऑफ़ परफॉरमेंस अवार्ड से नवाजे जाने पर भी परवेज़ की परीशां
जीवन-शैली जारी रही. और फिर वह हो गया. और किसी को ताज्जुब नहीं हुआ.
1979 में वे अचानक गिरे और होटल के कमरे में मृत पाए
गए. वह होटल कराची में आई.आई. चुन्द्रिगर रोड के करीब वाला बॉम्बे होटल था जो अब
बंद हो चुका है.
अहमद परवेज़ |
मैं अब इस बात से
वाकिफ़ हूँ कि मज़ार पर उनका दोस्त खस्सू अब भी ज़िन्दा है. हालाँकि जब मैंने उसे
आखिरी बार देखा तब वह सो रहा था, मगर ऐसा लगा कि वह अब भी कूलर साहब का इंतज़ार कर
रहा था. और उस ड्राइंग का जिसका वादा उससे 36 साल पहले किया गया था.
मशहूर पत्रकार नदीम एफ. पराचा का यह पीस कूलर साहब का इंतज़ार भारत भूषण तिवारी ने अनुवाद कर `एक ज़िद्दी धुन` के लिए भेजा है।
मशहूर पत्रकार नदीम एफ. पराचा का यह पीस कूलर साहब का इंतज़ार भारत भूषण तिवारी ने अनुवाद कर `एक ज़िद्दी धुन` के लिए भेजा है।