Saturday, April 30, 2011

'क्रांति' का जंतर मंतर : अरुंधति रॉय






अण्णा हज़ारे के आह्वान पर हज़ारों लोग जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए थे।



बीस साल पहले जब उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का दौर हम पर थोपा गया तब हमें बताया गया था कि सार्वजनिक उद्योग और सार्वजनिक संपत्ति में इतना भ्रष्टाचार और इतनी अकर्मण्यता फैल गई है कि अब उनका निजीकरण ज़रूरी है। हमें बताया गया था कि मूल समस्या इस प्रणाली में ही है।



अब लगभग हर चीज़ का निजीकरण हो चुका है। हमारी नदियाँ, पहाड़, जंगल, खनिज, पानी सप्लाई, बिजली और संचार प्रणाली प्राइवेट कंपनियों को बेच दिए गए हैं। तब भी भ्रष्चातार सुरसा के मुँह की तरह फैलता जा रहा है।



भ्रष्टाचार की विकास दर कल्पना से परे है। घोटाला दर घोटाला जितनी बड़ी रक़में निगली जा रही हैं उसका कोई हिसाब नहीं। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस देश के लोग बुरी तरह नाराज़ हैं। लेकिन ग़ुस्से में होने का मतलब ये नहीं है कि आप साफ़ साफ़ सोच भी पा रहे हों।






अन्ना हज़ारे और उनकी टीम के समर्थन में जंतर मंतर पहुँचे हज़ारों हज़ार लोगों के सामने भ्रष्टाचार को एक नैतिक मुद्दे की तरह पेश किया गया, एक राजनैतिक या व्यवस्था की कमज़ोरी की तरह नहीं। वहाँ भ्रष्टाचार पैदा करने वाली व्यवस्था को बदलने या उसे तोड़ने का कोई आह्वान नहीं किया गया।






जंतर मंतर की क्रांति






'भ्रष्टाचार नैतिक नहीं राजनीतिक समस्या है'।



इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि जंतर मंतर पर मौजूद मध्यम वर्ग के ज़्यादातर लोगों और कॉरपोरेट-समर्थित मीडिया को भ्रष्टाचार के जनक इन आर्थिक सुधारों का बहुत फ़ायदा हुआ।






मीडिया ने इस आंदोलन को “क्रांति” और भारत का तहरीर चौक बताया। इसी मीडिया ने पहले दिल्ली में हज़ारों हज़ार ग़रीब लोगों की रैलियों को नज़रअंदाज़ किया क्योंकि उनकी माँगें कॉरपोरेट एजेंडा के माफ़िक़ नहीं थीं।जब भ्रष्टाचार को धुँधले तरीक़े से, सिर्फ़ एक ‘नैतिक’ समस्या के तौर पर देखा जाता है तो हर कोई इससे जुड़ने को तैयार हो जाता है – फ़ासीवादी, जनतांत्रिक, अराजकतावादी, ईश्वर-उपासक, दिवस-सैलानी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और यहाँ तक कि घनघोर भ्रष्ट लोग जो आम तौर पर प्रदर्शन करने को हमेशा उत्सुक रहते हैं।






ये एक ऐसा घड़ा है जिसे बनाना बहुत आसान है और उससे आसान उसे तोड़ना है। अन्ना हज़ारे ने अपने बनाए इस बर्तन पर सबसे पहले पत्थर मारा और वामपंथी समर्थकों को हैरान कर दिया जब वो नरेंद्र मोदी को विकास-प्रतिबद्ध मुख्यमंत्री का जामा पहना कर अपने मंच के केंद्र में ले आए। उन्होंने विकास के नाम पर मोदी की उपलब्धियों की झूठी प्रकृति पर बहस में पड़ना ठीक नहीं समझा। हम में से कई लोग ये सोचते रह गए कि क्या हमें भ्रष्ट मगर कथित जनतांत्रिक लोगों की जगह एक ईमानदार फ़ासीवादी नेता का विकल्प दिया जा रहा है।






मूलभूत प्रश्न



मैं एक मज़बूत भ्रष्टाचार-विरोधी संस्था के ख़िलाफ़ नहीं हूँ, पर मैं ये भरोसा पाना चाहूँगी कि ऐसी संस्था बहुत सारे अधिकार पाने के बाद ग़ैरज़िम्मेदार और ग़ैरजनतांत्रिक न हो जाए। हालाँकि मैं ये नहीं मानती कि सिर्फ़ क़ानूनी तरीक़ों से ही सांप्रदायिक फ़ासीवाद और उस आर्थिक निरंकुशता के ख़िलाफ़ लड़ा जा सकता है जिसके कारण 80 करोड़ से ज़्यादा लोग क़ानूनी तरीक़े से 20 रुपए प्रतिदिन पर गुज़र करते हैं।जब तक मौजूदा आर्थिक नीतियाँ जारी हैं तब तक राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना से भूख और कुपोषण ख़त्म नहीं किया जा सकता। भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून से अन्याय नहीं ख़त्म हो सकता और अपराध विरोधी क़ानूनों से सांप्रदायिक फ़ासीवाद को ख़त्म नहीं किया जा सकता।






क्या सूचना के अधिकार या जन लोकपाल बिल के ज़रिए उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ में किए गए उन गुप्त सहमति पत्रों को सामने लाया जा सकता है जिन पर सरकार ने व्यापार घरानों के साथ दस्तख़त किए हैं और जिनके लिए वो अपने सबसे ग़रीब नागरिकों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने को तैयार है?



अगर ऐसा हो सकता है तो इन सहमति पत्रों से ये स्पष्ट हो जाएगा कि सरकार देश की खनिज संपदा को निजी कॉरपोरेशनों के हाथों कौड़ियों के मोल बेच रही है।






लेकिन ये भ्रष्टाचार नहीं है। ये पूरी तरह क़ानूनी लूट है और 2-जी घोटाले से कई गुना बड़ा घोटाला है। अगर हमें सूचना के अधिकार के तहत ये सूचना मिल भी जाती है तो हम उस सूचना का क्या कर पाएँगे?मैं मानती हूँ कि जंतर मंतर की क्रांति में अगर किसी ने इन समझौता पत्रों का सवाल उठाया होता तो टीवी कवरेज और वहाँ मौजूद भीड़ का एक बड़ा हिस्सा तुरंत ग़ायब हो गया होता।



(जनतांत्रिक आंदोलनों के गठबंधन की ओर से दिल्ली में 29 अप्रैल को आयोजित किए गए एक सेमीनार में प्रस्तुत अरुंधति रॉय के भाषण के संपादित अंश bbchindi.com से साभार)

Friday, April 1, 2011

क्रिकेट वर्ल्ड कप और नफरत का कारोबार

यह कहना तो ठीक नहीं होगा कि क्रिकेट वर्ल्ड कप की `कवरेज़` ने हिन्दुस्तानी मीडिया की पोल खोल कर रख दी है. दरअसल हमारा मीडिया पहले ही इतना नंगा हो चुका था कि `पोल खुल जाने` जैसी बातों की गुंजाइश नहीं बचती. खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने क्रिकेट वर्ल्ड कप के नाम पर जो अश्लील अभियान छेड़ रखा था, वो मोहाली सेमीफाइनल तक अपने चरम पर पहुँच चुका था. सट्टेबाजी के दौर में भी क्रिकेट के कुछ नियम हैं जिनका मैदान पर दिखावे के लिये ही सही, पर पालन किया जाता है. लेकिन हिन्दुस्तानी मीडिया जो कुछ खेल रहा था, उस खेल का कोई कायदा-कानून नहीं था, कोई जिम्मेदारी नहीं थी. खेल के बजाय नफरत का दिन-रात गुणगान किया गया. पाकिस्तान से नफरत का गुणगान और दरअसल अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी बेशर्मी के साथ मुसलामानों से नफरत का गुणगान. जो काम संघ और बीजेपी करते रहे हैं, और जिस काम में हमारा मीडिया सहायक रहता आया है, वो घिनौना काम मीडिया अब खुद आगे रहकर कर रहा था. इसका मोटा मुनाफा उसे तत्काल मिलता है, संघ और बीजेपी को तो लगातार मिलता ही रहता है. बहरहाल, पाकितान की क्रिकेट टीम हार गई है. सेमीफानल को फाइनल बता चुके हिन्दू(स्तानी?) मीडिया के लिए अब वैसी नफरत की ज़मीन तो उपलब्ध नहीं है कि वह अपना तम्बू मैदान के बजाय बाघा बोर्डर की तरह कन्याकुमारी में गाड़ ले. लेकिन पड़ोसी देश के लिए, जिसकी टीम यहाँ खेलने आई है,और जो बड़े गौरवपूर्ण ढंग से फाइनल में पहुँची है और जिसमें सर्वकालिक महान खिलाड़ी मुरलीधरन भी है, उसका विष वमन जारी है, मिथकों का सहारा लेकर ही सही. `लंका दहन` जैसे जुमले बेशर्मी से चिल्लाये जा रहे हैं. यह हमारा जिम्मेदार मीडिया है

मैन ऑफ दी मैच
सभी जानते हैं कि क्रिकेट विश्वकप का सेहरा भारत के सिर पर बंधे, इसमें अकेले हिन्दुस्तानी मीडिया का ही नहीं पूरी दुनिया की हरामखोर कंपनियों का भला है. सचिन तेंदुलकर जैसा उम्दा खिलाड़ी भी इस बाज़ार के लिए खिलाड़ी नहीं है बल्कि खिलौना बना लिया जाता है. मोहाली में उसके कैच पर कैच छोड़े जा रहे थे, नए तकनीकी अम्पायर और संदेह के लाभ भी उसे मिल रहे थे, तो मेरे जैसा उसका पक्का फैन भी यही चाह रहा था कि वो गरिमामय ढंग से आउट होकर वापस पैविलियन लौट आए. बात कई-कई जीवनदान मिलने की नहीं थी, बल्कि इस महान बल्लेबाज के पूरी तरह बेबस हो जाने की थी. उसे गेंद ढूंढें नहीं मिल पा रही थीं, खासकर स्पिनर अज़मल के हांथों फेंकी गई गेंदें. लेकिन इस पूरी तरह आभाहीन पारी के लिए उसे `मैन ऑफ दी मैच` दे दिया गया. मोहाली की बल्लेबाजी की तरह ही इस ईनाम को लेते हुए सचिन असहज लग भी रहे थे. पर दुनिया के बाज़ार के लिए यही फैसला सही था और क्रिकेट के जज इसी बाज़ार की नुमाइंदगी कर रहे थे. तमाम अटकलों को झुठलाते हुए शानदार प्रदर्शन करने वाला गेंदबाज वहाब रियाज़ आखिर हारने वाली टीम से था और वो पांच विकेट लेकर भी बाज़ार के लिए उतना ग्लेमरस नहीं था।

शाहिद अफरीदी

जबरन नफरत और तनाव पैदा किए जाने की कोशिशों के बावजूद मोहाली मैच के दौरान शाहिद अफरीदी की मुस्कान दिल जीतने वाली रही. सच्चे `मैन ऑफ दी मैच` जैसी, चैम्पियन जैसी. यह तब था, जब वे गुटबाजी में फंसे अपने ही खिलाड़ियों के रवैये को भी देख रहे थे. सचिन के कैच टपकाए जा रहे थे तो भी वे मजाक उड़ाने के बजाय एक बड़े खिलाड़ी के साथ एक बड़े खिलाड़ी जैसा व्यवहार करते नज़र आए. मैदान पर उनका बर्ताव हिन्दुस्तानी मीडिया के नफरत भरे गुब्बारे की हवा निकलता रहा. और अब जबकि पकिस्तान में अफरीदी को मैदान पर कम आक्रामक बताकर उनकी कप्तानी की कमियां निकली जा रही हैं तो उन्होंने पूछा है कि आखिर हिन्दुस्तान से इतनी नफरत क्यों. इधर,हमारे यहाँ ऐसा सवाल कौन पूछे? हरभजन अभी भी राग अलाप रहे हैं कि पकिस्तान के खिलाफ मैच ही उनका फाइनल था. सचिन जैसा खिलाड़ी भी चुप है. वैसे तो यह भी नहीं पूछा जा रहा है कि आखिर शोएब अख्तर को उनका आख़िरी मैच होने के बावजूद मोहाली मैदान पर क्यों सम्मानित नहीं किया गया. और यह भी नहीं कि मुरली भी सचिन से कम महान नहीं है (बल्कि उनका सफ़र ज्यादा मुश्किल रास्तों से भरा रहा है), वे मुम्बई में खेलते हैं तो यह उनका आख़िरी मैच होगा, तो फाइनल को सिर्फ़ सचिन का मैच क्यों प्रचारित किया जा रहा है? वैसे तो पैसे के दलदल में फंस चुके इस खेल को लेकर ऐसे सवाल अब बेमानी हो चुके हैं।

Friday, February 25, 2011

जाने - माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे


लखनऊ, 25 फरवरी। जाने माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे। आज 25 फरवरी को दिन के 12 बजे पटना के मगध अस्पताल में उनका निधन हुआ। 22 फरवरी को जब वे दिल्ली से पटना आ रहे थे, ट्रेन में ही उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ। उन्हें पटना के मगध अस्पताल में अचेतावस्था में भर्ती कराया गया। तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझते हुए अखिरकार आज उन्होंने अन्तिम सांस ली। उनका अन्तिम संस्कार पटना में ही होगा। उनके निधन की खबर से पटना, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद आदि सहित जमाम जगहों में लेखको, संस्कृतिकर्मियों के बीच दुख की लहर फैल गई। जन संस्कृति मंच ने उनके निधन पर गहरा दुख प्रकट किया है। उनके निधन को जन सांस्कृतिक आंदोलन के लिए एक बड़ी क्षति बताया है।
ज्ञात हो कि अनिल सिन्हा एक जुझारू व प्रतिबद्ध लेखक व पत्रकार रहे हैं। उनका जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ। उन्होंने पटना विशविद्दालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी में उतीर्ण किया। विश्वविद्दालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पी एच डी बीच में ही छोड़ दिया। उन्होंने कई तरह के काम किये। प्रूफ रीडिंग, प्राध्यापिकी, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये। 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी। आर्यवर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से वे जुड़े रहे। 1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ उन्होंने इस अखबार में काम किया। अमृत प्रभात लखनऊ में बन्द होने के बाद में वे नवभारत टाइम्स में आ गये। दैनिक जागरण, रीवाँ के भी वे स्थानीय संपादक रहे। लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने वह अखबार छोड़ दिया।

अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार रहे हैं। वे मानते रहे हैं कि एक रचनाकार का काम हमेशा एक बेहतर समाज का निर्माण करना है, उसके लिए संघर्ष करना है। उनका लेखन इस ध्येय को समर्पित है। वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे। वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। वे जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश के पहले सचिव थे। वे क्रान्तिकारी वामपंथ की धारा तथा भाकपा(माले) से भी जुड़े थे। इंडियन पीपुल्स फ्रंट जेसे क्रान्तिकारी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी। इस राजनीति जुड़ाव ने उनकी वैचारिकी का निर्माण किया था।

कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में उन्होंने काम किया। ‘मठ’ नम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया। पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई। पिछले दिनों उनके द्वारा अनुदित पुस्तक ‘साम्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मुलन’ छपकर आया थ। उनकी सैकड़ों रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में छपती रही है। उनका रचना संसार बहुत बड़ा है , उससे भी बड़ी है उनको चाहने वालों की दुनिया। मृत्यु के अन्तिम दिनों तक वे अत्यन्त सक्रिय थे तथा 27 फरवरी को लखनऊ में आयोजित शमशेर, नागार्जुन व केदार जन्तशती आयोजन के वे मुख्य कर्ता-धर्ता थे।

उनके निधन पर शेक प्रकट करने वालों में मैनेजर पाण्डेय, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, प्रणय कृष्ण, रामजी रायअशोक भैमिक, अजय सिंह, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, राजेन्द्र कुमार, भगवान स्वरूप् कटियार, राजेश कुमार, कौशल किशोर, गिरीष चन्द्र श्रीवास्तव, चन्द्रेश्वर, वीरेन्द्र यादव, दयाशंक राय, वंदना मिश्र, राणा प्रताप, समकालीन लोकयुद्ध के संपादक बृजबिहारी पाण्डेय आदि रचनाकार प्रमुख हैं। अपनी संवेदना प्रकट करते हुए जारी वक्तव्य में रचनाकारों ने कहा कि अनिल सिन्हा आत्मप्रचार से दूर ऐसे रचनाकार रहे हैं जो संघर्ष में यकीन करते थे। इनकी आलोचना में सृजनात्मकता और शालीनता दिखती है। ऐसे रचनाकार आज विरले मिलेंगे जिनमे इतनी वैचारिक प्रतिबद्धता और सृजनात्मकता हो। इनके निधन से लेखन और विचार की दुनिया ने एक अपना सच्चा व ईमानदार साथी खो दिया है।


कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच, लखनऊ

Wednesday, February 2, 2011

इन्द्रेश कुमार आरएसएस के सेक्युलर दोस्त

पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है` जैसे सवाल अधिकतर लोगों को हमेशा ही असुविधाजनक लगते आये होंगे, पर इन दिनों हमारे `वामपंथी`, `गांधीवादी` और `डेमोक्रेटिक` साथियों को ऐसे सवाल पूरी तरह फिजूल नज़र आने लगे हैं. वैसे भी करियरवादी दौर में खुलकर फलने-फूलने के लिये गैर-आलोचनात्मक संबध ही मुफ़ीद साबित होते हैं. कलावाद की आड़ में छुपकर दक्षिणपंथ की मदद करने वाले भी शायद बदले वक़्त पर हैरान होंगे कि कैसे सब कुछ `खुला खेल फर्रुर्खाबादी` की तर्ज़ पर होने लगा है. इन्टरनेट की दुनिया ने ऐसी दोस्तियों की दुनिया को अभूतपूर्व विस्तार दिया है. ब्लॉग, फेसबुक और ऐसी दूसरी `सोशल` साइट्स में एक हत्यारा और एक गांधीवादी मजे-मजे में साथ रहते हैं, एक क्रांतिकारी वामपंथी जाने-अनजाने आसानी से एक दक्षिणपंथी आतंकवादी का दोस्त हो सकता है. मतलब इस नई `सामाजिकता` में सब कुछ संभव है.
अजमेर शरीफ ब्लास्ट के अभियुक्त और राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ के एक्टिविस्ट इन्द्रेश कुमार जिससे दूसरे आतंकवादी कारनामों के बारे में भी पूछताछ जारी है, का प्रोफाइल फेसबुक पर मौजूद है और उसके दोस्तों की सूची भी ऐसी ही अजब-गजब है. फेसबुक पर उसके दोस्तों की संख्या २९ जनवरी २०११ तक करीब ४००० तक पहुँच चुकी थी और इन दोस्तों में तमाम कट्टरवादियों, `हिन्दुत्ववादियों` और `राष्ट्रवादियों` के साथ वामपंथी, गांधीवादी और आंबेडकरवादी सितारे भी `जगमगा` रहे हैं। इस सूची में कवि कुमार मुकुल, शिरीष कुमार मौर्य, आर. चेतान्क्रान्ति, अनिल जनविजय, पत्रकार-लेखक दिलीप मंडल, हरि जोशी, जयप्रकाश मानस, प्रदीप सौरभ, अजित वडनेरकर, आलोक तोमर, राजकुमार केसवानी, शहरोज़ कमर सईद, अंशुमाली रस्तोगी, नवीन कुमार नैथानी, मनीषा भल्ला,विनीता यशस्वी, मृत्युंजय, विप्लव विनोद, सागर जेएनयू आदि ऐसे बहुत से नाम एकबारगी हैरत पैदा करते हैं।
उदय प्रकाश गोरखपुर जाकर आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कृत हो आये थे तो इन्टरनेट की हिन्दी दुनिया में कुछ हो-हल्ला मचा था, पर तब यह भी माना गया था कि उदय प्रकाश ने एक तरह से बहुत से लोगों को दुविधामुक्त कर दिया है और उन्हें `सेक्युलरिज्म` का बोझ नाहक ढ़ोते रहने की मजबूरी से `आजादी` का रास्ता दिखा दिया है. बाद में हुसैन प्रकरण हो या बाबरी मस्जिद पर यूपी हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच का फैसला हो, इन्टरनेट की हिन्दी दुनिया लगभग खामोश ही रही. अलबत्ता उसे `अशोक वाटिकाओं` में कोई कोना पा लेने के लिये अज्ञेय के साथ `अन्याय` जैसे दुःख जरूर सताते रहे.
बहरहाल, फेसबुक पर दोस्ती के लिये या तो कोई आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजता है या आप किसी व्यक्ति को दोस्ती का निमंत्रण देते हैं. अगर कोई शख्स आपको दोस्ती का निमंत्रण भेजता है तो उसे कन्फर्म करना या करना आपके हाथ में होता है. इन्द्रेश कुमार का नाम ही इन दिनों खासा कुख्यात है और फिर उसके प्रोफाइल में उसका बड़ा सा फोटो मौजूद है. लेकिन ऐसी सोशल साइट्स पर दोस्ती की दुनिया काफी दिलचस्प होती है. अक्सर यह भी होता है कि सोशल सर्कल बढाने की चाहत या ढेरों लोगों में मकबूल होने की लालसा हमारे सजग साथियों में भी आँखें मूंदकर हर निमंत्रण को कन्फर्म करने की होड़ पैदा करती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि कम से कम खुद को मार्क्सवादी, सेक्युलर या डेमोक्रेटिक कहने वाले साथियों ने अनजाने में ही इन्द्रेश की दोस्ती कबूल की होगी और अपनी दीवार पर छपने वाले उसके कंटेंट को अनजाने में ही वे नज़रअंदाज करते रहे होंगे. गौरतलब यह है कि इन इन्द्रेश कुमार के प्रोफाइल को चेक किये बिना ही उनके बारे में उनके नाम से पाता चल जा रहा कि वे क्या हैं. उन्होंने अपना नाम Indresh Kumarrss दिया है.
मैंने कई दोस्तों को इस बारे में फ़ोन किया और अपने मित्रों को इस बारे में आगाह करने का निवेदन किया. शुक्र है कि इस सूची से जगदीश्वर चतुर्वेदी, गीत चतुर्वेदी, अविनाश दास, प्रभात डबराल, अजय ब्र्ह्मात्ज, बोधिसत्व, अनीता भारती, सत्यानन्द निरुपम, कुणाल सिंह, युनुस खान आदि कुछ लोगों ने पिछले दो दिनों में अपने नाम हटा लिये हैं. उम्मीद है कि बाकी साथी भी भूल सुधार करेंगे. उम्मीद यह भी की जानी चाहिए कि ऐसी गफलत बरती जाये जो उनके लेखन के कद्रदानों को निराश करती हो और कट्टरपंथियों को मजबूत करती हो.

Monday, January 24, 2011

रियाज़ के दम पर या सिर्फ रियाज़ के दम पर नहीं!



पंडित भीमसेन जोशी को
जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि
संगीतज्ञों में शहंशाह भीमसेन जोशी ने आज पुणे में 89 बरस की उम्र में आखीरी सांसे लीं. अपने धीरोदात्त, मेघ-मन्द्र स्वर के सम्मोहन में पिछले ६० सालों से भी ज़्यादा समय से संगीत विशेषज्ञों और सामान्य लोगों को एक साथ बांधे रखनेवाले जोशी जी संभवत: आज की दुनिया के महानतम गायक थे. वे सचमुच भारत रत्न थे. जन संस्कृति मंच उनके निधन पर गहरा दुःख व्यक्त करता हे और उस महान साधक को अपनी श्रद्धांजलि भी.
जोशी जी 4 फरवरी १९२२ को कर्नाटक के गदग, (धारवाड़) में जन्में थे. उन्हें भारत रत्न 2008 , तानसेन सम्मान 1992 , पद्म भूषन 1985 , संगीत के लिए संगीत नाटक एकेडमी पुरस्कार 1975 और पद्म श्री 1972 समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका था. उन्होंने अपनी अंतिम प्रस्तुति 2007 में सवाई गन्धर्व महोत्सव में दी. अब्दुल करीम खान के शिष्य सवाई गन्धर्व उनके गुरु थे और जोशी जी उनकी याद में हर साल पुणे में संगीत सम्मलेन आयोजित करवाते थे.
शुरू से ही जोशी जी एक यायावर थे. तीन साल की उम्र के जोशी जी घर से गायब हो या तो मुआज्ज़िन की अज़ान की नक़ल करते या फिर किसी मंदिर में 'हवेली संगीत' सुनते पाए जाते. किराना घराने के उस्ताद अब्दुल करीम खान का गाया राग झिंझोटी रेडियो पर सुना और ११ साल की उम्र में घर छोड़ गुरु की तलाश में उत्तर की और निकल भागे. बिना पैसे के खड़गपुर, कोलकाता, दिल्ली घूमते घामते जालंधर पहुंचे और फिर वहां से सलाह मिली कि अब्दुल करीम खान साहब के प्रखर शिष्य सवाई गन्धर्व से सीखो. इस दौरान उन्होंने कई तरह के काम किये. अंततः उन्हें गुरु मिले सवाई गन्धर्व.
हिन्दुस्तानी के साथ ही मराठी और कन्नड़ संगीत में भी उनके योगदान को कभी भुलाया न जा सकेगा. शास्त्रीय संगीत को जनप्रिय बना देने की उनमें अद्भुत सलाहियत थी. तुकाराम सहित ढेरों भक्त कवियों की कविताओं को उन्होंने संगीत में पिरोकर श्रोताओं का मान उन्नत करने का यत्न किया. उनके लिए शास्त्रीय संगीत कोई उच्च भ्रू विशिष्टों की जागीर न था. शास्त्रीय संगीत के दरवाज़े उन्होंने आम इंसान के लिए खोल दिए थे.
जोशी जी की सांगीतिक प्रतिभा बहुआयामी थी. उन्होंने फिल्मों के लिए भी कुछ गाने गाये, भजन गाये, और शास्त्रीय संगीत तो खैर उनका अपना घर ही था. किराना घराने की उस्ताद अब्दुल करीम खान साहब से चली आ रही परम्परा में जोशी जी ने बहुत कुछ जोड़ा. घरानों की शुद्धता के नियम के वे कभी आग्रही नहीं रहे. दरअसल किराना घराने के तो वे उस्ताद थे ही, पर अपनी गुरु बहन गंगूबाई हंगल से अलग, दूसरी रंगत और घरानों के प्रभाव भी उनकी गायकी में घुल-मिल जाते हैं. उनका मानना था कि एक शिष्य को गुरु की दूसरे दर्जे की नक़ल करने की बजाय उसके गायन को विकसित करने वाला होना चाहिए. उनके गायन में कहीं सवाई गन्धर्व और रोशन आरा बेगम का असर है तो कहीं मल्लिकार्जुन मंसूरऔर केसरी बाई का. ऐसा मानते हैं कि जोशी जी की सा (षडज) की अदायगी में केसरीबाई का काफी असर है. जोशी जी अपनी शैली से भी लगातार लड़ते रहे, विकसित करते रहे. इसी जज्बे और संशोधनों का प्रमाण है कि किराना घराने की लम्बी परम्परा में सिर्फ उन्होंने ही राग रामकली को गाने की हिम्मत की.
उदात्तता से भरी उनकी मंद्र आवाज़ में जबरदस्त ताकत थी. पौरुषेय ताकत जिसका अपना एक अलग सौंदर्य होता है. बावजूद इसके कि वे हिन्दुस्तान के सबसे बड़े शास्त्रीय संगीतकारों में शुमार किये जाते थे, जोशी जी की खासियत स्वरों के मूल स्वरुप पर उनकी अद्भुत पकड़ थी. अपने अंतिम दिनों के एक इंटरव्यू में भी उन्होंने रोजाना लम्बे रियाज की बात तस्लीम की थी. मज़ाक में अपने को संगीत का हाई कमिश्नर कहने वाले जोशी जी सच में इस ओहदे से कहीं जियादा के हकदार थे, कहीं बड़ी शख्सियत थे.हिंदी की दुनिया की तरफ से श्रद्धांजलि -स्वरूप उनपर लिखी हिन्दी कवि
वीरेन डंगवाल की कविता प्रस्तुत है-

भीमसेन जोशी

मैं चुटकी में भर के उठाता हूँ
पानी की एक ओर-छोर डोर नदी से
आहिस्ता
अपने सर के भी ऊपर तक

आलिंगन में भर लेता हूँ मैं
सबसे नटखट समुद्री हवा को

अभी अभी चूम ली हैं मैंने
पांच उसाँसे रेगिस्तानों की
गुजिशता रातों की सत्रह करवटें

ये लो
यह उड़ चली 120 की रफ़्तार से
इतनी प्राचीन मोटरकार

यह सब रियाज़ के दम पर सखी
या सिर्फ रियाज़ के दम पर नहीं!


(जन संस्कृति मंच की ओर से महासचिव प्रणय कृष्ण द्वारा जारी )

Saturday, January 8, 2011

फ़ैज़ पर कुछ नोट्स : दूसरी और अंतिम किस्त


फ़ैज़ अपने उस्ताद के साथ शतरंज खेलना नहीं भूलते. बल्कि यह भी उनका प्रिय व्यसन है. ग़ालिब कहते हैं : 'बुलबुल के कारोबार पे है खंदा-हाए गुल / कहते हैं जिसे इश्क ख़लल है दिमाग़ का'. फ़ैज़ की बाज़ी कुछ और है : 'गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले / चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले.' ऐसी मिसालेंबेशुमार हैं.
फ़ैज़ ग़ालिब के मज़मून पर इस तरह काम करते हैं और उसमें से ऐसी सूरतें निकलते रहते हैं जैसी कि सूरत मिक्लोश यांचो ने एलेक्त्रा के यूनानी मिथक पर काम करते हुए अपनी अमर फ़िल्म 'एलेक्त्रा माई लव' में निकाली थी.
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उर्दू में यह बात रही है कि ग़ज़ल के श्रोता और पाठक हमेशा दौरे हाज़िर के शाइरों पर ही तवज्जो देते रहे हैं, पुरानों की तरफ़ उनका ख़याल ज़्यादा नहीं रहता.इसकी वजह शायद यह होगी कि ग़ज़ल परफोर्मिंग ट्रेडीशन की तरह ज़्यादा लोकप्रिय रही. मसलन ज़ौक़, ग़ालिब और मोमिन के दौर में उनकी धूम थी,लखनऊ में अनीसो-दबीर का शोहरा था, फिर दाग़ की धूम हुई, एक दौर इक़बाल का आया, जिगर और हसरत और फ़िराक़ का ज़माना आया. एक मीर ही थे जिन्हें हर दौर में याद किया गया. ग़रज़ ये कि तरक्कीपसंद तहरीक (प्रगतिशील आन्दोलन) के ज़माने में ही यह संभव हो पाया कि ग़ालिब या मीर या या नज़ीर को पुरानों की तरह देखने के बजाए प्रासंगिक समकालीनों की तरह देखा जाए और उनसे सीधा संवाद स्थापित किया जाए.
फ़ैज़ को अपने आरंभिक दौर में ग़ालिब की कड़ी ज़रूरत पड़ी और यह रिश्ता जीवन-पर्यंत चला. फैज़ के यहाँ मीर तक़रीबन ग़ायब हैं. सिर्फ़ 1954 में जब फ़ैज़ मोंटगोमरी जेल में क़ैद थे उन्हें कुछ मीर की याद आई. दो ही ग़ज़लें ऐसी हैं जहाँ मीर की सोहबत झलकती है ('कब याद में तेरा साथ नहीं कब हात में तेरा हात नहीं', और 'कुछ मुहतसिबों की खल्वत में कुछ वाइज़ के घर जाती है'). मीर की तरफ़ इक़बाल ने भी कम ही देखा था, और ग़ौर करें तो 1947 से पहले पंजाब सूबे में मीर की ज़्यादा पूछ नहीं रही. उपमहाद्वीप के बटवारे के बाद सबको मीर याद आये और बुरी तरह छा गए. नासिर काज़मी और इब्ने इंशा जैसे दो अलग अलग मिज़ाज के शाइर मीर की ही मजलिस में रहे.
उर्दू जैसी भी बदक़िस्मत ज़बान हो उसे जिलाए रखने में पुराने बड़े मददगार रहते हैं. वह अपनी समकालीनता खोते नहीं दीखते. आज फ़ैज़ भी उन्हीं पुरानों में शामिल हैं.
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उर्दू शायरी में निस्वानी आवाज़ (स्त्री स्वर) के लिए जगह बनाने और उसे स्थापित करने में प्रगतिशीलों का, उनमें भी सबसे ज़्यादा फ़ैज़ का रोल है, इसमें मुझे कोई शक नहीं है. इसके लिए फ़ैज़ ने अलहदा से कुछ नहीं किया, उनकी उपस्थिति मात्र से ही यह राह खुल गयी. फ़ैज़ ने परम्परा का जो ख़ामोश लेकिन मूलगामी आधुनिकीकरण किया उसी में स्वरों के एक वास्तविक और लोकतांत्रिक विस्तार और सह-अस्तित्व की ज़मीन मौजूद थी. ग़ज़ल और नज़्म में कवयित्रियाँ पता नहीं कब से लगभग मर्दाने लिबास में मर्दानी बोली बोलते हुए पेश होती रही हैं! जैसे पुराने नाटकों में, जहां औरतों की भूमिकाएँ पुरुष ही निभाया करते थे, शाइरी में भी 'स्त्री-स्वर' पर शाइर का ही एकाधिकार था, शाइरा के लिए वह वर्जित ही था. हिंद-फ़ारसी काव्य परम्परा की यह एक पुरानी समस्या है और तसव्वुफ़ की कुछ 'खूबियों' में एक यह खूबी गौर करने लायक़ है. कथा साहित्य में भले ही रशीद जहाँ, इस्मत, कुर्रतुल ऐन हैदर के लिए (या दूसरी तरह के लेखन में सफ़िया अख्तर और अनीस किदवाई जैसी रचनाकारों के लिए) यह समस्या नहीं रही हो, पर शाइरी का रास्ता पकड़ने वाली औरत की बड़ी मुश्किल रही है. कुछ कुछ हाली के दौर से, पर ख़ास तौर पर फ़ैज़ की आमद के बाद से यह संभव हो सका कि उर्दू शाइरी में स्त्री स्त्री की तरह पेश होने लगीं और कवयित्रियाँ प्रथम पुरुष स्त्रीलिंग का बेधड़क इस्तेमाल करने लगीं. यही वजह होगी कि सारा शिगुफ्ता, परवीन शाकिर, फ़हमीदा रियाज़ और किश्वर नाहीद जैसी कवयित्रियों को पढ़ते हुए फ़ैज़ और मजाज़ तो याद आते हैं, नून मीम राशिद, मीराजी, अहमद नदीम क़ासिमी, नासिर काज़मी और अख्तरुल ईमान याद नहीं आते. जोश--फ़िराक़ की तो बात ही छोड़िए.
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फ़ैज़ जैसा प्रतिबद्ध और नैचुरल अंतर्राष्ट्रीयतावाद आज उर्दू कविता में दुर्लभ है. हिन्दी में मुक्तिबोध और शमशेर को छोड़ दें तो वह कम-कम ही था -- और ये भी उसी पीढ़ी के नुमाइंदे हैं. आज के शाइर/कवि की आफ़ाकियत निस्बतन अप्रतिबद्ध, अमूर्त और हल्की मालूम होती है -- वह अक्सर प्रगतिशील अंतर्राष्ट्रीयवाद और वर्तमान दौर के प्रतिक्रियावादी भूमंडलीकरण के बीच तमीज़ करना भूल जाता है. यह आफ़ाकियत कम, आफ़ाकियत का दावा ज़्यादा है -- असल में यह अपने यहाँ की हक़ीक़त से फ़रार का ही एक रूप है.
यहीं यह ख़याल भी आता है कि दुश्चक्रों में फँसे, अपेक्षाकृत छोटे देशों का आदमी ही सबसे ज़्यादा अंतर्राष्ट्रीयतावादी हो सकता है. उसे वैश्विक परिदृश्य, उसमें अपने समाज की लोकेशन और सामाजिक-राजनीतिक दुर्दशा से इन चीज़ों के ताल्लुक़ का तीव्र अहसास होता है. उसके लिए देश का बदल विदेश नहीं हो सकता-- जो बैरूनी है वही अंदरूनी को निर्धारित या प्रभावित करता है. हिन्दुस्तान जैसे बड़े देश में सच्चा अंतर्राष्ट्रीयतावादी होना इसीलिए मुश्किल और चुनौती भरा हैकि देश ही पूरी दुनिया नज़र आता है. अंदरूनी का इतना विस्तार है कि बैरून बहुत दूर की चीज़ लगती है. भारत से बाहर जो है विदेश है. पाकिस्तान या क्यूबा या अफ़गानिस्तान के बाहर जो भी है सिर्फ़ बहुत पास है बल्कि बुरी तरह ग़ालिब है. एक अच्छा पाकिस्तानी बुद्धिजीवी सिर्फ़ पाकिस्तान या पाकिस्तानी नियति के बारे में सोचता नहीं रह सकता. उरुग्वे, चीले, आर्हेंतीना, पेरू या निकारागुआ के लेखक अपने अपने देशों से कहीं ज़्यादा पूरे लातीनी अमरीकी लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं. यही बात वहाँ के क्रांतिकारियों पर लागू होती है. लगभग यही बात अरब दुनिया के बारे में सही है.
यही वजह है कि पाकिस्तान ने पिछले पचास साल में इक़बाल अहमद, हमज़ा अलवी, तारिक़ अली और फ़ैज़ जैसी आलमी शख्सियतें पैदा कीं (भले ही पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान में उनकी कोई क़द्र हो) पर हमारे पास बताने के लिए बमुश्किल अमर्त्य सेन जैसा ग़ैर-रैडिकल नाम है जो अंतर्राष्ट्रीयतावादी कम,उदारवादीवादी मानवतावाद के प्रवक्ता ज़्यादा लगते हैं
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फ़ैज़ के बाद : फ़ैज़ के बाद गुलशन का कारोबार कितना बदल गया है. बाद का दौर दक्षिण एशिया में युद्ध, गृहयुद्ध, साम्प्रदायिक हिंसा, धर्मान्धता, साम्राज्यवादी लूट, समाज और अर्थव्यवस्थाओं पर नव-उदारवादी हमलों और लोकतंत्र के पीछे हटने का दौर है. राज्य द्वारा हर तरह के प्रतिरोध का दमन, जनक्षेत्र पर निजी पूँजी का नियंत्रण हमारे दौर की सचाइयाँ हैं. पाकिस्तान का हाल हिन्दुस्तान से भी ख़राब हुआ है. वहाँ जल्दी सुधार की कोई सूरत नज़र नहीं आती. फ़ैज़ के बाद के पाकिस्तान के बुद्धिजीवी और लेखक आज हद से हद हिन्दुस्तान-जैसी 'डेमोक्रेसी' और हिन्दुस्तान जैसी 'आज़ादी' चाहते हैं -- फ़ैज़ के वंशजों के सपने अब बहुत छोटे सपने हैं. फ़ैज़ की धरोहर अब बस भारत-पाक सुलह, सिविलियन सरकार और नारी-अधिकार के अभियान में काम आती है. पाकिस्तान में समानतावादी समाज की परियोजना का कोई ज़िक्र नहीं जिससे फ़ैज़ की कविता इतनी प्रेरित थी, जिसकी वजह से फ़ैज़ ने कोई सात-आठ साल जेल में और कई साल आत्म-निर्वासन में गुज़ारे.
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फ़ैज़ के यहाँ इस्लाम के आरंभिक इतिहास और कुरानी आयतों की अनुगूँजें मिलती हैं. वह इन 'इस्लामी' सन्दर्भों का हमेशा बा-मक़सद, सेकुलर और पारदर्शी इस्तेमाल करते हैं. उनकी आवाज़ थियोलोजी में रंगी, धार्मिकता में भीगी हुई कम्पित आवाज़ नहीं है. वह किसी मज़हबी चाशनी में डूबे हुए कवि नहीं हैं. वह हिन्दी के उन प्रोग्रेसिवों की तरह हैं जिनकी दो या तीन पीढ़ियाँ ऐसी तुलसी-मय रहती आई हैं कि कोई और रंग उन पर चढ़ता ही नहीं, वे उर्दू के उन जदीदियों (आधुनिकतावादियों) की तरह हैं जो जवानी में अराजकतावाद की हदों से गुज़रकर अब तसबीह हाथ में लिए रहते हैं. उनकी मशहूर नज़्म 'हम देखेंगे' लगभग पूरी की पूरी कुरान, तसव्वुफ़, और इस्लाम के कुछ ऐतिहासिक प्रसंगों पर टिकी हुई है, लेकिन उसका किसी भी तरह का धार्मिक दुरुपयोग नहीं किया जा सकता.पहले वह जनरल ज़ियाउल हक़ के फ़ौजी शासन के ख़िलाफ़ पाकिस्तान में अवामी बग़ावत का मुख्य प्रतीक बनती है, फिर इक़बाल बानो की आवाज़ में एक इन्किलाबी तराने का रूप ले लेती है -- एक ऐसे वक़्त में जब सभी धार्मिक रूढ़िवादी तत्व ज़िया शासन का खुला समर्थन करते थे.
कुरान में ईश्वरीय प्रकोप की चेतावनी और दैवी गर्जना यहाँ सामाजिक क्रांति का महान यूटोपियन आह्वान बन जाती है -- 'वो दिन कि जिसका वादा है / जो लौहे-अज़ल पे लिक्खा है'. 'फ़ैसले का दिन' इन्किलाबी सत्तापलट का दिन हो जाता है, जब ज़ुल्मो-सितम के भारी पहाड़ 'रूई की तरह' उड़ जाएंगे, जब'तख्तो-ताज' उछाले जाएंगे, जब शासितों के 'पाँव-तले यह धरती धड़-धड़' धड़केगी, जब 'अनल हक़' का नारा बलंद होगा, जब 'खल्क़े-खुदा' राज करेगी, 'जो तुम भी हो और मैं भी हूँ'. मैं अक्सर सोचता हूँ कि कौन सा इस्लामी प्रतिष्ठान इस नज़्म को अपने साहित्य में दाखिल करेगा, कौन वाइज़ इसे अपने वाज़ का हिस्सा बनाएगा! क्या यह कभी जुमे के रोज़ किसी मस्जिद के मिम्बर से पढ़ी जाएगी? अभी तक तो ऐसा हुआ नहीं है, और मुझे नहीं लगता कि ऐसा कभी होगा.
इस पर कभी गौर नहीं किया गया कि फ़ैज़ तसव्वुफ़ (सूफ़ी दर्शन) को इस्लामी परम्परा के नैरन्तर्य में देखते हैं, उसके विरोध या प्रतिरोध में नहीं. जो बात इस्लाम के सन्दर्भ से नहीं कही जा सकती वह तसव्वुफ़ के सन्दर्भ से बहुत सफलता से कही जा सकती है ऐसा फ़ैज़ नहीं समझते. उनके लिए सूफ़ी मत इस्लाम का विकल्प नहीं है. अव्वल तो फ़ैज़ के यहाँ तसव्वुफ़ भी कोई विकल्प नहीं है. वह उनके लिए विचारधारा या जीवन दर्शन का रूप नहीं ले सकता. तसव्वुफ़ उनके लिए एक उपलब्ध मुहावरा और ज़बान है, जैसे वह ग़ालिब के लिए भी था. फ़ैज़ उतने ही 'आध्यात्मिक' हैं जितने महमूद दर्वीश या एडवर्ड सईद.