Wednesday, September 10, 2008

९/११ लोकतंत्र की हत्या के अमेरिकी अभियानों की प्रतीक बन चुकी तारीख


९/११ । यह तारीख अमेरिका की लोकतंत्रविरोधी करतूतों का प्रतीक बन चुकी है। डब्ल्यूटीओ पर हमले की बात भर नहीं है (हालांकि यह भी अमेरिका द्वारा दुनिया में हिंसा के सहारे लोकतंत्र और स्वतंत्र सरकारों को कुचलने के लिए पैदा किए गए आतंकवाद का ही नतीजा थी। इसके बाद आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अमेरिका ने जो घिनौने अभियान छेड़े, वो भी सामने हैं)। हम जरा पीछे जाना चाहेंगे, जब अमेरिका के पास आतंकवाद से झूठी लड़ाई का बहाना भी नहीं था। तब ११ सितंबर १९७३ को अमेरिका ने चिली की लोकप्रिय सरकार का तख्ता पलटकर वहां सैनिक तानाशाह को गद्दीनशीं किया था। चिली में अमेरिका के इशारे पर सल्वादोर अलेंदे का तख्ता पलटने के लिए दक्षिणपंथी फासिस्ट सैनिक धड़े ने मजदूरों, राजनैतक कार्यकर्ताओं और आम लोगों का बड़े पैमाने पर कत्लेआम किया था। अलेंदे बाकायदा चुनाव जीतकर सत्ता में आए थे और यह अमेरिका को रास नहीं आ रहा था कि जनता के लिए प्रतिबद्ध क्रांतिकारी विचारों वाली सरकार इस तरह व्यापक जनसमर्थन के साथ सत्ता में आए। इस शांतिपूर्ण औऱ लोकतांत्रिक क्रांति को दुनियाभर ने सलाम किया था और यही बात अमेरिका को खतरे की घंटी लगी थी। तमाम आर्थिक साजिशों के बावजूद अलेंदे डटे रहे तो सीआईए ने सीधा हस्तक्षेप कर लोकतंत्र की हत्या को अंजाम दिया। यह बात अलग है कि अलेंदे आज भी दुनिया भर में लोकतंत्र और क्रांतिकारी प्रतिबद्धता की मिसाल के तौर पर जीवित हैं।

20 comments:

Dr. Amar Jyoti said...

'हमेशा यूं ही उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क
न उनकी हार नई है, न अपनी जीत नई'

शायदा said...

अच्‍छा..........।

Udan Tashtari said...

अच्छा आलेख!!

Arun Aditya said...
This comment has been removed by the author.
Arun Aditya said...

तुम्हारी बात में दम है। आतंकवाद मिटने के नाम पर उससे भी बड़ा आतंकवाद खड़ा कर दिया जाता है। ऐसी तार्किक बातें हिन्दी ब्लॉग जगत में गिने चुने लोग ही करते हैं। गत १ जनवरी को उदय प्रकाश जी ने आतंकवाद के मुद्दे पर जबरदस्त पोस्ट लिखी थी- सदमे का सिद्धांत। उस पोस्ट का लिंक है-
http://uday-prakash.blogspot.com/2008/01/blog-post.html

सोतड़ू said...

सैणी साब,
एक छोटा सा सवाल.... क्या तुम थ्येनमान चौक पर लोकतंत्र की मांग का नेतृत्व करने वाले युवक का नाम जानते हो.... क्या तुमने कभी उनके लिए शोक व्यक्त किया है...
अच्छा होगा कि तिब्बतियों के बारे में तो लिखें....

Ashok Pande said...

बढ़िया है धीरेश भाई! महत्वपूर्ण और तार्किक पोस्ट!

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

सोतडू साहब संसद पर आतंकवादीयो के हमले को भारत ने कितनी देर बर्दाश्त किया? भाई आपके लोकतंत्र समर्थक नौजवान जिसे टैंक मैंन नाम से जाना जाता है, के बारे में उसकी तस्वीर उतारने वाले फोटोग्राफर कोल का क्या बयान है उसे बताने का कष्ट करेंगे आप?
भाई मौते किसी की भी हो हम उसे दुखद मानते है, थ्येनमान चौक पर जो कुछ भी हुआ दुखद था। हम कम्युनिस्ट सच्चे मानवतावादी है आप हमें किसी इराकी, विएतनामी, अफगानी की मौत पर जश्न बनाते कभी न पावोगे। भारत के प्रथम कम्युनिस्टो मैंसे एक भगतसिंह भी हिंसा को अनुचित मानते थे उन्हें मानव हत्या करने का मलाल भी था। दूसरी तरफ साम्राज्यवादी अमेंरिका का शासक वर्ग व उसके नकचढे सैनिक है जिन्हें लोगो को तडपा तडपाकर मारने में मजा आता है।
खैर किस तिब्बत की आजादी की बात कर रहे है आप? उस तिब्बत की जिसके लिये स्वशासन से अधिक दलाई लामा तक ने कभी न चाहा।
सोतडू जी चीन या अन्य साम्यवादी देश ने किस तीसरी दुनिया की देश को अपना उपनिवेश बनाया, किस देश के संसाधनो को लूटा बता सकते है आप?
सीमा विवादो को छोड चीन को कभी दुसरे देशो में साम्यवाद आयात करते देखा आपने? उधर साम्राज्यवादी अमेंरिका लोकतंत्र आयात करने के नाम पर इराक अफगान यूगोस्लाविया न जाने कहा कहा कब्जा जमाये बैठा है गरीब देशो के संसाधनो का सरेआम लूट रहा है। इसे आप क्या कहेंगे?
बहरहाल हमारे देश में कम्युनिस्टो पर लोकतंत्र विरोधी का लेबल चस्पा करने की पुरानी रवायत रही है, लेकिन सचाई इसके उलटे है। अभी पिछले महिने सभी दल संसद में बैठ अपनी मा बहन पत्नी भाभी समान देश का सौदा कर चीरहरण करवा रहे थे उधर ये वामपंथी कृष्ण ही थे जो मा बहन पत्नी भाभी समान देश की लाज बचा रहे थे। इस बारे में आपका क्या कहना है आदरणीय सोतडू जी?
धीरेश भाई बहुत बढीया पोस्ट है, मैं पिछले कई वर्षो से इस विषय पर जानकारी एकत्र कर रहा हू। भाई अलेन्दे उसके बाद नेरूदा की मौत को भुला नहीं जा सकता है, ये लोकतंत्र समर्थक अमेंरीका का असली चेहरा है।

सोतड़ू said...

भाई परेश
जैसा कि तुम्हारा नाम है तुम हर आते-जाते को टोके करो।
विनोद दुआ ने एक बार कहा था कि लाल और भगवे वाले ख़ुद को हमेशा बाकियों से नैतिक रूप से एक स्टेप ऊपर समझते हैं- तुम तो इसकी घोषणा भी करते हो। तमीज की बात क्या लाल झंडे के बाहर रहकर नहीं हो सकती ? ये तो तुम लोगों ने महान होने का शॉर्टकट बना लिया है।
चूंकि धीरेश सैनी कोई झंडा उठाकर नहीं चलते हैं, क्योंकि धीरेश सैनी की बात की मैं बहुत इज़्ज़त करता हूं, क्योंकि मैं कोई झंडा लेकर नहीं चल रहा और ये नही चाहता कि धीरेश सैनी उसके तले आए... इसलिए मैं उनसे बात करना चाहता हूं....
बस इतना ही।

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

आदरणीय सोतडू जी,
माफ किजीये मैं आपको तमीज नही सिखा रहा हू, लेकिन लोगो के उपनाम से उनके कर्म-धर्म-जातपात का पता लगाने का प्रपंच कम से कम अब छोडे। हम तो किसी इश्वर या उसके कमबख्त धर्म को ही नहीं मानते है कम से कम इस चु..पे से हमें बख्शे। हमें उपनाम नाम से जितनी गाली दे ले कोई फरक नहीं पडने वाला लेकिन गलती से किसी भगवाई चोटीवाले या ढाडीवाले मिया के उपनाम का उपहास करने का दु:साहस न कर बैठियेगा एसा करने का क्या हश्र होगा इतना तो आप भी जानते ही है। हा-हा-हा!
कोई किसी से भी बात करना चाहे इससे हमे क्या। आप भले ही हमसे असहमत हो लेकिन अपने विचार यहा रखने का अधिकार तो हमें भी हैं।
भाई कुछ भी कहे लाल झंडे वाले बाकी सबसे नैतिक रूप से एक स्टेप उपर ही होते है। कौनसा वामपंथी सांसद स्टींग आपरेशन में आज तक पकडा गया? संसद में आज तक कितने वामपंथी सांसद है जिन्होने पैसा लेकर जमीर की आवाज सुनी?
भाई हमें महान होने का कोई भी शौक नहीं है, भगतसिंह, पाश, सफदर हाशमी व लाखो कम्युनिस्टो ने सिर्फ महान होने की खातिर बलिदान नहीं दिया। इन शहीदो ने अपने विचारो की खातिर उच्च कम्युनिस्ट नैतिकता का परिचय देते हुवे अपना सर्वस्व त्याग किया है, कृपया करके इसे महानता की लालसा कह कर गाली न दे।
सोतडू जी मैरा आपसे नम्र निवेदन है कि अन्यथा न ले, आपको जरूर कही कुछ गलतफहमी हुवी है, हमने कही किसी को तमीज सिखाने की कोशिश नहीं की है। लेकिन आप मैंरे उठाये प्रश्नो का जवाब देने के स्थान पर बहस से बच रहे है ये मेरी आपत्ति हैं। कृपया करके बहस में लौट आये व मैरे उठाये प्रश्नो का जवाब देकर उपक्रत करे।

सोतड़ू said...

परेश जी,
टोके-कर वाली बात के लिए मैं माफ़ी चाहता हूं- ग़लती तो हो गई है। हां एक बात मैं फिर दोहराना चाहूंगा कि चूंकि धीरेश का कहा मेरे लिए महत्वपूर्ण है, इसलिए ही मैंने टिप्पणी की थी। बहस शुरू करने या करने का मेरा कोई इरादा नहीं, दरअसल स्वभाव ही नहीं। फिर मैं ऐसे लोगों से बहस करना पसंद नहीं करता जिनकी राय पहले के कायम है। मैं आपकी बात काटने के लिए तर्क लेकर आऊंगा, फिर आप लेकर आएंगे...हो सकता है कि इसमें मज़ा आए, हो सकता है कि मेरी राय भी बने-बदले। लेकिन इसमें वक्त लगेगा- जो सचमुच मेरे पास नहीं है। फिर राय उसी के कहे से बदलेगी जिसकी बात की आप कद्र करते हों- वो आदमी धीरेश है फ़िलहाल। आपको पढ़ता रहूंगा।

फिर मुझे ये भी लगता है कि ब्लॉग एक कोना हैं। या तो इसमें एक ही विचार के लोग इकट्ठे होते हैं और एक-दूसरे को कहते हैं कि- भई वाह, क्या खूब लिखा। या फिर कभी-कभी लोग ख़िलाफ़ विचार को गाली देने भी आ जाते हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि अगर आप ईमानदारी से तटस्थता के साथ राय दे सकें तो काफ़ी है। धीरेश के ब्लॉग पर मैं यही करने की कोशिश कर रहा हूं।

भूल-चूक लेणी देणी

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

सोतडू जी,
टोके-कर वाली बात करके आपने हमें अपना बना लिया, सभी मित्र बचपन से मुझे टोक या कडी कहकर चिढाते आये है उनको वो ही जवाब हमेंशा मिलता आया जो आपको मिला। बचपन की बात कुछ आेर थी तब मैं कडी कहने पर अथवा टोके कहने पर खुब चिढता था पर अब एसा नहीं हैं। टोके-कर वाले मामले में मैंरे जवाब से आप आहत हुवे इसके लिये माफी चाहता हू। सोतडू जी आपसे आग्रह है कृपया करके माफी मांग कर शर्मिदा न करे।
आपकी राय को स्वीकार करने की कोशिश करूंगा व आपके तर्क का इंतजार रहेंगा।

देवेंद्र said...

भाई सोतड़ू जी और भाई परेश जी। कौन लोकतांत्रिक है और कौन फास्टिस्ट ये तय करना आसान नहीं। जहां व्यक्ति की स्वतंत्रता की बात है उस मामले में.. मैं अमेरिका को हमेशा चीन जैसे देशों से ऊपर रखूंगा। भारत के कम्यूनिस्ट बंधुओं ने अमेरिकी राष्ट्रपति बुश को भारत के पार्लियामेंट में नहीं बोलने दिया था। बाद में इस मुद्दे पर मैंने मशहूर लेखिका अरुंधंती राय की एक टिपण्णी पढ़ी जिसे उन्होंने अमेरिका में व्हाइट हाउस के बगल में आयोजित एक सेमिनार में बोला था। उन्होंने कहा था कि देखो हमने बुश मजबूर कर दिया कि उसे चिड़ियाघर में जानवरों को संबोधित करना पड़ा..। उनकी ये टिप्पणी शायद ही मैं कभी भूल पाउं... यहीं बात अगर चीन के राष्ट्रपति के साथ हुई होती तो क्या अरुंधति राय बीजिंग में ऐसी बातें बोलने की हिम्मत कर पातीं... यहीं अमेरिकी लोकतंत्र का ताकत है.. वो अपने विरोधियों को बर्दाश्त करना जानता है.. उसे इसकी आदत में शामिल है। दुनिया में अमेरिका ही एकमात्र ऐसा देश है जिसने नरेंद्र मोदी को अपने आने का वीजा नहीं दिया। ऐसा एक बार नहीं हुआ बल्कि मेरी जानकारी में दो बार हो चुका है... अगर आपको जानकारी हो तो बता दूं कि इस बीच नरेंद्र मोदी चीन से हो आए हैं और उनका वहां पर जोरदार स्वागत भी हुआ।

परेश जी आप जिन दक्षिण अमेरिकी देशों में क्रांति को कुचलने की बात करते हैं.. ये उन तानाशाहों की क्रांतियां होती है जिन्हें सिर्फ एक क्रांति पसंद है... एक बार सत्ता पर काबिज हो जाने के बाद दूसरी क्रांति बर्दाश्त नहीं करते। जब ऐसे क्रांतियों की बात आती है तो याद आता है क्यूबा जहां फिदेल क्रास्तो ने क्रांति की अलख जगाई और जब वो क्रांति का बोझ उठाने से चुकने लगे तो अपने भाई को क्रांति की मशाल सौंप दी। आप चिली की बात करते हैं... अलसल्वाडोर की बात करते हैं.. वेनेजुएला की बात करते हैं... लेकिन अमेरिका की छाती पर बैठे क्यूबा को भूल जाते हैं... आपके मुताबिक अमेरिका ने सभी जगह सफलता पा ली लेकिन क्यूबा में चूक गया.. क्यों.. ये बात मेरी समझ से परे है... अमेरिका क्यूबा में सफल क्यों नहीं हो पाया... क्या चिली और अल-सल्वाडोर के क्रांतिकारियों से कास्त्रो के सैनिक ज्यादा जांबाज थे.. चिली और अल-सल्वाडोर की क्रांतियो को तो अमेरिका ने कुचल दिया लेकिन वो क्यूबा में असफल क्यों हो गया..। वेनेजुएला में लाल सलाम झंडे बुलंद कर रहा है.. और शायद आप भी जश्न मना रहे होंगे.. लेकिन क्या पांच साल बाद ये छे साल बाद वहां क्रांति होगी मेरा मतलब है चुनाव से है... मुझे लगता है कि उस वक्त ह्यूगो चावेज अमेरिका का हौवा खड़ा करेंगे और आप उनके सुर में सुर मिलना कि वेनेजुएला के तेल भंडार पर अमेरिका कब्जा कर लेगा... तब आप जैसे लोग मान लेंगे कि वेनेजुएला के लोगों को अमेरिकी साम्राज्यवाद से बचाने के लिए चुनाव की जरूरत नहीं है.. क्योंकि अमेरिका लोगों को बहला-फुसला कर अपने समर्थन के नेता को वोट दिलवा देगा...। यानी क्रांति के नाम पर लोगों के बुनियादी हक पर कब्जा करना कम्यूनिस्म का बेसिक फंडा है...। यहीं बात संघ जैसे संगठनों पर भी लागू होती है क्योंकि उनके आदर्श हिटलर जैसे शख्स होते हैं...।
जहां तक भारत की बात है हर बात पर लाल झंडा उठा लेने वाले कम्यूनिस्टों ने कोलकाता यानी पश्चिम बंगाल में तिब्बतियों को प्रदर्शन नहीं करने दिया था... एम एफ हुसैन के लिए बैंटिंग करने वालों ने तस्लीमा नसरीन को कैसे देश निकाला दिया और सफदर हासमी की कसम खाने वालों ने दुनिया में सबसे पहले भारत में सलमान रुश्दी की किताब सेटानिक वर्सेज पर कैसे प्रतिबंध लगवाया था.. इसे भूलना आसान नहीं। एम एफ हुसैन का विरोध संघ और बजरंग दल जैसे संगठनों को छोड़कर शायद ही कोई करता होगा,,, लेकिन मेरी जिस किसी भी कम्यनिस्ट विचारधारा के व्यक्ति से बात होती है वो तस्लमी नसरीन को सही ठहराने के पहले 'लेकिन' शब्द जरूर लगाता है और वो 'लेकिन' इतना वजनी होता है कि उसकी सारी बातें उसी 'लेकिन' के भीतर दब जाती हैं...। अगर आप इन शब्दों को पढ़ने का कष्ट करेंगे तो पक्का भरोसा है कि आप भी मुझे संघ के झोली में डाल देंगे..। लेकिन मेरा भरोसा किजिये मुझे हर उस चीज से नफरत है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध लगाती है... चाहे वो कम्यूनिज्म हो या फिर साम्राज्यवाद...। धन्यवाद....।

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

देवेंद्र वर्मा जी, हिन्दी चिट्ठाजगत में शानदार बोहनी के लिये बहुत-बहुत बधाई।
देवेंद्र जी आपके तर्क से 100 फिसद सहमत बशर्ते आप 'तानाशाहों की क्रांतिया' संज्ञा को 'सर्वहारा की तानाशाही के लिये क्रांतिया' से तब्दील कर दे! इतिहास पर दृष्टी डाले तो सामंतवाद को ओद्योगिक क्रांति की देन उत्पादन के स्वामी अर्थात बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही की क्रांति ने प्रतिस्थापित किया। इसी वर्ग ने पुरानी व्यवस्था को इतिहास के कूडेदान में डालकर नयी व्यवस्था का आगाज किया। पूंजीवादी व्यवस्था अपने अंतद्वंदो से स्वयं बिखरी व आज तक बिखर रही है वापस संभल भी रही है लेकिन उसका पराभव अवश्यंभावी हैं (एनरान घपले के बाद व कल अमेंरिकी आर्थिक जगत में क्या हुवा पढीये अखबारों में)। सर्वहारा अपनी मुक्ती के लिये इस सडी गली व्यवस्था को 'सर्वहारा की तानाशाही' से प्रतिस्थापित कर रहा है। इस प्रक्रिया की शुरूवात सोवियत संघ की सफल क्रांति के दौर से शुरू हो चुकी है, अपनी तमाम असफलता के बावजुद यह प्रक्रिया बदस्तुर जारी है। साहब इतिहास कोई 20-20 नहीं है यह टेस्ट मैंच की भांति बहुत धीरे धीरे करवट बदलता है, लैटिन अमेंरिका में फिदेल-चे के छोटे से क्यूबा ने क्रांति की जा अलख जगाई उसके परिणाम पिछले दशक में स्पष्ट दिखने लगे। ब्राजील, वेनेझुएला, अर्जेटीना, चीली, बोलिवीया, निकारागुआ, उरग्वे, पेराग्वे, इक्वाडोर जैसे लैटिन अमेंरीकी देश जिस बदलाव के दौर से गुजर रहे है उसे 'तानाशाहों की क्रांति' शब्द के कलेवर में लपेटकर यू ही आसानी से नजरअंदाज नहीं कर सकते है। लूला डिसल्वा, मिशेल बचलेट, क्रिस्टीना किरशनेर, ईवो, चावेझ, लूगो इत्यादी आधा दर्जन शासनाध्यक्षो को आसानी से तानाशाह सिद्ध नहीं कर सकते है, ये सभी संसदीय प्रणाली के तहत जनता द्वारा चुने गये है।
चावेज व ईवो को जीतने से रोकने के लिये अमेंरिकी प्रशासन ने आर्थित नाकेबंदी से लेकर सैन्य हस्तक्षेप किये जाने जैसी धमकीया तक इन देशो की जनता को दी, इन जनप्रिय वामपंथी नेताओ को हराने के बदले डालरों की नदीया इन देशों में बहा देने का प्रलोभन भी दिया गया, वक्तव्य उपलब्ध है कभी ढुंढकर पढने का कष्ट जरूर किजीये। वेनेझुएला में तो बकायदा अमेंरीकी शह पर तख्तापलट का प्रयास किया गया जो असफल हो गया। अब वैसे ही प्रयास की पुनरावृत्ति बोलिविया में की जा रही है।
आप 25 मार्च 1970 को व्हाईट हाउस में हुवी 'कमेटी आफ 40' की हेनरी किंसीगर के अध्यक्षता में हुवी मिंटीग को क्यो भुल जाते है, जिसने 'स्पाईलिंग आपरेशन' के तहत अलेंन्दे को चुनावो में जीतने से रोकने के लिये, चुनाव जीत जाने की स्थिती में सैन्य तख्तापलट द्वारा अपदस्त करने के लिये $125000 अनुमोदित किये थे। किंसीगर के एक अन्य कुख्यात बयान पर जरा गौर फरमाईये जिसमें वे कहते है - "मुझे समझ नहीं आता हम क्यो हाथ पर हाथ धरे बैठकर एक देश का उसकी जनता के गैरजिम्मेदाराना रवैये के चलते कम्युनिस्ट होता देखे।" कांट्रा विद्रोहीयो के दानव को किसने खडा किया। राईस की इराक में बच्चो के मरने को जस्टीफाई करने वाला बयान लब की आजादी का ही उपादान है। आप विएतनाम के बारे में नहीं जानते है क्या?
फिदेल की बिमारी के समय भी अमेंरिका अपने अनैतिक कुटिल व्यवहार से बाज नहीं आया, उन्होंने फिदेल को मरता समझ वहा तख्तापलट के लिये विद्रोहीयो को खुलेआम समर्थन भी देना शुरू कर दिया, यही है लब की स्वतंत्रता। बहरहाल ये तो आप भी जानते है कि एक तानाशाह यू ही आसानी से सत्ता नहीं छोडता है, तो फिदेल ने कैसे छोड दि, इस प्रश्न का कोई जवाब है आपके पास? अब कृपया करके ये न कहे भाई भतीजावाद है वहा, अपनी गद्दी अपने भाई को दि। शर्मा जी आपके इस प्रश्न का जवाब एडवांस में ही दे रहा हू - राउल की क्यूबन क्रांति व उसके बाद क्यूबा बनने की प्रक्रिया में जो भूमिका रही है उसे जानने वाला कोई भी व्यक्ति शायद ये आरोप लगा सके। उनके धुर विरोधी भी ये आरोप लगाने का दु:साहस नहीं कर पाये है। बहरहाल रहा सवाल 'क्रांति का बोझ न उठा सकने' का तो हम ज्योती दा या फिदेल को मिथकीय चरित्र भीष्म पितामह, अश्वथामा या हनुमान नहीं मानते है जो अमर है। हम वैज्ञानिक सोच वाले लोग है हमारे लिये वो एक इंसान है, ढलती उम्र के चलते हुवे उन्हें सर्वहारा की सत्ता या आपके शब्दो में कह ले तानाशाही के नेता के रूप में अपनी जिम्मेदारीया किसी अन्य को कभी न कभी तो देनी ही थी। इसमें अव्यवाहारिक या अपने कर्तव्यो से भागने जैसा क्या है? खैर आपके 'क्रांति का बोझ न उठा सकने' के कुतर्को को खारीज करते हुवे फिदेल अपने जीते जी बोलीवरीयन क्रांति को सफल होते देख रहें है।
क्रांति के नाम पर लोगों के बुनियादी हक पर कब्जा करने का सरलीकृत आरोप तो आपने मढ दिया हमें एसे आरोंपो से कोई हैरत भी नहीं होती है। यह स्वाभाविक ही है अब आपको दुनियाभर के गरीबो की देखरेख करते क्यूबा के डाक्टर क्यो दिखाई देने लगे? सोवियत्स की मदत को छोडे, लैटिन अमेंरिका के गरीबो की क्यूबा व वेनेझुएला ने जो मदत की उससे आपका-हमारा क्या सरोकार? आपने सही कहा हमारे देश के अल्पसंख्यक उच्च-उच्च मध्यमवर्ग उनके अमेंरीकी-इंडियन एन आर आई रिश्तेदारो के मादरेवतन अमेंरीका में लब की बडी आजादी है, आप कही पर भी कुछ भी कह सकते है। पर नक्कारखाने में तूती बजाने का मतलब नहीं जानते क्या आप? तूती तो आज दुनियाभर में मादरेवतन के संघियो अर्थात नियोकान्स व उनके खैरख्वाह झायनवादीयो की ही बोलती है। इन अमेंरिकी संघीयो की चले तो अमेंरिका में एक भी अश्वेत जिंदा न बच पाये, इन्हीं के कारण अमेंरिका की सभी समस्याये है। गरीब अश्वेत आबादी को कडे ठंड के दिनो में सस्ता ईधन मुहैया करवाने की अमेंरिका में कोई व्यवस्था हैं, अब कोई कितना भी चिल्लाये उसे लब की पुरी आजादी है चिल्लाता रहें चिल्ला चिल्ला कर बोल बोल कर ही अपनी ठंड से निजात पाये। उधर आपके तानाशाह चावेझ का वेनेझुएला अपने शत्रु देश के इन गरीबो को ठंड से निजात दिलाने के विशेष सस्ता ईधन उपलब्ध करवाता है वो भी बिना कुछ बोले।
तिब्बत चीन व भारत के इतिहास के बाद कुछ पढ लिख लिजीये फिर तिब्बत की आजादी का झंडा बुलंद करे। साहब आपके परमपुज्य दलाईलामा तक तिब्बत की आजादी की बात नहीं करते वे तो सिर्फ स्वयत्ता चाहते है, तो आप काहे बोम मारते फिर रहे हो। पहले अपने पैबंद ठीक कर ले फिर दुसरे के फटे में टांग डालने पहुचिये।
वर्मा जी माफ किजीये आपके प्रश्नो के जवाब देते देते टिप्पणी थोडी बडी हो गयी।

देवेंद्र said...

परेश टोकेकर जी... सच्ची बातें कड़वी लगती है.. सो आपको लगी इसमें मेरी कोई लगती नहीं है... माफ किजियेगा। लाल झंडा थामे हुए दुनिया की हर समस्या के लिए अमेरिका को कोसना तो कम्यूनिज्म का शगल है। आप जिन लैटिन अमेरिकी देशों की बात कर रहे हैं.. वहां के तानाशाह लोकतंत्र के जरिये ही सत्ता पर काबिज हुए हैं। ठीक उसी तरह से जैसे अमेरिका में या फिर भारत में कोई पार्टी सत्ता संभालती है। ह्यूगो चावेझ हो या फिर कोई और लैटिन अमेरिकी देश के तानाशाह उन्हें जनता ने ही सत्ता सौंपी थी। आपने जो उदाहरण दिए हैं उससे साफ है कि चाहने और डॉलर को पानी की तरह बहाने के बावजूद अमेरिका जनआंदोलनों को नहीं रोक सका और फिदेल कास्त्रो और ह्यूगो चावेझ जैसे तानाशाह सत्ता पर काबिज हो गए। यही लोकतंत्र की ताकत है कि जो जनता चाहेगी वही होगा। परेश जी आपने अपनी टिपण्णी में जिन अमेरिकी कंपनियों में घोटालों और अमेरिका के वित्तीय संकट का जिक्र किया है... हो सकता है कि वो 6 महीने या सालभर में दूर हो जाए। अमेरिकी जनता इसके दोषियों को सभा भी दे दे.. बुश की पार्टी को बाहर कर और बाराक ओबामा को राष्ट्रपति बनाकर या फिर किसी तीसरे.. चौथे को या पांचवें शख्स को... राष्ट्रपति बनाकर जो उन्हें संकट के दौर से निकाल सके। लेकिन लोकतंत्र के नाम पर सत्ता पर काबिज होने वाले तानाशाहों से जब लोग उब जाते हैं तो उनके पास कोई उपाय नहीं होता कि वो उससे छुटकारा पा सकें.. अगर ह्यूगो चावेझ कल को कहने लगें कि अमेरिका आ जाएगा इसलिए हम लोगों को चुनने का अधिकार नहीं देंगे तब लोगों के बीच से ही कोई विद्रोही गुट उभरेगा और जनता की लड़ाई लड़ने लगेगा.. उसे शायद अमेरिका से समर्थन भी मिलेगा तब आप जैसे लोग कहेंगे कि देखो अमेरिका कैसे विद्रोहियों की मदद कर रहा है और सर्वहारा वर्ग की क्रांति को कुचलने की कोशिश कर रहा है। ठीक वैसे ही जैसे नेपाल में राजशाही से लोगों का जी उब गया और उनके पास कोई रास्ता नहीं था राजा को हटाने का तब उन्हें माआवोदियों में आशा की किरण दिखी। अमेरिका और भारत के न चाहने के बावजूद माओवादी मजबूत होते गए। उन्हें एक मुल्क ने भारी मदद की जिसे मुझ से बेहतर आप जानते हैं। लेकिन आपने नेपाल में माओवादियों की हिंसा को क्रांति का चोला पहना दिया और मदद देने वाले देश की आपने भरपूर वकालत की। कल को अगर प्रचंड कहने लगें कि हम तो सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि हैं और हमें नेपाल पर अनंतकाल तक राज करने का हक है तो फिर इतिहास अपने दुहराएगा।
परेश भाई मैं कोई क्रांति का झंडाबादार नहीं हूं... मैं किसी के लिए झंडा नहीं उठाता... लेकिन जो झंठा उठाता है मुझे लगता है कि उसे इसका हक है... झंडा चाहे लाल हो या भगवा या फिर किसी तीसरे रंग का। जैसे आपको लाल झंडा उठाने का हक है ठीक वैसे ही उम्मीद करता हूं कि आप भी कम से कम दूसरों का हक तो नहीं मारेंगे। लेकिन आपके प्रगतिशील कम्यूनिस्टों ने बेचारे तिब्बतियों के साथ पश्चिम बंगाल में क्या किया.. शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन भी नहीं करने दिया.. मुझे तो शर्म आई थी उस दिन कि हम हिंदुस्तान में हैं...
मैंने कहीं खबर पढ़ी थी थी कि तिब्बत में लाल झंडा के अलावा कोई दूसरे रंग का झंडा उठाता है तो उसे गोली मार दी जाती है। मैंने तिबब्त की आजादी के लिए कोई आंदोलन नहीं चला रहा और न मुझे कोई शौक है... लेकिन परेश भाई मैं तो सिर्फ इतना पूछना चाहता हूं कि क्या तिब्बतियों को पश्चिम बंगाल की सड़कों पर प्रदर्शन करने का अधिकार था कि नहीं... तसलीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल में रहने का हक था कि नहीं...।
जहां तक आप बुजुर्वा क्रांति की बात करते हैं.. जो सोवियत संघ से शुरू हुई थी। सोवियत क्रांति ने ही स्टालिन जैसे क्रांतिकारियों को जन्म दिया जो कभी हिटलर के साथी थे (आपके धुर विरोधी संघी.. हिटलर को अपना आदर्श मानते हैं जिनमें नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं और चीन के महान कम्यूनिस्टों ने उनका चीन दौरे के दौरान शानदार स्वागत किया था) और उन्होंने कितने लोगों को क्रांति के नाम पर हत्याएं कराई किसी से छुपी नहीं है। हालांकि आप जैसे लोग स्टालिन युग को महान युग की संज्ञा देते हैं क्योंकि उस युग को सिर्फ रशियन लोगों ने सहा था और आपको उनके दर्दों से कुछ लेना देना नहीं। आप जिस सोवियत क्रांति की बात करते हैं शायद आपने पढ़ा हो 1964 की हंगरी की क्रांति या फिर 1979 की अफगानिस्तान की क्रांति..। जब सोवियत सेनाओं ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया तो काश आप जैसे लोग सोवियत हमले के विरोध में एक शब्द भी बोले होते... ख्रुश्चेव को खरी-कोटी सुनाई होती.. तब आप अमेरिका के वहां घुसने का विरोध करते तब हमारे जैसे लोग भी आपका नैतिक समर्थन करते। लेकिन तब आप आप जैसे लोग काफी खुश हुए थे कि चलो एक और किला फतह कर लिया। ठीक उसी तरह से जैसे 1962 में भारत पर हुए चीनी हमले का कम्यूनिस्टों को जोरदार स्वागत किया था। आप जैसे लोग इस कड़वी सच्चाई को सुनते ही आग बबूला हो जाते हैं जैसे संघ के लोगों को बताया जाता है कि उन्होंने गांधी की हत्या करवाई थी।
भाई परेश.. आपने सही कहा कि इतिहास 20-20 नहीं है लेकिन कम्यूनिस्म के उदभव और समागम को देखते हुए तो लगता है कि इसे 5-5 भी कहना गलत होगा। आप कहते हैं कि अमेरिका में अश्वेतों का सफाया करने का अभियान चल रहा है लेकिन शायद आप भी अखबार पढ़ते होंगे कि एक अश्वेत राष्ट्रपति बनने के दौर में सबसे आगे है। आप कहते हैं कि मैं (लोकतंत्र) पहले अपना पैबंद सील लूं... मेरा पैबंद तो सील जाएगा क्योंकि मुझे किसी ख़ास रंग के कपड़े और धागे की जरूरत नहीं है। मुझे कोई भी रंग मिल जाएगा चाहे वो लाल हो भगवा हो नीला हो हरा हो या काला या पीला मेरे पैंबद सिल जाएंगे। लेकिन आपका क्या होगा क्योंकि दुनिया में लाल धागों की कमी होती जा रही है। अमेरिका हो या भारत.. लोकतंत्र पैबंदों के सहारे ही चलता है लेकिन आप जिस सर्वहारा सोवितय क्रांति का जिक्र कर खुश हो जाते हैं वो भी पैबंद ही था जिसे लेनिन जैसे महान बुजुर्वा नेता ने लाल धागे से सील दिया। जब स्टालिन आए तो उन्होंने पैबंद को लाल रंग से रंग दिया। रंग की कमी पड़ने पर उन्होंने खून की नदियां बहाई और सारे पैबंद मिटाने के लिए लाल खून की मोटी परत चढ़ा दी। लेकिन पैबंद को लगातार सिलने की कोशिश करते रहे तो काफी समय तक चलता है... हो सकता है कि अनंत काल तक चले लेकिन सोवियत पैबंद का रंग फींका पड़ने लगा और आपको तो पता ही जब पैबंद फटा तो चिंदी-चिंदी उड़ गई।
कम्यूनिस्ट ऐतिहासिक भूलों के लिए याद किए जाते हैं। पता नहीं आपको काल मार्क को पढ़ते कितने दिन हुए मुझे इंतजार होगा उस दिन का जिस दिन आप भी कहेंगे कि "वो ऐतिहासिक भूल थी - मेरा कम्यूनिस्ट होना"
नाराज मत होइगा आपकी टिपण्णी पढ़ी थी तो लगा था कि आप बहुत गुस्से में हैं... लेकिन हम हिंदुस्तान में हैं चीन में नहीं.. और इस देश में कुछ राज्यों को छोड़कर पश्चिम बंगाल और केरल (जहां सबसे पहले Da Vinci Code फिल्म पर सबसे पहले प्रतिबंध लगाई गई थी) को छोड़कर बाकी राज्य ठीक हैं। जहां कमोबेश लोगों को अपनी बात रखने का हक है। कम से कम सरकारें तो ऐसा नहीं करतीं। आज बहुत हो गया बाकी फिर कभी...।

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

वर्मा जी आपके सामने सचाई क्या बयान की आप उसे हमारा गुस्सा कह खारीज करने लगे। भाई आप मैंरे प्रश्नो का जवाब देने के स्थान पर पुन: वो ही बाबा आदम के जमाने की कम्युनिस्ट विरोधी थ्योरी झाडने लगे। जब से मैंने होश संभाला तभी से आपके द्वारा पेश दलीले सुनता आया हू।
आपका संभावित अमेंरीकी अश्वेत राष्ट्रपति अभी चुनाव जीत नहीं गया है, जीत भी जाये तो क्या। देखिये एक या दो आदमीयो को उच्च से उच्चतम पोस्ट पर पहुचाकर अमेंरीका अपनी हिस्ट्रीशीट साफ करने का प्रयास कर रहा है। एक बराक के जीत जाने से 4 दशक पूर्व तक अश्वेतो से किये भेदभाव समाप्त नहीं हो जाने वाले, लूथर किंग को भूल गये क्या आप? याद रखे हमारे देश में कलाम साहब को राष्ट्रपति मुस्लिम विरोध पर टिकी राजनीती ने ही बनाया, इसका ये मतलब तो नहीं की हिन्दूत्व का राग अलापने वाली भाजपा को अचानक मुस्लीम प्रेम उमड आया हो।
चावेझ तो इक्का दुक्का रेफेरेन्डमस को छोड हमेंशा आधी से भी अधिक जनता के विश्वास से जीतते आये है, उधर आपके हार चुके आका बुश पहली दफा अदालत के फैसले के दम पर राष्ट्रपति बने थे। खैर आपको यहा क्वोट कर रहा हू - "आप जिन लैटिन अमेरिकी देशों की बात कर रहे हैं.. वहां के तानाशाह लोकतंत्र के जरिये ही सत्ता पर काबिज हुए हैं। ठीक उसी तरह से जैसे अमेरिका में या फिर भारत में कोई पार्टी सत्ता संभालती है। ह्यूगो चावेझ हो या फिर कोई और लैटिन अमेरिकी देश के तानाशाह उन्हें जनता ने ही सत्ता सौंपी थी।" माफ किजीये शायद मैं कुछ ठीक से समझ नहीं पा रहा हू आपकी दलील के दो मायने निकाले जा रहे है - 1. भारत अमेंरीका ब्रिटेन व अन्यत्र कही कोई पार्टी लोकतंत्र के जरीये सत्ता में आये तो तानाशाह नहीं है पर तीसरी दुनिया के देशो में कही भी लोकतंत्र के जरीये कम्युनिस्ट शासन में आये तो वो तानाशाह, आपकी दलील तारीफे काबिल है। अथवा 2. आप ये तो नहीं कहना चाहते की अमेंरिका व भारत के राष्ट्राध्यक्ष भी लैटिन अमेंरिका के वामपंथी गठबंधनो के नेता की तरह तानाशाह होते है जिन्हें जनता चुन लेती है। आपकी उपरोक्त दलील से मुझे किंसीगर का कुख्यात बयान या आ गया जिसमें वे कहते है - "मुझे समझ नहीं आता हम क्यो हाथ पर हाथ धरे बैठकर एक देश का उसकी जनता के गैरजिम्मेदाराना रवैये के चलते कम्युनिस्ट (वामपंथी) होता देखे।"
मैं पुन: आपको क्वोट कर रहा हू - "लोगों के बीच से ही कोई विद्रोही गुट उभरेगा और जनता की लड़ाई लड़ने लगेगा.. उसे शायद अमेरिका से समर्थन भी मिलेगा तब आप जैसे लोग कहेंगे कि देखो अमेरिका कैसे विद्रोहियों की मदद कर रहा है और सर्वहारा वर्ग की क्रांति को कुचलने की कोशिश कर रहा है। ठीक वैसे ही जैसे नेपाल में राजशाही से लोगों का जी उब गया और उनके पास कोई रास्ता नहीं था राजा को हटाने का तब उन्हें माआवोदियों में आशा की किरण दिखी।" आप पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद, खालिस्तान आंदोलन, नार्थ इस्ट की अलगाववादी विघटनकारी शक्तियों के विषय में क्या कहना चाहेंगे? क्या आप अपने तर्क से इन सभी विदेशी मदत प्राप्त विघटनकारी अलगाववादी ताकतो की करनी को जस्टीफाय नहीं कर रहे है? लैटिन अमेंरीका के देशो में पिछले 4-5 दशक में तानाशाहो को स्थापित करने के लिये अमेंरीका ने खूनी खेल खेला उसकी तुलना नेपाल से नहीं कर सकते है। नेपाल के बारे में आपकी जानकारी दुरूस्त नहीं है, नेपाल से राजशाही की विदाई में माआवोदियों के साथ अन्य सात दल भी बराबरी के हिस्सेदार रहें है जिसमें नेपाली काग्रेस व सीपीएन यूएमएल जैसे दल भी शामिल थे। प्रचंड नेपाली लोकतंत्र के नही अपितू संविधान सभा के प्रधानमंत्री चुने गये है, वो भी जनता द्वारा चुने प्रतिनिधीयो द्वारा। माआेवादियो के मुख्यधारा में लाने में चीन से ज्यादा भूमिका भारत की रही हैं। ये हमारी उपलब्धि है कि हमारे गाइडेन्स में हमारा प्रमुख पडोसी हिन्दू राजशाही को विदा कर नये दौर में शामिल हुवा है व आज अपना संविधान बना रहा है। इसमें दुखी होने वाली क्या बात है?
मैं आपको क्वोट कर रहा हू - "मैंने कहीं खबर पढ़ी थी कि तिब्बत में लाल झंडा के अलावा कोई दूसरे रंग का झंडा उठाता है तो उसे गोली मार दी जाती है।" वर्मा जी आप कही की पढी पढाई बात को वास्तविकता मान लेते है? कुछ दिनो पूर्व मैंने कही पढा आपने भी जरूर ही पढा होगा कि 9/10 को दुनिया खत्म होने वाली है, आदरणीय आज 9/18 हैं। आप बंगाल में तिब्बती आंदोलनकारीयो को रोकने की बात कह रहें है वो आेलम्पिक टार्च के विरोध में प्रदर्शन करना चाहते थे, ये लोग कहा से आये क्या चाहते थे, इनका दार्जलिंग में अनरेस्ट से क्या लेना देना था? ये पता करके आये फिर बहस करे। वैसे भी आेलम्पिक टार्च का विरोध पूरे विश्व व आेलम्पिक का अपमान करना है, क्या आप आेलम्पिक को विरोध का हथियार बनाने दे सकते है। ग्रीस ने भी उसी दौरान तिब्बती प्रदर्शनकारियो की गतिविधीयो पर प्रतिबंध लगा दिया था आप ग्रीस के बारे में क्या कहेंगे। याद रखिये तिब्बती विद्रोही भारत का इस्तेमाल चीन के खिलाफ कर रहे है ठीक उसी तरह जिस तरह काश्मीर अलगाववादियो का पाक।
जिस स्टालिन ने स्टालिनग्राद में हिटलर को धुल चटवायी, नाजीयो को यूरोप में घुसने से रोका उसे आप हिटलर का साथी कहते है। संधिया तो अमेंरीका रूस, अमेंरीका चीन, चीन भारत, भारत पाक के बीच भी होती आयी है, इसका मतलब ये तो नहीं की इनके राष्ट्राध्यक्ष एक दुसरे के मित्र हो। स्टालिन-हिटलर अथवा बुद्धदेब-मोदि में कही कोई तुलना हो ही नहीं सकती है। खैर स्टालिन के बारे में जानना हो तो हरपाल बराड की सोवियत संघ का पतन जरूर पढे। अफगान में सोवियत सेना कब्जा जमाने नहीं गयी थी अपितु अफगानि राष्ट्रपति के आग्रह पर अमेंरिका प्रायोजित मुजाहिदिन आतंकवादीयो से निपटने गयी थी। सोवियत्स के पराभव के बाद अफगान का क्या हश्र हुवा ये तो आप जानते ही है। ख्रुश्चेव के बारे में आप क्या जानते है? कोई भी लिबरल लेफ्टीस्ट उनको डिफेंड नहीं करना चाहेंगा। लेकिन हम अफगान मामले के लिये ख्रुश्चेव पर दोषारोपण करते हुवे इसे अफगान हडपने का साम्राज्यवादी युद्व नहीं मानते।
तसलीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल में रहने का हक था कि नहीं...। बिल्कुल है। तसलीमा पर हमलो का वामपंथियो ने हमेंशा विरोध किया। कलकत्ता में तसलीमा के नाम पर दंगा करने वाले टीसी से संबंध मानोरिटी फोरम के नेता व उसके पठ्ठो का क्या हश्र किया गया ये भी पता लगाये। तसलीमा अपनी मर्जी से जयपुर गयी थी बंगाल सरकार ने उसे नहीं भेजा। वैसे भी ये मुद्दा राज्य सरकार से ज्यादा कैंद्र के पाले में ज्यादा है। आपसे आग्रह है कि http://www.pragoti.org/node/392 को जरूर पढे, तसलीमा व Da Vinci Code के संबंध में आपको अपने सभी सवालों का जवाब मिल जायेगा।
लेनिन को बुर्जआ उनके दुश्मन तक नहीं कहते हैं, अगर लेनिन सर्वहारा के झंडाबरदार न होकर बुर्जआ नेता थे तो गाली देने के स्थान पर तर्क देकर सिद्ध करें। आप उस लेनिन का अपमान कर रहें है जिनके जीवन से भारत के प्रथम कम्युनिस्टो मैंसे एक व महान क्रांतिकारी व भगतसिंह अपनी मृत्यु तक प्रेरणा लेते रहें।
लाल झंडा थामे हुए दुनिया की हर समस्या के लिए अमेरिका को कोसना तो कम्यूनिज्म का शगल है। इस टिप्पणी से हम सहमत नहीं है, हमारी असली लडाई तो पूंजीवाद साम्राज्यवाद गरीबी भुखमरी सांप्रदायिकता फासीवाद से है। हम उन लोगो मैंसे नहीं है जो चीन व पाकिस्तान की जनता के साथ दुश्मनीभरा व्यवहार रखे। किसी देश की नितीयो के विरोध का मतलब उस देश की जनता के विरोध से नहीं लगाया जा सकता। आपके द्वारा तानाशाह निरूपित हूगो चावेझ का देश अमेंरीका के तटीय इलाकों में तूफान पिडीतो की मदत के लिये अमेंरिकी सरकार से पहले पहुचा, उधर आपके महान बुश सैर सपाटा करते फिर रहे थे।
बहरहाल आपके प्रिय न्यायप्रिय लब की आजादी वाले लोकतंत्र अमेंरिका ने महानता का परिचय देते हुवे चीली की मुर्ख जनता द्वारा जिताये गये खूनी तानाशाह अलेन्दे व उनके परम मित्र चाटुकार क्रूर कवि पाब्लो नेरूदा को मारकर शांति के महान मसीहा लोकतंत्र के रखवाले पिनोशे को सत्ता दिलवायी। अब आप लूला डिसल्वा, मिशेल बचलेट, क्रिस्टीना किरशनेर, ईवो, चावेझ, लूगो, प्रचंड को बर्बर तानाशाह कहना चाहे तो कहें बुश पिनोशे हिटलर की जिंदाबाद करना चाहे तो करे आपको अपने विचारों पर बने रहने का पूरा अधिकार है। लेकिन, हम जैसे कमीने विधर्मी देशद्रोही गौमांस खाने वाले कम्युनिस्ट जब तक यहा लब की आजादी है तब तक लेनिन स्टालिन अलेन्दे चावेझ फिदेल प्रचंड जिंदाबाद करते रहेंगे।
खैर बोल, कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल, ज़बां अब तक तेरी है!

देवेंद्र said...

परेश भाई.. मैं आपसे गुस्सा क्यों होउंगा। मैं कोई थ्योरी नहीं झाड़ रहा.. मैंने आपकी तरह से कोई थ्योरी नहीं पढ़ी है, जिसका मैं हर जगह हर वक़्त इस्तेमाल करता फिरूं। कम्यूनिस्ट की तरह.. कि सब पैबंद एक ही रंग के घागे और एक ही रंग के कपड़े से सिलूं और सिलते वक़्त एक ख़ास रंग का चश्मा पहनूं। जिसे कोई थ्योरी मिल जाती है वो अपने आप को महान समझने लगता है और जिद्दी हो जाता है। उसे लगने लगता है कि वो बाकियों से थोड़ा ऊपर है.. क्योंकि उसके पास एक फार्मूला है। और वो हर जगह हर वक़्त चिल्लाता फिरता है यूरेका... यूरेका... यूरेका..... जैसा कि आपने अपने एक टिपण्णी में कहा था -'भाई कुछ भी कहे लाल झंडे वाले बाकी सबसे नैतिक रूप से एक स्टेप उपर ही होते हैं'-
परेश जी सच्चाई ये है कि आप कनफ्यूज्ड हैं। आप अपने सवालों का जवाब तो चाहते ही नहीं और अगर आपको दिखता है तो उसे लाल रंग के चश्में से पढ़ने लग जाते हैं। मैंने कभी नहीं कहा कि नेपाल के माओवादियों को लोगों ने चुनकर नहीं भेजा... मैंने कहा था कि वहां के हिंदू तानाशाह राजा से लोग आजिज आ गए थे और उन्होंने विद्रोही गुट माओवादियों का समर्थन किया। जिसका फायदा उठाकर माओवादी माओ की राह पर चल दिए और हिंसक होते गए.. दस-बारह साल के बच्चों का उनके घरों से अपहरण कर उन्हें क्रांति की आग में झोंका। जिस किसी ने विरोध किया उसको ठिकाने लगा दिया... इसी का विरोध भारत और अमेरिका करते थे। उस हिंसा को आपने नैतिक समर्थन दिया और चीन जैसे मानवता के दुश्मन देश (चीन को कम्यूनिस्ट देश कहने में संकोच होता है क्योंकि उसने 1978 में ही काल मार्क्स के चोले को उतार कर बाजार की अर्थव्यस्था को स्वीकर कर लिया था। अब उस देश में कम्यूनिस्म के नाम पर थियानमेन चौक के प्रदर्शनकारियों पर टैंक चलाना और तिब्बत में प्रदर्शनकारियों की हत्या करना ही रह गया है।) ने आर्थिक और सैनिक मदद की। अब प्रचंड लोकतंत्र के जरिये सत्ता हासिल कर चुके हैं... लेकिन क्या नेपाल में अगला चुनाव होगा या कि वो भी चावेझ, परवेज मुशर्रफ और सद्दाम हुसैन की तरह रिफ्रेंडम कराते रहेंगे और 99.999 प्रतिशत लोगों का समर्थन पाने का दावा करेंगे।
जहां तक भारत में लोकतंत्र के नाम पर सत्ता हासिल कर तानाशाह बनने की बात है तो यहां भी नेता करते हैं... वो भी तानशाह बनना चाहते हैं। लेकिन वो लोकतंत्र को तिलांजली नहीं दे सकते क्योंकि इस देश की जनता इसे कभी स्वीकार नहीं करेगी। 15 साल तक लालू ने बिहार पर तानाशाही की लेकिन जनता ने आखिरकार उन्हें उखाड़ फेंका। अटल बिहारी वाजेपेयी की एन-डी-ए सरकार का भी वही हश्र हुआ। गुजरात का दंश बीजेपी की सांप्रदायिक सरकार को ले डूबी। (गुजरात में उस वक्त नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे और उन्होंने तीन हजार मुसलमानों का कत्लेआम कराया था और जिसकी वजह से अमेरिका ने अपने देश में उनके घुसने पर बैन लगा रखा है और जिनका चीन के महान कम्यूनिस्टों ने जोरदार स्वागत किया था और तारीफ में कसीदे गढ़े थे) थोड़ा और पीछे जाएं तो राजीव गांधी याद आएंगे जिन्हें जनता ने ऐतिहासिक बहुमत से सरकार बनना के जिम्मा सौंपा था। क्या हुआ आपको अच्छी तरह पता है। उन्हें सत्ता से हटाने के लिए नैतिक से थोड़े ऊंचे लोग पतित संघियों के साथ हो लिए थे। थोड़ा और पहले देखें तो इमरजेंसी याद आती है.. जब इंदिरा गांधी को लगने लगा था कि आई मतलब इंदिरा होता या फिर इंडिया। उन्होंने देश के लोगों का मूल अधिकार छीन लिया था... और जिसका नैतिक रूप से ऊंचे कम्यूनिस्टों ने समर्थन किया था। लेकिन चुनाव में क्या हुआ... ये तो इतिहास बन चुका है।
पश्चिम बंगल में कम्यूनिस्टों की तानाशाही तीस सालों से जारी है। सर्वहारा वर्ग की बात करते-करते वहां के कम्यूनिस्ट अमेरिका परस्त हो गए हैं। तीस सालों के बाद उन्हें होश आया है कि चलो अब ऐतिहासिक गलती सुधार ली जाए। अब उन्हें होश आया है सर्वहारा वर्ग का उत्थान खेती कराने से नहीं होगा बल्कि उन्हें मजदूर बनाना होगा। और रात में निकल गए क्रांति के पहरुए अपने नेता के आरमानों को पूरा करने के लिए। जिन गांव के किसानों ने जमीन देने से मना किया था वहां खून की नदियां बहीं और पूरे गांव को लाल (.....) से रंग दिया गया। तब आपके मुख्यमंत्री ने क्या कहा था आपको पता ही होगा ठीक उसी तरह से जैसे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन हजार मुसलमानों को मारने के बाद कहा था ये क्रिया की प्रतिक्रिया है। मेरा इतना सब कहने का मतलब ये है कि इस देश में कुछ पार्टियां लोकतंत्र के जरिये सत्ता हासिल कर तानाशाह बनने की कोशिश करती हैं लेकिन वक़्त-वे-वक़्त जनता उन्हें सजा जरूर देती है। देश में लोकतंत्र है इसलिए देश चल रहा है जिस दिन इसे भगवा, लाल या हरे रंग में रंगने की कोशिश की गई उसी दिन बिखर जाएगा। अमेरिका के चाहने से ये न चाहने से।
अमेरिका किसी को राष्ट्रपति नहीं चुनता बल्कि वहां के लोग चुनते हैं। चलिये बाराक ओबामा कल को राष्ट्रपति नहीं बन रहें क्योंकि आपके शब्दों में सभी अमेरिकन रेसिस्ट और फासीवादी हैं। लेकिन क्या आपने कभी सुना है किसी अश्वेत अमेरिकी को सर्वहारा क्रांति के वाहक क्यूबा या वेनेजुएला या फिर चीन में शरण लेते हुए। मान लिजिए उसे राजनीतिक शरण की जरूरत नहीं भी हो.. जैसा कि आप कहते हैं कि श्वेतों के सताए अश्वेत अमेरिकन की मदद ह्यूगो चावेझ करते हैं। लेकिन आज तक किसी अश्वेत ने न तो क्यूबा से रोटी मांगी है और न चावेझ से.. मेरा मतलब है अमेरिका से भागकर उन देशों में नहीं गए हैं। कम से कम हमने तो ऐसा नहीं सुना है। हां इतना सुना है कि क्यूबा और वेनेजुएला को एक बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है अपने देश के नागरिकों के देश में बंधक बनाए रखने के लिए। अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य से क्यूबा की खाड़ी में हर महीने एकाध नाव दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है क्योंकि क्यूबन छुपछुपाकर अमेरिका भागना चाहते हैं। यही हाल वेनेजुएला का है। पता नहीं आपने कहां से पढ़ लिया कि ह्यूगो चावेझ ने अमेरिका के तुफान पीड़ितों की मदद की। शायद आपको पता नहीं हो तो मैं बात दूं कि दुनिया के कुछ देश हैं जिन्हें लगता है कि वो अपने देश में किसी भी विपदा का वो खुद मुकाबला कर सकते हैं और वो बाहरी मदद नहीं लेते उनमें अमेरिका भी शामिल है और चीन भी। और अमेरिका में अश्वेतों पर अत्याचार हुए हैं इसे कोई झुठलाने की कोशिश नहीं करता और उन जख्मों को भरने के लगातार प्रयत्न होते हैं। कोई भी वहां अश्वेतों पर हुए आत्याचारों को "लेकिन" जैसे भारी भरकम शब्द लगाकर उचित नहीं ठहराता जैसे कि आप तिब्बतियों के प्रदर्शन की आजादी पर या तस्मीन नसरीन के देश निकाला पर या उनकी पुस्तक लज्जा पर प्रतिबंध लगाने का समर्थन करने लगते हैं। ठीक उसी तरह से जैसे थियानमैन चौक पर प्रदर्शनाकारियों पर टैंक चलाने का आप तहेदिल से समर्थन करते हैं। मार्टिन लूथर किंग को अमेरिका में संत का दर्जा प्राप्त है जैसे गांधी को भारत में।
मेरे भाई आप अमेरिका पुराण बंद क्यों नहीं करते। अमेरिका के चाहने से दुनिया चलती तो फिर कहना ही क्या था। न तो चावेझ होते न कास्त्रो न किम जोंग... दुनिया कितनी अच्छी होती। आप भूल गए हैं कि जब अमेरिका ने वियतनाम में दखलअंदाजी की तो क्या हश्र हुआ था और आज इराक और अफगानिस्तान में क्या हो रहा है। मेरे कहने के मतलब है कि अमेरिका ताकतवर जरूर है लेकिन वो किसी देश के लोगों के आरमानों की कुचलने की ताकत नहीं रखता। वो काम तो सिर्फ आपके गिनाए गए तानाशाह ही रखते हैं जो अमेरिकी नफरत पर सवार होकर देश की जनता के हुक्मरान बने रहते हैं।
दुनिया में एक और देश है जिसकी आप कसम खाते होंगे वो है उत्तर कोरिया...। लेकिन आपको पता नहीं होगा क्योंकि आपको एक ख़ास रंग के चश्में से ख़ास फर्म्यूले के तहत चीजों को देखने की आदत है। आपको ऐसा ही सिखाया गया है क्योंकि आपने कहा था कि मैं बचपन से ये बातें सुनता आया हूं। अगर उत्तर कोरियन को मौक़ा मिले तो सभी दक्षिण कोरिया में भाग लें... वहां बचेंगें तो सिर्फ किंम जोंग-II और आप जैसे उनके कर्मठ क्रांतिकारी जो सत्ता की मलाई खाते हैं।
आप चीन को तिब्बती आतंकवाद से बचाने का अभियान चला रहे हैं इसलिए तिब्बतियों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन में भी आपको गहरी चाल नजर आती है। आपने जोसेफ गोएबल्स का नाम जरूर सुना होगा, वहीं हिटलर का प्रोपोगंडा मशीन.. जिसका कहना था कि किसी झूठ को सौ बार बोलो तो लोग उसे सच मान लेते हैं। लगता है उसकी जिम्मेदारी अब आप लोगों ने उठा ली है। सोवियत लाल सेना भी उसी तरह काबुल में घुसी थी जिस तरह से हंगरी में या फिर पोलैंड में... कि वहां से हमें आमंत्रण मिला है। आपको इस सच का भी पता होना चाहिए कि स्टालिन ने हिटलर से उस वक़्त दोस्ती की थी जब सारी दुनिया मिलकर हिटलरवाद के खात्मे के लिए जुटी हुई थी। स्टालिन उस वक़्त मित्र सेनाओं के साथ हुए जब उन्हें लगा कि अगर उन्होंने मित्र सेनाओं का साथ नहीं दिया तो हिटलर सोवियत संघ पर कब्जा कर लेगा।
अगर आप एक ख़ास साइट (जिसका जिक्र आपने अपने पिछले टिपण्णी में की हुई है) और कुछ ख़ास पुस्तकों को छोड़कर बाकी दुनिया की खबरें भी पढ़ते होंगे तो आपको पता होगा कि रशिया ने जार्जिया पर हमला कर दिया है... (वजह में मैं नहीं जाना चाहता) और डरकर पोलैंड और हंगरी मिसाइल डिफेंस सिस्टम बनाने की तैयारी में जुट गए हैं। ये वो देश हैं जो कभी लाल रंग में रंगे हुए थे और आज उन देशों में इसका जिक्र करना भी गुनाह माना जाता है जैसा कि जर्मनी में हिटलर की बात करना।
परेश भाई.. काश आप थोड़ा आंसू तस्मीला के लिए बहा लेते.. वो कौन महान कम्यूनिस्ट थे जिन्होंने तस्लीमा पर हमले का विरोध किया था मैं उनका नाम जानना चाहता हूं... जिन्होंने समझदारी भरी भरी बात की फिर भी कम्यूनिस्ट हैं। (सोमनाथ दा ने जिस दिन समझदारी वाली बात की उस दिन उन्होंने अपनी नैतिकता खो दी और जब नैतिक नहीं रहे तो कम्यूनिस्टों ने भी उन्हें अपनी बिरादरी से बाहर कर दिया। सोमनाथ ने तो यहीं कहा था कि वो संघियों के साथ खड़ा होना नहीं दिखना चाहते) जिस दिन तस्लीमा ने कोलकाता छोड़ा था उसके अगले दिन बुद्धदेव भट्टाचार्य सिलीगुड़ी में थे। (मैं मीडिया में काम करता हूं) पीटीआई ने खबर फ्लैश की.. कि बुद्धदेव ने कहा है कि वो तस्लीमा को कोलकाता में रहने देंगे। हमें बहुत खुशी हुई थी कि चलो कोई तो है जो सच्चाई के हक में खड़ा हुआ लेकिन तुरंत खंडन आया कि नहीं बुद्धदेव ने ऐसा कुछ नहीं कहा... सचमुच मन खट्टा हो गया।
आपको पूरा हक़ है कि आप अपने विचारों पर कायम रहें... ये हक़ लोकतंत्र देता है.. और आपकी तरह दूसरे रंग के कपड़े पहनने वालों को भी...। लेकिन आपसे विनम्र आग्रह है कि आप दूसरों को भी सुनने की आदत डालें..। मेरी बातें आपको गाली सरीखी लग रही हैं... लग सकती हैं क्योंकि आपको सच सुनने का आदत जो नहीं है।
लिखते-लिखते एक मजेदार किस्सा याद आया.. हो सकता है कि ये कोरी बकवास हो.. लेकिन एक समय काफी मशहूर हुई थी। मास्को में एक शख्स आफिस से थकाहारा घर पहुंचा.. उसने टीवी ऑन की... देखा ख्रुश्चेव का भाषण चल रहा है.. दूसरा चैनल बदला वहां भी ख्रुश्चेव ... फिर तीसरा.. चौथा.... पांचवा... हर जगह ख्रुश्चेव .. और आखिरकार उसने रिमोट के आखिरी चैनल पर उंगली रख दी... वहां केजीबी का एक अधिकारी घुरता हुआ मिला... अब बदले तो.... बच्चू...... कुछ समझे ये था ख्रुश्चेव का जलवा।
परेश भाई आपको मैंने पूरा पढ़ा... आपकी लेखनी में आपकी तल्खी साफ झलकती है.. आप कहते हैं... "हम जैसे कमीने विधर्मी देशद्रोही गौमांस खाने वाले कम्युनिस्ट जब तक यहा लब की आजादी है तब तक लेनिन स्टालिन अलेन्दे चावेझ फिदेल प्रचंड जिंदाबाद करते रहेंगे"... बिल्कुल करेंगे.. आपको पूरी आजादी है... आप जिंदाबाद कीजिये... मुर्दाबाद किजिये आपको किसने रोका...। अगर किसी ने रोकने की कोशिश की तो हम भी आपके साथ हैं... लेकिन ऐसा दूसरों को भी तो करने दीजिये...। आप लेनिन, स्टालिन के जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं लेकिन उनकी मूर्तियों का उस देश के लोगों ने क्या हश्र किया ये छुपी बात नहीं है... सर्वहारा वर्ग की तानाशाही (तानाशाही को आपने एक नया नाम दिया है) से रशिया आजाद हुआ तो वहां के लोगों को की सालों तक समझ में नहीं आया कि लेनिन की ममी का क्या करें। लेनिनग्राद.. जिस पर आप कभी नाज करते थे आज सेंट्पीटरबर्ग हो गया है... क्यों.. कभी सोचा आपने... शायद नहीं.. कभी फुर्सत में सोचियेगा। आप लेनिन, स्टालिन, चावेझ, कास्त्रो, माओ, किम जोंग-II को महान बताते रहें लेकिन दुनिया का बड़ा हिस्सा उन्हें खलनायक घोषित कर चुका है..।
लगता है हमारे बीच तकरार बहुत हो गया... इन बातों का कोई मतलब नहीं है... क्योंकि आप अपना चश्मा नहीं बदलने वाले... चलिये हम भी आपके नारे को दुहराते हैं... और उम्मीद करते हैं इसे आप सिर्फ अपने लिए ही इस्तेमाल नहीं करेंगे इसे आप नंदीग्राम, सिंगूर के लोगों के साथ-साथ तस्लीमा जैसे लोगों को भी इसे दुहराने की आजादी देंगे।
--खैर बोल, कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल, ज़बां अब तक तेरी है!'-- लाल सलाम... क्योंकि हमें लाल रंग से कोई परहेज नहीं है बशर्ते हम पर थोपी न जाए...।
और आपने जिस साइट को हमें पता दिया था उसे पढ़ा लेकिन इसके प्रोमोटरों के बारे में जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि आप और कुछ तो पढ़ना ही नहीं चाहते है। आपकी जानकारी के लिए ये यहां चिपका रहा हूं प्रोमटरों की जानकारी।
"Pragoti (a Sanskrit word meaning Progress) is a website which seeks to create a space for progressive and democratic minded persons who stand for Left and Democratic Alternatives in India and support progressive causes worldwide. Pragoti is dedicated to the task of creating a repository of news, articles and views from a Left perspective on the internet. Besides carrying contemporary, analytical and objective articles, Pragoti also offers a forum to debate, discuss and propagate views from the Left. The Pragoti team comprises of volunteers who share the vision of the Left movement in India."

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

वर्मा जी नाराज होकर हमें महान वहान की गाली न दे। ये बात जरूर है कि हम बहुत जिद्दी है मरते दम तक लडते रहेंगे। भगत सिंह भी लडता रहा, पाश भी, सफदर भी, फैज अहमद फैज भी, इस लडाई में दुनिया के कई लाखो करोडो लोग आज तक हमारे साथ है, इससे आप इंकार नहीं कर सकते। आपको बताना चाहता हू कि कम्युनिस्टों के बारे में जरा जानकारी एकत्र करके आईये। इमरजेंसी के विरोध में कम्युनिस्ट ने बडी कुर्बानिया दि। मैरे स्वयं के काका दिवगंत का. बालाजी टोकेकर 21 माह मीसा में बंद रहे, कायर आर एस एस वालो की तरह माफीनामें मांग कुछ दिनो में बाहर नही आये। मीसाबंदी के लिये बाटी गयी पैंशन लेने से इन्दौर के ही का. गोयल ने इंकार कर दिया वे भी का. टोकेकर के साथ मीसाबंदी रहे। ये अपवाद नहीं है पूरे भारत में हजारों कम्युनिस्टो को मीसाबंदी बनाया गया कईयो की तो मौते भी हुवी जाकर राष्ट्रीय अभिलेखागार से दस्तावेजो चेक कर आये। आप भी वो ही सभी आरोप दोहराते आये है जो आज तक अंध कम्युनिस्ट विराधी प्रचारक करते रहे है। माफ किजीये आपकी कम्युनिस्टो के बारे जानकारी वाकई बहुत भ्रामक है।
कमबख्त ख्रुश्चेव के चुटकुले की बात कर रहें है आप। ये चुटकुला संशोधनवाद के खिलाफ चला था, आपको तो शायद ये भी नहीं पता होगा कि का. स्टालिन को बदनाम करने का उपक्रम इन्ही ख्रुश्चेव महाशय का चलाया था। जब ख्रुश्चेव पश्चिम जाकर स्टालिन को गाली देते फिर रहे थे उस दौर में सी पी सी ने स्टालिन को डिफेंड किया था। कम्युनिस्टो के बारे में कोई भी राय बनाने से पहले उन दस्तावेजो को जरूर पढे। अब ये न कहना कि ये प्रोग्रेसिव या लेफ्टीस्टो के है।
आप माकपा के शासन को तानाशाही कह रहे है आप बडे कन्फयुस्ड लगते है मुझे। अब आप ही बता दे दुनिया में तानाशाह कौन नहीं है। एक अंध अमेंरीकी चश्में से देखते हुवे कृपया करके ये मत कहना बुश व आगे चलकर बराक या कोई अमेंरीकी राष्ट्रपति।
आप लालू या बंगाल के वाममोर्चा को तानाशाह की गाली देकर देश की संसदीय व्यवस्था संविधान को गाली दे रहे है। किसी को भी तानाशाह कहने से पूर्व 10 बार सोंचे उसके लाखो फालोवर भी होते है, उन्हें आपकी गाली से कितनी ठेस लगती होगी। आप अराजनिती की राजनिती के खोल से एक बार बाहर आकर देखे सब कुछ साफ हो जायेगा।
देखिये आपकी आखो पर अमेंरिका का चश्मा लगा हुवा है, उसमें से देखते हुवे आप अपने कल्पनालोक में जी रहें है। आपको पिनोशे नहीं दिखता, अमेंरिका द्वारा बनाया लादेन नहीं दिखता, विएतनाम युद्ध नहीं दिखता, नाकासाकी हिरोशीमा भी नहीं दिखते। अब आप इन सब सचाई पर से मुह मोडकर अमेंरिका द्वारा प्रचारित थ्योरी को ही अंतिम सत्य मानते है तो ठीक है।
भाई द्वितीय विश्वयुद्ध का जरा इतिहास पढकर आये फिर का. स्टालिन को गाली दे। ये स्टालिनग्राद की लडाई थी जिसने हिटलर को यूरोप में घुसने से रोका आप लाख कोशिशे कर ले इस सचाई से मुह नहीं मोड सकते। भाई आपका आका अमेंरिका हिटलर को बढने दे रहा था क्योकि यूरोप व अमेंरिका हिटलर व स्टालिन दोनो की मौते चाहते थे। जब हिटलर का पंजा अमेंरिका के गले तक पहुचा तभी अमेंरिका जंग में कूदा।
खैर लेनिन स्टालिन की मूर्तिया गिराये जाने का सवाल। का. स्टालिन खुद बहुत ही साधारण व्यक्तित्व व्यक्ति थे वो खुद के महिमामंडन को नापसंद करते थे। उनकी कई मुर्तिया लगवाने की पेशकश से वो आग बबुला हो उठते थे। खैर आपको क्या पडी स्टालिन के बारे में जानने की, आपको तो आपके आका अमेंरिका ने बता रखा है स्टालिन क्रूर तानाशाह था, दरिंदा था। अब अगर विश्वआका ये कहे तो ये ही सही इसकी जाच पडताल क्यो की जाये। अमेंरिकी राष्ट्रपति का निवास कितने कमरो का होता है ये पता लगाये? अरे अमेंरिकी राष्ट्रपति छोडे आपके जिले का कलेक्टर कितने बडे मकान में रहता हो उसे देख आये। आपका क्रूर तानाशाह स्टालिन ताउम्र 3 कमरों के एक फ्लेट में रहता आया। इसी तानाशाह ने एक गरीब पिछडे देश को महज कुछ दशकों में विश्वशक्ति बनवा दिया वो भी प्रत्यक्ष युद्ध झेलने व एक बार पुरा तबाह हो जाने के बाद। अब अगर तानाशाह एसे हो तो हमें तानाशाह व तानाशाही से कोई परहेज नहीं है।
क्यूबा के कैदियों पर खर्च होने वाली रकम के बारे में आपने सुना मैंरा आपसे विनम्र आग्रह है कि सुनी सुनाई बातो से निष्कर्ष निकालने के स्थान पर किसी भी सुनी सुनाई बात को तर्क की कसौटी सबूतो द्वारा परखना शुरू करें। खैर मिडीया जगत में सुनी सुनाई बातो का ही ज्यादा महत्व है लेकिन बहस की दुनिया में नहीं।
आपने सही कहा "हम जैसे कमीने विधर्मी देशद्रोही गौमांस खाने वाले कम्युनिस्ट जब तक यहा लब की आजादी है तब तक लेनिन स्टालिन अलेन्दे चावेझ फिदेल प्रचंड जिंदाबाद करते रहेंगे"... लेकिन जब ये लब की आजादी छिन ली जायेगी तब हमारे पास भगतसिंह, चे, अलेन्दे, पाब्लो नेरूदा, पाश, सफदर का दिखाया रास्ता भी है।

देवेंद्र said...

भाई परेश टोकेकर जी, सबसे पहले मैं आपसे माफी मांग लूं कि मेरी कोई बात आपको बुरी लग गई है। वैसे खुद आपने ही अपने आप को महान बताया था- "भाई कुछ भी कहें लाल झंडे वाले बाकी सबसे नैतिक रूप से एक स्टेप उपर ही होते हैं।" परेश भाई मैं सबसे पहले आपको स्पष्ट कर दूं कि मेरे विचार क्या हैं। मैं कोई झंडा उठाकर नहीं चलता है इसलिए मैं हर उस व्यक्ति का समर्थन करता हूं जो लोकतांत्रिक मूल्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ता है। आप विश्वास किजिये मैं बिल्कुल कन्फ्यूज्ड नहीं हूं। मुझे इस देश पर इसलिए भरोसा है कि यहां लोकतंत्र है। इसी वजह से तमाम कमियों के बावजूद देश बेहतर भविष्य की ओर अग्रसर है। अगर इस देश का लोकतंत्र और यहां की लोकतांत्रिक संस्थाएं मजबूत होती रहीं और हम इसमें योगदान देते रहे तो मुझे लगता है कि आने वाली पीढ़ी के लिए ये हम सबकी तरफ से तोहफा होगा।
परेश भाई अपने अपनी टिपण्णी में लिखा है कि मैंने लालू, मोदी वगैरा... वगैरा को तानाशाह कहा। पता नहीं आप मेरी बात नहीं समझ पा रहे या नहीं समझने का ढोंग कर रहे हैं। आपको एक बार फिर स्पष्ट कर दूं कि लोकतंत्र में जिसे भी लगता है कि वो सर्वोसर्वा और महान हो गया है जनता उसे धूल चटा देती है... क्योंकि इसमें लोगों को चुनने का अधिकार होता है। मैंने कहा था कि एन-डी-ए की सरकार को लगने लगा था कि उसने देश को बदल दिया है... लेकिन वोटरों ने क्या किया उसे ही बदल दिया यानी लोकतंत्र में कोई तानाशाह या सर्वोसर्वा हो ही नहीं सकता।
परेश जी.. अब मैं जो कहने जा रहा हूं हो सकता है आपको बुरा लग जाए... लेकिन हकीकत यही है। आप या तो कन्फ्यूज्ड हैं या फिर डबल स्टैंडर्ड व्यक्ति हैं। आप सफदर हासमी के लिए तो नारेबाजी करते हैं लेकिन तसलीमा को देश निकाला देने में आपको कोई हर्ज नहीं। आप मकबूल फिदा हुसैन के लिए झंडा बुलंद करते हैं लेकिन सेटानिक वर्सेज किताब पर प्रतिबंध लगाने का आप बेहिचक समर्थन करते हैं। गुजरात दंगों पर आधारित फिल्म "परज़ानिया" के आप गुण गाते फिरते हैं लेकिन फिल्म "Da Vinci Code" पर प्रतिबंध लगाने में आपको शर्म नहीं आती। फेरहिस्त लंबी है... क्या-क्या गिनाउं। मैं ऐसा दोहरा मानदंड नहीं रखता... न ही कोई चश्मा पहनकर चीजों को देखता हूं। मेरा मानना है कि इस देश में सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए। आपको तय करना है आप कनफ्यूज्ड हैं या फिर डबल स्टैंडर्ड व्यक्ति।
आप कहते हैं कि मैं देश की संसदीय लोकतंत्र को गाली दे रहा हूं... ऐसा नहीं है। आप तो एक और संसदीय लोकतंत्र (सिर्फ आपने अपने पिछले टिपण्णी में इसे अच्छा बताया) की दुहाई देते हैं दूसरी ओर इसे ख़त्म करने की कसम खाए बैठे नक्सलियों का नैतिक समर्थन (आप ही शब्दों में "भाई कुछ भी कहें लाल झंडे वाले बाकी सबसे नैतिक रूप से एक स्टेप उपर ही होते हैं।") करते हैं। भाई सचमुच आपको पता ही नहीं कि आप चाहते क्या हैं। मुझे अमेरिका ने कुछ नहीं सिखाया है क्योंकि उसकी जरूरत ही नहीं पड़ी... जब मैं समझदार हुआ तब तक रशिया के लोग आजाद हो गए थे... आपके महान कॉमरेड स्टालिन की कहानियां दुनिया को सुनाने के लिए। मैं जब समझदार हुआ उस वक़्त बर्लिन की दीवार गिर गई थी। दीवार फांदने वालों का क्या हश्र होता था... और जो भागने में सफल हो जाते थे उनके मां-बाप और रिश्तेदारों के साथ क्या सलूक हुआ था वो उसे बताने के लिए लोग मौजूद थे। क्यूबा से भागकर अमेरिका आने वालों की बात का आप भरोसा नहीं करेंगे। (आपको शब्दों में क्योंकि ये सर्वहारा क्रांति को बदमान करने की अमेरिकी साजिश है)। लेकिन उस दिन का हम इंतजार करेंगे कि क्यूबन को भी सोचने की आजादी मिले जैसे मुझे और आपको मिली हुई है। मुझे लगता है कि क्यूबा के लोग क्यूबा की खतरनाक खाड़ी को पार कर अमेरिका आते हैं ये हकीकत है.. सुनी-सुनाई बात नहीं है।
आपको तानाशाही से कोई परहेज नहीं है... लेकिन मुझे है... क्योंकि मैं उससे सवाल पुंछूंगा। वो रिफ्रेंडम कराएगा और मैं उसपर सवाल उठाउंगा ऐसे में मेरा क्या होगा... सोंचकर रूह कांप जाती है। आपको थियानमेन चौक पर बच्चों के ऊपर टैंक चलाना अच्छा लगता होगा.. लेकिन मैं नहीं चाहूंगा कि कम्यूनिस्ट परमाणु करार का विरोध करने वोट क्लब पर इकट्ठा हों और मनमोहन सिंह टैंक चलवा दें.. सोंचकर देखिये... तब आपको अहसास हो कि तानाशाही क्या होती है। हिटलर, किम जोंग किंग, कास्त्रो, ह्यूगो चावेझ, पिनोशे, हिटलर की तानशाही को सही ठहराना छोड़ दें। बहुत दूर की बात नहीं जब पड़ोसी देश म्यामां में बौद्ध भिक्षुओं ने प्रदर्शन किया और उनपर हैलिकप्टर से गोलियां बरसाई गईं थीं तब आपको कैसा महसूस हुआ था... बताइगा जरूर। हो सकता है कि आपको अच्छी लगी होगी क्योंकि आप शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वालों को आतंकवादी कहते हैं जैसा कि आपने तिब्बतियों का बारे में कहा था और म्यांमा की जुन्टा को भी तो चीन का भरपूर समर्थन प्राप्त है ऐसे में आपका समर्थन भी तो जुन्टा के साथ ही होगा।)
चलिये एक बार मान लेते हैं कि चीली की सच्चा पर पिनोशे को अमेरिका ने बिठाया लेकिन उस तानाशाह का हश्र क्या हुआ आपको पता है...। (मुझे लगता है कि आप इतिहास ही लाल चश्मा लगाकर ही पढ़ते हैं।) पाल्बो नेरूदा महान कवि थे इससे कौन इनकार करता है... उनकी महान रचनाओं के लिए उन्हें नोबेल प्राइज से नवाजा गया था। उन्हें मार्केज़ ने सदी के सबसे महान कवि की उपाधि दी थी। दुनिया के जितने भी लिबरल लोग हैं (सिर्फ लेफ्टिस्ट लिबरल नहीं) उनका सम्मान करते हैं। मैं चाहूंगा कि आपको इतिहास की एक झलक दिखाता चलूं। आपसे आग्रह है कि कृपया इसे लाल चश्मा लगाकर मत पढ़ियेगा।
सेकेंड वर्ल्ड वार के दौरान नेरूदा ने स्टालिन के बड़े समर्थक थे। हिटलर को परास्त करने की वजह से नेरूदा ने स्टालिन की काफी तारीफ की थी। 1953 में उन्हें स्टालिन शांति पुरस्कार से नवाजा गया। उसी साल स्टालिन की मौत हो गई थी। उसके बाद नेरूदा ने स्टालिन के गुणगान करते हुए गीत भी लिखे। आपको पता है नेरूदा के स्टालिनिस्ट होने पर उनके लंबे समय के दोस्त रहे ओक्टावियो पाज़ (पाज़ के बारे में मुझसे ज्यादा आप जानते होंगे) ने क्या कहा था। पाज़ के शब्दों में- "नेरूदा दिनोंदिन स्टालिनिस्ट होते जा रहे हैं जबकि मेरा स्टालिनवाद से मोहभंग होता जा रहा है।" पाज़ और नेरूदा के बीच वैचारिक मतभेद 1939 में शुरू हो गए थे, जब स्टालिन-हिटलर समझौता हुआ। (कुछ लोग इसे मोलोटोव-रिबेनट्रोप पैक्ट तो कुछ नाजी-सोवियत पैक्ट तो कुछ इसे नाजी-सोवियत गठबंधन कहते हैं।) 24 अगस्त 1939 को मास्को में सोवियत विदेश मंत्री व्यास्चेस्वाव मोलोटोव और जर्मन विदेश मंत्री रीबिनट्रोप ने समझौते पर हस्ताक्षर किये। इसके तहत दोनों देश एक-दूसरे का ख्याल रखने का संकल्प लिया था और कहा था कि दोनों देशों में से कोई एक किसी तीसरे देश पर आक्रमण करता है तो दूसरा हस्तक्षेप नहीं करेगा। लेकिन हिटलर तो हिटलर था जिसके लिए समझौते कोई मायने नहीं रखते थे और उसे लगा कि वो सोवियत संघ को जीत लेगा तो उसने आक्रमण कर दिया। फिर कैसे स्टालिन मित्र राष्ट्रों के खेमें शामिल हुए ये हर कोई जानता है।
हां तो मैं बात कर रहा था पाल्बो नेरूदा और ओक्टाविया पाज़ की दोस्ती की। नेरूदा के स्टालिनिस्ट रूझाने के बावजूद पाज़ उन्हें एक महान कवि मानते थे। पाज़ ने एक आर्टिकल में लिखा था- " नेरूदा और दूसरे मशहूर स्टालिनिस्ट लेखकों को पढ़ता हूं तो अजीब सा महसूस होता है। इसमें कोई शक नहीं कि वो अच्छी सोच के साथ शुरुआत करते हैं लेकिन जल्द ही अपनी अंतरात्मा की आवाज को भूलकर प्रतिबद्धता के चक्कर में खुद को झूठ, झूठे साक्ष्यों और बेहूदा तर्कों के जाल फंसा लेते हैं।"
तमाम विरोधों के बावजूद नेरूदा स्टालिन को सही ठहराते रहे। लेकिन 1957 में चीन दौरे के बाद की लिखी नेरूदा की टिपण्णियों को आपने नहीं पढ़ा है। उसे जरूर पढ़ियेगा.. कि कैसे उनका स्टालिनवाद से मोहभंग हुआ और माओ के सर्वहारा क्रांति के बारे में उनकी क्या टिपण्णी है। इस डर से कि उनके वैचारिक दुश्मनों को उनपर हमला करने का मौका न मिले शायद उन्होंने बोरिस पेस्टनॉक और जोसेफ ब्रोडस्की के सोवियत संघ में हुए उत्पीड़न का विरोध नहीं किया।
मैं नेरूदा की आलोचना नहीं कर रहा... सच तो ये है कि मेरी कोई वकत नहीं कि मैं नेरूदा जैसे महान लेखक के बारे में बोलूं। लेकिन लोकतंत्र सिखाता है कि किसी को महान मानने के पहले सवाल जरूर पूछो। मुझे लगता है कि आप इसका बुरा नहीं मानेंगे ये बात कहके कि आप सवाल उठाने वाले कौन होते हैं। और आपको पता ही होगा कि 'ओक्टावियो पाज़' ने कैसे खुद को बदला। क्रांतिकारी पाज़ बाद में खुद को लेफ्टिस्ट लिबरल मानने लगे थे और उन्हें हठी और अनुदार कम्यूनिस्टों के चिढ़ हो गई थी।
जहां तक चीली की बात है 1970 में वहां चुनाव हुए उसमें सल्वाडोर अलेंदे की पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन पूर्ण बहुमत नहीं होने की वजह नेशनल कांग्रेस ऑफ चीली में वोटिंग हुई। कांग्रेस ने लेंदे और अलेसांद्री में अलेंदे को राष्ट्ररपति चुन लिया। उसके पहले क्या खेल हुए थोड़ा बता दूं। कहा जाता कि अलेसांद्री के लिए सीआईए और अलेंदे के लिए केजीबी ने लाखों डॉलर खर्च किये थे। (सीआईए और केजीबी दोनों ने इससे इनकार किया था) अलेंदे राष्ट्रपति बन गए। आप कहते हैं कि अमेरिका ने अलेंदे का तख्ता पलटा... चलिये मान लेते हैं.. लेकिन आपको पता है 1973 में चीली की हालत क्या थी। अलेंदे की आर्थिक नीतियों की वजह से देश की अर्थव्यवस्था गर्त में चली गई थी। मुझे एक साइट से आकड़ा मिला है कि उस वक़्त चीली में मुद्रास्फीति की दर 508% थी। भारत में मुद्रास्फीति की दर बारह प्रतिशत होने पर इतना हायतौबा मच रहा है और लग रहा है कि मनमोहन सरकार अगला चुनाव हार सकती है। अंदाजा लगाए चीली की जनता पर उस वक़्त क्या गुजर रहा होगा।
मैं आपको पिछली तीन टिपण्णियों में समझाने की कोशिश कर रहा हूं कि अमेरिका के चाहने भर से कुछ नहीं हो सकता। अगर होना होता तो 1970 में अलेंदे कांग्रेस में चुनाव हार जाते। अमेरिका ने पिनोशे को समर्थन दिया होगा लेकिन तख्ता पलट के लिए अमेरिका से ज्यादा अलेंदे और उनकी आर्थिक नीतियां जिम्मेदार थीं। जब नेरूदा की मौत हुई तो पिनोशे की मजबूत तानाशाही के दौर में कर्फ्यू का उल्लंघन कर चीलीयन्स अपने महान कवि को श्रद्धांजलि देने सड़कों पर उतर आए थे। फिर पिनोशे का क्या हुआ... आपको अगर पता न हो तो मैं बता दूं कि 1988 में वो इलाज कराने ब्रिटेन गया तो वहां उसे गिरफ्तार कर लिया गया। 2002 तक ब्रिटेन में नजरबंद रहा। उसे हेल्थ ग्राउंड पर छोड़ा गया और जब उसकी मौत हुई तो एक चिलियन्स ने अपने पूर्व राष्ट्रपति को राजकीय सम्मान भी देने से मना कर दिया।
इतना सब कहने का मतलब है कि आप चश्मा पहने लेकिन कभी-कभी उतार कर भी दुनियां देखें। दुनिया हसीन है... लोकतांत्रिक समाज और देश अपने चीजों को अंदर ही अंदर दुरुस्त कर लेता है।
हे स्टालिन भक्त भाई परेश... रशियन लोगों ने तो आजाद होने का भी इंतजार नहीं किया स्टालिन के पापों को दुनिया के सामने लाने के लिए। 1956 में हुए कम्यूनिस्ट पार्टी के बीसवें कांग्रेस अधिवेशन में निकिता ख्रुश्चेव का सेक्रेट स्पीच पढ़ा होगा। कैसे ख्रुश्चेव ने स्टालिन के किये पापों के लिए माफी मांगी थी।
दरअसल मैं अमेरिका की इसलिए पैरवी करता हूं कि वहां लोकतंत्र है और लिबरल समाज है। इराक युद्ध के खिलाफ जितनी बड़ी रैली न्यूयार्क में निकली थी जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। काश आप लोग भगत सिंह, चे, अलेन्दे, पाब्लो नेरूदा, पाश, सफद के बताए कदमों पर चलते हुए दुनिया को बदलने के लिए संघर्ष करते... लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। क्या आपको लगता है कि भगत सिंह तस्लीमा नसरीन को देश से निकालने और उनकी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने का समर्थन करते... पाश भी ऐसा नहीं करते और सफदर भी नहीं...। लेकिन इन सबका कसम खाने वालों दुनिया बहुत बड़ी है। दुनिया टेढ़ी होकर नहीं चलती। आपको लगता है कि दुनिया लेफ्ट की तरफ झुकी हुई है और संघियों को लगता है कि राइट की तरफ। लेकिन अगर आप सीधा देखें तो दुनिया सीधी है और ऐसा मानने वालों की तदाद सबसे ज्यादा है तभी देश में लोकतंत्र है। अगर ऐसा नहीं होता तो देश में या तो नक्सल होते या फिर फिरका पसंद ताकतें। लगता है मैंने आज कुछ ज्यादा ही लिख दिया... लेकिन मेरी बातों पर गौर जरूर किजियेगा।

महेन said...

बहस में पड़ने का मेरा कोई इरादा नहीं है। सोतड़ू ने कहा तो मैं पढ़ने आ गया। फिर भी दो बातें कहने के लिये रुक रहा हूँ।
जहां लोगों में अपना बोझ उठाकर चलने की कुव्वत नहीं है वहां किसी भी रंग का झंडा उठाकर चलने की बात करना साफतौर पर अय्याशी है और यह अय्याशी वही कर सकते हैं जिनके पेट भरे हों, फिर चाहे वे बाईं ओर चलने वाले हों या दाईं ओर चलने वाले। सीधा चलना हमेशा आसान होता है। कभी सिर आसमान की ओर उठाकर चलने की कोशिश कीजियेगा। अपने आप या तो आप दाएं हो जाएंगे या बाएं। झंडाबरदारों के साथ भी मुझे ऐसा ही लगता है।
खैर मैं तो टिप्पणियां पढ़ने की प्रक्रिया में उठी एक-आध बात कहने के लिये रुका था। देवेन्द्र जी ने पूर्वी जर्मनी की कहीं बात छेड़ी थी। अगर परेश जी को मालूम हो पूर्वी जर्मनी के पश्चिमी जर्मनी में विलय के बाद (यह पूर्वी जर्मनी का पश्चिमी जर्मनी में विलय ही था, दो देशों का एक दूसरे में नहीं क्योंकि पूर्वी जर्मनी का बोझ पश्चिमी जर्मनी के सिर ही पड़ा) जर्मनी में नियो-नाज़िस्म की लहर सी चल पड़ी है। विदेशियों पर (काले, भूरे, पीले लोग) वहां जबतब आक्रमण होते रहते हैं हालांकि उनकी संख्या और आकार दोनों ही फिलहाल नगण्य हैं। मज़ेदार बात यह है कि ये आक्रमण हमेशा जर्मनी के उस हिस्से में हुए हैं जो कभी पूर्वी जर्मनी कहलाता था। दूसरी बात कि उस हिस्से के लोगों को पश्चिमी जर्मनी की कार्य-संस्कृति के अनुकूल नहीं माना जाता क्योंकि उनकी कार्य-शैली हमारे सरकारी बाबूओं से कुछ जुदा नहीं है। ये दोनों क्या कम्यूनिज़्म की ही देन नहीं है?