Saturday, December 22, 2018

मेघालय: मुख्यधारा की राजनीति, खनन माफिया और उजड़ता जनजातीय जीवन

Photo: Tarun Bhartiya

इस साल फरवरी में मेघालय विधानसभा के चुनाव प्रचार के दौरान इस तरह की आशंका की खबरें छपी थीं कि चुनाव में खनन माफिया का पैसा इस्तेमाल हो रहा है। पुलिस ने उस दौरान काफी कैश बरामद भी किया था। मेघालय के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक एसबी सिंह से भारतीय जनता पार्टी नाराज थी और चुनाव आयोग से उन्हें पद से हटाने की मांग भी कर रही थी। कोल माइनिंग पर नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के बैन को लेकर कोई रास्ता निकालने का आश्वासन भी भाजपा ने चुनाव के दौरान दिया था। भाजपा कहने को अकेली चुनाव लड़ रही थी पर सभी जानते थे कि नैशनल पीपल्स पार्टी के चुनाव के पीछे भाजपा है। इस अघोषित गठबंधन का ही नतीजा था कि भाजपा सिर्फ़ दो विधायकों के बूते एनपीपी के साथ सरकार बनाने में कामयाब रही थी। (राज्यपाल की भूमिका तो महत्वपूर्ण थी ही।) बहरहाल, चुनाव अभियान के दौरान जो हालात थे, उनके मद्देनज़र यह साफ हो रहा था कि नई सरकार में खनन माफिया बेलगाम होने जा रहा है। 8 नवंबर को जानी-मानी एक्विस्ट एग्नेस खारशियेंग, उनकी साथी अमिता संगमा और उनके ड्राइवर पर कोल माफिया के हमले ने इस आशंका को सच साबित कर दिया। कोयला माफिया और सत्ता के नेक्सस का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आरोपियों में सत्तारूढ़ एनपीपी का एक बड़ा नेता निदामन चुलेट शामिल है जिसकी गिरफ्तारी में टालमटोल जारी है। इस वारदात की सीबीआई की जांच कराने की विपक्ष की मांग को भी सरकार ठुकरा चुकी है।
Agnes Kharshiing
एग्नेस और अमिता पर जानलेवा हमला एक सनसनीखेज आपराधिक वारदात भर नहीं है। यह वारदात मेघालय के खनन माफिया खासकर कोयला माफिया, सत्ता खासकर मौजूदा सत्ता के चरित्र, ट्राइबल्स इलाकों की जीवन व रोजगार की मुश्किलों, तेजी से नष्ट किए जा रहे प्राकृतिक संसाधनों, जनता के सवालों को लेकर सत्ता के प्रतिरोध में खड़े होने वाले नागरिक संगठनों पर भविष्य के खतरों को लेकर गंभीरता से विचार करने की मांग करती है। सिविल सोसायटी वीमेन्स ऑर्गेनाइजेशन (सीएसडब्लूओ) की अध्यक्ष एग्नेस जिस तरह की शख़्सियत हैं, उन पर किसी बड़े संरक्षण के बिना हमला करने की सोचना आसान नहीं था। वे एक बेलौस जन-बुद्धिजीवी और जुझारू ईमानदार एक्टिविस्ट हैं। महिलाओं-बच्चों के दफ़्न कर दिए जाने वाले यौन शोषण के मसले हों, गरीबों, वंचित तबकों के रोजी-रोटी और आवास के सवाल हों, मानवाधिकारों के दमन का मामला हो, सत्ता केंद्रों में व्याप्त करप्शन के केस हों, यूरेनियम माइनिंग जैसा हाई प्रोफाइल मसला हो, एग्नेस हमेशा संघर्ष में आगे मिलेंगी। जुलूसों से लेकर उत्पीड़ितों के बचाव में गांवों तक दौड़ती हुईं, गांव-गांव में पीडीएस के तहत सामग्री का ईमाननदारी से वितरण सुनिश्चित कराती हुईं, मीटिगें करती हुईं, फाइलें लिए प्रशासनिक कार्यालयों से लेकर कोर्ट-कचहरियों के चक्कर काटती हुईं, आरटीआई लगाती हुईं...। जाहिर है कि मेघालय के ताकतवर कोल माफिया की निरंकुश कारगुजारियों के प्रतिरोध में भी वे एक खरी आवाज़ हैं। जब उन पर हमला किया गया तो वे ईस्ट जयंतिया हिल्स जिले के तुबेर सोशरे में कोल माइनिंग साइट पर ही सबूत जुटाने के लिए विडियो बना रही थीं। एक दिन पहले ही उनकी शिकायत पर शिलॉन्ग में कोयले से लदे ट्रक सीज़ किए गए थे। बताया जाता है कि उन्हें चुप कराने के लिए कोई शख़्स उनके घर पैसे का ऑफर लेकर भी पहुंचा था लेकिन उन्होंने अपने कदम पीछे खींचने से इंकार कर दिया था। वे कोयला खनन पर एनजीट के बैन के बाद भी अवैध खनन जारी होने के अनेक मामले पुलिस की निगाह में ला चुकी हैं और कोल माफिया की नज़रों में खटकती रही हैं। आखिर, उन्हें रास्ते से हटा देने के लिए बर्बर हमला किया गया। एग्नेस और अमिता को मरा जानकर जंगल में फेंक दिया गया था। होश में आने पर अमिता किसी तरह घिसटते हुए सड़क पर पहुंचकर मदद हासिल करने में कामयाब रहीं। बाद में एग्नेस को जंगल से ढूंढकर बेहोशी की हालत में अस्पताल भेजा गया।
Angela and Agnes 
मेघालय में लेफ्ट की मौजूदगी सिर्फ़ कागजों पर है। पॉपुलर पॉलिटिक्स के विभिन्न धड़े आम जनता से जुड़े जेनुइन मुद्दों पर बेरुखी रखते हैं या जनद्रोही स्टेंड लेते हैं। इसके बावजूद वहां एक प्रग्रेसिव नज़र वाले जन प्रतिरोध की जगह `थमा उ रांगली-जुकी` (तुर) संगठन के रूप में लगातार असरदार ढंग से विस्तार लेती रही है। दो साल शिलॉन्ग में रहते हुए तुर की उपस्थिति सड़कों पर जलसों-जुलूसों की शक्ल में और कई बड़े बदलावों में बार-बार महसूस हुई। प्रभुत्वशाली तबकों की आम सहमति के आधार पर सड़कों-फुटपाथों से खदेड़ दिए गए हॉकर्स-वेंडर्स के लिए टकरातीं तुर की नेतृत्व पंक्ति की एंजला रांगेड की छवियां मेरे लिए अविस्मरणीय हैं। अपने ठीयों पर वापसी का यक़ीन शायद हॉकर्स-वेंडर्स को भी न रहा हो पर महिलाओं की बहुसंख्या वाले तुर के उस आंदोलन ने यह संभव कर दिखाया। आरएसएस के स्वयंसेवक वी षडमुखनाथन की राजभवन में यौन अराजकता के विरोध में यही एक्टिविस्ट सड़कों पर न उतरतीं तो गवर्नर पद से उसकी छुट्टी न हुई होती। ऐसे बहुत से कामयाब कारनामों में तुर का एक अविश्वसनीय कारनामा सरकारी और गैर सरकारी विभागों/दफ्तरों में 14 यूनियनें खड़ी कर दिखाना रहा। देशभर में यूनियनों के खत्म होने या अप्रासंगिक होने के दौर पर इन यूनियनों का अस्तित्व में आना और तमाम मसलों पर सक्रिय रहना अलग से लिखे जाने की मांग करता है। फिलहाल कहना यह कि एग्नेस खारशियेंग ऐसे हर संघर्ष में साथ रही हैं। मेघालय की निवर्तमान कांग्रेस सरकार के समय के शिक्षा विभाग के भर्ती घोटाले को सामने लाने में एग्नेस और एंजला की ही मुख्य भूमिका रही है। इस घोटाले में पिछली सरकार के मंत्रियों की गर्दनें फंसी हुई है। लेकिन, पूर्ववर्ती सरकारों में इन एक्टिविस्टों के लिए जेल और मुकदमे तो थे, मार डालने की इस तरह की कोशिशें न थीं।
8 नवंबर को एग्नेस पर हमले की ब्रेकिंग न्यूज देखते ही तुरंत यही बात मेरे मन में आई कि क्या मेघालय में प्रतिरोध की ऐसी आवाज़ों को हिंसक दमन के साथ ख़ामोश कराने की शुरुआत हो चुकी है। क्या यह मेघालय में एक नयी राजनीतिक संस्कृति का आगाज़ है? इस वारदात में सत्तारूढ़ पार्टी के नेता का नाम आने से ऐसी आशंकाओं को बल मिलना लाज़िमी था। विपक्ष के तमाम नेताओं ने सरकार को निशाने पर लिया, कुछ गिरफ्तारियां हुईं पर सीबीआई जांच की मांग को सरकार ने सिरे से खारिज कर दिया। तुर की नेता एंजला रांगेड ने कहा कि एग्नेस के संघर्ष और प्रतिरोध की संस्कृति को धीमा नहीं पड़ने दिया जाएगा। जाहिर है कि प्रगतिशील नागरिक संगठनों के लिए मेघालय में एक नया रणक्षेत्र खुलने जा रहा है। एक हद तक माँ को महत्व देने वाले खासी समाज की विरासत में मर्दवादी नजरिये से बदलाव जैसे मसलों में सरकार की दिलचस्पी से भी लगता है कि नागरिकों की बेहतरी के सवालों को दक्षिणपंथी-पितृसत्तात्मक तौर-तरीकों से पीछे धकेलने की कोशिशें होंगी और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए दमन तेज होगा।
Photo: Tarun Bhartiya
मेघालय में कोयले के अवैध और अनियंत्रित खनन का मसला बेहद जटिल है। अप्रैल 2014 में एनजीटी ने इस खनन पर रोक लगा दी थी तो कोयला खदानों के मालिकों, उनके दलालों और सत्ताकेंद्रों से जुड़े ताकतवर लोगों के नेक्सस ने इसे ट्राइबल्स के मूल अधिकारों और हितों पर हमले के रूप में प्रचारित किया था। बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए थे। खासकर जयंतिया हिल्स में जन-असंतोष जैसी स्थिति पैदा करने की कोशिशें हुई थीं। जयंतिया हिल्स अवैध कोयला खनन की मुख्य केंद्र हैं। मेघालय घूमने जाने वाले अधिकतर लोग खासी हिल्स में आने वाली राजधानी शिलॉन्ग से चेरापूंजी के आसपास के इलाके घूमकर आते हैं।एक लोकप्रिय टूरिस्ट स्पॉट डाउकी है। भारत-बांग्लादेश सीमा पर जयंतिया हिल्स से गिरने वाले झरने मैदान में नदी की शक़्ल लेकर बांग्लादेश चले जाते हैं। जाड़ों के मौसम में झरने शांत हो जाते हैं तो नदी का पानी थिर हो जाता है। जरा सी ट्रिक फोटोग्राफी इस साफ-शफ्फाक पानी में नावों को हवा में दिखाने लगती है। इस सुदंर जगह को प्रदूषित कर आने वाले कथित पर्यटकों को गुमान भी न होगा कि कुछ उनकी वजह से और खासतौर से कोल माइनिंग की वजह से इस नदी की दुर्लभ प्रजाति की मछलियां संकट में पड़ चुकी हैं।
Jaiantia Hills
अवैध-अनियंत्रित कोल माइनिंग के कुख्यात इलाकों की झलक शिलॉन्ग से सिलचर (असम का कछार जिला) जाने वाले हाइवे पर यात्रा करने भर से मिल सकती है। ये पॉपुलर टूरिस्ट इलाके नहीं हैं। इसी सप्ताह मुझे सिलचर यूनिवर्सिटी के प्रफेसर और हिंदी कवि कृष्णमोहन झा की बदौलत उनके साथ इस हाइवे पर लौट-फेर करने का मौका मिला। खासी हिल्स से निकलकर जयंतिया हिल्स में प्रवेश के कुछ देर बाद ही इन खूबसूरत रहे पहाड़ी इलाकों पर कोल माइनिंग के दुष्प्रभाव दिखाई देने शुरू हो जाते हैं। पहाड़ियां की पहाड़ियां खत्म हो चुकी हैं और एनजीटी के बैन के बावजूद कोयला ढोते ट्रक सड़कों पर दौड़ते मिलते हैं। जंगल और उसकी खासियतें कोयले के लालची सौदागरों की भेंट चढ़ चुकी हैं। असम के कछार जिले की तरफ से न्यू कछार हिल्से (एनकेपी) के सिलसिले के साथ मेघालय की जयंतिया हिल्स में प्रवेश करें तो ऊंचे परबतों सी वनाच्छादित पहाड़ियां मन मोह लेती हैं। छोटी-छोटी नदियां और पानी के सोते भी नज़र आते चलते हैं। गो के उनका संकट भी नज़र आता है। लेकिन हिल्स की यह खूबसूरती ज्यादा साथ नहीं देती है। कोल माइनिंग से पैदा हुई बरबादी चिंता में डालती है कि ये जंगल और ये पहाड़ियां इंसान के सामने कितने दिन टिक सकती हैं? कि किस्सों में `अनटच नेचर` का घर नोर्थ ईस्ट भी उत्तराखंड बनने की राह पर है।
इस अनियंत्रित, अनियोजित और अवैध कोल माइनिंग पर बैन को ट्राइबल्स के मौलिक अधिकारों का हनन बताने वाले ट्राइबल्स की ज़िंदगी पर खतरे का जिक्र नहीं करते हैं। बेतहाशा हुई कोल माइनिंग ने जलस्रोतों और छोटी-छोटी नदियों को या तो खत्म कर दिया है या बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है। खनन को ट्राइबल्स का अधिकार बताने वाले धनपशु इसकी वजह से पेड़-पौधों, जलीय जीवों और ट्राइबल्स पर भयंकर संकट के स्पष्ट प्रमाणों को नज़रअंदाज करते हैं। मेघालय-असम की सीमा की न्यू कछार हिल्स (एनकेएच) की दिमासा ट्राइब्स के लोगों ने जब देखा कि उनकी कोपिली नदी का पानी पीने लायक नहीं रहा है और उसमें मछलियां भी दम तोड़ रही हैं तो उन्हें पता चला कि इसकी वजह जयंतियां हिल्स में हो रहा अंधाधुंध कोयला खनन है। इस अवैध खनन पर एनजीटी की रोक का श्रेय असम की ऑल दिमासा स्टूडेंट्स यूनियन और दिमा हासाऊ डिस्ट्रिक्ट कमेटी की ओर से दायर की गईं पिटीशन्स को भी है।
कोयला खनन को ट्राइबल्स के अधिकारों का हनन बताने वाली कहानी का सबसे बड़ा छल यह है कि आम ट्राइबल्स इन कोयला खदानों के मालिकान न होकर निरीह मज़दूर हैं। उत्तर भारत और बांग्लादेश के निरीह मज़दूरों के साथ अपनी जान-जोखिम में डालकर, जरूरी सावधानियां बरते बिना मामूली पैसों के लिए काम करने वाले मज़दूर। खनन माफिया और उसके संरक्षक सत्ता केंद्र न तो इस अवैध खनन के दौरान हुए भयानक हादसों पर बात करना चाहते हैं, न मजदूरों के वास्तवित हितों पर। कॉरपोरेट को प्राकृतिक संसाधन लुटाने के लिए तैयार रहने वाली ट्राइबल लीडरशिप गरीब ट्राइबल जनता की गरिमा और उनके लिए रोजगार के दूसरे साधनों को मुहैया कराने में कोई रुचि नहीं लेती है। बुरी तरह हाशिये पर धकेली जा रही जनता ऐसे में इस अवैध खनन में खटने, छोटी-मोटी चा-चावल-समोसे की दुकान चला लेने को ही खुशकिस्मती मान लेती है और अवैध खनन पर बैन को रोजगार छिन जाने की तरह देखती है।
हिल्स पर मालिकाना हक़ का मामला भी काफी जटिल है। शिलॉन्ग में रहने वाले बेहतरीन फिल्मकार, कवि, विचारक और सोशल एक्टिविस्ट तरुण भारतीय अक्सर बताते हैं कि ट्राइबल्स इलाकों में भूमि का मालिकाना हक़ पूरे कबीले का रहता आया है। निजी संपत्ति की अवधारणा आने के बाद कई तरह की जो मुश्किलें आई हैं, उसे कोयला खनन मामले में भी देख सकते हैं। स्थानीय चतुर लोगों और बाहरी लोगों ने सांठगांठ के जरिये कोल हिल्स हासिल कर ली हैं। मामूली रकम देकर बेनामी मालिकाना हक़ भी पा लिए गए हैं। एक छोटे से हिस्से को संपन्न बनाने वाला यह खेल बाकी लोगों को और ज्यादा बेबस बनाकर ही नहीं छोड़ देता बल्कि इस सामुदायिक जनजीवन वाले समाज में तरह-तरह से लेयर्स पैदा करता है। उनके खेती और मछली पालन के परंपरागत पेशों को भी नष्ट करता है।
इस अन्याय पर पलने वाली राजनीतिक ताकतों की इस घिनौने खेल को रोकने में कोई रुचि नहीं है। यह समस्या लाइम स्टोन आदि के खनन से भी जुड़ी है और खासी व गारो हिल्स भी इससे अछूते नहीं है। ट्राइबल्स के इलीट और संपन्न हो चुके छोटे से तबके को भी प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट और आम ट्राइबल्स के संकट से बेचैनी नहीं पैदा होती है। उसे दूसरे राज्यों के कथित पर्यटकों की तरह बड़ी गाड़ियों के लिए हिल्स काटकर चौड़ी सड़कें बनते चले जाने से खुशी मिलती है और लूट में थोड़ी हिस्सेदारी से।
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November 2018 के आख़िरी हफ़्ते में लिखा गया मेरा यह लेख समयांतर के December 2018 अंक में छप चुका है।-धीरेश



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