"शैलेन्द्र को मैं
हिन्दी फिल्मों का सबसे बड़ा गीतकार मानता हूँ। हिन्दी फिल्मों में गीत रचयिता के
रूप में बहुत बड़े-बड़े नाम हैं जैसे- मजरूह, साहिर, कैफ़ी आज़मी और
मख़्दूम के भी कुछ गीत हैं लेकिन शैलेन्द्र की स्थिति इस मामले में कुछ अलग है।
शैलेन्द्र को आप हिन्दी का भी कह सकते हैं, उर्दू का भी कह सकते हैं। शैलेन्द्र ने फिल्मों में गीत
लिखते समय एक ऐसी भाषा का, एक ऐसी जबान का
प्रयोग किया है जो किताबी नहीं है। आम आदमी मोहब्बत के समय जिस जबान का प्रयोग
करता है, करीब-करीब उसी जबान में
शैलेन्द्र ने हिन्दी फिल्मों के गीत लिखे। उनका बड़ा मशहूर गीत है, 'आवारा हूँ, या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ' या 'मेरा जूता है जापानी,...फिर भी दिल है
हिन्दुस्तानी'। यह जो भाषा है, साहित्यिक भाषा नहीं है। न आप उसे केवल हिन्दी
कह सकते हैं न ही उर्दू। हिंदुस्तान का मामूली से मामूली आदमी अपनी जिंदगी में जिस
तरह से अभिव्यक्त करता है, शैलेन्द्र ने उसी
भाषा को अपने गीतों का आधार बनाया।" - विश्ववनाथ त्रिपाठी
('साहित्यिक स्तर
से भी बहुत बड़े हैं शैलेन्द्र के फिल्मी गीत' लेख में। 'शैलेन्द्र तू प्यार का सागर
है' किताब में संकलित।)
त्रिपाठी के लेख का यह
शुरुआती पैरा है। कुल मिलाकर बात ठीक-ठाक लगती है कि शैलेन्द्र के पास एक आमफ़हम
भाषा है या आम लोगों की भाषा है। लेकिन क्या त्रिपाठी यही कहना चाह रहे हैं?
क्या है जो लेख की शुरुआत में ही अखरता है और
उनकी नीयत पर संदेह पैदा करता है? जिस तरह कहा जाता
है कि किसी बात को समझने के लिए किसी एक वाक्य से अर्थ निकालने के बजाय उसके
आगे-पीछे लिखी गई बातें पढ़ना ज़रूरी है, उसी तरह यह भी ज़रूरी है कि भली-भली सी लगने वाली किसी बात में छुपी बातों को
समझने के लिए उसे तोड़कर परखा जाए।
"शैलेन्द्र को मैं
हिन्दी फिल्मों का सबसे बड़ा गीतकार मानता हूँ। हिन्दी फिल्मों में गीत रचयिता के
रूप में बहुत बड़े-बड़े नाम हैं जैसे- मजरूह, साहिर, कैफ़ी आज़मी और
मख़्दूम के भी कुछ गीत हैं लेकिन शैलेन्द्र की स्थिति इस मामले में कुछ अलग है।
शैलेन्द्र को आप हिन्दी का भी कह सकते हैं, उर्दू का भी कह सकते हैं।" लेख के शुरू के इन तीन
वाक्यों को देखिए। त्रिपाठी कुछ प्रग्रेसिव गीतकारों को छोटा-बड़ा बनाकर बात शुरू करते हैं। वे जो नाम ले रहे हैं, उनमें से कोई भी
प्रदीप टाइप हिन्दूवादी या साम्प्रदायिक मानसिकता वाला लोकप्रिय गीतकार नहीं है।
तीनों नाम वे हैं जो हिन्दी सिनेमा के गीतों को मक़ाम देते हैं और उसे सेकुलर बनाए
रखते हैं। शैलेन्द्र की ही तरह। मजरूह, साहिर, कैफ़ी और शैलेन्द्र, ये चारों कम्युनिस्ट हैं। तुलनात्मक अध्ययन तो किसी का भी होता है पर क्या यहाँ त्रिपाठी का उद्देश्य ऐसा कुछ है। नहीं, वे एक स्वीपिंग
से कमेंट के ज़रिए अपनी साम्प्रदायिक या टिपिकल सवर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता को
संतुष्ट करते हैं। न वे शैलेन्द्र को लेकर गंभीर हैं, न प्रगतिशीलता को। जाति, धर्म, भाषा वगैराह को
लेकर उनका एक संकीर्ण नज़रिया है और वे जो भी कहते-लिखते या देखते-दिखाते हैं,
इसी संकीर्ण फ्रेमवर्क के ज़रिए मुमकिन होता है।
एक तरह यह उनकी सुविधा भी है और उद्देश्य भी। मुसलमान या उर्दू को लेकर उनकी अपनी
समस्या है। वरना, सबसे पहली बात तो
यही कि जब बात फिल्मों की हो रही है तो हिन्दी से उनका क्या आशय है। उस सिनेमा की
तो भाषा ही वह रही है जिसे आप हिन्दी कहें तो वह त्रिपाठी जैसे आचार्यों
की हिन्दी नहीं, आम लोगों के सहकार
की हिन्दी जिसे हिंदुस्तानी कह सकते हैं, जिसे इस तरह हिन्दी और उर्दू में छीला नहीं गया। हाँ, यह ज़बान उर्दू वालों की मेहनत, लगन और प्रतिभा से विकसित हुई है।
एक हिन्दूवादी मार्क्सवादी लेखक को समझने की शर्त ही यही है कि उसके लिखे को उसकी नीयत पर शक़ करते हुए परखा जाए। हिन्दी के बहुत से सवर्ण लेखकों को प्रायः उनकी ज्ञात और मनोनुकूल मक्कारियां कवर करने के लिए उन पर मासूमियत, संतई, ऋषि स्वभाव वगैराह विशेषताओं का मुलम्मा चढ़ाया जाता है। यह निर्मम नज़र रखनी होगी कि उनकी मासूमियत में शामिल मक्कारी को पहचाना जा सके। नहीं तो आपको लगेगा कि पंडिज्जी यहाँ शैलेन्द्र की किसी ख़ासियत का बयान कर रहे हैं जबकि उनका उद्देश्य किसी और का शिकार करना है। उनका लिखा 'हिन्दी साहित्य का सरल इतिहास' पढ़ने वाले उनकी समस्या से परिचित ही होंगे।
कुछ महीने फहले साहिर पर 'समयांतर' के लिए लिखते हुए मुझे बेसाख़्ता शैलेन्द्र याद आए थे। आएंगे ही। आने ही चाहिए। मैंने लिखा था - ""मेरे ख़्याल से इस बात में कोई दो-राय नहीं होनी चाहिए कि फ़िल्मी गीतों के ज़रिये समाज के बेहतर बदलाव के लिए प्रतिबद्ध आर्टिस्टों में साहिर सिरमौर हैं। उनके सिने-गीतों का ही कभी ईमानदारी से अध्ययन हुआ तो वे अवाम में पहुँच और असर में अदबी आन्दोलनों से ज़्यादा ही ठहरेंगे। प्रतिबद्ध सेकुलर हिन्दी गीतकारों में ऐसे उदाहरण के रूप में शैलेंद्र का ज़िक्र ज़रूरी है। यह दिलचस्प है कि ये दोनों ही वाम धारा से आए। यह भी कि इनमें से एक धार्मिक अल्पसंख्यक पृष्ठभूमि से आया और एक दलित पृष्ठभूमि से। क्या एक बेहतर समाज के लिए उनके गीतों में मौजूद इंटेंसिटी की वजह यह भी है कि हिन्दुस्तान में लोकतंत्र, समाजवाद, बराबरी, इंसानी गरिमा की चाह-परवाह इन्हीं तबकों के भीतर सबसे ज़्यादा है?"
पिछले दिनों कंवल भारती
ने कुछ ऐसी टिप्पणी की थी कि सवर्णों (शायद ब्राह्मणों) की कोई सामाजिक समस्या ही
नहीं है तो वे कविता क्यों लिखते हैं। इस टिप्पणी से सवर्ण लेखकों को आग लग गई थी।
लेकिन, क्या यह सही नहीं है कि
साहिर या शैलेन्द्र के गीतों में जिस बराबरी या इंसानी गरिमा की चाह-परवाह है,
वह सवर्ण लेखकों की समस्या है ही नहीं? लोकतंत्र उनकी ज़रूरत ही नहीं है। उनका काम हद से हद 'कम क्रूर शहर' की मांग से चलता है। वे प्यार, सहज भाषा,
समाजवाद, मार्क्सवाद, किसान, मज़दूर, ग़रीब वगैराह जुमले दोहराकर उस पृष्ठभूमि या उस ज़रूरत पर परदा डालना चाहते हैं
जो साहिर को साहिर बनाती है, शैलेन्द्र को
शैलेन्द्र। उनकी पृष्ठभूमि उनकी चेतना की वैसी तामीर नहीं करती जैसी कि सवर्ण हिन्दू लेखकों की चेतना
का निर्माण उनकी पृष्ठभूमि करती है। कि वे जब चाहें तुलसीवादी हो जाएं, जब चाहें कबीरवादी, जब चाहें साम्प्रदायिक बातें करने लगें, जब चाहें सेकुलर, जब चाहें उदात्तता पर ज़ोर देने लगें, जब चाहें अश्लील बातें
करने लगें।
बे-वजह नहीं है कि शैलेन्द्र की दलित पृष्ठभूमि पर बात करने से हिन्दू सवर्ण लेखकों को परेशानी होती है। आरएसएस के नायक प्रमुख दीनदयाल उपाध्याय की महिमा-गान के लिए चर्चित रविभूषण (जन संस्कृति मंच के कार्यकारी अध्यक्ष) लिखते हैं - "शैलेन्द्र को दलित कवि के रूप में चिह्नित करना गलत है। वे किसानों और मज़दूरों के कवि हैं, निर्धनों के कवि हैं, उनकी कविताओं में जो वंचित, दुखी, तिरस्कृत, अपमानित हैं, उन्हें वाणी दी गई है। बम्बई में वर्कशाप के मशीनों के शोर से कम नहीं था उनके भीतर का शोर, उनके भीतर की आग सदैव जलती रही।"
यह चेतना की सीमा का मसला भर नहीं है बल्कि सुचिंतित ज़िद
है कि रविभूषण या दूसरे सवर्ण हिन्दू प्रगतिशील लेखक यह न मानें कि उनके प्रभुत्व वाले समाज में
और हिन्दू धर्म व्यवस्था में जन्म के आधार पर तय अपमान की आग हमेशा धधकती रहती है।
रविभूषण अपनी इस टिप्पणी
से पहले उद्धरण देते हैं -
शैलेन्द्र का वास्तविक नाम शंकर दास राव था। पिता केसरी लाल राव एक कांट्रेक्टर थे। रमा भारती ने 'अंदर की आग' की भूमिका 'ज़िन्दगी मैंने देखी है' में यह लिखा है कि शैलेन्द्र का संबंध आरा (बिहार) जिला के घुसपुर गाँव के दलित परिवार से था....गाँव के लिए एक कहावत मशहूर थी 'जसपुर नगरी घुसपुर गाँव, वहाँ के बसिया रावत राव'....हॉकी खेलते हुए कुछ छात्रों की जातिवादी टिप्पणी थी-अब ये लोग भी खेल खलेंगे, जिससे खिन्न होकर स्वयं अपनी हॉकी स्टिक तोड़ दी और कलम-काग़ज़ से मैत्री स्थापित की" और "30 अगस्त 1966 को केन्द्रीय मंत्री जगजीवन राम ने शैलेन्द्र के जन्म-दिन पर एक बधाई-संदेश में यह कहा था कि 'संत रविदास के बाद शैलेन्द्र हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय हरिजन कवि हैं``। `अंदर की आग` पुस्तक का लोकार्पण नामवर सिंह ने किया था और उन्होंने ``शैलन्द्र को संत रैदास के बाद सबसे महत्वपूर्ण एससी कवि बताया`` (विनोद विप्लव, फॉरवर्ड प्रैस, फरवरी 2016)।
इस उद्धरण पर रविभूषण की प्रतक्रिया बताती है कि सवर्ण बुद्धिजीवी किस हद तक संकीर्ण और संवेदनहीन होते हैं। जिस ने जातिवादी टिप्पणी से आहत होकर ही हॉकी स्टिक तोड़कर कलम-कागज़ से दोस्ती की हो, उस कवि-गीतकार की चेतना और पीड़ा में, उसके व्यक्तित्व और रचनाशीलता में क्या इस बात का असर नहीं रहा होगा?
विनोद विप्लव ने लिखा है -``कुछ समय पहले हिंदी फिल्म जगत के प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र की जाति सार्वजनिक किये जाने को लेकर अच्छा खासा विवाद और विरोध हुआ। शैलेन्द्र के पुत्र दिनेश शंकर शैलेन्द्र ने `अंदर की आग` नाम से अपने पिता की कविताओं का एक संग्रह तैयार किया था, जो राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका में दिनेश शैलेन्द्र ने खुले तौर पर अपने पिता की सामाजिक पृष्ठभूमि (बिहार की धुसिया चर्मकार जाति) का उल्लेख किया था। इस पुस्तक का लोकार्पण करते हुए शीर्ष आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने शैलेन्द्र को संत रविदास के बाद सबसे महत्वपूर्ण दलित कवि बताया। लेकिन कई साहित्यकारों एवं लेखकों ने शैलेन्द्र की जाति का खुलासा किये जाने पर आपत्ति जतायी। एक लेखक तेजिन्दर शर्मा ने सोशल मीडिया में अपनी आपत्ति दर्ज करते हुए यहां तक कह दिया कि डॉ. नामवर सिंह ने न केवल शैलेन्द्र का बल्कि सभी साहित्यप्रेमियों का भी अपमान किया है। सवाल यह है कि कोई महान शख्सियत अगर दलित हो तो उसकी जाति के उजागर होने में क्या दिक्कत है? जब ब्राह्मण या अन्य सवर्ण विभूतियों की जातियों का खुलेआम प्रचार किया जाता है तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती। लेकिन किसी दलित विभूति की जाति को उजागर किये जाने का विरोध होने लगता है।`` (विनोद विप्लव, फॉरवर्ड प्रैस, फरवरी 2016)।
यहाँ नामवर सिंह की टिप्पणी को लेकर कोई भ्रम नहीं रखना चाहिए। माहौल देखकर इस तरह की टिप्पणी करके तालियाँ बजवा लेने में वे माहिर रहे हैं। किसी को मीर-कबीर, किसी को मुक्तिबोध, किसी को ग़ालिब कहकर निकल लेना उनकी भाषणबाजी की अदा में शुमार किया जाता है। इससे यह साबित नहीं होता था कि वे जो बोल रहे होते थे, उसे लेकर कितने गंभीर या ईमानदार होते थे। सभी जानते हैं कि दलित विरोध और साम्प्रदायिकता उनके व्यक्तित्व में सहज रूप से शामिल थी जिसका वे सचेत रूप से प्रदर्शन भी करते थे। लगता है, शैलेन्द्र को लेकर उन्होंने जगजीवन राम की पंक्ति को हरिजन शब्द बदलकर उड़ा लिया!
सवर्ण प्रगतिशील अपने
लिखने-बोलने में जिस भ्रष्ट भाषा का इस्तेमाल करते हैं, उसका असर बहुत बार वंचित
तबकों से आने वाले लेखकों पर भी पड़ता है। सवर्ण प्रगतिशील तबका सचेत रूप से भी
वंचित तबकों से ताल्लुक़ रखने वाले अपने प्रभाव के लोगों की कंडीशनिंग करता है। लीलाधर
मंडलोई ऐसे ही असर में शैलेन्द्र को तुलसी से जोड़ने की बदमाशी करते हैं। वे कहते
हैं, ``शैलेंद्र ने तुलसी की तरह अपने गीतों में
लोकमंगल की बात कही लेकिन आलोचकों को उनका लोकमंगल नज़र नहीं आया।`` (गीतकार शैलन्द्र तू प्यार का सागर है/संपादक इंन्द्रजीत सिंह)। तुलसी घृणा से भरे विशुद्ध
ब्राह्मणवादी कवि हैं। उनके हिसाब से तो शैलेन्द्र ताड़न के अधिकारी ठहरते हैं।
उनके भयानक लोकमंगल के प्रचारक रामचन्द्र शुक्ल हैं और हिन्दी का प्रगतिशील सवर्ण प्राय: तुलसी-शुक्लादि की मानस संतान। इनका न मजरूह,
साहिर, कैफ़ी से कोई रिश्ता बनता है, न शैलेन्द्र से।
-धीरेश सैनी