प्राइम टाइम में नामवर
रवीश कुमार की वजह से एनडीटीवी
इंडिया कई मामलों में अनूठा है। 4 मई 2018, शुक्रवार रात के प्राइम टाइम में हिंदी
के किसी बड़े साहित्यकार को देखना इस दौर के लिहाज से कोई मामूली बात नहीं थी। अमितेश
ने हिंदी आलोचना के `शीर्ष पुरुष` कहे जाने वाले 90 पार के नामवर सिंह से उनके घर जाकर बड़ी विनम्रता
के साथ बातचीत की थी जिसे दिखाने से पहले रवीश ने भी नामवर के नाम पर पूरे सम्मान
और विनम्रता के साथ रोशनी डाली। मीडिया घरानों में जब `हिंदी साहित्य और विचार` से नाक-भौं सिकोड़ने का
चलन हो तब एक बड़े हिंदी पत्रकार का एक वरिष्ठ-बुजुर्ग हिंदी साहित्यकार के प्रति ऐसा
भाव सुखद था। रवीश जेएनयू में `धोती-धज-बनारस` को लेकर अतिशय भावुक भी थे और नामवर की रीढ़ को लेकर अतिश्यक्ति
में भी। उन्होंने कहा, ``नामवर की पीठ और रीढ़ आज भी उसी तरह तनी हुई है जैसे स्टील
की बनी हो।`` 90 साल की स्टील की यह रीढ़ केंचुए की तरह लिजलिजी होकर केंद्रीय संस्कृति मंत्री
महेश शर्मा से `बूढ़े बैल` का खिताब व `संरक्षण` की आशवस्ति पा रही थी और मैनेजर पांडे इस `महान` निर्लज्ज परंपरा का सच्चा अनुयायी होने का
परिचय दे रहे थे तो तब आलोचना से भक्तमंडली अग़र थोड़ा-बहुत आहत हुई होगी, अब रवीश
के शब्दों से तर गई होगी।
हमारा ईश्वर उनसे कमज़ोर है?
बहरहाल, 90 पार के नामवर
सिंह को देखना `भारतीय परंपरा` के लिहाज से किसी पुरुष के इस आयु में इस तरह स्वस्थ और
चेतन दिखाई देने पर आनंदित होने जैसा रहा। वे धीमे-धीमे चल पा रहे थे। आवाज़ मद्धम
पड़ जाने के बावजूद बिल्कुल पुराने अंदाज़ में शेर सुना रहे थे, गीत के बोल उद्धृत
कर रहे थे। उन्होंने बेशक एक लंबा सफल, निर्द्वंद्व, सदैव सत्ता समर्थक, सुविधावादी,
करियरवादी जीवन जिया है पर ऐसी ज़िंदगी जीने वाले भी इस उम्र तक पहुंचते-पहुंचते
अक्सर स्मृतिलोप का शिकार हो जाया करते हैं या बहकी-बहकी बात करने लग जाते हैं। यह
सुखद आश्चर्य की बात थी कि नामवर पूरी तरह चेतन दिखाई दे रहे थे। उन्होंने कहा भी
कि ``भगवान की कृपा से मेरी याददाश्त बहुत अच्छी है। पढ़ी हुई किताबें याद हैं।`` वाकई, उनकी बातों में उनकी
जानी-पहचानी `वैचारिक परंपरा` और `प्रतिबद्धता` खुलकर अभिव्यक्त हुई। आश्चर्य नहीं हुआ, जब उन्होंने साक्षात्कार
ले रहे अमितेश से ही जोर देकर सवाल किया, ``हमारा ईश्वर कोई उन लोगों से (उन लोगों के ख़ुदा
से) कमज़ोर है? ख़राब है?``
स्टील की रीढ़, मनुष्य की रीढ़
इस उम्र में भी यह पुरुष
उतना ही निर्लज्ज और सामप्रदायिक है, ऐसा कुछ सोचकर मैं तो सो गया था पर यह सब
लिखने की वजह सुबह वॉट्सएप पर एक मुग्ध भक्त का भेजा लिंक रहा। रात के कार्यक्रम
का लिंक भेजते हुए, उसने अद्भुत-अद्भुत करते हुए `नामवर जी` की बेबाकी के कसीदे भी काढ़ रखे थे। ख़ैर, उसे
बताने के लिए ही कि ऐसी बेशर्म और निरापद बेबाकी तो नामवर के यहां हमेशा ही रही
है, कुछ बातें दोहराना ज़रूरी लग रहा है। सबसे पहले नामवर से बातचीत की प्रस्तुति
से पहले रवीश की भूमिका की विनम्र शुरुआत, ``मैं हिंदी साहित्य का व्यक्ति नहीं हूँ। साहित्य
से बहुत दूर भी नहीं हूँ और बहुत पास भी नहीं रहता। मगर इस बात का अहसास जरूर रहा
कि हिंदी के पास दो ही चीज़ें श्रेष्ठ हैं- हिंदी भाषी मज़दूर और हिंदी के
साहित्यकार। यही हमारे हीरो हैं।`` मज़दूरों के प्रति पक्षधरता की कोशिश मेरी भी रही है और अरसे
तक साहित्यकार अतार्किकता की हद तक मेरे लिए हीरो रहे हैं। दिलचस्पी अब भी है पर नायक-पूजा
का पुराना भाव नहीं बचा है। रवीश तो हिंदी साहित्य के व्यक्ति हैं। किताब भी आ
चुकी है और बतौर पत्रकार फिलहाल उनकी जो भूमिका है, किसी सच्चे लेखक, पत्रकार और
मनुष्य की भूमिका वही होनी चाहिए। `स्टील की रीढ़` वाले हजार नामवरों के मुकाबले अपने लिए रवीश की यह `मनुष्य की रीढ़` सम्मान के काबिल है।
हे ईश्वर!
``हमारा ईश्वर कोई उन लोगों से (उन लोगों के ख़ुदा से) कमजोर है? ख़राब है?``
नामवर कहते हैं, ``उम्र अब 90 के पार है
हमारी। जी गए, ये भगवान की कृपा है।`` अमितेश कहते हैं, ``अब लोग कहेंगे कि आप भगवान को याद कर रहे हैं। आप तो सर
किसी ज़माने में कम्युनिस्ट और प्रगतिशील...।`` नामवर - ``मुहावरा है ये।`` अमितेश- ```मने किसी न किसी को तो धन्यवाद कहना है...।`
नामवर- ``वो ही। किसी के मुंह से
निकलता है, माय गॉड। निकल जाता है न? या ख़ुदा। मुसलमान कहता है। कहता है न? कहते हैं न? बोल पड़ते हैं न, ऑह माय गॉड, या ख़ुदा? तो हम हे ईश्वर कहते हैं,
तो क्या बुरा? (हमारा) ईश्वर कोई उन लोगों से कमज़ोर है? ख़राब है? तो इसलिए, हे ईश्वर।``
नामवर सिंह कहते कि उन्हें
भगवान में विश्वास है तो भी कोई बुराई नहीं थी। मान सकते थे कि ठीक है, वे सीपीआई
पर आजीवन लदे रहे, चुनाव लड़े और प्रगतिशील लेखक संघ के भी अगुआ (अगवा?) रहे पर भगवान की परिकल्पना को
लेकर आस्तिक रहे। वे कहते कि आदतन जबान पर चढ़ा मुहावरा
है तो भी ठीक। लेकिन, वे यहां मुसलमानों को लाते हैं। `माय गॉड` और `या ख़ुदा` से `हे ईश्वर` को तौलते हैं और कहते हैं,
`` हमारा ईश्वर कोई उन लोगों से कमज़ोर है? ख़राब है? तो इसलिए, हे ईश्वर।``
शीर्ष पुरुष की परंपरा
यह `हिंदी की परंपरा` के `शीर्ष पुरुष` का `सुसंगत` और `तार्किक` कथन है। (कोई चाहे तो जैसा
कि नामवर के मामले में आम हिंदी वालों और अधिकतर प्रगतिशीलों का चलन है, मुग्ध भाव
से इसकी भक्ति भरी व्याख्या में गोते लगा सकता है।) नामवर से बातचीत के दौरान उनके
लिए जो पट्टियां चलाई जा रही थीं, उनमें एक पट्टी थी- `भारतीय भाषा केंद्र की
स्थापना की`। संयोग नहीं है कि नामवर की इस बातचीत में छलक रही साम्प्रदायिक घृणा जेएनयू
के उस केंद्र में उनकी भूमिका में भी इसी तरह छलकती रही थी। अव्वल तो जिस तरह उन्हें
केंद्र का संस्थापक घोषित कर दिया गया, वह एक कोरा झूठ है। इस केंद्र में नामवर
सिंह के पदार्पण से पहले इसका ब्लू प्रिंट ही तैयार नहीं हो चुका था बल्कि छात्रों
का पहला बैच भी मौजूद था। नाम से ही बड़े फलक वाले भारतीय भाषा केंद्र (सेंटर ऑफ
इंडियन लेंग्वेजेज) की शुरुआत मोटे तौर पर हिंदी-उर्दू के केंद्र के रूप में हुई
थी। दोनों भाषाओं का एक कॉमन पेपर भी तैयार किया गया था। इस दौरान नामवर सिंह का
रुख न तब और न अब कोई छुपी चीज़ रहा है। उनकी खुली भूमिका इस केंद्र में भाषाई साम्प्रदायिक
घृणा के आधार पर दरार डालने की थी। वे कॉमन पेपर को क्रेडिट कोर्स न होने देने पर
आमादा थे और केंद्र के `पाकिस्तान` बन जाने तक की टिप्पणी करने से नहीं चूके थे। लेकिन, तब
जमाना जरा कुछ और था और रेक्टर मुनीस रज़ा से लेकर स्टूडेंट्स तक उनसे सहमत नहीं
थे। नामवर के रवैये को लेकर बाद की पीढ़ी के जिस किसी को कोई शक हो, वह `हंस` में नामवर का लिखा `बासी भात में ख़ुदा का साझा` भी तलाश कर पढ़ सकता है।
आनंद स्वरूप वर्मा, राजेंद्र शर्मा आदि काफी लेखकों ने तब नामवर को कड़े जवाब भी
दिए थे।
तिकड़म, पतन और पतन
बहरहाल, उस भारतीय भाषा केंद्र
जिसकी स्थापना का श्रेय नामवर सिंह को दिया गया, उसमें उनके आगमन की कथा भी भ्रष्टाचार
का कोई मामूली उदाहरण नहीं है। असल में यह `गिव एंड टेक` अपॉइंटमेंट था। जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र
में अपनी नियुक्ति से पहले नामवर सिंह को सावित्री चंद्रा को रीडर नियुक्त करने के
लिए जोधपुर से बुलाया गया था। सावित्री चंद्रा की एकमात्र योग्यता यह थी कि वे
यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन सतीश चंद्रा की पत्नी थी। इस तरह की नियुक्ति के लिए जेएनयू
और यूजीसी दोनों पर ही लानत है और इस तिकड़म में शामिल नामवर पर भी। जेएनयू के इस प्रतिष्ठित
भारतीय भाषा केंद्र का दुर्भाग्य था कि उसके पहले ही बैच के लिए ऐसी रीडर को
नियुक्त कर दिया गया जो पढ़ा ही नहीं सकती थी। नामवर को इससे क्या, उन्हें तो यूजीसी
के चेयरमैन और जेएनयू प्रशासन को एक साथ उपकृत करने का मौका मिल गया और सौदेबाजी
के रूप में इस केंद्र में प्रफेसर बनकर आ गए। क्या इस बात से नामवर के भक्त भी
इंकार कर सकेंगे कि पढ़ा पाने में पूरी तरह अयोग्य-अक्षम सावित्री चंद्रा को लेकर
छात्रों को आंदोलन चलाना पड़ा और नामवर सिंह बेशर्मी से छात्रों के खिलाफ खड़े हो
गए। इसी केंद्र में उनके हाथों एक ऐसी नियुक्ति (चिंतामणि) से भी सभी वाकिफ हैं
जिसकी योग्यता नामवर सिंह के गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी का मकान तैयार करना थी। अफसोस
कि हिंदी के इस `शीर्ष पुरुष` का जीवन ऐसी ही तिकड़मबाजियों, मुखर और योग्य छात्रों के उत्पीड़न, सत्ता के
साथ खड़े होकर प्रतिरोधी परंपरा के दमन, वामपंथ के साथ गलबहियां करते हुए
दक्षिणपंथी रास्ते के निर्माण जैसी नीच हरकतों से भरा पड़ा है जो इतना कामयाब है
कि उसे किंवदंती की तरह पेश कर वैसा होने की चाह रखने वालों की कमी नहीं है।
पावर स्ट्रकचर के साथ
जेएनयू में भारतीय भाषा
केंद्र की शुरुआत का दौर ही देश में इमरजेंसी का दौर भी है। सौभाग्य से जेएनयू ने
और उसके हिंदी-उर्दू के भी बहुत से स्टूडेंट्स ने करियर की परवाह किए बिना दमनकारी
सत्ता से लोहा लिया था। नामवर सिंह उस समय सत्ता के साथ खड़े थे। जब छात्रों की
धरपकड़ के लिए जेएनयू में पुलिस के छापे लगा करते थे, नामवर सिंह अपनी तिकड़मों को
निर्विरोध संपन्न करने के लिए छात्रों को गिरफ्तारी का भय दिखाया करते थे। उनका यह
अवसरवाद और पावर स्ट्रकचर के साथ खड़े होने की आदत हमेशा बनी रही। वे इतने, इतने,
इतने बड़े थे कि शीर्ष पुरुष थे और शीला संधु के जमाने से ही हिंदी के `शीर्ष प्रकाशक` के प्रिय थे। पर क्या मजाल
कि वे कभी प्रकाशक और लेखक के बीच किसी मसले में लेखक के साथ खड़े हुए हों! हिंदी के `शीर्ष पुरुष` और `शीर्ष प्रकाशक` दोनों एक-दूसरे के लिए
हिंदी साहित्य की सत्ता को नियंत्रित करने के टूल बने रहे। नामवर को राजा राममोहन
राय फाउंडेशन का चेयरमैन होने का मौका मिला तो चहेते प्रकाशक के वारे-न्यारे करने
के लिए किस हद तक बदनामी उठाने से नहीं झिझके थे, उसका अनुमान इसी बात से लगाया जा
सकता है कि मालिनी भट्टाचार्य को यह मामला संसद तक में उठाना पड़ा था।
यह सत्ता की छतरी के नीचे
रहने की नामवर सिंह की पुरानी अदा थी या बदले जमाने में खुलकर संघ के आगे समर्पण
की चाह कि वे 90 साल की उम्र में `ज़लील` होने के लिए `इंदिरा
गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र` में पहुंच गए थे। केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने वहां कहा था कि बूढ़े बैलों के संरक्षण
की जिम्मेदारी हमारी है। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी `कभी मार्क्सवादी थे` नामवर सिंह के लिए `मर्यादा का कभी अतिक्रमण
नहीं करसकते` कहा था तो सही ही कहा था। ख़ामोशी से यह सब सुनकर, `सम्मानित` होकर लौटे हिंदी के शीर्ष
पुरुष नामवर और उनके अनुचर वामपंथी मैनेजर पांडे के अलावा वहां विश्वनाथ त्रिपाठी
थे जिनको लेकर इतनी भी आलोचना का कोई मतलब नहीं बनता है।
यात्राओं के सरोकार
नामवर सिंह ने जब अपनी देश-विदेश की यात्राओं की बात कर रहे थे तो उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि वे कभी कहीं अपने पैसे से नहीं गए। लोगों ने प्यार से बुलाया। हवाई यात्रा का भी किराया दिया और जहां रेल का रास्ता हुआ, वहां रेल का किराया दिया। वास्तव में यह बड़ी बात है। लेकिन, ठीक इसी वक़्त यह कहना चाहता हूँ कि इसमें उनके आलोचक की नहीं, जेएनयू शक्तिपीठ और उसके जरिये साहित्य की तमाम शक्तिपीठों से उनके रिश्तों की भूमिका ज्यादा बड़ी है। देश भर में हिंदी विभागों की नियुक्तियों और सेमिनारों आदि का स्तर इन यात्राओं से शायद उन्होंने रद्दीपन से ऊपर खींचा हो? पर मेरे लिए एक दूसरी बात महत्वपूर्ण है कि वे इतनी ठसक से कैसे कह सकते हैं कि कभी अपने पैसे से नहीं गया। क्या उन्हें कभी मज़दूर संगठनों ने नहीं बुलाया? अपने तो परिचित कई लेखक ऐसे आयोजनों में अपने किराये से दौड़े चले आए। हम भी ऐसे आयोजनों में अपने किराए से ही गए और यथासंभव सहयोग राशि भी देकर आए। विष्णु नागर सिरसा में ऐसे ही एक कार्यक्रम में बस में बैठकर ही गए जबकि उन्हें गाड़ी से आने का प्रस्ताव दिया गया था। सुभाष गाताडे तो कितनी बार इसी तरह हमारे बुलावे पर दौड़ते रहे। उनके पास न इस तरह के वेतन रहे, न आय के दूसरे साधन।
यात्राओं के सरोकार
नामवर सिंह ने जब अपनी देश-विदेश की यात्राओं की बात कर रहे थे तो उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि वे कभी कहीं अपने पैसे से नहीं गए। लोगों ने प्यार से बुलाया। हवाई यात्रा का भी किराया दिया और जहां रेल का रास्ता हुआ, वहां रेल का किराया दिया। वास्तव में यह बड़ी बात है। लेकिन, ठीक इसी वक़्त यह कहना चाहता हूँ कि इसमें उनके आलोचक की नहीं, जेएनयू शक्तिपीठ और उसके जरिये साहित्य की तमाम शक्तिपीठों से उनके रिश्तों की भूमिका ज्यादा बड़ी है। देश भर में हिंदी विभागों की नियुक्तियों और सेमिनारों आदि का स्तर इन यात्राओं से शायद उन्होंने रद्दीपन से ऊपर खींचा हो? पर मेरे लिए एक दूसरी बात महत्वपूर्ण है कि वे इतनी ठसक से कैसे कह सकते हैं कि कभी अपने पैसे से नहीं गया। क्या उन्हें कभी मज़दूर संगठनों ने नहीं बुलाया? अपने तो परिचित कई लेखक ऐसे आयोजनों में अपने किराये से दौड़े चले आए। हम भी ऐसे आयोजनों में अपने किराए से ही गए और यथासंभव सहयोग राशि भी देकर आए। विष्णु नागर सिरसा में ऐसे ही एक कार्यक्रम में बस में बैठकर ही गए जबकि उन्हें गाड़ी से आने का प्रस्ताव दिया गया था। सुभाष गाताडे तो कितनी बार इसी तरह हमारे बुलावे पर दौड़ते रहे। उनके पास न इस तरह के वेतन रहे, न आय के दूसरे साधन।
सवर्ण-सामंती सोच
रवीश ने नामवर सिंह के `विवादित और मर्यादित` होने की बात का भी जिक्र उसी
ग्लेमरस अंदाज में किया है जिस अंदाज में पहले भी किया जाता रहा है। लेकिन, ऐसा कर
पाना हर किसी के लिए इतना सरल नहीं है। नामवर के साम्प्रदायिक, जातिवादी, स्त्रीविरोधी,
सामंती और तिकड़मी व्यक्तित्व पर लिखा भी जा चुका है और उनके भक्त भी निजी महफिलों
में इन किस्सों को कभी प्रशंसा भाव से और कभी चटखारे लेकर सुनाते रहे हैं। लेकिन, प्रगतिशील
परंपरा के साथ दिखते रहकर चतुर रेहटरिक का इस्तेमाल करते हुए धीरे-धीरे दक्षिणपंथी
राह बनाते रहे नामवर के एक के बाद एक चलाए जाने वाले शब्द बाणों से बिंधा हुआ
महसूस करते रहे हमारे जैसे लोग कैसे मुग्ध हो सकते हैं? यह कोई बहुत पुरानी बात
नहीं है, जब उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रम में ही आरक्षण के खिलाफ जहर
उगला था और कहा था कि इस तरह तो ब्राह्मणों-ठाकुरों के लड़के भीख मांगा करेंगे।
कब, क्या बोलना है, इसमें माहिर माने जाने वाले नामवर का यह बयान मोहन भागवत के आरक्षण
विरोधी बयान की तरह दिल से निकला हुआ पर पूरी तरह केलकुलेटेड बयान था। साहित्य के बहुत
से सवर्णवीरों को आपसी बातचीत में उनके इस बयान पर रीझते हुए भी पाया जाता ही है।
दांत और मनुष्यता
और अंत में नामवर सिंह के दांत
का दिलचस्प जिक्र यूं ही। बाबरी मस्जिद को लेकर लखनऊ खंडपीठ का फैसला आया था तो मैंने
उस पर हिंदी के कुछ लेखकों से `समयांतर` के लिए प्रतिक्रियाएं ली थीं। नामवर सिंह को जब भी फोन
किया, उन्होंने बताया कि उनके दांत में दर्द है। तब `दांत का निरंतर दर्द` ही `समयांतर` में उनकी प्रतिक्रिया थी।
रात एनडीटीवी पर `भगवान विश्वनाथ की नगरी` के पान खाने के शौक का जिक्र करते हुए उन्होंने
बताया कि इस कुटेव का दांत पर असर हुआ है, टूटा-फूटा भी है। ``लेकिन मैंने दांत नया नहीं
बनवाया है। सारे बिल्कुल मेरे ही हैं। मैंने ये काम नहीं किया। नकली दांत बनवाकर
जवान दिखना ये मनुष्यता का अपमान है।`` सुनकर बहुत हंसी आई। पिताजी भी याद आए जो दांतों के दर्द
से कराहते रहते थे पर मॉडर्न डेंटिस्ट्री में दांत बचाने और नये बनाने के बेहतर
तरीकों के नाम पर वे तरह-तरह के बहाने तलाशते थे। नामवर सिंह के मुंह में काफी दांत
मौजूद हैं और मैं इसे खुशी और प्रशंसा के रूप में ही देखता हूँ पर नकली दांत
बनवाकर लगवाना न जवान दिखने का ही मसला है और न मनुष्यता का अपमान है। बहुत से
बुजुर्ग और कम उम्र के लोग भी डेंचर के सहारे खाना खा रहे हैं तो यह मेडिकल साइंस
की प्रशंसनीय देन है।
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नामवर सिंह का चित्र `Opinion Post` से साभार।
5 comments:
बहुत कुछ कह देने वाला आलेख।
बहुत अच्छा आलेख I
बहुत बहुत बढ़ियाँ
तार्किक विवेचना
तार्किक, वस्तुनिष्ठ
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