सुपरिचित कवि-कथाकार संजय कुंदन पिछले दिनों कहानियां और उपन्यास लिखने में (अपनी संज़ीदा पत्रकारिता के अलावा) व्यस्त रहे। साधारण लोगों और अपने समय के संकटों-सरोकारों से नाहक लाउड हुए बगैर मुब्तिला रहने वाली उनकी कविता के पाठकों के लिए खुशखबरी यह है कि `कागज के प्रदेश में` और `चुप्पी का शोर` के बाद अब उनका नया कविता संग्रह `योजनाओं का शहर` जल्दी ही छापेखाने से बाहर आने वाला है। कविता के लिए उन्हें 1998 के भारतभूषण अग्रवाल सम्मान से नवाजा जा चुका है।
मोहल्ले में पानी
एक खबर की तरह था वहां
पानी का आना और जाना
कोई दावे के साथ
नहीं कह सकता था
कि इतने बजे आता है
और इतने बजे चला जाता है पानी
कुछ औरतें पानी को
साधना चाहती थीं
वे हर समय नल की ओर
टकटकी लगाए रहतीं
हर आवाज पर चौंकतीं
एक गौरैया जब खिड़की से कूदती
उन्हें लगता पानी आ गया है
एक कागज खड़खड़ाता
तो लगता यह पानी की पदचाप है
उनकी नींद रह-रहकर उचट जाती थी
कितना अच्छा होता
पानी बता के जाता
-कल मैं पौने सात बजे आऊंगा
या नहीं आऊंगा
कल मैं छुट्टी पर हूं
एक आदमी सुबह-सुबह
टहलता हुआ
पूछता था दूसरे से
पानी आया था आपके यहां
दूसरा जवाब देता-आया था
मैंने भर लिया
तीसरा कहता था चौथे से
-मैं भर नहीं पाया
पर कल जल्दी उठूंगा
भर के रहूंगा
सबसे चुप्पा आदमी भी
अपना मौन तोड़ बैठता था
पानी के कारण
पहली मंजिल पर रहने वाले एक आदमी ने
दूसरी मंजिल के पड़ोसी से
सिर्फ पानी के कारण बात शुरू की
और बातों में रहस्य खुला कि
दोनों एक ही राज्य के एक ही जिले के हैं
लोग मिलते तो लगता
वे नमस्कार की जगह
कहेंगे -पानी
और उसका उत्तर
भी मिलेगा -पानी
पुरानी चीज़ों को बदल लेने का चलन
ज़ोर पर था
जो चीज़ सबसे ज़्यादा
बदली जा रही थी
वह थी आँखें
डर लगा जब सुना कि
मेरे एक पड़ोसी ने लगा ली
एक शिकारी की आँखें
और समझदार कहलाने लगा
हर चौराहे पर लग रही थी हाँक
--बदल लो, बदल लो अपनी आँखें
घूम रहे थे बाज़ार के कारिन्दे
आँखें बदलने के लुभावने प्रस्ताव लेकर
एक विज्ञापन कहता था
आँखें बदलने का मतलब है
सफलता की शुरुआत
इस शोर-शराबे में कठिन हो गया था
उनका जीना जिन्हें अपनी नज़र पर
सबसे ज़्यादा भरोसा था
जो अपनी अँखों में बस
इतनी जोत चाहते थे
कि दिख सके एक मनुष्य
मनुष्य की तरह ।
वे साधारण लोग हैं
जो इतनी छोटी-छोटी लड़ाइयाँ लड़ते हैं
कि हम उन पर चर्चा करना भी
शायद पसन्द न करें
ख़बरों में उनका ज़िक्र तो नामुमकिन है
वे बस में सीट मिल जाने को भी
एक बड़ी सफ़लता मानते हैं
और समय से पहले घर पहुँच जाने को
उत्सव की तरह देखते हैं
विद्वानों, रसिकों !
आप नाराज़ होंगे
कि इतने साधारण तरीक़े से
साधारण लोगों पर कविता लिखने का
क्या मतलब है
मगर उन मामूली लोगों के लिए
कुछ भी नहीं है मामूली
वे समोसे को भी ख़ास चीज़ मानते हैं
और उसके स्वाद पर कई दिनों तक
बात करते रहते हैं
वैसे आप समोसे को मामूली समझने की
भूल न करें
किसी दिन इसी के कारण
गिर सकती है सरकार !
नौकरी-तंत्र
बात पानी बचाने को लेकर हो रही थी/ हंसी बचाने को लेकर हो रही थी/ प्रेम बचाने को लेकर हो रही थी पर असल में सब अपनी नौकरी बचाने पर लगे हुए थे/ नौकरी से बेदखल किए जाने के कई किस्से हवा में उड़ रहे थे/ किसी को भी एक गुलाबी पर्ची थमाई जा सकती थी और बड़े प्यार से कहा जा सकता था कि अब आप हमारे काम के लायक नहीं रहे या आपका व्यवहार आपत्तिजनक पाया गया।
एक आदमी को नौकरी से विदा करते हुए कहा गया कि आप बेहतर इंसान तो हैं पर इस नौकरी के योग्य नहीं/ वह आदमी बहुत पछताया कि आज तक वह बेहतर इंसान बनने पर क्यों लगा हुआ था/ उसने नौकरी के योग्य बनने की कोशिश क्यों नहीं की/ समस्या यह थी कि बेहतर इंसान होने के दावे पर वह अगली कोई नौकरी कैसे पाता।
दो
नौकरी जाने से डरा हुआ एक आदमी दफ्तर से बाहर निकलना ही नहीं चाहता था/ वह खुद को दफ्तर में छोडक़र घर आता था। नौकरी में सफल होने के लिए एक आदमी छोटा बनना चाहता था/ वह इस कवायद में लगा था कि अपने को इतना सिकोड़ ले कि एक पेपरवेट बन जाए या फिर कम्प्यूटर माउस जैसा नजर आए/ हालांकि उसका सपना था आलपिन बनना ताकि अपने अधिकारी के पिन कुशन में अलग से चमकता दिखे।
तीन
एक आदमी अपनी पत्नी से यह छुपाना चाहता था कि उसकी नौकरी जाने वाली है/ इसलिए यह जरूरी था कि वह उदास न दिखे/ उसने उसके लिए एक साड़ी खरीदी और शादी के शुरुआती दिनों के बारे में खूब बातें की और बात-बेबात हंसा/ उसने आज नहीं कहा कि वह बेहद थका हुआ है और उसका सिर घूम रहा है/ बच्चों को टीवी की आवाज कम करने के लिए भी उसने नहीं कहा और रोज की तरह नहीं बड़बड़ाया कि पढ़ोगे-लिखोगे नहीं तो मेरी तरह बन जाओगे/ उलटे वह उनके साथ कैरम खेलने बैठ गया/ उसे अपने इस अभिनय पर हैरत हुई/ फिर उसने सोचा कि अगर इसी तरह थोड़ा अभिनय उसने दफ्तर में रोज किया होता तो नौकरी जाने की नौबत ही नहीं आती।
चार
एक भूतपूर्व क्रांतिकारी मिमियाकर बात कर रहा था एक विदूषक के सामने और दासता के पक्ष में कुछ सुंदर वाक्य रचता था/ एक दिन भूतपूïर्व क्रांतिकारी ने विदूषक को मेज पर रेंगकर दिखाया/ फिर बाहर निकलकर उसने अपने दोस्तों से कहा- भाई क्या करूं नौकरी का सवाल है। कुछ विदूषक शाम में जमा होते और जाम टकराते हुए जोर-जोर से हंसते हुए कहते -हा, हा इस बुरे दौर में भी हम अधिकारी हैं/ हा हा, हम बर्बाद नहीं हुए/ हमारी अब भी ऊंची तनख्वाह है/ हा हा हम चाहें तो किसी को मुर्गा बना दें/ किसी को भी नौकरी से निकाल दें/ कोई हमें विदूषक कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा।
सचमुच विदूषकों को कोई विदूषक नहीं कह रहा था/ दलाल को कोई दलाल नहीं कहता था/ यह विदूषक और दलाल तय कर रहे थे कि उन्हें क्या कहा जाए/ विदूषकों और दलालों के पास इतने कर्मचारी थे कि वे जोर-जोर से चिल्लाकर उन्हें कभी कुछ तो कभी कुछ साबित करते रहते/ उनके शोर में दब जाती थी दूसरी आवाजें।
पांच
एक दलाल को अहिंसा का सबसे बड़ा पुजारी बताने वाला एक चर्चित समाजशास्त्री था और एक विदूषक को नायक घोषित करने वाला एक उदीयमान कलाकार/ पर चूंकि उन्होंने नौकरी करते हुए ये घोषणाएं की थीं इसलिए वे इसके लिए शर्मिंदा नहीं थे/ बल्कि उन्होंने इस बात को गर्व से कहा कि वे अपने पेशेवर जीवन को अपने निजी जीवन से अलग रखते हैं। अपने निजी जीवन में दलालों और विदूषकों के बारे में उन्होंने क्या राय व्यक्त की, यह किसी को पता नहीं चल सका
छह
एक अधिकारी ने एक लडक़ा और लडक़ी को नौकरी से निकालने के बाद महसूस किया कि अरे! वह तो ईश्वर है, उसने आदम और हव्वा को स्वर्ग से निकाल दिया/ यह सोचने के बाद वह देवताओं जैसी हरकत करने लगा। एक नौजवान बार-बार कहता था कि जीवन में सच की कुछ तो जगह हो, उसने संकल्प किया कि दफ्तर के बाहर वह जरूर सच बोलेगा/ लेकिन सच बोलने का न समय मिल पा रहा था न मौका/ एकाध बार अवसर मिला भी तो कुछ लोगों ने नौकरी जाने के डर से उसके सच को सच नहीं माना।
आठ
बुजुर्ग कह रहे थे- जमाना खराब है, मीठा बोलो सबसे बनाकर रहो/ जाओ एक उठाईगीर को नमस्ते करके आओ/ एक हत्यारे की तारीफ का कोई बहाना खोजो/ कोई भी बन सकता है तुम्हारा नियंता/ कल किसी से भी मांगनी पड़ सकती है नौकरी। सरकार बार-बार घोषणा कर रही थी कि घबराओ मत/ नौकरियां हैं/ करोड़ों नौकरियां आने वाली हैं/ सरकार खुद भी दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह की नौकरी करती थी और कई बार एक टांग पर खड़ी हो जाती थी तानाशाह के कहने पर।
लेकिन उनके लिए जिंदगी ही नौकरी थी
एक स्त्री अपने को पत्नी मान रही थी पर एक दिन उसे बताया गया कि वह तो एक कर्मचारी है/ पति उसे जो खाना-कपड़ा लत्ता वगैरह दे रहा है उसे वह अपनी तनख्वाह समझे/ हद तो तब हो गई जब एक दिन उसके बेटे ने भी यही कहा कि वह अपने को एक वेतनभोगी से ज्यादा कुछ न समझे/ यह भी अजीब नौकरी थी, जिसमें इस्तीफा देने तक की इजाजत नहीं थी और सेवानिवृत्ति मौत के बाद ही संभव थी।
बहुत से लोग पुरखों की नौकरी कर रहे थे/ वे अपने कंधों पर खड़ाऊं लादे हुए कुछ सूक्तियों को दोहराते हुए चले जा रहे थे/ वे इतने योग्य कर्मचारी थे कि उन्होंने कभी यह सवाल ही नहीं किया कि उनसे यह क्या काम लिया जा रहा है/ उन्होंने तो अपने वेतन और तरक्की के बारे में भी कभी कुछ नहीं पूछा।
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4 comments:
is samay ke bheetar se bani hui kavita... vyangya aur vichaar ke saath anokha shilp.... mujhe chahiye iskee ek prati dheeresh da....
ankhein ho manushya ka jaise..
अच्छी कवितायेँ हैं भाई!
बहुत बढ़िया कविताएं, मोहल्ले में पानी और नौकरी ख़ास पसंद आई। नौकरी तो जैसे अपने पर ही लिख दी गई हो, कभी हम भी सोचेंगे काश ऐसे अभिनय ही कर लिया होता, या फिर यही सोच लेंगे कि हम ऐसे ही ठहरे...
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