रामचंद्र छत्रपति : एक रोशन मशाल |
`असहमति का साहस और सहमति का विवेक` |
यह बात साफ करता चलूं कि छत्रपति की महान
शहादत को उनके महिमामंडन का जरिया न मान लिया जाए। उनका व्यक्तित्व और सचाई के प्रति उनकी ज़िद उनकी हत्या की गारंटी की तरह जरूर थी पर यह हादसा पेश
नहीं आता तो भी वे इसी सम्मान से लिखे जाने के हकदार थे। यह जरूर है कि हम उन्हें उनकी शहादत की वजह से ही जान पाए। डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत
राम रहीम का फैसला रोकने के लिए जिस तरह कोर्ट पर दबाव बनाया गया और जिसके लिए कोर्ट ने हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर व उनकी
सरकार को फटकार भी लगाई, उससे भगवान होने का स्वांग रचने वाले इस अपराधी की ताकत का अंदाजा
लगाया जा सकता है। यहां तक कि इस फेर में प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी तक पर कोर्ट ने तीखी टिप्पणी की। गुरमीत को जैसे ही पंचकूला की सीबीआई कोर्ट ने साध्वियों के यौन शोषण का दोषी करार दिया, प्रदेश सरकार का संरक्षण पाकर इकट्ठा हुए
कथित श्रद्धालुओं ने हिंसा और आगजनी शुरु कर
दी। इस उपद्रव में पंचकूला व दूसरी कई जगहों पर निजी और सरकारी संपत्तियों के भारी नुकसान के साथ 36 लोगों की मौत हुई। गुरमीत राम-रहीम और उसके अनुयायियों की तरह उसके
जलवे को जानने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह
अविश्वसनीय था कि धर्म का कवच पहने बैठे इस अपराधी को इस अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है। इस संघर्ष में अडिग रही दोनों साध्वियों, सीबीआई के ईमानदार अधिकारियों, जज जगदीप सिंह सहित जिन कुछ लोगों की प्रतिबद्धता की वजह से यह संभव
हो सका, उनमें एक नाम पत्रकार रामचंद्र छत्रपति का भी है।
छत्रपति उसी सिरसा शहर के रहने वाले थे जहां `डेरा सच्चा सौदा` का मुख्यालय है। छत्रपति सांध्य दैनिक `पूरा सच` निकालते थे। 1948 में शाह मस्ताना द्वारा शुरु किए गए `डेरा सच्चा सौदा` की गद्दी 1990 में गुरमीत सिंह ने हासिल कर ली थी और उसने अपने नाम के साथ राम रहीम भी जोड़ लिया था। 1998 में डेरे की जीप से कुचले गए बेगू गांव के एक बच्चे की मौत को लेकर हुए
विवाद की खबर सिरसा के एक सांध्य दैनिक `रमा टाइम्स` ने छाप दी थी तो डेरे के अनुयायियों ने अखबार के दफ्तर पर जाकर पत्रकार विश्वजीत शर्मा को धमकी
दी थी। तब पत्रकारों की एकजुटता के सामने डेरा
प्रबंधन को लिखित माफी मांगनी पड़ी थी लेकिन देखते-देखते यह तय हो गया था कि डेरे की अनियमितताओं, अराजकता और भयंकर करतूतों के बारे में मुंह खोलना मौत को दावत देना है।
30 मई 2002 को छत्रपति ने अपने अखबार में डेरे की साध्वी की उस चिट्ठी को प्रकाशित किया था जिससे डेरे में साध्वियों के यौन शोषण
की जानकारी पहली बार सार्वजनिक तौर पर दर्ज होकर लोगों में फैल गई थी। चिट्ठी बेनामी थी जो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और
पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायलय को भेजी गई थी। शायद यह अखबारों के दफ्तरों में भी पहुंची थी पर इसे जगह `पूरा सच` में ही मिल सकी
थी। दरअसल 30 मई को सिरसा के रोडी बाजार में डेरे के
एक कार ड्राइवर की एक पुलिस अधिकारी से झड़प हो
गई थी। पुलिस अधिकारी ने डेरे की साध्वी की ओर से लिखी गई चिट्ठी का जिक्र आम लोगों के बीच कर दिया था। छत्रपति ने अपने अखबार में एक खबर ``कार चालक के हठ ने खोल दिया धार्मिक डेरे का कच्चा चिट्ठा`` शीर्षक से प्रकाशित की थी और ``धर्म के नाम पर किए जा रहे साध्वियों के जीवन बर्बाद`` शीर्षक से बॉक्स में उस चिट्ठी के मजमून का खुलासा किया था। इस खबर के छपते ही
डेरा प्रमुख बौखला उठा था।
डेरे की ओर से फोन कर छत्रपति को धमकियां दी
गईं। बौखला गए डेरे ने एक के बाद एक गुंडागर्दी की कई घटनाओं का अंजाम दिया। साध्वी की उस अनाम चिट्ठी की किसी ने फोटोस्टेट प्रतियां रोडी बाजार
में बांट दी थीं। डेरे के गुंडों ने एक चाय विक्रेता प्यारे लाल सेठी को उठाकर प्रताड़ित किया। इस चिट्ठी की चर्चा को लेकर रतिया में भी फोटोस्टेट की
दुकान चलाने वाले दो लोगों पर हमले से हंगामा खड़ा हुआ। पत्रकार आरके सेठी ने फतेहाबाद से निकलने वाले अपने सांध्य दैनिक `लेखा-जोखा` में 7 जून को चिट्ठी के बारे में जांच की मांग को लेकर खबर छापी तो उसी दिन इस
अखबार के दफ्तर पर हमला कर दिया गया। पहले तो पुलिस ने डेरे के चार अनुयायियों का गिरफ्तार कर लिया पर बाद में डेरे के अनुयायियों की भीड़ के दबाव में
संपादक सेठी को ही गिरफ्तार कर लिया। छत्रपति ने 7 जून को ही इस गुंडागर्दी के खिलाफ भी
विस्तार से खबर छापी। इसी चिट्ठी के सिलसिले में डेरे से
जुड़े लोगों ने 27 जून को डबवाली में एक वकील से बदतमीजी की और उनके चैम्बर का ताला तोड़ने
की कोशिश की। `पूरा सच` ने डेरे के इस उपद्रव की खबर भी छापी। डबवाली में ही 14 जुलाई को डेरे के लोगों ने एक स्कूल में चल रही तर्कशीलों की बैठक पर
हमला कर मारपीट की। डेरे को शक था कि तर्कशीलों
की बैठक में साध्वी की चिट्ठी को लेकर कोई योजना बनाई जा रही थी। इस गुंडागर्दी को लेकर भी छत्रपति ने तथ्यों के साथ समाचार प्रकाशित किया।
आखिरकार डेरे के प्रतिनिधिमंडल ने सिरसा के उपायुक्त से मिलकर मांग की कि `पूरा सच` अखबार में डेरे से जुड़ी खबरों के प्रकाशन पर रोक लगाई जाए।
इस बीच 20 जुलाई को `डेरा सच्चा सौदा` की प्रबंधन समिति के सदस्य रहे कुरुक्षेत्र के रणजीत सिंह की हत्या कर
दी गई। रणजीत सिंह और उनकी साध्वी बहन डेरे से निकल गए थे। माना जाता है कि डेरा प्रमुख को शक था कि चिट्ठी रणजीत सिंह ने ही लिखवाई थी और उसी ने
चिट्ठी व डेरे से जुड़ी जानकारियां रामचंद्र छत्रपति को दी हैं। इसी साल 2002 में 24 सितंबर को हाई
कोर्ट ने साध्वियों के यौन शोषण से जुड़ी बेनामी
चिट्ठी का संज्ञान लेते हुए डेरे की सीबीआई जांच के आदेश दिए। 24 अक्तूबर 2002 को रामचन्द्र छत्रपति को घर से बाहर बुलाकर पांच गोलियां मारी गईं। दो
हमलावरों को मौके पर ही पकड़ लिया गया। ``पूरा सच`` के मुताबिक, हमलावरों को डेरा प्रमुख के आदेश पर डेरा प्रबंधक किशन लाल ने भेजा था। बुरी तरह
घायल छत्रपति ने 21 नवंबर 2002 को दिल्ली के अपोलो अस्पताल में दम तोड़ दिया था।
गौरतलब है कि उस दौरान हरियाणा में इनेलो-बीजेपी
गठबंधन की सरकार थी और केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार थी। डेरे का मुख्यालय सिरसा तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला का
भी गृह जिला है और उनके पिता पूर्व उप प्रधानमंत्री चौ. देवीलाल के जमाने से ही यहां इस परिवार का भी प्रभाव रहा है। चौटाला ने छत्रपति के
परिवार को इंसाफ दिलाने का वादा किया था जिस पर वह कायम नहीं रह सके। मुख्यमंत्री ने इस मामले की सीबीआई जांच की संस्तुति के अनुरोध को भी अनसुना कर
दिया। इस बारे में सिरसा में तमाम तरह की चर्चाएं रही हैं। पीड़ित परिवार का कहना था कि पुलिस उनकी मदद करने के बजाय आरोपी को बचाने की कोशिश कर रही है।
प्रदेश और केंद्र सरकारों के रवैये से निराश होकर रामचंद्र छत्रपति के पुत्र अंशुल छत्रपति ने जनवरी 2003 में हाई कोर्ट में याचिका दायर कर डेरा
प्रमुख गुरमीत सिंह राम रहीम पर हत्या का आरोप लगाते हुए इस केस की सीबीआई से जांच कराने का अनुरोध किया। रणजीत सिंह के पिता भी बेटे की
हत्या की सीबीआई जांच की मांग लेकर हाई कोर्ट पहुंचे थे। हाई कोर्ट ने हत्या के दोनों मामलों में सीबीआई जांच शुरु करा दी।
साध्वियों के यौन शोषण के केस में गुरमीत उर्फ राम-रहीम
अदालत के फैसले से जेल पहुंच चुका है। उम्मीद की जानी चाहिए कि छत्रपति की हत्या समेत दूसरे मामलों में भी अदालत गुरमीत को सजा सुनाएगी। एक
अपराजेय लगने वाली अन्यायी शक्ति से लोहा लेते हुए रामचंद्र छत्रपति शहीद हुए थे तो राष्ट्रीय मीडिया ने खबर को समुचित सम्मान नहीं दिया था। इन दिनों
अपराजेय सी मानी जा रही बीजेपी की सत्ता की गोद में बैठे होने के बावजूद राम-रहीम को जेल जाना पड़ा तो राष्ट्रीय मीडिया को रामचंद्र छत्रपति की
शहादत की याद आ रही है। हालांकि, छत्रपति की हत्या
को जनता ने खामोशी से नहीं गुजर जाने दिया था। उनकी हत्या के विरोध में सिरसा अभूतपूर्व रूप से बंद रहा था। छत्रपति
की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए जनता उमड़ पड़ी
थी। छोटा सा स्थानीय सांध्य अखबार चलाने वाले शख्स के लिए जितनी जनता उमड़ी थी, सिरसा में कभी भी उतनी जनता किसी प्रभावी से प्रभावी शख्स की अंतिम यात्रा में शामिल
नहीं हुई थी। इसकी वजह सिर्फ यह नहीं थी कि मर्डर में
स्वयंभू `भगवान` का हाथ होने से यह केस बेहद चर्चा में आ चुका था। दरअसल, छत्रपति उस शहर के आम लोगों के लिए बंद कोठरी में रोशनी की तरह थे। यह आम शोहरत
थी कि जिसकी सुनने वाला कोई नहीं है, उसकी सुनने के लिए छत्रपति है। मार खाए
सताए गरीब-गुरबा ही नहीं, शहरी मध्य वर्ग या संपन्न वर्ग भी जानता था कि वह अपने से ज्यादा
ताकत वालों की टेढ़ी नज़र का शिकार हो तो उसकी बात को
छापने का साहस सिर्फ और सिर्फ `पूरा सच` में है। यह एक लोकप्रिय पत्रकार के लिए शोकाकुल जनसमूह था।
बेशक, इसमें ऐसा तबका भी था जो डेरे के
उत्पीड़न का शिकार था या समाज में उसके आतंक को पसंद नहीं करता था। इस पत्रकार-एक्टिविस्ट की मृत्यु ने भी उनकी खबरों की तरह यह यह संदेश दिया था कि
किसी भी आततायी सत्ता के सामने समर्पण के बजाय मुखर होना एकमात्र रास्ता है और फर्ज भी। वोटों के लालच और अनैतिक सांठगांठ की वजह से डेरे के मामलों में
चुप रहने वाले राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि भी छत्रपति के अंतिम संस्कार और शोकसभा में शामिल हुए थे हालांकि बाद में वे डेरे के ही साथ खड़े होते
नज़र आए थे।
छत्रपति की ताकत सिर्फ यह नहीं थी कि वे निर्भीक
पत्रकार थे। अगर वे सिर्फ इतना ही होते तो भी कम बड़ी बात न होती। छत्रपति सच के सामने खड़े होने वाले मुफस्सिल पत्रकार थे जिनका हर तरह की
सत्ता से बैर था। डेरे के अलावा भी उनके अखबार ने कई बड़े नेताओं के कारनामों का खुलासा किया था। अपनी पुश्तैनी खेती-बाड़ी पर आश्रित इस
संपादक-पत्रकार के लिए रोज अखबार छापना हर तरह `घर फूंक तमाशे` की तरह था। विज्ञापनों के लिए दर-दर
गुहार लगाना न उनके स्वभाव में शामिल था और न उनका
अखबार किसी भी तरह की सत्ताओं को खुश रखना जानता था। एक सच्चा पत्रकार हर तरह की सत्ता का प्रतिरोध होता है, प्राय: सिर्फ बोले जाने वाला यह वाक्य
सहज रूप से उनके जीवन का हिस्सा था। वे पत्रकार थे, एक्टिविस्ट थे और शहर के लिखने-पढ़ने
वालों को प्रेरित करने वाले
कवि-लेखक-बुद्धिजीवी थे, किसी शहर के लाइट हाउस की तरह। यह एक ऐसी चीज़ थी जो उन्हें किसी सत्ता से टकरा
जाने वाले महज ज़िद्दी पत्रकार से अलग करती थी। असल में वे एक `पब्लिक
इंटेलक्चुअल जर्नलिस्ट एक्टिविस्ट` थे। इस बात को समझना हमें उनके महत्व को ठीक-ठीक समझने के लिए भी जरूरी है। इस एक बात पर गौर करना किसी कस्बे-शहर में
सत्ताओं के प्रतिरोध में लगभग निष्कवच खड़े होने वाले पत्रकार के लिए भी जरूरी है।
छत्रपति प्रगतिशील लेखक संघ की सिरसा इकाई के
उपाध्यक्ष थे। सिरसा के लिखने-पढ़ने वाले मित्र उनकी स्मृति में हर साल एक बड़ा सेमिनार आयोजित करते हैं और उनके नाम पर किसी बुद्धिजीवी को सम्मानित
भी करते हैं। छत्रपति सम्मान पाने वालों में गुरदयाल सिंह, प्रो. अजमेर औलख, कुलदीप नैयर, प्रो. जगमोहन, रवीश कुमार, अभय कुमार दुबे, ओम थानवी जैसे जाने-माने
बुद्धिजीवी-पत्रकार शामिल हैं। सिरसा
के शिक्षक-बुद्धिजीवी परमानंद शास्त्री बताते हैं कि शहर का कवि-लेखक, बुद्धिजीवी वर्ग छत्रपति को गणेश शंकर विद्यार्थी की परंपरा के
पत्रकार के रूप में याद करता है। उस
युग में भी जबकि देश और समाज के लिए सब कुछ उत्सर्ग कर देने की एक परंपरा थी और उसका सम्मान भी था, विद्यार्थी जी एक विरल व्यक्तित्व थे। छत्रपति का जमाना वह
जमाना नहीं था। बड़े घरानों के अखबार जनपक्षधरता के दिखावे तक से पल्ला झाड़ चुके थे। लोकल अखबारों की छवि प्राय: ब्लेकमेलिंग और मांगने-खाने के
धंधे की बन गई थी। ऐसे दौर में उन्होंने धारा के विपरीत चलकर एक सांध्य दैनिक के जरिये पत्रकारिता की विश्वसनीयता और जनपक्षधरता की मिसाल कायम
की।
छत्रपति हरियाणा पत्रकार संघ की सिरसा इकाई के
जिला प्रधान भी थे और इस वजह से उनका लकब प्रधानजी ही पड़ गया था। उनके
निधन पर हरियाणा भर में पत्रकारों ने प्रदर्शन किए थे। सिरसा में पत्रकारों
ने डेरे की खबरें नहीं छापने का फैसला भी लिया था जो कई साल जारी रहा पर
बाद में यह बरकरार नहीं रह सका। इसकी एक वजह `बड़े` अखबारों का
प्रबंधतंत्र भी रहा। डेरे की तरफ से पत्रकारों को कोई बहुत बड़े विज्ञापन या
एकाध अपवाद को छोड़कर कोई बड़े निजी लाभ दिए जाते हों,ऐसा भी नहीं रहा।
अखबारों से डेरे के संबंध डेरे के लोगों की अकड़ और शर्तों पर ही चलते रहे
हैं। डेरे के खिलाफ पड़ने वाली बड़ी खबरें भी अक्सर सिरसा के बजाय
चंडीगढ़ डेटलाइन से ही छपती रहीं। इन परिस्थितियों में सिरसा के पत्रकार किसी
बड़े प्रतिरोध की परंपरा को भले ही कायम नहीं रख सके पर वे छत्रपति को हमेशा
सम्मान के साथ याद करते हैं। छत्रपति को चाहने
वालों को यह भी याद रखना होगा कि छत्रपति की तरह हमेशा ही कुछ लोग होते हैं जो
आततायियों के सामने डटकर खड़े होते हैं। जैसे कि अंशुल ने एनडीटीवी पर लेखराज ढोंट, अश्विनी बख्शी, आरएस चीमा और राजेंद्र सच्चर जैसे वकीलों को याद किया कि
कैसे उन लोगों ने
बिना पैसा लिए उनका केस लड़ा। और जैसे कि सीबीआई के अफसर मुलिंजा
नारायणन और सतीश डागर। शायद यह संयोग हो
कि छत्रपति की मृत्यु के बाद उनके हत्यारों के खिलाफ संघर्ष से न भागने
वाला उनका साथी पत्रकार भी एक स्थानीय अखबार का संपादक ही है। फतेहाबाद
से निकलने वाले सांध्य दैनिक `जन सरोकार` के संपादक आरके सेठी जो खुद 1998 में डेरे के हमले
का शिकार हुए थे, छत्रपति हत्याकांड में सीबीआई के गवाह
हैं। उनका कहना है कि खतरा बरकरार है पर बात सिर्फ यह नहीं कि हो क्या रहा है
या होगा क्या। बड़ी बात यह है कि इन सब हालात से सबको डरना छोड़ देना
चाहिए।
(लेख में डेरे की कारगुजारियों से जुड़ी
घटनाओं का विवरण `पूरा सच` ब्लॉग से लिया गया है।)
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`समयांतर` के सितंबर 2017 अंक में `सच के लिए बीच का रास्ता नहीं होता` शीर्षक से प्रकाशित।
फोटो में स्पेशल इफेक्ट : अनुराग अन्वेषी
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`समयांतर` के सितंबर 2017 अंक में `सच के लिए बीच का रास्ता नहीं होता` शीर्षक से प्रकाशित।
फोटो में स्पेशल इफेक्ट : अनुराग अन्वेषी