Wednesday, December 15, 2021

शैलेन्द्र के सवर्ण हिमायती: हुए तुम दोस्त जिस के दुश्मन उस का आसमां क्यूं हो


 

"शैलेन्द्र को मैं हिन्दी फिल्मों का सबसे बड़ा गीतकार मानता हूँ। हिन्दी फिल्मों में गीत रचयिता के रूप में बहुत बड़े-बड़े नाम हैं जैसे- मजरूह, साहिर, कैफ़ी आज़मी और मख़्दूम के भी कुछ गीत हैं लेकिन शैलेन्द्र की स्थिति इस मामले में कुछ अलग है। शैलेन्द्र को आप हिन्दी का भी कह सकते हैं, उर्दू का भी कह सकते हैं। शैलेन्द्र ने फिल्मों में गीत लिखते समय एक ऐसी भाषा का, एक ऐसी जबान का प्रयोग किया है जो किताबी नहीं है। आम आदमी मोहब्बत के समय जिस जबान का प्रयोग करता है, करीब-करीब उसी जबान में शैलेन्द्र ने हिन्दी फिल्मों के गीत लिखे। उनका बड़ा मशहूर गीत है, 'आवारा हूँ, या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ' या 'मेरा जूता है जापानी,...फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी'। यह जो भाषा है, साहित्यिक भाषा नहीं है। न आप उसे केवल हिन्दी कह सकते हैं न ही उर्दू। हिंदुस्तान का मामूली से मामूली आदमी अपनी जिंदगी में जिस तरह से अभिव्यक्त करता है, शैलेन्द्र ने उसी भाषा को अपने गीतों का आधार बनाया।" - विश्ववनाथ त्रिपाठी

('साहित्यिक स्तर से भी बहुत बड़े हैं शैलेन्द्र के फिल्मी गीत' लेख में। 'शैलेन्द्र तू प्यार का सागर है' किताब में संकलित।)

 

त्रिपाठी के लेख का यह शुरुआती पैरा है। कुल मिलाकर बात ठीक-ठाक लगती है कि शैलेन्द्र के पास एक आमफ़हम भाषा है या आम लोगों की भाषा है। लेकिन क्या त्रिपाठी यही कहना चाह रहे हैं? क्या है जो लेख की शुरुआत में ही अखरता है और उनकी नीयत पर संदेह पैदा करता है? जिस तरह कहा जाता है कि किसी बात को समझने के लिए किसी एक वाक्य से अर्थ निकालने के बजाय उसके आगे-पीछे लिखी गई बातें पढ़ना ज़रूरी है, उसी तरह यह भी ज़रूरी है कि भली-भली सी लगने वाली किसी बात में छुपी बातों को समझने के लिए उसे तोड़कर परखा जाए।

 


"शैलेन्द्र को मैं हिन्दी फिल्मों का सबसे बड़ा गीतकार मानता हूँ। हिन्दी फिल्मों में गीत रचयिता के रूप में बहुत बड़े-बड़े नाम हैं जैसे- मजरूह, साहिर, कैफ़ी आज़मी और मख़्दूम के भी कुछ गीत हैं लेकिन शैलेन्द्र की स्थिति इस मामले में कुछ अलग है। शैलेन्द्र को आप हिन्दी का भी कह सकते हैं, उर्दू का भी कह सकते हैं।" लेख के शुरू के इन तीन वाक्यों को देखिए। त्रिपाठी कुछ प्रग्रेसिव गीतकारों को छोटा-बड़ा बनाकर बात शुरू करते हैं। वे जो नाम ले रहे हैं, उनमें से कोई भी प्रदीप टाइप हिन्दूवादी या साम्प्रदायिक मानसिकता वाला लोकप्रिय गीतकार नहीं है। तीनों नाम वे हैं जो हिन्दी सिनेमा के गीतों को मक़ाम देते हैं और उसे सेकुलर बनाए रखते हैं। शैलेन्द्र की ही तरह। मजरूह, साहिर, कैफ़ी और शैलेन्द्र, ये चारों कम्युनिस्ट हैं। तुलनात्मक अध्ययन तो किसी का भी होता है पर क्या यहाँ त्रिपाठी का उद्देश्य ऐसा कुछ है। नहीं, वे एक स्वीपिंग से कमेंट के ज़रिए अपनी साम्प्रदायिक या टिपिकल सवर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता को संतुष्ट करते हैं। न वे शैलेन्द्र को लेकर गंभीर हैं, न प्रगतिशीलता को। जाति, धर्म, भाषा वगैराह को लेकर उनका एक संकीर्ण नज़रिया है और वे जो भी कहते-लिखते या देखते-दिखाते हैं, इसी संकीर्ण फ्रेमवर्क के ज़रिए मुमकिन होता है। एक तरह यह उनकी सुविधा भी है और उद्देश्य भी। मुसलमान या उर्दू को लेकर उनकी अपनी समस्या है। वरना, सबसे पहली बात तो यही कि जब बात फिल्मों की हो रही है तो हिन्दी से उनका क्या आशय है। उस सिनेमा की तो भाषा ही वह रही है जिसे आप हिन्दी कहें तो वह त्रिपाठी जैसे आचार्यों की हिन्दी नहीं, आम लोगों के सहकार की हिन्दी जिसे हिंदुस्तानी कह सकते हैं, जिसे इस तरह हिन्दी और उर्दू में छीला नहीं गया। हाँ, यह ज़बान उर्दू वालों की मेहनत, लगन और प्रतिभा से विकसित हुई है।

 

एक हिन्दूवादी मार्क्सवादी लेखक को समझने की शर्त ही यही है कि उसके लिखे को उसकी नीयत पर शक़ करते हुए परखा जाए। हिन्दी के बहुत से सवर्ण लेखकों को प्रायः उनकी ज्ञात और मनोनुकूल मक्कारियां कवर करने के लिए उन पर मासूमियत, संतई, ऋषि स्वभाव वगैराह विशेषताओं का मुलम्मा चढ़ाया जाता है। यह निर्मम नज़र रखनी होगी कि उनकी मासूमियत में शामिल मक्कारी को पहचाना जा सके। नहीं तो आपको लगेगा कि पंडिज्जी यहाँ शैलेन्द्र की किसी ख़ासियत का बयान कर रहे हैं जबकि उनका उद्देश्य किसी और का शिकार करना है। उनका लिखा 'हिन्दी साहित्य का सरल इतिहास' पढ़ने वाले उनकी समस्या से परिचित ही होंगे। 


कुछ महीने फहले साहिर पर 'समयांतर' के लिए लिखते हुए मुझे बेसाख़्ता शैलेन्द्र याद आए थे। आएंगे ही। आने ही चाहिए। मैंने लिखा था - ""मेरे ख़्याल से इस बात में कोई दो-राय नहीं होनी चाहिए कि फ़िल्मी गीतों के ज़रिये समाज के बेहतर बदलाव के लिए प्रतिबद्ध आर्टिस्टों में साहिर सिरमौर हैं। उनके सिने-गीतों का ही कभी ईमानदारी से अध्ययन हुआ तो वे अवाम में पहुँच और असर में अदबी आन्दोलनों से ज़्यादा ही ठहरेंगे। प्रतिबद्ध सेकुलर हिन्दी गीतकारों में ऐसे उदाहरण के रूप में शैलेंद्र का ज़िक्र ज़रूरी है। यह दिलचस्प है कि ये दोनों ही वाम धारा से आए। यह भी कि इनमें से एक धार्मिक अल्पसंख्यक पृष्ठभूमि से आया और एक दलित पृष्ठभूमि से। क्या एक बेहतर समाज के लिए उनके गीतों में मौजूद इंटेंसिटी की वजह यह भी है कि हिन्दुस्तान में लोकतंत्र, समाजवाद, बराबरी, इंसानी गरिमा की चाह-परवाह इन्हीं तबकों के भीतर सबसे ज़्यादा है?"


पिछले दिनों कंवल भारती ने कुछ ऐसी टिप्पणी की थी कि सवर्णों (शायद ब्राह्मणों) की कोई सामाजिक समस्या ही नहीं है तो वे कविता क्यों लिखते हैं। इस टिप्पणी से सवर्ण लेखकों को आग लग गई थी। लेकिन, क्या यह सही नहीं है कि साहिर या शैलेन्द्र के गीतों में जिस बराबरी या इंसानी गरिमा की चाह-परवाह है, वह सवर्ण लेखकों की समस्या है ही नहीं? लोकतंत्र उनकी ज़रूरत ही नहीं है। उनका काम हद से हद 'कम क्रूर शहर' की मांग से चलता है। वे प्यार, सहज भाषा, समाजवाद, मार्क्सवाद, किसान, मज़दूर, ग़रीब वगैराह जुमले दोहराकर उस पृष्ठभूमि या उस ज़रूरत पर परदा डालना चाहते हैं जो साहिर को साहिर बनाती है, शैलेन्द्र को शैलेन्द्र। उनकी पृष्ठभूमि उनकी चेतना की वैसी तामीर नहीं करती जैसी कि सवर्ण हिन्दू लेखकों की चेतना का निर्माण उनकी पृष्ठभूमि करती है। कि वे जब चाहें तुलसीवादी हो जाएं, जब चाहें कबीरवादी, जब चाहें साम्प्रदायिक बातें करने लगें, जब चाहें सेकुलर, जब चाहें उदात्तता पर ज़ोर देने लगें, जब चाहें अश्लील बातें करने लगें।

 

बे-वजह नहीं है कि शैलेन्द्र की दलित पृष्ठभूमि पर बात करने से हिन्दू सवर्ण लेखकों को परेशानी होती है। आरएसएस के नायक प्रमुख दीनदयाल उपाध्याय की महिमा-गान के लिए चर्चित रविभूषण (जन संस्कृति मंच के कार्यकारी अध्यक्ष) लिखते हैं - "शैलेन्द्र को दलित कवि के रूप में चिह्नित करना गलत है। वे किसानों और मज़दूरों के कवि हैं, निर्धनों के कवि हैं, उनकी कविताओं में जो वंचित, दुखी, तिरस्कृत, अपमानित हैं, उन्हें वाणी दी गई है। बम्बई में वर्कशाप के मशीनों के शोर से कम नहीं था उनके भीतर का शोर, उनके भीतर की आग सदैव जलती रही।" 

यह चेतना की सीमा का मसला भर नहीं है बल्कि सुचिंतित ज़िद है कि रविभूषण या दूसरे सवर्ण हिन्दू प्रगतिशील लेखक यह न मानें कि उनके प्रभुत्व वाले समाज में और हिन्दू धर्म व्यवस्था में जन्म के आधार पर तय अपमान की आग हमेशा धधकती रहती है।

रविभूषण अपनी इस टिप्पणी से पहले उद्धरण देते हैं -

शैलेन्द्र का वास्तविक नाम शंकर दास राव था। पिता केसरी लाल राव एक कांट्रेक्टर थे। रमा भारती ने 'अंदर की आग' की भूमिका 'ज़िन्दगी मैंने देखी है' में यह लिखा है कि शैलेन्द्र का संबंध आरा (बिहार) जिला के घुसपुर गाँव के दलित परिवार से था....गाँव के लिए एक कहावत मशहूर थी 'जसपुर नगरी घुसपुर गाँव, वहाँ के बसिया रावत राव'....हॉकी खेलते हुए कुछ छात्रों की जातिवादी टिप्पणी थी-अब ये लोग भी खेल खलेंगे, जिससे खिन्न होकर स्वयं अपनी हॉकी स्टिक तोड़ दी और कलम-काग़ज़ से मैत्री स्थापित की" और "30 अगस्त 1966 को केन्द्रीय मंत्री जगजीवन राम ने शैलेन्द्र के जन्म-दिन पर एक बधाई-संदेश में यह कहा था कि 'संत रविदास के बाद शैलेन्द्र हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय हरिजन कवि हैं```अंदर की आग` पुस्तक का लोकार्पण नामवर सिंह ने किया था और उन्होंने ``शैलन्द्र को संत रैदास के बाद सबसे महत्वपूर्ण एससी कवि बताया`` (विनोद विप्लव, फॉरवर्ड प्रैस, फरवरी 2016)।


इस उद्धरण पर रविभूषण की प्रतक्रिया बताती है कि सवर्ण बुद्धिजीवी किस हद तक संकीर्ण और संवेदनहीन होते हैं। जिस ने जातिवादी टिप्पणी से आहत होकर ही हॉकी स्टिक तोड़कर कलम-कागज़ से दोस्ती की हो, उस कवि-गीतकार की चेतना और पीड़ा में, उसके व्यक्तित्व और रचनाशीलता में क्या इस बात का असर नहीं रहा होगा? 

विनोद विप्लव ने लिखा है -``कुछ समय पहले हिंदी फिल्म जगत के प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र की जाति सार्वजनिक किये जाने को लेकर अच्छा खासा विवाद और विरोध हुआ। शैलेन्द्र के पुत्र दिनेश शंकर शैलेन्द्र ने `अंदर की आग` नाम से अपने पिता की कविताओं का एक संग्रह तैयार किया था, जो राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका में दिनेश शैलेन्द्र ने खुले तौर पर अपने पिता की सामाजिक पृष्ठभूमि (बिहार की धुसिया चर्मकार जाति) का उल्लेख किया था। इस पुस्तक का लोकार्पण करते हुए शीर्ष आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने शैलेन्द्र को संत रविदास के बाद सबसे महत्वपूर्ण दलित कवि बताया। लेकिन कई साहित्यकारों एवं लेखकों ने शैलेन्द्र की जाति का खुलासा किये जाने पर आपत्ति जतायी। एक लेखक तेजिन्दर शर्मा ने सोशल मीडिया में अपनी आपत्ति दर्ज करते हुए यहां तक कह दिया कि डॉ. नामवर सिंह ने न केवल शैलेन्द्र का बल्कि सभी साहित्यप्रेमियों का भी अपमान किया है। सवाल यह है कि कोई महान शख्सियत अगर दलित हो तो उसकी जाति के उजागर होने में क्या दिक्कत है? जब ब्राह्मण या अन्य सवर्ण विभूतियों की जातियों का खुलेआम प्रचार किया जाता है तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती। लेकिन किसी दलित विभूति की जाति को उजागर किये जाने का विरोध होने लगता है।`` (विनोद विप्लव, फॉरवर्ड प्रैस, फरवरी 2016)

यहाँ नामवर सिंह की टिप्पणी को लेकर कोई भ्रम नहीं रखना चाहिए। माहौल देखकर इस तरह की टिप्पणी करके तालियाँ बजवा लेने में वे माहिर रहे हैं। किसी को मीर-कबीर, किसी को मुक्तिबोध, किसी को ग़ालिब कहकर निकल लेना उनकी भाषणबाजी की अदा में शुमार किया जाता है। इससे यह साबित नहीं होता था कि वे जो बोल रहे होते थे, उसे लेकर कितने गंभीर या ईमानदार होते थे। सभी जानते हैं कि दलित विरोध और साम्प्रदायिकता उनके व्यक्तित्व में सहज रूप से शामिल थी जिसका वे सचेत रूप से प्रदर्शन भी करते थे। लगता है, शैलेन्द्र को लेकर उन्होंने जगजीवन राम की पंक्ति को हरिजन शब्द बदलकर उड़ा लिया!


सवर्ण प्रगतिशील अपने लिखने-बोलने में जिस भ्रष्ट भाषा का इस्तेमाल करते हैं, उसका असर बहुत बार वंचित तबकों से आने वाले लेखकों पर भी पड़ता है। सवर्ण प्रगतिशील तबका सचेत रूप से भी वंचित तबकों से ताल्लुक़ रखने वाले अपने प्रभाव के लोगों की कंडीशनिंग करता है। लीलाधर मंडलोई ऐसे ही असर में शैलेन्द्र को तुलसी से जोड़ने की बदमाशी करते हैं। वे कहते हैं, ``शैलेंद्र ने तुलसी की तरह अपने गीतों में लोकमंगल की बात कही लेकिन आलोचकों को उनका लोकमंगल नज़र नहीं आया।`` (गीतकार शैलन्द्र तू प्यार का सागर है/संपादक इंन्द्रजीत सिंह)। तुलसी घृणा से भरे विशुद्ध ब्राह्मणवादी कवि हैं। उनके हिसाब से तो शैलेन्द्र ताड़न के अधिकारी ठहरते हैं। उनके भयानक लोकमंगल के प्रचारक रामचन्द्र शुक्ल हैं और हिन्दी का प्रगतिशील सवर्ण प्राय: तुलसी-शुक्लादि की मानस संतान। इनका न मजरूह, साहिर, कैफ़ी से कोई रिश्ता बनता है, न शैलेन्द्र से।

-धीरेश सैनी

 

    

Wednesday, November 3, 2021

पता नहीं चलता कि कब किस ने पाला बदल लिया है



प्रिय कवि लाल्टू का नया कविता संग्रह `कौन देखता है कौन दिखता` परिकल्पना प्रकाशन से छप कर आया है। इस संग्रह से कुछ कविताएँ यहाँ देते वक़्त इंटरनेट पर घूमते हुए प्रिय कवि नरेंद्र जैन की यह टिप्पणी मिली। उसे भी यहाँ दोहरा  रहा हूँ।

 “लाल्टू की कविताओं से रूबरू होते हुए ऐसे कवि से साक्षात्कार होता है जो सत्ता और व्यवस्था की कौंध से दूर जैसे अज्ञातवास में डूबा इस बुरे वक़्त को रेखांकित कर रहा है। ...कवि कर्म की सबसे बुनियादी और प्रामाणिक कसौटी वह निभा रहा है...जहाँ जीवन, कर्म और कविता, दोनों ही एक-दूसरे के पर्याय हैं। ...अपनी प्रेम कविताओं में भी वे घोर राजनैतिक होते हैं...। लाल्टू की कविताएँ बाज़वक़्त हमें अपना सही चेहरा भी दिखलाती हैं...। एक ऐसी कविता जहाँ विचार, अनुभव, कल्पना और अतियथार्थवाद का अद्भुत सम्मिलन है, इसमें हम लाल्टू को आर-पार और सरापा देख सकते हैं। लाल्टू का काम एक दुर्लभ अनुभव की तरह हमारे साथ जी रहा है...।” - नरेन्द्र जैन

लक्षणा व्यंजना का जुनून


लिखे गए लफ़्ज़

बूढ़े हो जाते हैं

सफल कवियों की संगत में पलते हैं सफल कवि

अकेला कहीं कोई मुग़ालते में लिखता रहता है


घुन हुक्काम-सी लफ़्ज़ों को कुतर डालती है

जैसे बुने गए इंक़लाब और कभी पहने नहीं गए

एक दिन सड़क पर फटेहाल घूमता है असफल कवि

एक फ़िल्म बनाकर सब को भेज देता है

कि इंक़लाबी लफ़्ज़ चौक पर

बुढ़ापे में काँपते थरथराते सुने गए


बरसों बाद कभी इन लफ़्ज़ों को

एक सफल कवि माला सा सजाता है

और कुछ देर लक्षणा व्यंजना का जुनून

दूर तक फैल जाता है।


चिड़ियाघर


किसका घर और किसका क़ैदखाना

सोचता

भीड़ में क़ैद शख़्स खड़ा है

ज़हन का कमाल है

या हैवानियत

बसा देते हैं चिड़ियाघर

अपने अंदर इस तरह के सवाल


गिरियाता है जिस्म के तिलिस्म में

मरियल अफ्रीकी बब्बर शेर

नसों में दौड़ती है

साइबेरिया के सारस की चीख

देर रात जगा हुआ

ढूँढता है घासफूस या कि गोश्त

यही सच है

कायनात के इस कोने में

पिंजड़ों में चकराते हैं हम

सूरज तारे हमें देखने आते हैं

अपने पुच्छल बच्चों के साथ

कौन देखता है

कौन दिखता है।


बच्चों सा खेल


तुमने देखा?

उन्होंने तोड़ डाले खिड़कियों के काँच

जैसे बच्चों सा खेल खेल रहे हों

वे एक नई कला के झंडाबरदार हैं

सुंदर को चुनौती दे रहे हैं

गर्व से शैतान का कलमा पढ़ रहे हैं


उनकी भी धरती है,

उनका अपना आस्मां है

सृजन के अपने पैमाने हैं

ज़हनी सुकून के शिखर पर होते हैं

जब किसी का क़त्ल करते हैं

या कहीं आग लगा देते हैं


बड़े लोग समझाते हैं कि रुक जाओ

सब कुछ तबाह मत करो

ऐसा कहते हुए कुछ लोग उनके साथ हो लेते हैं

पता नहीं चलता कि कब किस ने पाला बदल लिया है


टूटे काँचों को

समझाया जाता है

विकास, परंपरा, इतिहास जैसे शब्दों से

इसी बीच कुछ और क़त्ल हो जाते हैं

कुछ और उनके साथ हो जाते हैं

दिव्य-गान सा कुछ गूँजता रहता है


तुमने देखा?


डर-1


मैं सोच रहा था कि उमस बढ़ रही है 

उसने कहा कि आपको डर नहीं लगता

मैंने कहा कि लगता है

उसने सोचा कि जवाब पूरा नहीं था

तो मैंने पूछा - तो।

बढ़ती उमस में सिर भारी हो रहा था

उसने विस्तार से बात की -

नहीं, जैसे ख़बर बढ़ी आती है कि 

लोग मारे जाएँगे।

मैंने कहा - हाँ।

मैं उमस के मुखातिब था

यह तो मैं तब समझा जब उसने निकाला खंजर

कि वह मुझसे सवाल कर रहा था।


डर-2


दिल्ली में हूँ तो अमदाबाद

और अमदाबाद में दिल्ली

कहीं मेरठ, कोलकाता, दीगर शहर

ढूँढता हूँ अपने अंदर


डरता हूँ ख़ुद ही से

इतना पी चुका ज़हर।

***

प्रति पाने के लिए संपर्क पता - परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ

मुख्य वितरक : जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ 226020

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Friday, October 1, 2021

शिवप्रसाद जोशी की किताब `रिक्त स्थान और अन्य कविताएँ`

 


शिवप्रसाद जोशी 1991 से कविताएँ लिख रहे हैं। 1947 के बँटवारे और व्यापक साम्प्रदायिक हिंसा के बाद गाँधी का क़त्ल कर अपनी ताक़त और मंशा का प्रदर्शन कर चुके जिन फ़ासिस्टों को सेकुलर लोकतांत्रिक नेताओ और बुद्धिजीवियों ने अलग-थलग कह कर आँखें मूँद ली थीं, वे 1991 तक एक पुरानी मस्जिद को निशाना बनाकर एक बड़ा फासीवादी-जन-अभियान खड़ा कर चुके थे। 1992 बीतते-बीतते उन्होंने एक बड़े लाव-लश्कर के साथ अयोध्या की उस बाबरी मस्जिद को नेस्तनाबूद कर दिया था। उन दिनों बुद्धिजीवियों ने अपनी लिखत-पढ़त के ज़रिये और सड़कों पर उतर कर फ़ासिज़्म के निरंतर प्रतिरोध का इरादा भी जाहिर किया था। लोकतांत्रिक संस्थाओं के ढहने और क़त्ल-ओ-गारत के क़रीब तीन दशकों के इस वक़्फे ने राजनीतिक प्रतिरोध के बहुत से दलों और उनके नेताओं को गिरते हुए या समर्पण की मुद्रा अपनाते हुए देखा है। अफ़सोस कि इस गिरने-बदलने में बहुत से बुद्धिजीवी भी शामिल रहे। 30 सालों का यह हृदय-विदारक सिलसिला शिवप्रसाद जोशी ने एक छोटी सी कविता `गिरना` में इस तरह दर्ज कर दिया है कि यह उनकी और इस दौर की प्रतिनिधि कविता कही जा सकती है।

फ़ासिस्टों के हाथों हुए विध्वंस के निशान उनकी कविताओं में एक निरंतर यातना की तरह मौजूद रहते हैं। कई बार लगता है कि साहित्य और राजनीति के साथ संगीत व विभिन्न कला रूपों व विज्ञान आदि विषयों में अपनी गहरी दिलचस्पी के सहारे इस तकलीफ़ से बच निकलने का एक रास्ता उनके पास था बशर्ते यह उनके दिल पर न गुज़र रही होती। इस लिहाज़ से `रिक्त स्थान और अन्य कविताएँ` संग्रह की पहली कविता `इन दिनों` का ज़िक्र करना ज़रूरी है। इस कविता के उप शीर्षक देखकर मुझे यही लगा कि कवि ने विभिन्न ऋतुओं के सौंदर्य और विशिष्ट प्रभावों का और शायद उनसे जुड़े रागों का कोमल चित्रण किया है। लेकिन, यह कविता बारहमासी यातनाओं की कविता है। इन दिनों हर ऋतु में सदाबहार अन्यायों से गुज़रने की कविता। इसमें यंत्रणाओं से सहमी भाषा, ठहरा संगीत, संताप का बर्फ़, इस शासक से मुक्ति की चाह है, तीखा पतझ़ड़, गिरते गुंबद, आग से घिरा बसंत है, गटर में उतरने की विडंबना को अध्यात्म कहने की अश्लीलता की इंद्राजी है, भीगी हुई गाय है और खून से भीगा हुआ मनुष्य है।

इन दिनों या पिछले दस-पंद्रह सालों में कामयाब कवियों और उनकी कविताओं ने जो कलाएं दिखाई हैं, उनके आगे ये कविताएँ कहीं नहीं ठहरती हैं। न इनमें अचानक चमक और चर्चा हासिल करने वाले वैसे लटके-झटके हैं और न `इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए` वाली वैसी होशियारी। एक साथ प्रगतिशील और दक्षिणपंथी दोनों तरह के इशारों वाला हुनर यहाँ नहीं ह। ये उन कवियों में शामिल कवि की कविताएँ नहीं हैं जिन्हें हर चार-पाँच साल में किसी सितारे, किसी उम्मीद या किसी अनूठी प्रतिभा की तरह पेश किया गया और फिर पेश करने वालों ने ही अपनी खोज पर शर्मिंदगी का ऐलान किया। इन दिनों यह बड़ी तसल्ली की बात कही जा सकती है कि दमन-पतन और उसके बरअक्स नये संघर्षों के दौर में कोई कवि और उसकी कविताएँ जन-पक्षधर इंसानों को शर्मिंदा न करें। एक ज़रूरी ग़ैरत इन कविताओं की ताक़त है और जो कवि को जानते हैं, वे कह सकते हैं कि जैसा कवि है, वैसी ही उसकी ये कविताएँ हैं। जितनी अंतर्मुखी और ख़ामोश, प्रतिबद्धता और प्रतिरोध का स्वर उतना ही मुखर और बेबाक।

 

संग्रह से कुछ छोटी कविताएँ यहाँ ली गई हैं। संगीत से जुड़ी कविताओं में से एक कविता टीएम कृष्णा पर है जिसका एक टुकड़ा यहाँ लिया गया है। टीएमके शास्त्रीय संगीत के साथ जोड़ दिए गए पवित्रता और रहस्य के ब्राह्मणवादी मिथ पर लगातार चोट करते हैं जिसका उल्लेख कवि ने भी किया है।

 

`रिक्त स्थान और अन्य कविताएँ` संग्रह को काव्यांश प्रकाशन ने छापा है। दिल्ली से दूर छोटी जगहों से भी सलीक़े के साथ किताबें निकलती हैं, यह ज़िक्र भी ज़रूरी है।

       


इन दिनों

 

1

शिशिर

 

काँप मैं इसिलए नहीं रहा कि

यह ग्लोबल वॉर्मिंग है

या मैंने पहाड़ी भेड़ की ऊन का स्वेटर पहन लिया है

मफ़लर टोपी जुराब दस्ताने

या मेरी हड्डियाँ मज़बूत हैं

या मैंने अदरक तुलसी का काढ़ा पी लिया है

या कैंटीन की रम मेरे खून में सुलग रही है।

 

क्या बताऊँ किसलिए काँप रहा हूँ मैं 

थरथर।

 

2

बर्फ़

 

जैसे ही देखता हूँ मेरे भीतर एक सिल्ली जम जाती है

संगीत ठहर जाता है

भाषा सहम जाती है

धूप मुझसे मेरी बेटी की तरह चिपक जाती है

नसें उतझ जाती हैं

बर्फ़ मेरा संताप है।

 

मुक्ति चाहता हूँ मैं

इस शासक से

 

3

पतझड़

 

आँखें गिरीं

नाक मुँह हाथ हृदय यकृत वृक्क फेफड़े

देह के नाले में गिरे

मैं एक को उठाता तो दूसरा गिर जाता

इतना तीखा है पतझड़

एक दिन साथ चलती हवा गिरी

गुंबद तो कबके गिरे

इस पतझड़ में

धूल के गिरने का पुनरावलोकन

मैंने अपने भीतर देखा

खून का गिरना

एक आदमी घसीटा जाता हुआ पत्ते की तरह

पीछे-पीछे घसीटी जाती हमारी यह पृथ्वी।

 

4

वसंत

 

देखकर फूल को तितली हटी

गिलहरी ने पेड़ छोड़ा मुँडेर पर छलाँग लगाई

बीज में दुबका रहा वसंत

पतंगों ने गिराई चिड़िया

लोगों को किया लहूलुहान

आग से घिरा वसंत।

 

5

हेमंत

 

वर्षा के बाद और शिशिर से पहले

वह इतना बेआवाज़ आया

जैसे मेरी हत्या का समाचार

मेरी थरथराहट पर जुमले फेंके गए

गटर में मेरे उतरने की विडंबना को

मेरा अध्यात्म कहा

नाइंसाफ़ी से जब मेरी हड्डियाँ थरथराईं

फ़ौरन मुझे गिरफ़्तार कर लिया।

 

6

बारिश

 

चाबुक की तरह बरसती है

या काटती है तलवार की तरह

टीवी पर छाताधारियों की बहस

भीगी हुई गाय कितनी देर रहेगी

खून से भीगे हुए मनुष्य के पास।

 

7

ग्रीष्म

 

धधकते कुंड सी हो गई देह

गिरती हैं आहुतियाँ

जयकारे का ईंधन छींटा जाता है

त्वचा पर फफोले

गर्मी न सह पाने की अकुशलता के कहे गये

खदेड़े जाने से पहले बुलाया गया

अपना पसीना दान में देने के लिए

तब मेरे पास अमीर ख़ान के सिवाय कोई न था

उमस की तरह धँसी हुई चोट पर

राग मेघ का मरहम।

(2017)

 

गिरना

 

जनवरी में सफ़दर गिरा

दिसंबर में मस्जिद

दरमियान गिरा पड़ोस

अर्थ और मर्म क्यों न गिरते

कायरता और शर्म के साथ

आँसू गिरते रहे

किसी ने कहा: अरे आसमान तो नहीं गिरा !

हम गिरते चले गए

एक साल से दूसरे साल में।

(2019)

 

लक्ष्मण

 

तक्ष्मण और मैं

साथ-साथ आए इस शहर

वह आया भागकर

नौवीं में हुआ फेल

मैं आया सारे दर्जे पास कर

 

घर में उसे कहा

बहुत हुआ अब बस जा

पैसा कमा

मुझे कहा

अच्छा जाते हो

कैसे भेजें पर जीवन बनेगा

इसलिए जाओ

मैं जहाँ जीवन बनाता हूँ

लक्ष्मण वहाँ कप धोता है

और चाय बनाता है।

(1994)

 

आह देश!

 

तनमन की भेंट देकर भारत की लाज रखना

किसके लिए लिखा

किसे कहा शकील बदाँयूनी

 

शायर देश की लाज पर जुनून की  गाज गिरी है

जन के तन-मन पर

शूल चुभे हैं

धर्म धर्म धर्म

ज़ोर से गुर्राती है आवाज़

मर्म मर्म मर्म

कराहती है लाज

अँधेरे से घिरी इंसाफ़ की डगर पर

जा रहे हैं बच्चे

तुम्हारे गीत के प्रकाश में।

(2002)

 

16 अप्रैल

 

आज कितनी शांत है सुबह

स्मृति बैठी है चिड़िया की तरह

गरमी का अहसास ही नहीं

ठंड़क पहुँचाते हैं बादल

उमड़-घुमड़ तो दिल-दिमाग में है

 

इतना ढोल बज रहा

इतना प्रचार दिन भर

जहाँ-तहाँ काफ़िले और सेनाएँ

शाम होते-होते लॉन्च कर दी गई

उर्दू में वेबसाइट भी। 

(2015)

 

प्रेम

 

उसे गोद की दरकार नहीं

गोंद की तरह चिपकना नहीं

चाहते वे

सिर सहला दें

हाथों में हाथ फँसा लें

या चूम लें

उन्हें गवारा नहीं

वे बस बातें करते हैं

गुजरात से आघात तक की।

(2002)

 

कलाएँ

 

गूँगी बच्ची को पीठ पर उठाए

बजरंगी भाई जान नाचना बंद करो

आसिफ़ा तु्म्हें देख रही है

गुजरात की पतंगे

तुम्हें देख रही हैं

जिस घास पर तुम दौड़ कर निकले

लो!

उसने भी तु्म्हें देखा उचककर।

 

टीएम कृष्णा

2

झपट्टा मारते जब आततायी निवाले पर

तब संगीत की साधना को उनके ख़िलाफ़ लड़ाई में बदल देना

कोई उससे सीखे

कर्नाटक संगीत को एक तड़पते जैज़ में ढाल देना

भीमराव अम्बेडकर के नाम की ज्वाला जगा देना।

 

पेरुमल मुरुगन

की कथा एक बंदिश है

टीएम कृष्णा के संगीत में

जैसे मृदंगम एक दलित कथा है

साज़ से पहले

जिसे लिखने की ठानी उसने

 

कहाँ कीन हो गमनवा

टीएमके

मंच से उतरकर चले जाते हो मछुआरों के बीच

जाल बुनते हो गाने का

अकेले अ-बामन संगीत के

डरे नहीं।

(2018-21)

नोट: भीमराव अंबेडकर पर पेरुमल मुरुगन ने एक प्रशस्ति और आह्वान गीत लिाखा है। अंबेडकर को समर्पित ये उनका ``कवडी चिंदु`` है। टीएमके संतों, भक्त-कवियों, आंदोलनकारियों और कवियों को गाते हैं, चिंतक-एक्टिविस्ट हैं और मृदंगम के दलित इतिहास पर रोशनी डालने वाली पहली किताब के बेजोड़ लेखक हैं।