उस चान्नण मीनार कृष्णा सोबती के होने से हिंदी साहित्य के लफंगे, लम्पट, छिपे और खुले दक्षिणपंथी, फासिस्टों के चम्पू ख़ुद को कितना विचलित और अपमानित महसूस करते थे, किसी से छिपा हुआ नहीं है। इन नये-पुराने कवि-लेखक तत्वों की हालत चोरों-डाकुओं की तरह रौशनी को गालियां देकर ख़ुद को तसल्ली देने जैसी थी। इतने मजमों और तमाशों में रहने वाले वे घूम-फिर कर एक शब्द उछाला करते थे - 'ओवररेटेड'। यह उन्हें उनके वैचारिक पूर्वजों/आक़ाओं से हासिल हुआ था और अकेले में वे कभी आँखें फैलाकर, कभी नज़रें झुकाकर, कभी हथेली घुमाकर और कभी ताली बजाकर इस तरह कहा करते थे, जैसे वे अभी किसी महीन आलोचक की तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचे हों। उन्होंने एक-दो नाम कृष्णा सोबती बनाम अलां-फलां करने के लिए रट रखे थे जो न उन्हें कहीं ले जा पाते थे और न वे उन नामों को कहीं ले जा सकते थे।
इस गिरोह की समस्या ख़ुद अपनी कायरता और बेईमानी थी। बूढ़े मसीहा शीर्ष पुरुष उस फिल्मी सितारे अमिताभ की तरह फासिस्टों के चरणों में बिछकर और साम्प्रदायिक बातें कर लम्पटों को राह दिखा रहे थे तो कृष्णा सोबती अपनी वृद्धावस्था और अपनी ज़ईफ़ी के बावजूद फासिस्टों के ख़िलाफ़ मज़बूत स्टैंड लेती रही थीं। इस भयानक राजनीतिक परिदृश्य में उनके विवेक और उनके साहस ने आख़िरी वक़्त तक उनका साथ नहीं छोड़ा। उनका यह व्यक्तित्व, उनकी यह बेबाकी और उनकी यह राजनीति कायरों और दलालों के हृदय में शूल सी गड़ती थी। यह चुभन ऐसे बहुतेरों के मुँह से सार्वजनिक बकवासों से लेकर निजी बातचीत तक में हम सुनते ही रहे हैं और तसल्ली पाते रहे हैं कि एक वृद्ध और बीमार बुद्धिजीवी लेखिका साहित्य में फैले समाजशत्रुओं के लिए किस तरह कांटा बनी हुई हैं।
इसीलिए, कृष्णा सोबती के लिए प्यार और एहतराम के साथ मेरे मन से 'चान्नण मीनार' निकला। रौशनी की मीनार। लाइट हाउस।
3 comments:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन राष्ट्रीय मतदाता दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
She was our Maya Angelou and Adrienne Rich rolled into one!
-Bharatbhooshan Tiwari
विपरीत समय में फौलाद की तरह खड़े हो जाने वाली प्रतिबद्धता को नमन ! श्रद्धाँजलि
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