('नया पथ' का मुक्तिबोध विशेषांक मुझे बहुत देरी से हासिल हो पाया। इस पत्रिका में छपा असद जी का यह लेख मुक्तिबोध के उत्पीड़न और हिंदी साहित्य व विचार की दुनिया में उनकी 'प्रधान उपस्थिति' का उल्लेख करते हुए 'नेहरू युग' को लेकर चली आ रही रुमानियत भरी छवि को भी ध्वस्त करता है, 'वामपंथी सांस्कृतिक धारा' की विडंबनाओं और को सामने लाता है और पुनर्विचार प्रोजेक्ट के नाम पर 'फ़ासिस्ट धमकी' से आगाह करता है। इस लेख में एक 'मर्मभेदी' ज़िक्र यह भी आया है कि मुक्तिबोध की एम्स में मृत्यु के बाद उनका शव उस शख़्स के सरकारी आवास पर रखा गया जिसने 'अंतरंग मित्र होते हुए उनके ख़िलाफ़ मुख़बिरी की थी'। उनकी स्मृति में पहली गोष्ठी भी इसी ठिकाने पर हुई। लेख में उस शख़्स का नाम नहीं आया है पर एक ज़माने में 'इंडिया टुडे' की साहित्य वार्षिकी के पाठक रहे लोगों को याद होगा कि अशोक वाजपेयी ने इस सिलसिले में प्रभाकर माचवे का नाम लिखा था। -एक ज़िद्दी धुन)
सन 1964 में गजानन माधव मुक्तिबोध की मृत्यु अाधुनिक भारतीय साहित्य की केन्द्रीय घटना है। हिन्दुस्तान के सांस्कृतिक जीवन में पिछली सदी में किसी मृत्यु का इतना असर नहीं पड़ा। इसकी तुलना सिर्फ़ 1974 में कलकत्ते में उस्ताद अमीर ख़ाँ की अप्रत्याशित मृत्यु से ही की जा सकती है। अपने अपने रचना-क्षेत्र में ये दो हस्तियाँ लोगों की सामूहिक चेतना ही नहीं अवचेतन का हिस्सा — एक प्रधान उपस्थिति — बन गईं। इस मृत्यु के बाद ही से वह दौर शुरू हुअा, जिसे क़ायदे से हिन्दी साहित्य और संस्कृति-चिंतन में मुक्तिबोध-युग कहा जाना चाहिए। इस युग को कुछ और नाम देना ऐतिहासिक और साहित्य के समाजशास्त्र के ऐतबार से सही नहीं होगा। अगर ऐसा अक्सर नहीं कहा जाता तो इसका संबंध हिन्दी की दुनिया की शक्ति संरचना से है, न कि मुक्तिबोध की स्वतःसिद्ध केन्द्रीयता से। नौकरीपेशा प्राध्यापकीय तबक़े, साहित्य के कारोबार को नियंत्रित करने वाली संस्थाएँ अौर साहित्य-संस्कृति के दस-बीस स्वघोषित संरक्षक-पुरोहित मुक्तिबोध को लेकर शुरू ही से असहजता और दुचित्तेपन का इज़हार करते रहे हैं। न तो यह दुचित्तापन अाज तक ख़त्म हुअा है, और न ही हिंदी ‘रचना-संसार’ के अवचेतन पर मुक्तिबोध की हुकूमत ख़त्म होती नज़र अाती है।
मध्यवर्गीय दुचित्तेपन और उसके निहितार्थों पर काम करने वाले पहले अादमी मुक्तिबोध ही थे। उन्हें अपने दौर के बिगाड़ का, हर विचलन का पता था। वह उस समय की पेचीदगियों को भी समझते थे। यह नेहरू युग की निर्माणकारी और विध्वंसकारी दोनों प्रक्रियाओं पर गहरी नज़र रखते थे। नेहरू का दौर एक तरफ़ लोकतांत्रिक-संवैधानिक व्यवास्था के पल्लवन, नई संस्थाओं के निर्माण और राष्ट्रीय विकास की अाधार रचना का दौर था, वहीं दूसरी तरफ़ वह कम्युनिस्ट अान्दोलन के अापराधिक दमन और शीतयुद्धीय नीति के तहत हर जगह से उनके बहिष्कार का दौर था। लोग अाज कुछ भी कहें, यह एक ऐतिहासिक सचाई है। पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस संगठन पर दक्षिणपंथियों का क़ब्ज़ा था, और नेहरू के पास इस दक्षिणपंथ का सीधे सामना करने का न हौसला था, न ताक़त। केन्द्र से लेकर प्रांतों तक (संयुक्त प्रांत/उत्तर प्रदेश, मध्य भारत/मध्यप्रदेश, बम्बई, महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार) कांग्रेस में दक्षिणपंथी नेताओं का बोलबाला था। शिक्षा, संस्कृति और हिंदी प्रतिष्ठान पूरी तरह प्रतिक्रियावादी के क़ब्ज़े में था।
मुक्तिबोध ने स्पष्ट रूप से नेहरू युग के समझौते, अवसरवाद और जनद्रोह की प्रवृत्तियों को पनपते हुए देखा था। वह जानते थे कि भारतीय राजनीति का वह दौर दरअसल एक तरफ़ कांग्रेस के भीतर नेहरू धड़े की अाधुनिक, उदार प्रगतिशील वृत्ति और दूसरी तरफ़ ज़्यादा वर्चस्वशाली कठोर दक्षिणपंथी धड़ों की विचारधारा के बीच सुलह और समन्वय पर टिका है। लिहाज़ा ‘नेहरू युग’ को एकतरफ़ा ढंग से सेकुलर राजनीति, वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक विवेक से संचालित समाज और राष्ट्रनिर्माण का दौर कहना एक रोमानी और ग़लत क़िस्म की समझ का नतीजा है। नेहरू युग का जो अर्थ अाज हम लेते हैं, उस अर्थ में वह नेहरू युग था ही नहीं, न मुक्तिबोध ने उसे इस तरह देखा था। नेहरू ख़ुद कितने ही प्रगतिशील और अंतर्राष्ट्रीयतावादी रहे हों, और समाजवादी देशों में उनकी जितनी भी स्वीकृति रही हो, भारतीय वामपंथी संगठनों के उतने ही दुश्मन थे जितना कि हिन्दू महासभा और अार एस एस के। कोई भी तन्ज़ीम जो कांग्रेस के बाहर प्रगतिशील काम करती हो, उसे वह कांग्रेस का, और देश का दुश्मन ही समझते थे।
ख़ुद साम्यवादी — अाज के साम्यवादी — भूल गए हैं कि नेहरू-युग में एक साम्यवादी का जीवन कितना कठिन था। जब कोई संकट में पड़ता था उस समय जाति, रिश्तेदारी, मित्रता या पहुँच कुछ काम न अाती थी। वामपंथियों को लेकर नेहरू सरकार की गृह और अांतरिक सुरक्षा नीति मैकार्थीवादी नीति थी, जिसके ज़िम्मेदार सिर्फ़ पटेल जैसे लोग ही न थे, वह पूरी राज्य-व्यवस्था भी थी जो अंग्रेज़ों ने सप्रेम उन्हें सौंप दी थी। कोई साम्यवादी न होगा जिसपर राज्य की, पुलिस की और मुख़बिरों की नज़र न हो, जो राजकीय कोप का शिकार न हुअा हो। मुक्तिबोध का अपना जीवन इसकी मिसाल है। लगभग सभी कम्युनिस्टों ने समाज में लम्बे अरसे तक पर्सीक्यूशन झेला जिसकी छाया उनकी जीविका पर, उनके परिवारों पर, और उनकी अगली पीढ़ियों तक पड़ी। इस दौर में एक प्रगतिशील के लिए छिपने की एक ही जगह थी, कि वह कांग्रेसियों से सम्पर्क में रहे, अपनी वफ़ादारी साबित करे और कांग्रेस में अा मिले, और ज़िल्लत की रोटी खाकर गुज़ारा करे। लेकिन यह विकल्प भी सबके लिए उपलब्ध न था। नेहरू का लोकतंत्र कम्युनिस्टों के लिए नहीं बना था। कांग्रेस के बाहर का परिदृश्य और भी ख़राब था जहाँ या तो रामराज्य परिषद, भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी जैसी घोर प्रतिक्रियावादी पार्टियाँ थीं या फिर ग़ैर कांग्रेसवाद के पैरोकार लोहिया और उनका समाजवादी दल जो हरदम कांग्रेस के विरुद्ध सबको एकजुट करने के पक्षधर थे, लेकिन कम्युनिस्टों के जानी दुश्मन थे। मार्क्सवाद और कम्युनिज़्म-विरोध का जो काम दक्षिण और धुर दक्षिण किया करते हैं, वह भारत में लोहियावादियों ने जी-जान से सम्पन्न किया।
मुक्तिबोध ने अपनी प्रगतिशीलता इन कठिन परिस्थिति में अर्जित की थी, और एक असुरक्षित जीवन की क़ीमत पर उसकी अाबरू बनाए रखी। वह इसी युग में चल बसे, और अागे अाने वाली और भी टेढ़ी और संदिग्ध परिस्थितियों को न देख सके। उनकी छवि एक शहीद की सी छवि की तरह अाज तक बहुत लोगों के दिलो-दिमाग़ में है। उनका जीवन और चिंतन अाज उतना ही प्रासंगिक है जितना नेहरू युग में था।
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मुक्तिबोध के वैचारिक और रचनात्मक विकास का दौर शीतयुद्ध का दौर था। हिन्दी में अज्ञेयवाद, प्रयोगवाद, नई कविता अौर लोहियावादी संस्कृति चिंतन का बोलबाला था। इन प्रवृत्तियों से स्वस्थ बहस के लिए मुक्तिबोध हमेशा तैयार अौर व्याकुल रहते थे। लेकिन यही दौर हिन्दी के वामपंथी साहित्य चिंतन के भीतर बढ़ते परम्पराप्रेम और दक्षिणोन्मुखता का दौर भी था, जिसे कम्युनिज़्म की शब्दावली में संशोधनवाद का दौर भी कहा जाता है। इस दौर में मुक्तिबोध को एक वैचारिक अौर रचनात्मक अकेलेपन में काम करना पड़ा। कोई बराबरी की संगत न थी। उनका मन वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ताअों, छात्रों, वामपंथी पत्रकारों, कुछ साथी शिक्षकों के बीच लगता तो था, लेकिन साहित्य, संस्कृति अौर मार्क्सवाद से जुड़े मसलों पर गहन बहस करें ऐसे जानकारों की कमी थी। उनकी कुछ गहरी दोस्तियाँ थीं, जिनमें से एक दोस्त तो ऐसे थे जो उनके ख़िलाफ़ मुख़बिरी किया करते थे, उनकी गतिविधियों की जानकारी सरकार को भेजा करते थे। मुक्तिबोध को इसकी जानकारी हो गई थी अौर उनका दिल बहुत टूटा था। फिर भी वह ख़ुशक़िस्मत थे कि अपने कुछ अौर अंतरंग मित्रों अौर उनसे प्रेरित युवकों को रंग बदलने और अपने निश्चयों के ख़िलाफ़ व्यवस्था में घुल-मिल जाने के करुण दृश्य देखने से बच गए।
वामपंथी सांस्कृतिक धारा के भीतर मुक्तिबोध की स्वीकृति और अस्वीकार दोनों शुरू ही से मौजूद रहे हैं। रामविलास शर्मा और उनकी शिष्य परम्परा में उनका कोई सम्मान या सही पहचान दूर दूर तक देखने को नहीं मिलती। उनके समकालीन वामपक्षीय लेखकों में हरिशंकर परसाई और शमशेर बहादुर सिंह ही उनके सबसे महत्वपूर्ण हिमायती थे। शमशेर जी ने एक बार धीमे से कहा था कि मुक्तिबोध की मृत्यु में ही उनके पुनर्जीवन की (हिन्दी की दुनिया में) चाबी मौजूद है। जब मैंने इस का अाशय जानना चाहा तो वह बोले, “वी अाल शेयर हिज़ अाफ़्टरलाइफ़।”
मुक्तिबोध के जीवन की विडम्बना दो मर्मभेदी घटनाअों के ज़रिए सामने अाती है। 11 सितंबर 1964 के दिन अखिल भारतीय अायुर्विज्ञाना संस्थान में जब उनकी मृत्यु हुई तो अंत्येष्टि से पहले उनके शव को दिल्ली में उसी शख़्स के सरकारी अावास पर लाकर रखा गया जिसने अंतरंग मित्र होते हुए उनके ख़िलाफ़ मुख़बिरी की थी। कुछ ही दिन बाद उनकी याद में दिल्ली में पहली गोष्ठी उनके मित्रों और प्रशंसकों ने की, वो भी उसी अादमी के अावास पर हुई! अफ़सोस की बात यह है कि किसी को भी यह अापत्तिजनक न लगा। उस अादमी के दामन का दाग़ किसी को दिखाई न दिया! न तब, न बाद में। दूसरा वाक़या मक़बूल फ़िदा हुसेन से जुड़ा है। हुसेन मुक्तिबोध की अंतिम यात्रा में शरीक थे। वह उनके मित्रों के मित्र थे और मुक्तिबोध के महत्व से कुछ हद तक वाक़िफ़ थे। शवयात्रा में चलते हुए उनके दिल में ख़याल अाया कि इतना बड़ा लेखक और बुद्धिजीवी कितने अभाव, उपेक्षा और लगभग गुमनामी की हालत में दुनिया से रुख़सत हो रहा है, और हम उसके लिए कुछ न कर सके। उन्होंने वहीं अपने जूते छोड़ दिये और तमाम रास्ते श्मशान तक नंगे पाँव चले। हुसेन का कहना था, “मुझे लगा कि इतना तो मैं कम-अज़-कम कर ही सकता हूँ।” उनके नंगे पाँव चलने में पश्चात्ताप, शोक और अक़ीदत का मिला-जुला जज़्बा था। हुसेन साहब ने ख़ुद मुझसे कहा कि जिस चीज़ को (यानी नंगे पैर चलने को) उनकी एक जानी-पहचानी ‘अदा’ कहा जाता है, उसकी शुरुअात मुक्तिबोध की मौत के सदमे से हुई थी। ये दो मामूली घटनाएँ मुझे नेहरू युग की गहरी नैतिक फाँक का प्रतिनिधि रूपक लगती हैं।
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अाज विभिन्न प्रकार के सैद्धान्तिक दूर-दूर ही से मुक्तिबोध को रहस्यवादी, खंडित चेतना का चितेरा इत्यादि कहते रहते हैं, या कुछ ज़्यादा निर्लज्ज तत्व बार-बार उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि (महाराष्ट्रियन ब्राह्मण) में ही उनकी मूल सृजनात्मक चेतना का उत्स देखते हैं अौर उन्हें वामपंथियों से ‘मुक्त’ करके अपना लेना चाहते हैं। उधर वामपंथ के कई पहरेदारों ने भी (ख़ासकर रामविलास शर्मा और उनके अनुयायियों ने) मुक्तिबोध को डिसओन किया हुअा है। मुक्तिबोध के इस अपहरण, ‘लिबरेशन’ या बरख़ास्तगी की योजना का दिलचस्प पक्ष यह है कि मुक्तिबोध के घर पर कोई पहरा तो है नहीं, द्वार खुले हैं और मुक्तिबोध वहाँ मौजूद हैं — संगत को तैयार। सवाल यह है कि क्या मुक्तिबोध के ये अपहरणकर्ता उनकी बग़ल में बैठने को तैयार हैं? क्या उनकी सोहबत इन्हें गवारा होगी?
हिंदी के साहित्यिक दक्षिणपंथी और उनकी देखादेखी कुछ उदारवादी मुक्तिबोध पर पुनर्विचार की बात किया करते हैं। विचारशील लोगों को विचार अथवा 'पुनर्विचार' के लिए किसी ऐलान या आयोजन की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। विचार अपने में एक जारी सिलसिला है जो इन्सान की ज़ेहनी फ़िज़ा और बौद्धिक कार्यव्यापार को आन्दोलित किये रहता है। हर नए विचार, अकुलाहट या आकलन को पुनर्विचार कहा भी नहीं जाता। यह अधकचरापन और ख़ामख़याली है। अनुभव, प्रयोग, दिमाग़ी मेहनत, और संवाद की मंज़िलों से गुज़रकर और अपने वक़्त के हालात से मानूस होकर, उनसे गहरी जद्दो-जहद करते हुए कभी कभी लोगों का सामूहिक आलोचनात्मक श्रम और रचना-कर्म अपने कुल जमा (कुमुलेटिव) असर से पुनर्विचार की ज़मीन तैयार करता है। साहित्य और कलाओं की दुनिया में बड़े परिवर्तन साल में दो बार, ख़ुद से और इतनी आसानी से, नहीं आते। मुक्तिबोध पर 'पुनर्विचार' एक संदेहास्पद अकुलाहट का नतीजा लगती है। कुछ लोग विचार से पहले पुनर्विचार के लिए बेताब है। सौवाँ साल (२०१७) पूरा हो रहा है। यानी अगले तीन-चार साल मुक्तिबोध पर सघन ‘पुनर्विचार’ के साल होंगे। चूँकि उसी साल रूसी क्रांति की सौंवी सालगिरह भी पड़ रही है, तो लाज़िम है कि यह एक दोहरा पुनर्विचार हो। इन पुनर्विचारकों के विचार वही हैं जो वे दशकों से — शीतयुद्ध काल से — बताते आ रहे हैं, वे बस नए सिरे से धावा बोलने की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें लगता है परिस्थिति अब ज़्यादा अनुकूल है। कोशिश है कि फिर से मरहूम पर दावा पेश किया जाए और मुक्तिबोध जन्म शताब्दी वर्ष के आते आते भारतीय वाम-परंपरा के इस महान विचारक, कवि और लेखक की स्मृति पर नरम दक्षिण-अति दक्षिण गठबंधन के तहत एक भगवा-श्वेत दुरंगा फहरा दिया जाए। प्रतिगामिता कभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती। उसे भगत सिंह की 'घर वापसी' चाहिए और गजानन माधव मुक्तिबोध की भी। भारत में पूँजी हर जगह अपनी ताक़त दिखा रही है। दूसरी ही तरह के ‘पुनर्विचार’ के युग में हम आ गये हैं। पिछले संसदीय चुनाव में सिक्काबन्द हिन्दुत्ववादी राजनीतिक गठबंधन की जीत के बाद उनके सांस्कृतिक प्रवक्ताओं ने सार्वजनिक मंचों से बोलकर भी और लिखकर भी ऐलान कर दिया है कि शिक्षा, संस्कृति, नागरिक आचार और अधिकार व्यवस्था, लोगों के रंग-ढंग और जीवन शैली हर चीज़ पर पुनर्विचार और उसके आमूल-चूल पुनर्गठन का वक़्त आ गया है, और यह कि अब उन्हें जनादेश प्राप्त है। यह पुनर्विचार नहीं, समाज के फ़ासिस्ट पुनर्गठन की माँग और धमकी है। मुक्तिबोध का वाक़या भी अजीब है। उनके मरणोपरांत जिन लोगों ने उनके साहित्यिक उद्धार का ज़िम्मा लिया, उनके हाथ से वह मरहूम बहुत जल्दी छूट निकले। उनमें से जो उद्धारक बचे रह गए हैं आज तक हाथ मलते हैं। अब नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में फ़िज़ा साज़गार हुई है। उन्हें अपनी ‘जागीर’ वापस चाहिए।
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सन 1964 में गजानन माधव मुक्तिबोध की मृत्यु अाधुनिक भारतीय साहित्य की केन्द्रीय घटना है। हिन्दुस्तान के सांस्कृतिक जीवन में पिछली सदी में किसी मृत्यु का इतना असर नहीं पड़ा। इसकी तुलना सिर्फ़ 1974 में कलकत्ते में उस्ताद अमीर ख़ाँ की अप्रत्याशित मृत्यु से ही की जा सकती है। अपने अपने रचना-क्षेत्र में ये दो हस्तियाँ लोगों की सामूहिक चेतना ही नहीं अवचेतन का हिस्सा — एक प्रधान उपस्थिति — बन गईं। इस मृत्यु के बाद ही से वह दौर शुरू हुअा, जिसे क़ायदे से हिन्दी साहित्य और संस्कृति-चिंतन में मुक्तिबोध-युग कहा जाना चाहिए। इस युग को कुछ और नाम देना ऐतिहासिक और साहित्य के समाजशास्त्र के ऐतबार से सही नहीं होगा। अगर ऐसा अक्सर नहीं कहा जाता तो इसका संबंध हिन्दी की दुनिया की शक्ति संरचना से है, न कि मुक्तिबोध की स्वतःसिद्ध केन्द्रीयता से। नौकरीपेशा प्राध्यापकीय तबक़े, साहित्य के कारोबार को नियंत्रित करने वाली संस्थाएँ अौर साहित्य-संस्कृति के दस-बीस स्वघोषित संरक्षक-पुरोहित मुक्तिबोध को लेकर शुरू ही से असहजता और दुचित्तेपन का इज़हार करते रहे हैं। न तो यह दुचित्तापन अाज तक ख़त्म हुअा है, और न ही हिंदी ‘रचना-संसार’ के अवचेतन पर मुक्तिबोध की हुकूमत ख़त्म होती नज़र अाती है।
मध्यवर्गीय दुचित्तेपन और उसके निहितार्थों पर काम करने वाले पहले अादमी मुक्तिबोध ही थे। उन्हें अपने दौर के बिगाड़ का, हर विचलन का पता था। वह उस समय की पेचीदगियों को भी समझते थे। यह नेहरू युग की निर्माणकारी और विध्वंसकारी दोनों प्रक्रियाओं पर गहरी नज़र रखते थे। नेहरू का दौर एक तरफ़ लोकतांत्रिक-संवैधानिक व्यवास्था के पल्लवन, नई संस्थाओं के निर्माण और राष्ट्रीय विकास की अाधार रचना का दौर था, वहीं दूसरी तरफ़ वह कम्युनिस्ट अान्दोलन के अापराधिक दमन और शीतयुद्धीय नीति के तहत हर जगह से उनके बहिष्कार का दौर था। लोग अाज कुछ भी कहें, यह एक ऐतिहासिक सचाई है। पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस संगठन पर दक्षिणपंथियों का क़ब्ज़ा था, और नेहरू के पास इस दक्षिणपंथ का सीधे सामना करने का न हौसला था, न ताक़त। केन्द्र से लेकर प्रांतों तक (संयुक्त प्रांत/उत्तर प्रदेश, मध्य भारत/मध्यप्रदेश, बम्बई, महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार) कांग्रेस में दक्षिणपंथी नेताओं का बोलबाला था। शिक्षा, संस्कृति और हिंदी प्रतिष्ठान पूरी तरह प्रतिक्रियावादी के क़ब्ज़े में था।
मुक्तिबोध ने स्पष्ट रूप से नेहरू युग के समझौते, अवसरवाद और जनद्रोह की प्रवृत्तियों को पनपते हुए देखा था। वह जानते थे कि भारतीय राजनीति का वह दौर दरअसल एक तरफ़ कांग्रेस के भीतर नेहरू धड़े की अाधुनिक, उदार प्रगतिशील वृत्ति और दूसरी तरफ़ ज़्यादा वर्चस्वशाली कठोर दक्षिणपंथी धड़ों की विचारधारा के बीच सुलह और समन्वय पर टिका है। लिहाज़ा ‘नेहरू युग’ को एकतरफ़ा ढंग से सेकुलर राजनीति, वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक विवेक से संचालित समाज और राष्ट्रनिर्माण का दौर कहना एक रोमानी और ग़लत क़िस्म की समझ का नतीजा है। नेहरू युग का जो अर्थ अाज हम लेते हैं, उस अर्थ में वह नेहरू युग था ही नहीं, न मुक्तिबोध ने उसे इस तरह देखा था। नेहरू ख़ुद कितने ही प्रगतिशील और अंतर्राष्ट्रीयतावादी रहे हों, और समाजवादी देशों में उनकी जितनी भी स्वीकृति रही हो, भारतीय वामपंथी संगठनों के उतने ही दुश्मन थे जितना कि हिन्दू महासभा और अार एस एस के। कोई भी तन्ज़ीम जो कांग्रेस के बाहर प्रगतिशील काम करती हो, उसे वह कांग्रेस का, और देश का दुश्मन ही समझते थे।
ख़ुद साम्यवादी — अाज के साम्यवादी — भूल गए हैं कि नेहरू-युग में एक साम्यवादी का जीवन कितना कठिन था। जब कोई संकट में पड़ता था उस समय जाति, रिश्तेदारी, मित्रता या पहुँच कुछ काम न अाती थी। वामपंथियों को लेकर नेहरू सरकार की गृह और अांतरिक सुरक्षा नीति मैकार्थीवादी नीति थी, जिसके ज़िम्मेदार सिर्फ़ पटेल जैसे लोग ही न थे, वह पूरी राज्य-व्यवस्था भी थी जो अंग्रेज़ों ने सप्रेम उन्हें सौंप दी थी। कोई साम्यवादी न होगा जिसपर राज्य की, पुलिस की और मुख़बिरों की नज़र न हो, जो राजकीय कोप का शिकार न हुअा हो। मुक्तिबोध का अपना जीवन इसकी मिसाल है। लगभग सभी कम्युनिस्टों ने समाज में लम्बे अरसे तक पर्सीक्यूशन झेला जिसकी छाया उनकी जीविका पर, उनके परिवारों पर, और उनकी अगली पीढ़ियों तक पड़ी। इस दौर में एक प्रगतिशील के लिए छिपने की एक ही जगह थी, कि वह कांग्रेसियों से सम्पर्क में रहे, अपनी वफ़ादारी साबित करे और कांग्रेस में अा मिले, और ज़िल्लत की रोटी खाकर गुज़ारा करे। लेकिन यह विकल्प भी सबके लिए उपलब्ध न था। नेहरू का लोकतंत्र कम्युनिस्टों के लिए नहीं बना था। कांग्रेस के बाहर का परिदृश्य और भी ख़राब था जहाँ या तो रामराज्य परिषद, भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी जैसी घोर प्रतिक्रियावादी पार्टियाँ थीं या फिर ग़ैर कांग्रेसवाद के पैरोकार लोहिया और उनका समाजवादी दल जो हरदम कांग्रेस के विरुद्ध सबको एकजुट करने के पक्षधर थे, लेकिन कम्युनिस्टों के जानी दुश्मन थे। मार्क्सवाद और कम्युनिज़्म-विरोध का जो काम दक्षिण और धुर दक्षिण किया करते हैं, वह भारत में लोहियावादियों ने जी-जान से सम्पन्न किया।
मुक्तिबोध ने अपनी प्रगतिशीलता इन कठिन परिस्थिति में अर्जित की थी, और एक असुरक्षित जीवन की क़ीमत पर उसकी अाबरू बनाए रखी। वह इसी युग में चल बसे, और अागे अाने वाली और भी टेढ़ी और संदिग्ध परिस्थितियों को न देख सके। उनकी छवि एक शहीद की सी छवि की तरह अाज तक बहुत लोगों के दिलो-दिमाग़ में है। उनका जीवन और चिंतन अाज उतना ही प्रासंगिक है जितना नेहरू युग में था।
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मुक्तिबोध के वैचारिक और रचनात्मक विकास का दौर शीतयुद्ध का दौर था। हिन्दी में अज्ञेयवाद, प्रयोगवाद, नई कविता अौर लोहियावादी संस्कृति चिंतन का बोलबाला था। इन प्रवृत्तियों से स्वस्थ बहस के लिए मुक्तिबोध हमेशा तैयार अौर व्याकुल रहते थे। लेकिन यही दौर हिन्दी के वामपंथी साहित्य चिंतन के भीतर बढ़ते परम्पराप्रेम और दक्षिणोन्मुखता का दौर भी था, जिसे कम्युनिज़्म की शब्दावली में संशोधनवाद का दौर भी कहा जाता है। इस दौर में मुक्तिबोध को एक वैचारिक अौर रचनात्मक अकेलेपन में काम करना पड़ा। कोई बराबरी की संगत न थी। उनका मन वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ताअों, छात्रों, वामपंथी पत्रकारों, कुछ साथी शिक्षकों के बीच लगता तो था, लेकिन साहित्य, संस्कृति अौर मार्क्सवाद से जुड़े मसलों पर गहन बहस करें ऐसे जानकारों की कमी थी। उनकी कुछ गहरी दोस्तियाँ थीं, जिनमें से एक दोस्त तो ऐसे थे जो उनके ख़िलाफ़ मुख़बिरी किया करते थे, उनकी गतिविधियों की जानकारी सरकार को भेजा करते थे। मुक्तिबोध को इसकी जानकारी हो गई थी अौर उनका दिल बहुत टूटा था। फिर भी वह ख़ुशक़िस्मत थे कि अपने कुछ अौर अंतरंग मित्रों अौर उनसे प्रेरित युवकों को रंग बदलने और अपने निश्चयों के ख़िलाफ़ व्यवस्था में घुल-मिल जाने के करुण दृश्य देखने से बच गए।
वामपंथी सांस्कृतिक धारा के भीतर मुक्तिबोध की स्वीकृति और अस्वीकार दोनों शुरू ही से मौजूद रहे हैं। रामविलास शर्मा और उनकी शिष्य परम्परा में उनका कोई सम्मान या सही पहचान दूर दूर तक देखने को नहीं मिलती। उनके समकालीन वामपक्षीय लेखकों में हरिशंकर परसाई और शमशेर बहादुर सिंह ही उनके सबसे महत्वपूर्ण हिमायती थे। शमशेर जी ने एक बार धीमे से कहा था कि मुक्तिबोध की मृत्यु में ही उनके पुनर्जीवन की (हिन्दी की दुनिया में) चाबी मौजूद है। जब मैंने इस का अाशय जानना चाहा तो वह बोले, “वी अाल शेयर हिज़ अाफ़्टरलाइफ़।”
मुक्तिबोध के जीवन की विडम्बना दो मर्मभेदी घटनाअों के ज़रिए सामने अाती है। 11 सितंबर 1964 के दिन अखिल भारतीय अायुर्विज्ञाना संस्थान में जब उनकी मृत्यु हुई तो अंत्येष्टि से पहले उनके शव को दिल्ली में उसी शख़्स के सरकारी अावास पर लाकर रखा गया जिसने अंतरंग मित्र होते हुए उनके ख़िलाफ़ मुख़बिरी की थी। कुछ ही दिन बाद उनकी याद में दिल्ली में पहली गोष्ठी उनके मित्रों और प्रशंसकों ने की, वो भी उसी अादमी के अावास पर हुई! अफ़सोस की बात यह है कि किसी को भी यह अापत्तिजनक न लगा। उस अादमी के दामन का दाग़ किसी को दिखाई न दिया! न तब, न बाद में। दूसरा वाक़या मक़बूल फ़िदा हुसेन से जुड़ा है। हुसेन मुक्तिबोध की अंतिम यात्रा में शरीक थे। वह उनके मित्रों के मित्र थे और मुक्तिबोध के महत्व से कुछ हद तक वाक़िफ़ थे। शवयात्रा में चलते हुए उनके दिल में ख़याल अाया कि इतना बड़ा लेखक और बुद्धिजीवी कितने अभाव, उपेक्षा और लगभग गुमनामी की हालत में दुनिया से रुख़सत हो रहा है, और हम उसके लिए कुछ न कर सके। उन्होंने वहीं अपने जूते छोड़ दिये और तमाम रास्ते श्मशान तक नंगे पाँव चले। हुसेन का कहना था, “मुझे लगा कि इतना तो मैं कम-अज़-कम कर ही सकता हूँ।” उनके नंगे पाँव चलने में पश्चात्ताप, शोक और अक़ीदत का मिला-जुला जज़्बा था। हुसेन साहब ने ख़ुद मुझसे कहा कि जिस चीज़ को (यानी नंगे पैर चलने को) उनकी एक जानी-पहचानी ‘अदा’ कहा जाता है, उसकी शुरुअात मुक्तिबोध की मौत के सदमे से हुई थी। ये दो मामूली घटनाएँ मुझे नेहरू युग की गहरी नैतिक फाँक का प्रतिनिधि रूपक लगती हैं।
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अाज विभिन्न प्रकार के सैद्धान्तिक दूर-दूर ही से मुक्तिबोध को रहस्यवादी, खंडित चेतना का चितेरा इत्यादि कहते रहते हैं, या कुछ ज़्यादा निर्लज्ज तत्व बार-बार उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि (महाराष्ट्रियन ब्राह्मण) में ही उनकी मूल सृजनात्मक चेतना का उत्स देखते हैं अौर उन्हें वामपंथियों से ‘मुक्त’ करके अपना लेना चाहते हैं। उधर वामपंथ के कई पहरेदारों ने भी (ख़ासकर रामविलास शर्मा और उनके अनुयायियों ने) मुक्तिबोध को डिसओन किया हुअा है। मुक्तिबोध के इस अपहरण, ‘लिबरेशन’ या बरख़ास्तगी की योजना का दिलचस्प पक्ष यह है कि मुक्तिबोध के घर पर कोई पहरा तो है नहीं, द्वार खुले हैं और मुक्तिबोध वहाँ मौजूद हैं — संगत को तैयार। सवाल यह है कि क्या मुक्तिबोध के ये अपहरणकर्ता उनकी बग़ल में बैठने को तैयार हैं? क्या उनकी सोहबत इन्हें गवारा होगी?
हिंदी के साहित्यिक दक्षिणपंथी और उनकी देखादेखी कुछ उदारवादी मुक्तिबोध पर पुनर्विचार की बात किया करते हैं। विचारशील लोगों को विचार अथवा 'पुनर्विचार' के लिए किसी ऐलान या आयोजन की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। विचार अपने में एक जारी सिलसिला है जो इन्सान की ज़ेहनी फ़िज़ा और बौद्धिक कार्यव्यापार को आन्दोलित किये रहता है। हर नए विचार, अकुलाहट या आकलन को पुनर्विचार कहा भी नहीं जाता। यह अधकचरापन और ख़ामख़याली है। अनुभव, प्रयोग, दिमाग़ी मेहनत, और संवाद की मंज़िलों से गुज़रकर और अपने वक़्त के हालात से मानूस होकर, उनसे गहरी जद्दो-जहद करते हुए कभी कभी लोगों का सामूहिक आलोचनात्मक श्रम और रचना-कर्म अपने कुल जमा (कुमुलेटिव) असर से पुनर्विचार की ज़मीन तैयार करता है। साहित्य और कलाओं की दुनिया में बड़े परिवर्तन साल में दो बार, ख़ुद से और इतनी आसानी से, नहीं आते। मुक्तिबोध पर 'पुनर्विचार' एक संदेहास्पद अकुलाहट का नतीजा लगती है। कुछ लोग विचार से पहले पुनर्विचार के लिए बेताब है। सौवाँ साल (२०१७) पूरा हो रहा है। यानी अगले तीन-चार साल मुक्तिबोध पर सघन ‘पुनर्विचार’ के साल होंगे। चूँकि उसी साल रूसी क्रांति की सौंवी सालगिरह भी पड़ रही है, तो लाज़िम है कि यह एक दोहरा पुनर्विचार हो। इन पुनर्विचारकों के विचार वही हैं जो वे दशकों से — शीतयुद्ध काल से — बताते आ रहे हैं, वे बस नए सिरे से धावा बोलने की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें लगता है परिस्थिति अब ज़्यादा अनुकूल है। कोशिश है कि फिर से मरहूम पर दावा पेश किया जाए और मुक्तिबोध जन्म शताब्दी वर्ष के आते आते भारतीय वाम-परंपरा के इस महान विचारक, कवि और लेखक की स्मृति पर नरम दक्षिण-अति दक्षिण गठबंधन के तहत एक भगवा-श्वेत दुरंगा फहरा दिया जाए। प्रतिगामिता कभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती। उसे भगत सिंह की 'घर वापसी' चाहिए और गजानन माधव मुक्तिबोध की भी। भारत में पूँजी हर जगह अपनी ताक़त दिखा रही है। दूसरी ही तरह के ‘पुनर्विचार’ के युग में हम आ गये हैं। पिछले संसदीय चुनाव में सिक्काबन्द हिन्दुत्ववादी राजनीतिक गठबंधन की जीत के बाद उनके सांस्कृतिक प्रवक्ताओं ने सार्वजनिक मंचों से बोलकर भी और लिखकर भी ऐलान कर दिया है कि शिक्षा, संस्कृति, नागरिक आचार और अधिकार व्यवस्था, लोगों के रंग-ढंग और जीवन शैली हर चीज़ पर पुनर्विचार और उसके आमूल-चूल पुनर्गठन का वक़्त आ गया है, और यह कि अब उन्हें जनादेश प्राप्त है। यह पुनर्विचार नहीं, समाज के फ़ासिस्ट पुनर्गठन की माँग और धमकी है। मुक्तिबोध का वाक़या भी अजीब है। उनके मरणोपरांत जिन लोगों ने उनके साहित्यिक उद्धार का ज़िम्मा लिया, उनके हाथ से वह मरहूम बहुत जल्दी छूट निकले। उनमें से जो उद्धारक बचे रह गए हैं आज तक हाथ मलते हैं। अब नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में फ़िज़ा साज़गार हुई है। उन्हें अपनी ‘जागीर’ वापस चाहिए।
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