कवि पंकज चतुर्वेदी ने विष्णु खरे की रामचंद्र शुक्ल और मुक्तिबोध को लेकर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी का ज़िक्र किया तो किसी ने इस वक़्त ऐसा न करने की नसीहत देकर एतराज़ किया। 'इस वक़्त' यह अजीब कुतर्क है। पता नहीं क्यों खरे जी के बारे में सोचते हुए मुझे केदारनाथ सिंह याद आ रहे थे। कई वजहों से। डर यही था कि 'इस वक़्त' की नसीहत वाले चले आएंगे। बहरहाल, कृष्ण कल्पित ने एक टिप्पणी में अभी इन दोनों कवियों का ज़िक्र किया - "केदारनाथ सिंह की अनुकृति करने की कोशिश में जितने युवा कवि नष्ट हुये उससे कुछ अधिक ही विष्णु खरे की कविता की नक़ल करके हुये होंगे । जो कवि जितने युवा कवियों को बरबाद कर सके - वह उतना ही बड़ा कवि होता है । इस लिहाज़ से केदारनाथ सिंह और विष्णु खरे दोनों ही बड़े कवि ठहरते हैं - कुछ थोड़ा कम तो कुछ थोड़ा ज़्यादा !"
मुझे लगता है कि केदारनाथ सिंह कविता और साहित्य की राजनीति में फूंक-फूंक कर सधे हुए कदम रखने वाले शख़्स थे। उनकी कविता अपने साफ़-सुथरेपन और एथनिक से कलापन की वजह से भी लोकप्रिय थी जिसकी नक़ल करके बर्बादी के साथ उनसे बड़ा कवि बन जाने की गुंजाइश भी मौजूद है।
खरे जी की कविता की नक़ल बर्बाद ही कर सकती थी। क्योंकि वह नक़ल कविता की लंबाई की हो सकती थी, स्टाइल की हो सकती थी जिससे बर्बादी के अलावा कुछ हाथ लगना सम्भव नहीं। उनकी कविताओं जैसी कविताएँ लिखने की कोशिशें ख़ूब हुईं। वे नक़ल ही थीं।
खरे जी की संवेदना और लगाव की नक़ल संभव नहीं क्योंकि ये चीज़ें नक़ल से हासिल हो ही नहीं सकती। जिस संवेदना और लगाव के साथ वे जिन जगहों और जिंदगियों में पहुंच जाते थे, वह दुर्लभ है। उनकी कविताओं में जो हाहाकार है, वह इसी संवेदना और मज़बूत लगाव की वजह से है। वह पक्षधरता, मनुष्यता और बारीक़ नज़र उनके पास ही थी जो उनके जैसी कविता के लिए ज़रूरी थी।
बड़े कवि तो खरे के आसपास हमेशा ही अनेक रहे। कुँवरनारायण और देवताले तो कुछ समय पहले ही विदा हुए। केदारनाथ सिंह भी। खरे किसी से बड़े कवि नहीं थे। केदारनाथ सिंह से तो कतई नहीं जिन्होंने अपना वैभव, ओरा और शिष्य संसार काफी बड़ा बनाया था। खरे तो अपनी कविताओं के बारे में न कभी ख़ुद कोई चर्चा आयोजित कर सकते थे और न प्रायोजित। पुराने और नये लेखकों-कवियों से उनके गहरे रिश्ते थे पर वे तोड़फोड़, फटकारना और फटकार खाना इतना करते थे कि कोई स्थायी मठ बनना उनके व्यक्तित्व में शामिल ही नहीं था। लेकिन, वे बड़ों से बड़े कवि इस तरह थे कि उन्होंने कविता में अपना एक नितांत नया रास्ता बनाया। रघुवीर सहाय जिस अति कला को छोड़कर शुष्क कही जाने वाली यथार्थवादी राह पर थे, उससे भी ज्यादा शुष्क गद्य सी राह। पर ऐसी शुष्क कि पाठक की आँखें और हृदय संवेदना से रो पड़ते हैं। एक सच्ची कविता ही ऐसा कर सकती है। जैसा कि कल्पित जी ने उन्हें मुक्तिबोध से जोड़ते हुए एक बात कही और जैसा कि असद जी अक्सर खरे जी की कविताओं पर बात करते हुए मुक्तिबोध के उस 'अपराध बोध' का जिक्र किया करते हैं, मुझे भी यही लगता है कि वे मुक्तिबोध और सहाय के वारिस थे। पर अपनी तरह के अलहदा।
मुझे लगता है कि केदारनाथ सिंह कविता और साहित्य की राजनीति में फूंक-फूंक कर सधे हुए कदम रखने वाले शख़्स थे। उनकी कविता अपने साफ़-सुथरेपन और एथनिक से कलापन की वजह से भी लोकप्रिय थी जिसकी नक़ल करके बर्बादी के साथ उनसे बड़ा कवि बन जाने की गुंजाइश भी मौजूद है।
खरे जी की कविता की नक़ल बर्बाद ही कर सकती थी। क्योंकि वह नक़ल कविता की लंबाई की हो सकती थी, स्टाइल की हो सकती थी जिससे बर्बादी के अलावा कुछ हाथ लगना सम्भव नहीं। उनकी कविताओं जैसी कविताएँ लिखने की कोशिशें ख़ूब हुईं। वे नक़ल ही थीं।
खरे जी की संवेदना और लगाव की नक़ल संभव नहीं क्योंकि ये चीज़ें नक़ल से हासिल हो ही नहीं सकती। जिस संवेदना और लगाव के साथ वे जिन जगहों और जिंदगियों में पहुंच जाते थे, वह दुर्लभ है। उनकी कविताओं में जो हाहाकार है, वह इसी संवेदना और मज़बूत लगाव की वजह से है। वह पक्षधरता, मनुष्यता और बारीक़ नज़र उनके पास ही थी जो उनके जैसी कविता के लिए ज़रूरी थी।
बड़े कवि तो खरे के आसपास हमेशा ही अनेक रहे। कुँवरनारायण और देवताले तो कुछ समय पहले ही विदा हुए। केदारनाथ सिंह भी। खरे किसी से बड़े कवि नहीं थे। केदारनाथ सिंह से तो कतई नहीं जिन्होंने अपना वैभव, ओरा और शिष्य संसार काफी बड़ा बनाया था। खरे तो अपनी कविताओं के बारे में न कभी ख़ुद कोई चर्चा आयोजित कर सकते थे और न प्रायोजित। पुराने और नये लेखकों-कवियों से उनके गहरे रिश्ते थे पर वे तोड़फोड़, फटकारना और फटकार खाना इतना करते थे कि कोई स्थायी मठ बनना उनके व्यक्तित्व में शामिल ही नहीं था। लेकिन, वे बड़ों से बड़े कवि इस तरह थे कि उन्होंने कविता में अपना एक नितांत नया रास्ता बनाया। रघुवीर सहाय जिस अति कला को छोड़कर शुष्क कही जाने वाली यथार्थवादी राह पर थे, उससे भी ज्यादा शुष्क गद्य सी राह। पर ऐसी शुष्क कि पाठक की आँखें और हृदय संवेदना से रो पड़ते हैं। एक सच्ची कविता ही ऐसा कर सकती है। जैसा कि कल्पित जी ने उन्हें मुक्तिबोध से जोड़ते हुए एक बात कही और जैसा कि असद जी अक्सर खरे जी की कविताओं पर बात करते हुए मुक्तिबोध के उस 'अपराध बोध' का जिक्र किया करते हैं, मुझे भी यही लगता है कि वे मुक्तिबोध और सहाय के वारिस थे। पर अपनी तरह के अलहदा।
2 comments:
एक नजरिया ये भी कुछ हट कर।
एक नया दृष्टिकोण !
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