Monday, July 3, 2017

ये रही मैं, तुम्हारे सामने, तुमसे मुकाबला करने के लिए : अरुंधति रॉय


Photo by TARUN BHARTIYA

तीन विभिन्न अंग्रेजी साक्षात्कारों से ली गईं चुनिंदा टिप्पणियां


रूपांतर : शिवप्रसाद जोशी


•मैं अपने काम के भीतर रहती हूं. हालांकि मैं ये कहूंगी कि कभी मैं उन लेखकों के बारे में सोचती थी जो अज्ञात रहना चाहते है- लेकिन मैं ऐसी नहीं रही हूं. क्योंकि इस देश में ये महत्त्वपूर्ण है, खासकर औरत के लिए, ये कहना जरूरी हैः “सुनो, ये रही मैं, मैं तुम्हारे सामने हूं तुमसे मुकाबला करने के लिए, और मैं यही सोचती हूं और मैं छिपूंगी नहीं.” अगर मुझसे किसी को साहस मिला है....प्रयोग का...कतार को छोड़कर निकल आने का....तो ये प्यारी बात है. मैं सोचती हूं कि हमारे लिए ये कहना बहुत महत्त्वपूर्ण हैः “हम कर सकते हैं! हम करेंगे! हमसे न उलझना! समझे.”


•बात ये है कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को उस कुख्यात खनन कंपनी से आर्थिक सहायता मिलती है जो आदिवासियों की आवाज़ों को ख़ामोश कर रही है, उन्हें उनके घरों से बेदख़ल कर रही है, और अब तो इसे ज़ी टीवी भी फंड कर रहा है, जो आधा समय तो मेरा शिकार करने के लिए पीछे पड़ा रहता है. तो सिद्धांत के तौर पर मैं ऐसे उत्सवों में नहीं जा सकती हूं. कैसे जा सकती हूं. मैं उनके खिलाफ लिख रही हूं. कहने का मतलब, बात ये नहीं है कि मैं कोई पवित्र या शुद्ध व्यक्ति हूं, जैसे हम सब में विरोधाभास होते हैं, हमारे कई मुआमले होते हैं, मेरे साथ भी यही है, मैं गांधी जी की तरह नहीं हूं, लेकिन सिद्धांत में, इसपर टिके रहती हूं. दुनिया के सबसे गरीब लोगों की आवाजों को बंद कर दबा कर आप आख़िर कैसे आप फ्री स्पीच का चमकदार मंच बन जाते हैं जहां लेखकों की चहलपहल और उड़ानें हैं. मुझे इससे समस्या है.


•जब मैं किताब लिख रही थी, तो सामयिक मामलात ज्यादा नहीं देख पाई. मैं फेसबुक आदि पर भी नहीं हूं. यूं मुझे इससे कोई समस्या भी नहीं है, लेकिन मुझे एडवर्ड स्नोडेन ने एक बात बताई थी. कि जब फेसबुक शुरु हुआ था तो सीआईए ने उसका जश्न मनाया था क्योंकि उन्हें बिना कुछ किए एक साथ सारी सूचनाएं मिल गई थीं. इससे अलग, बात ये भी है कि जब आप लिख रहे होते हैं, तो पढ़ने के बारे में थोड़ा विचित्र से हो जाते हैं- कभी कभी मैं पूरी किताब नहीं पढ़ रही होती हूं, सिर्फ़ कुछ डुबकियां लगा लेती हूं, अपने विवेक को परखने के लिए.


•मैं मानती हूं कि नायपॉल एक मुकम्मल सिद्ध लेखक हैं, हालांकि अपने वैश्विक नजरिए को लेकर हम दो छोरो पर हैं. लेकिन वास्तव में, मुझ पर उस रूप में किसी लेखक का उतना प्रभाव नहीं है. मुझे कहना पड़ेगा कि मुझे ये बात अविश्वसनीय लगती है कि भारत में लेखकों, और कमोबेश समस्त भारतीय लेखकों, या कमसेकम जानेमाने लेखकों.....चलिए लेखक न भी कहें, लेकिन उनमें उन चीज़ों को छिपा लेने का एक स्तर है जो यहां समाज के मर्म में अवस्थित हैं, जैसे जाति. आप देखिए कि यहां कुछ भारी गड़बड़ है. ये इस तरह से है कि रंगभेदी दक्षिण अफ्रीका में लोग, रंगभेद का ज़िक्र किए बिना लिखते रहें.


•जो कुछ मैं जानती हूं, वो यहां है, जिस किसी को मैं जानती हूं, और वास्तव में बाहर मैं कभी रही नहीं हूं, विदेश में, तो किसी अजनबी देश में अकेले रह लेने का ख़्याल आतंकित भी करता है. लेकिन इस समय मैं मानती हूं कि भारत एक अत्यधिक ख़तरनाक जगह पर ठिठका हुआ है, मैं नहीं जानती कि किस के साथ क्या हो सकता है- मेरे साथ या किसी के साथ भी. ये कुछ उपद्रवी हैं जो ये तय करते हैं कि किसे मारा जाना है, किसे गोली मारी जानी है, किसे पीट पीटकर मार डालना है. मैं सोचती हूं कि शायद पहली बार ऐसा हो रहा है कि भारत में लोग, लेखक और अन्य लोग, उस तरह का संत्रास महसूस कर रहे है जैसे लोगो ने चिली और लातिन अमेरिका में झेला था. एक तरह का आतंक निर्मित हो रहा है जिसका हमें ठीक से अंदाज़ा भी नहीं है. ऐसे मौके आते हैं जब आप बहुत चिंतित हो जाते हैं, फिर गुस्सा, और फिर आप एक निडर ज़िद्दी बन जाते हैं. मैं मानती हूं कि ये कहानी अभी खुल ही रही है.


•ये किताब के बारे में नहीं है या वे क्या पढ़ते हैं क्या नहीं. ये उन कुछ निरंकुश नियमों के बारे में है जो उन्हें बना लिए हैं कि क्या कहना है, क्या नहीं कहना है, कौन क्या कह सकता है, कौन किसे मार सकता है. ये सब. मैं यहां रहती हूं, यहां लिखती हूं और ये किताब भी यहां के बारे में है. लेकिन स्थिति यहां बेकाबू है, नीचे ही. ये महज़ मार दिए जाने की बात नहीं है. ये कुछ ऐसा हैः अगर आप मुसलमान हैं तो जोखिम उठाए बगैर आप ट्रेन या बस में बैठ भी कैसे सकते हैं. तो मेरे साथ क्या होता है, मुझे नहीं पता है. मैंने एक किताब लिख दी है जिसे लिखने में मुझे दस साल लगे हैं, और दुनिया के 30 देशों में दुनिया के सबसे बड़े प्रकाशक इसे छाप रहे है. मैं कुछ मूर्खों को इस बात की इजाज़त नहीं दे सकती कि वे आएं और इसमें खलल डालें और तमाम हेडलाइनें उड़ा ले जाएं. मैं ऐसा क्यों करूं. बात उनके छोटे दिमागों के बारे में नहीं है, ये बात साहित्य की है. इसकी हिफ़ाज़त की जानी चहिए और इस पर्यावरण में तो समझबूझ कर की जानी चाहिए.


•इस उपन्यास को लिखने में दस साल लगे हैं. लेकिन मैं समझती हूं कि द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स और आज के बीच पिछले बीस साल में, मैंने यात्राएं की हैं, और इतनी सारी चीज़ों में मुब्तिला रही हूं, उनके बारे में लिखती रही हूं. जब मैं राजनैतिक निबंध लिख रही थी तो उनमें एक तरह की बड़ी अरजेंसी थी, हर बार आप एक स्पेस को या एक मुद्दे को खोल देना चाहते थे. लेकिन फिक्शन अपना समय लेता है और ये परतदार होता है. कश्मीर जैसी जगह में जो उन्माद प्रकट हो रहा हैः आप वहां की फ़िज़ां में निहित आतंक का वर्णन किस तरह करेंगे. बात सिर्फ किसी मानवाधिकार रिपोर्ट की नहीं है कि कि कितने लोग कहां कहां मरे. जो वहां हो रहा है उसके साइकोसिस का वर्णन कैसे करेंगे आप. फ़िक्शन के सिवाय.....मैंने फिक्शन इसलिए नहीं चुना क्योंकि मैं कश्मीर के बारे में कुछ कहना चाहती थी, लेकिन फिक्शन आपको चुनता है. मैं नहीं समझती कि ये बात इतनी सरल होती होगी कि मेरे पास देने के लिए कुछ सूचना है और इसलिए मैं एक किताब लिखना चाहती थी. ये ये तो देखने का एक तरीका है. सोचने का एक तरीका. ये एक प्रार्थना है, ये एक गीत है.

(दहिंदू डॉट कॉम में जास ओयाह से बातचीत)


`गल्प कभी घोषणापत्र नहीं हो सकता...`


•जो यात्राएं मैंने की हैं, जिन लोगों से मिली हूं, जो जीवन मैंने जिया है, और जो राजनैतिक निबंध मैने पिछले बीस साल में लिखे हैं वे सब द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस के स्वप्न निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा हैं. लेकिन निबंध और नॉवल दो बिल्कुल अलग विधाएं हैं. फ़िक्शन लिखते हुए मैं रिलेक्स रहती हूं, लगभग स्वप्न में. मैं किसी तरह की जल्दी में नहीं हूं. मैं उन सब लोगों और प्राणियों (दुष्ट भी) के साथ रहना चाहती थी जो दस साल पहले मेरे पास आने लगे थे....देखने के लिए हम आपस में एक दूसरे को पसंद करते हैं या नहीं. फ़िक्शन कभी घोषणापत्र नहीं हो सकता, ढकाछिपा राजनैतिक निबंध, जिसमें कृत्रिम किरदार आपकी तरफ से बोलें, ये एक ऐसा यूनिवर्स बनाने की बात है जहां लोग घूमते भटकते रह सकें, मैं ऐसी कहानी लिखना चाहती थी कि जिसमें मैं किसी के पास से यूं ही न गुज़र जाऊं किसी छोटे से छोटे किरदार के साने से भी, बल्कि रुकं, एक बीड़ी जलाऊं और वक्त पूछूं. ऐसी कहानी जिसमें बैकग्राऊंड अचानक फ़ोरग्राउंड बन जाता है. शहर एक व्यक्ति बन जाता है...मेरे लिए फ़िक्शन लिखना, प्रार्थना के सबसे करीब है.

(स्क्रॉल डॉट इन)



`समयांतर` से साभार

(अरुंधति की तस्वीर The MINISTERY of UTMOST HAPPINESS के बारे में तरुण भारतीय की परिचयात्मक फिल्म से)

No comments: