Wednesday, February 22, 2012

आलोक धन्वा की कविताएं


`गोली दागो पोस्टर` `जनता का आदमी`, `कपड़े के जूते` जैसी `उद्दाम आवेग` वाली कविताओं के अप्रतिम कवि* आलोक धन्वा अपनी छोटी कोमल स्वर वाली क्लासिक सी `रेल`, `नींद`, `रात` आदि कविताओं के लिए भी पाठकों के दिलों में बसते आए हैं। एक अपने किस्म का आवेग और प्रेम और चाहतें और एक जरूरी नॉस्टेलजिया और उम्मीदें... उनकी  इन अपेक्षाकृत `शांत` कविताओं में भी भरपूर प्रवाहित होती हैं। कई बार वे हमें धीरे से किसी और दुनिया में ले जाती हैं, जो हमारी अपनी ही थी पर जिससे जुड़ी जिम्मेदारियों से हमने पीछा छुड़ा लिया था और कई बार लगता है कि वे हमें कहीं दूर से हमारी आसपास की संघर्षों भरी पर प्यारी सी दुनिया में वापस ले आए हैं जिससे हम गाफ़िल थे।
यहां दी जा रही कविताएं `शुक्रवार` की साहित्य वार्षिकी में छपी हैं। इनके लिए कवि-संपादक विष्णु नागर का विशेष रूप से आभार।


बच्चे के सोने की कविता

एक नन्हा बच्चा
अपनी मां के स्तनों को
छोटी उंगलियों से पकड़कर
दूध पी रहा है

उस बच्चे के केश
घने और लंबी लटों वाले हैं
ठीक मेरी लटों की तरह

आधी नींद तो बच्चे को
दूध पीते-पीते ही आने लगी
और आधी नींद तब आई
तारों के पथ से
जब उसकी मां ने उसे
अपनी जांघों को जोड़ कर
उस पर उसे पीठ के बल लिटा दिया
फिर उसकी मालिश शुरू की
तेल से

कितने छोटे-छोटे हाथ पैर
अभी ढंग से सीधे भी नहीं
छोटा मुखमंडल
हाथी के बच्चों जैसी आंखें
नींद और मालिश के अतीव सुख से बेसुध

कभी-कभी ही
देख पाता हूं मैं
एक पल के लिए
अपलक!


प्रताप अखबार

कब की डूब गई वह जगह
गहरी रातों में
जहां गणेश शंकर विद्यार्थी
को मारा दंगाइयों ने

बहुत पीछे छूट गया
प्रताप का दफ्तर
जहां भगत सिंह और उनके
साथी आते थे मिलने
उस जमाने के तरुण
स्वाधीनता सेनानी

कि कब होंगे उतने
खूबसूरत हिंदुस्तानी
उतने मानवीय अभिमानी

भारत गूंजता था
जब वह गाते हुए जाते थे
फांसी के तख्ते की ओर

वतन का मतलब उस समय
इतना बड़ा था
काले पानी के रास्तों पर जो चले
और लौटे हमारे बीच फिर
जीवित और गरिमामय

क्या हमारे जीवन में
किसी काम से
रौशन होते हैं हमारे शहीद!



सूर्यास्त

बहुत देर तक सूर्यास्त
लंबी गोधूलि
देर शाम होने तक गोधूलि

एक प्राचीन देश का सुदूर
झुकता हुआ
प्रशांत अंतरिक्ष
मैं बहुत करीब तक जाता हूं

एक महाजाति की स्मृति
मैं बार-बार वापस आऊंगा
दुनिया में मेरे काम
अधूरे पड़े हैं
जैसा कि समय है
कितनी तरह से हमें
निस्संग किया जा रहा है

बहुत बड़ा लाल सूरज
कितना धीरे-धीरे डूबता
विशाल पक्षियों के दुर्लभ
नीड़ उस ओर!


युवा भारत का स्वागत


युवा नागरिकों से
भारत का अहसास
ज्यादा होता है

जिस ओर भी उठती है
मेरी निगाह
सड़कें, रेलें, बसें,
चायखाने और फुटपाथ
लड़के और लड़कियों से
भरे हुए
वे बातें करते रहते हैं
कई भाषाओं में बोलते हैं
कई तरह के संवाद

मैं सुनता हूं
मैं देखता हूं देर तक
घर से बाहर निकलने पर
पहले से अधिक अच्छा
लगता है

कितना लंबा गलियारा है
क्रूरताओं का
जिसे पार करते हुए ये युवा
पहुंच रहे हैं पढ़ाई-लिखाई के बीच

दाखिले के लिए लंबी कतारें लगी हैं
विश्वविद्यालयों में

यह कोई साधारण बात नहीं है
आज के समय में
वे जीवन को जारी रख रहे हैं
एक असंभव होते जा रहे
गणराज्य के विचार
उनसे विचलित हैं

उनकी सड़कें दुनिया भर में
घूमती हैं
वे कहीं भी बसने के लिए
तैयार हैं

यह सिर्फ लालच नहीं है
और न उन्माद
आप पुस्तकालयों में जाइए
और देखिए
इतनी भीड़ युवा पाठकों की

वहां कला होती थी
मैं डालता हूं उनकी भीड़ में
अपने को
मुझे उनसे बार-बार घिर जाना
राहत देता है

आखिर मैं क्या कर
पाऊंगा उनके बिना?


बचपन


क्या किसी को पता है
कि कौन-सा बचपन
सिर्फ उसका बचपन है
उतने बच्चों के साथ
मैं भी एक बच्चा

क्या किसी को पता है
कि बचपन की बेला बीत गई
वे जो पीले नींबू के रंग के सूर्यास्त
जो नानी को याद करो
तो मामी भी वहीं बैठी मिलेगी
और दोनों के
नकबेसर का रंग भी पीला

जो गली से बाहर निकलो
तो खेत ही खेत
किसी में छुपा लेने वाली फसल
कहीं खाली ही खाली

अगर बाएं हाथ की पगडंडियां
दौड़ लो तो
जैतूनी रंग का तालाब
और तालाब के घाट की सीढ़ियां
उतरते  हुए यह महसूस होता
कि खेत ऊंचाई पर हैं
और तालाब का पानी
छूने के लिए आना पड़ता नीचे
बचपन की प्रतिध्वनियां
आती रहीं हर उम्र में
आती रहती हैं

किशोर उम्र की वासनाएं भी
शरीर में कैसी अनुगूंज
बारिश के बुलबुले
और लड़कियों की चमकती आंखें

वह जो छुप-छुप कर
एकांत ढूंढने के लिए छुपना
वह जो एकांत में बनी गरमाहट

हम किशोरों को
उन किशोरियों ने सिखाया
कि खाने-पीने और
लिखने-पढ़ने से अलग भी
एक नैसर्गिक सुख है
जो आजीवन भटकाएगा

उन दिनों दिन हमेशा छोटे
और रातें तो और भी छोटी
पेड़ों के बीच
हमारी पाठशाला
पढ़ने के लिए हमें
बुलाती
कभी हम वहां सिर्फ
खेलने के लिए भी जाते
उसके पास जो
मैदान था
याद करने पर आज भी
बिना कोशिश के याद आता है।
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*मंगलेश डबराल ने एक कार्यक्रम में आलोक धन्वा का जिक्र `उद्दाम आवेग के अप्रतिम कवि` के रूप में किया था।





4 comments:

स्वप्नदर्शी said...

Alok ji ki kavita mein sarasta hai, parantu kathay kii prakharta ab kho gayii hai. apane kathay mein bahut sadharan hai...

Vaishnavi said...

saral kintu marmsprshi kavitai hai,jo ek sadharn pathak ke man mai ghar kar sakti hai.

Pratibha Katiyar said...

आलोक जी को पढना और उन्हें सुनना दोनों अद्भुत अनुभव होता है. कल वो लखनऊ के मेहमान थे. उनसे कवितायेँ सुनीं भी और कीं ढेर सारी बातें..

प्रदीप कांत said...

आलोक जी को पढना ही एक अनोखा अनुभव होता है। धन्यवाद