Tuesday, November 9, 2010

अरुंधती और देश - प्रणय कृष्ण

अरुंधती राय का किसी देश के बौद्धिक क्षितिज पर सक्रिय होना इस बात का आश्वासन है कि उस देश की सत्ता और संपत्ति पर वंचितों की दावेदारी की लड़ाई खत्म नहीं हुई है, ये बात तब भी कही जा सकती है जब कोई उनकी बातों से सहमत न भी हो- चाहे कश्मीर पर या माओवाद पर. यदि ऐसा न होता तो कश्मीर पर उनके बयान से शासक जमातें इतनी परेशान न होतीं, जबकि कश्मीर की आज़ादी की मांग को लेकर वर्षो से पक्ष-विपक्ष में न जाने कितने लोग कितनी बातें कर चुके हैं.
३१ अक्तूबर को मीडिया की ताकतों के साथ आपराधिक मिलीभगत कर भाजपा का उनके घर पर कायराना हमला इसी बौखलाहट का नतीजा है. यह हमला कायराना इसलिए भी था क्योंकि यहाँ हमले में औरतो को आगे किया गया. महिला मोर्चा की औरतों ने कभी उन मर्द सैनिक अधिकारियों पर हमला नहीं किया जिन पर कश्मीर घाटी में शोपियां बलात्कार कांड का आरोप है. उन्होंने कभी उन सुरक्षाबलों पर हमला नहीं बोला जिनके बलात्कार कांडों के खिलाफ पूर्वोत्तर प्रांत की महिलाओं ने नग्न देहों के साथ इस नारे के साथ प्रदर्शन किया कि, 'भारतीय सेनाओं, आओ हमारा बलात्कार करो'. भाजपा का महिला मोर्चा कभी दहेज के लिए जलाई जा रही औरतों, दलालों द्वारा वेश्यावृत्ति को मजबूर की जाती और अपहरण कर बेची जाती लड़कियों, भ्रूण में खत्म की जाती बच्चियों, घरेलू हिंसा की और खाप पंचायतों की बलि चढ़ती युवतियों के लिए ज़िम्मेदार अपराधियों पर हमला नहीं बोलतीं. वे तो देशभक्त हैं और उनके देश में इन अभागी औरतो की कोई गिनती नहीं.
अरुंधती ने अब तक अपने लेखन और सामाजिक क्रियाकलाप में उस देश का पक्ष लिया है जिसका कोई पुरसाहाल नहीं है, जो गरीब, वंचित, सताए हुए स्त्री, पुरुषों,बच्चों का है, जिनकी इस देश की सत्ता और संपत्ति में कोई हिस्सेदारी नहीं है. दूसरी तरफ वे हैं जो इस देश की सत्ता और संपत्ति पर काबिज़ हैं. उनका मानना हैं कि वे ही देश हैं. इनकी भक्ति करना ही देशभक्ति है. अमीर- भक्ति, अमेरिका- भक्ति, ओबामा-भक्ति, मिलिटरी-भक्ति, पुलिस-भक्ति,मुखबिर-भक्ति, अदालत-भक्ति- इस देशभक्ति के कई रूप हैं. अरुंधती का लेखन और आचरण अक्सर ही अमीरों, अमरीका,मिलीटरी, पुलिस और अदालत से टकरा जाता है यानी जिन चीजों को देश बताया जा रहा है उनसे ही वे टकरा जा रही हैं , फिर क्यों न देशद्रोही कहलाएँ?
पिछले दो दशकों से देशभक्ति इतनी सस्ती हुई है कि कोई भी अपराधी,लम्पट,बलात्कारी और भ्रष्ट व्यक्ति पाकिस्तान को चार गाली देकर देशभक्त होने का तमगा पा सकता है। ऐसे माहौल में अरुंधती को देशद्रोही बताया जाए तो क्या आश्चर्य? जब कांग्रेसी भी उनके कश्मीर वाले बयान पर उन पर मुकदमा करने की धमकी दे रहे थे, तो उन्होंने ठीक ही कहा था कि, " तरस आता है उस देश पर, जो लेखकों की आत्मा की आवाज को खामोश करता है। तरस आता है, उस देश पर जो इंसाफ की मांग करनेवालों को जेल भेजना चाहता है – जबकि सांप्रदायिक हत्यारे, जनसंहारों के अपराधी, कॉरपोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी और गरीबों के शिकारी खुले घूम रहे हैं।" समस्या यह है कि दुनिया की बड़ी पूंजी की दलाली, सरकारी खजाने की लूट और अपराध-राजनीति गठजोड़ की बदौलत सम्पन्न और सफल लोगों ने देश और देशभक्ति की परिभाषा बदल दी है. सच तो यह है कि ऐसे सबल,सम्पन्न और सफल लोगों की मुखालफत ही आज की सच्ची देशभक्ति है.
मीडिया और बौद्धिकों का एक समूह राज्य को ही राष्ट्र मानता है और राजभक्ति को ही राष्ट्रभक्ति। अरुंधती का बौद्धिक व्यक्तित्व राजभक्ति के इसी फर्जीबाड़े को देशभक्ति के नाम से विख्यात करने में बाधा डालता है. अगर सैन्यबल टार्चर , ह्त्या ,बलात्कार कर रहे हों और आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट के तहत उन पर कोई कार्रवाई न हो पा रही हो , जब पूर्व सेना प्रमुखों सहित ४० बड़े पूर्व सैन्य अधिकारी मुम्बई के हाउज़िंग घोटाले में फंसे हों, जब पुलिस फर्जी एन्काउंटर कर रही हो, अदालतें जनता के खिलाफ व कारपोरेट के पक्ष में निर्णय सुना रही हों, न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भी राजनीतिक कारणों से उन पर महाभियोग न चलाया जा सकता हो, मीडिया पेड़ न्यूज़ से लेकर अंधविश्वास, युद्धोन्माद और साम्प्रदायिकता फैलाने और गरीबों की आवाज़ दबाने पर ,जन-आंदोलनों को बदनाम करने पर कमर कसे हुए हो, तो इन्हीं संस्थाओं को देश मान इनकी भक्ति कैसे की जाए?
मैं माओवाद के बारे में अरुंधती की समझ को पर्याप्त राजनीतिक नहीं पाता. वे उसका दावा भी नहीं करतीं. कश्मीर की आज़ादी को लेकर भी वे जैसी उम्मीद रखती हैं , मैं वैसा उम्मीदवार भी नहीं हूँ. लेकिन कश्मीर के साथ इंसाफ हो, इसकी बाबत उनकी मुहीम से मैं हर-हर्फ़ सहमत होने को बाध्य हूँ. हम महज किसी धर्म,किसी जाति, किसी देश के बाशिंदे ही नहीं हैं , हम सबसे पहले और सबसे अंत में इंसान हैं.
कश्मीर के आन्दोलन का नेतृत्व ८० के दशक तक जे.के.एल.ऍफ़. करता था. वह कश्मीरियत की बात करता था और सेक्युलर था. भारत के भीतर की कई लोकतांत्रिक ताकतों ने उनके नेतृत्व से अपील की थी कि अंतर्राष्ट्रीय शक्ति-संतुलन के मद्देनज़र कश्मीर की जनता की खुदमुख्तारी को यदि वे 'लगभग आज़ादी जैसी' ( भारतीय संघ के भीतर) अधिकतम स्वायत्तता की मांग के रूप में पेश करें तो भारत के भीतर उन्हें समर्थन भी ज़्यादा मिलेगा, दमन करना भी आसांन न होगा, भारत -पाक के शत्रुतापूर्ण संबंधों के संकुचित राजनयिक दायरे से मुक्त कश्मीरी जनता के स्वतंत्र सवाल के रूप में 'लगभग आज़ादी जैसी' अधिकतम स्वायत्तता की बात परिभाषित हो सकेगी. आगे चलकर भारत-पाक-बांग्लादेश के महासंघ या ऐसे ही किसी व्यापक दक्षिण-एशियाई गठबंधन के भीतर कश्मीर शत्रु ताकतों की घेरेबंदी की चिंता से मुक्त अपनी वास्तविक स्वतंत्रता का लाभ कर सकेगा. यदि ऐसा नहीं हुआ तो इस क्षेत्र में अमरीका को बिचौलिया बनने का मौक़ा मिलेगा, कश्मीर भारत-पाक के बीच युद्ध का 'बफर ज़ोन' बनता चला जाएगा, सेक्युलर नेतृत्त्व का दमन होते ही धार्मिक चरमपंथियों के हाथ आन्दोलन का नेतृत्व चला जाएगा और इस बहाने भारत के भीतर भी सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतों को अपनी स्थिति मज़बूत करने का मौक़ा मिलेगा. इतिहास ने काफी कुछ ऐसा ही साबित भी किया. आज कश्मीर की जनता के साथ जो बर्बर व्यवहार भारतीय राजसत्ता कर पा रही है उसके पीछे बाकी के बहुत से कारणों के अलावा कश्मीर के तब के सेक्युलर नेतृत्त्व की अदूरदर्शिता भी एक कारण ज़रूर है. आज स्थिति यह है कि वहां की आम जनता पत्थरों के सहारे अपने खिलाफ किए जा रहे हत्याकांडों का मुकाबला कर रही है. नेतृत्त्व में तरह तरह के रंगबिरंगे और अविश्वसनीय तत्त्व हैं जो खुद तो हथियारबंद और कमोबेश सुरक्षित हैं जबकि जनता निहत्थी है. बहरहाल ये बातें इतिहास और रणनीति की हैं जिनका आधिकारिक हल कश्मीरी अवाम के भीतर से ही आना है.
रही बात अरुंधती के बयान की, तो कोइ भी व्यक्ति भारत सरकार द्वारा १९४८ में जारी जम्मू और कश्मीर संबंधी श्वेतपत्र के उन अंशों को देख सकता है जिसमें प्रधानमंत्री नेहरू लगातार अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों को टेलीग्राम करके आश्वस्त कर रहे हैं कि कश्मीर का फैसला वहां की जनता अंतर्राष्ट्रीय निगरानी में जनमत-संग्रह के ज़रिए करेगी और तब तक कश्मीर का भारत में मिलाया जाना तदर्थ (प्रोविजनल) ही रहेगा। आगे इस मामले में धारा ३७० सहित बहुत कुछ होता रहा जो इतिहास है. अरुंधती के बयान से कोई कितना भी असहमत हो, इतना तो हर कोई मानेगा कि इस मसले का आज तक कोई फैसला नहीं हुआ है और भारतीय गणराज्य में कश्मीर की संवैधानिक स्थिति वह नहीं है जो किसी भी अन्य राज्य की है. अरुंधती ने लिखा है,"मैंने वह कहा, जो यहां दसियों लाख लोग रोज कह रहे हैं। मैंने वही कहा, जो दूसरे लेखक सालों से लिखते और कहते आये हैं। मेरे भाषणों को पढ़ने की जहमत उठानेवाले यह देखेंगे कि मैंने बुनियादी तौर पर इंसाफ की मांग की है। मैंने कश्मीरी लोगों के लिए इंसाफ के बारे में कहा है, जो दुनिया के सबसे क्रूर फौजी कब्‍जे में रह रहे हैं – उन कश्मीरी पंडितों के लिए, जो अपने घरों से उजाड़ दिये जाने की त्रासदी में जी रहे हैं – उन दलित सैनिकों के लिए, कूड़े के ढेर पर बनी जिनकी कब्रों को मैंने कुड्डालोर में उनके गांवों में देखा – भारत के उन गरीबों के लिए जो इस कब्‍जे की कीमत चुकाते हैं और एक बनते जा रहे पुलिस राज के आतंक में जीना सीख रहे हैं।" क्या आपत्तिजनक है इन शब्दों में? ऐसा क्या कह दिया अरुंधती ने?
सिर्फ गुंडागर्दी के बल पर इंसाफ की बात ख़त्म नहीं की जा सकती। संघ परिवार के तमाम कालम-लेखक इस समय अरुंधती की जनम कुंडली खोल कर बैठे हैं .वे बता रहे है कि कैसे जब उनका उपन्यास 'गाड ऑफ़ आफ स्माल थिंग्स' प्रकाशित हुआ था, तभी से वे देशद्रोही हैं क्योंकि उस उपन्यास से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की घृणित मानव -द्रोही, प्रेम-द्रोही जाति-प्रथा-पितृसत्त्ता-राजसत्ता के गठजोड़ का सच उजागर करके उन्होंने देश की किरकिरी की थी, मानो वे ऐसा करनेवाली पहली लेखिका हों. चरित्र-हनन में माहिर ये अखबारनवीस बताते हैं कि बुकर पुरस्कार की धन-राशि के लिए उन्होने यह सब किया, लेकिन ये कभी नहीं बताते कि इस राशि से उन्होंने मदद की तमाम संस्थाओं, पत्रिकाओं और ज़रूरतमंद कार्यकर्ताओं की, अपने लिए नहीं रखा. ऐसे तत्व यह भी लिखते हैं कि वे उपन्यास से पुरस्कार और पुरस्कार से शोहरत पाना चाहती थीं. वे नहीं बताते कि इस शोहरत का उन्होंने क्या इस्तेमाल किया. इस शोहरत का इस्तेमाल उन्होंने दुनिया भर में हक़, मानवाधिकार और इन्साफ के लिए, साम्राज्यवाद और युद्धोन्माद के खिलाफ चलने वाले आंदोलनों के पक्ष में किया है. देश के भीतर हाशिए पर रहनेवाले लोगों के लिए इंसाफ के पक्ष में किया है.शोहरत के इस इस्तेमाल ने उन्हें हुक्मरानों , संसद , सरकार, अदालत, मीडिया और फासीवादी ताकतों ,सबके निशाने पर ला दिया है. आज के भारत पर काबिज़ सत्ताधारियों के लिए अरुंधती बेशक एक ख़तरा हैं, लेकिन उन मेहनतकशों के लिए एक साथिन हैं जिन्हें कभी न कभी खुद देश हो जाना है.

--प्रणय कृष्ण

5 comments:

महेश वर्मा mahesh verma said...

is saaf aur bahadurana lekh ke liye badhai.

उम्मतें said...

सुचिंतित आलेख !

स्वप्नदर्शी said...

ek zaroori lekh. Thanks

Ashok Kumar pandey said...

प्रणय का यह स्पष्ट वक्तव्य एक ज़रूरी हस्तक्षेप है…उनको इस साफ़गोई के लिये सलाम!

भलेराम said...

parcha padhate hue udata hun hawa me,
chakravat-gation me ghoomta hun nabh bhar,
zameen par ek saath sarvatra sachet upasthit.
pratyek sthan par laga hun main kaam me,
pratyek chaurahe,dorahe v rahon ke mod par
sadak par khada hun,
manata hun,manta hun,manvaata ada hun!!