करीब दो बरस पहले यह टिप्पणी लिखी गई थी।
एक स्थानीय आयोजन से प्रेरित। बहरहाल।एक-दो वाक्यों में संपादन के साथ यह यहॉं है।
साहित्यिक आयोजनों का अजैण्डा
साहित्य संबंधी आयोजनों को मोटे-मोटे दो वर्गीकरणों में देखा जा सकता है।
1.स्पष्ट कार्यसूची (अजैण्डे) के साथ आयोजन। 2.बिना कार्यसूची के साथ आयोजन।
पहले वर्ग में, किसी विचारधारा विशेष, जैसे वामविचार को केंद्र में रखकर, उसके अंतर्गत कुछ अभीष्ट या उद्देश्य बनाकर आयोजन किए जाते हैं। उनके इरादे, घोषणाएँ, प्रवृत्ति और पक्षधरता को साफ पहचाना जा सकता है। वहाँ साहित्य संबंधी एक दृष्टि, विचार सरणी होती है और कुछ साहित्यिक मापदण्ड और समझ के औजार भी उस दृष्टि और सरणी से निसृत होकर सामने रहते हैं। तत्संबंधी नयी चुनौतियाँ भी। विचारधाराओं से प्रेरित तमाम लेखक संगठनों के आयोजन इसी वर्ग में रखे जाएँगे। और वे भी आयोजन भी, जो वाम-विचारधारा विरोधी साहित्यिकों या संस्थाओं द्वारा संभव होते हैं।
लेकिन इन सभी का अजैण्डा असंदिग्ध रूप से जाहिर होता है। सार्वजनिक। उनके उद्देश्य स्पष्ट होते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, पूर्व में ‘परिमल’ के आयोजन और इधर अस्तित्व में आईं अनेक सांस्कृतिक दक्षिणपंथी संस्थाओं के कार्यक्रम, जिनकी वामविरोधी राजनीति स्पष्ट है। प्रायः इस तरह की संस्थाओं या संगठनों में औपचारिक/अनौपचारिक सदस्यता होती है और वे अपनी प्रतिबद्धताओं के लिए जवाबदेह होते हैं। इस वर्ग के ये कुछ उदाहरण हैं।
दूसरे वर्ग में मुख्यतः निजी महत्वाकांक्षाएँ, व्यक्तिगत यशकामना और/या व्यावसायिक समझ के साथ किए जानेवाले आयोजन हैं। वे किसी सामूहिक जनचेतना, व्यापक विचार या विचारधारा से प्रेरित नहीं होते। इसलिए कभी-कभार उनमें विभिन्न विचारधाराओं के लेखक भी, निजी कारणों से, एक साथ सक्रिय दीख सकते हैं। इनके एक, दो, दस आयोजनों को विश्लेषित कर लें तब भी कुछ हाथ नहीं आएगा। सिवाय इसके कि व्यक्तिगत वर्चस्व, नेतृत्व कामना के लिए, प्रकाशकीय लोभ-लाभ के लिए, पत्रिका की लांचिंग या प्रचार हेतु अथवा निजी धाक जमाने के लिए, पब्लिक रिलेशनशिप के लिए इनका आयोजन हुआ।
जब तक कोई ‘धन या अधिकार संपन्न व्यक्ति’, व्यवसायी या संक्षिप्त समूह इसके पीछे काम करता है, तब तक ये आयोजन होते हैं और फिर सिरे से गायब हो जाते हैं। फिर उनकी उतनी गूँज भी बाकी नहीं रहती जितनी एक छोटे से अंधे कुएँ में आवाज लगाने से होती है। उसका ऐतिहासिक महत्व तो दूर, उसकी किंचित उपलब्धि भी अल्प समय के बाद ही, कोई नहीं बता सकता। संक्षेप में कहें तो इनकी नियति एक ‘क्लब’ में बदल जाती है जहाँ साहित्य को लेकर, रचनाधर्मिता के संदर्भ में कोई ऐसी बात संभव नहीं जिसे गहन सर्जनात्मकता एवं बड़े विमर्श तक ले जाया जा सके। आयोजन के बाद उसे विचार की किसी परंपरा से जोड़ा जा सके। किसी आंदोलन के हिस्से की तरह उसे देखा जा सके या उस संदर्भ में नयी पीढ़ी को शिक्षित अथवा उत्प्रेरित किया जा सके।
ऐसे आयोजन, एक तरह के अवकाश को भरने या बोरियत दूर करने, साथ मिलजुलकर बैठने की इच्छा या समकालीनता में इस तरह ही सही, अपना नाम दर्ज कराने की सहज-सरल आकांक्षा, ध्यानाकर्षण की योजना अथवा समानांतर सत्ता संरचना की कामना से भी प्रेरित होते हैं और कई बार इस प्रतिवाद से भी कि उन्हें अपेक्षित रूप से स्वीकार नहीं मिला है। या उन्हें कमतर समझा गया है। या यह कि उन्हें और, और, और, और, और जगह चाहिए। लेकिन इनका जो भी आयोजक होगा, उसकी महत्वाकांक्षाओं या इरादों को समझा जा सकता है। हालॉंकि सतह पर तैरती चतुराई के कारण उनके वास्तविक उद्देश्य स्पष्ट होने में किंचित समय भी लग सकता है।
लेकिन एक बात यहाँ सबसे महत्वपूर्ण होती हैः वह यह कि इनका कोई घोषित अजैण्डा नहीं होता। या इनकी कोई कार्यसूची होती भी है तो उससे साहित्य या जीवन, (याद करें मुक्तिबोध का महान वाक्यः ‘जीवन विवेक ही साहित्य विवेक है।’) के प्रति, किसी भी विचारधारा और दृष्किोण से संबंध नहीं बैठाया जा सकता। इसलिए ऐसे आयोजन एक मिलन समारोह, पर्यटन, सामूहिक दस्तरखान के सुख, आनंददायी तस्वीरों और अन्य मधुर स्मृतियों में ही न्यून हो जाते हैं। इन्हें अन्य द्वारा वित्तपोषित ‘साहित्यिक किटी पार्टियों’ की तरह भी देखा जा सकता है।
एक अन्य उपवर्ग उन संस्थानों का बनता है जिनके पास शासकीय या गैरशासकीय स्त्रोतों से बजट है और वे उस बजट को खपाने के लिए, अपने संस्थान की क्रियाशीलता को बनाए रखने के लिए तमाम आयोजन करने को विवश हैं। प्रायः, जब तक कि संप्रति सरकारों का दबाब न हो, उनका किसी विचारधारा विशेष के प्रति विरोध या समर्थन नहीं होता। वहाँ कोई भा आ-जा सकता है और उनसे लाभ लिया जा सकता है। उसमें भागीदारी से किसी को कोई उज्र या ऐतराज नहीं होता, जब तक कि कुछ विचारधारात्मक सवालों से मुठभेड़ न हो। आकाशवाणी, दूरदर्शन, साहित्य अकादमियाँ, हिंदी उन्नयन संस्थाएँ आदि इसके उदाहरण हैं। इन संस्थाओं के पास भी, साहित्य को लेकर कोई विशिष्ट औचित्य या दृष्टि नहीं होती, सिवाय इस महान वाक्य के कि ‘वे साहित्य और रचनाकारों की सेवा कर रहे हैं और उनका जन्म बस यही करने के लिए हुआ है।’
बहरहाल, यदि पहले वर्ग के आयोजनों में किसी के द्वारा शिरकत की जा रही है तो वह खास तरह के वैचारिक अजैण्डा की जानकारी के साथ, उसके प्रति सहमति, प्रतिबद्धता या उत्सुकता से की जाएगी। और दूसरे वर्ग के आयोजन में शिरकत की जा रही है तो वह मूलतः मौज मस्ती, मेल-मिलाप, उत्सवधर्मिता और संबंधवाद के लिए। लेकिन प्रकारांतर से इस तरह लोग जाने-अनजाने किसी की महत्वाकांक्षा या छिपे हुए निजी अजैण्डा के सहभागी हो जाते हैं। और कई बार तो कृतज्ञ भी। जाहिर है कि शिरकत करते हुए तमाम लोग निजी रूप से निर्णय लेते हैं, अपना चुनाव करते हैं लेकिन फिर लाजिमी है कि वे जलसा उपरांत कुछ विचार भी करें। मसलन यह, कि आखिर क्या वे इन चीजों का वाकई हिस्सा होते रहना चाहते हैं!
ऐसा भी हो सकता है कि किसी आयोजन में विभिन्न विचारधाराओं से प्रेरित या विचारधाराहीन (??) लेखकों का जमावड़ा कराया जाए, उनके बीच मुठभेड़ कराई जाए और फिर उसे आयोजनकर्ता दिलचस्पी से देखें, अपनी स्पॉन्सरशिप का भरपूर आनंद उठाएँ। इसका कुछ विचारणीय पक्ष शायद तब भी हो सकता है कि जब वे कुछ गंभीर सवालों को खड़ा करें, उन्हें सूचीबद्ध करें, बताएँ कि ये महत्वपूर्ण निष्पत्तियाँ हैं, इन पर व्यापक विमर्श हो। इसलिए अपेक्षित होगा कि ये आयोजनकर्ता, औपचारिक तौर पर बताएँ कि इससे उनके किन उद्देश्यों की पूर्ति होती है और आगे भी इस तरह की ‘कांग्रेस’ करते रहने के पीछे उनकी क्या राजनीति, योजना, मंशा और आकांक्षा है। और इसे व्यापक करने की क्या रणनीति है।
निजी तौर पर यों मौज-मस्ती और हो-हल्ले का विरोधी नहीं हूँ लेकिन यह शायद आग्रह या दुराग्रह हो कि मैं हर उस आयोजन के समर्थन में आसानी से हूँ जिसका अजैण्डा जाहिर हो। भले ही, उनका वह आयोजकीय प्रयास असफल सिद्ध हो। कि मैं तत्संबंधी उद्देश्यों और आकांक्षाओं को पहले समझ तो लूँ। यानी फिर वही अमर सवालः ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’
पिछले कुछ वर्षों से यदि अजैण्डा आधारित आयोजन, विचारधारा संपन्न कार्यक्रम प्रचुरता से नहीं हो पा रहे हैं तो तमाम वामपंथी कहे और समझे जानेवाले लेखकों के लिए इसका अर्थ या विकल्प कदापि यह नहीं हो सकता कि अजैण्डाविहीन, मौजमस्ती मूलक आयोजनों में अपने को गर्क किया जाए।
और यह भी याद कर लेना यहाँ अप्रासंगिक न होगा कि दीर्घकालीन दृष्टि और किसी अजैण्डे के साथ काम करने से ही संगठन और संस्थाएँ बनती हैं। विमर्श आग्रगामी होता है। अजैण्डाविहीन ढ़ंग से काम करने से ‘गुट’ बनते हैं। भावुक, आभारी बनानेवाली, सी-सा मित्रताएँ बनती हैं। और इन्हीं सबके बीच आत्मतोषी रचनापाठ, कुछ आत्मीय विवाद, वैचारिक-उत्तेजनाविहीन कलह और आमोद-प्रमोद होता है। और यह किसी साहित्यिक आयोजन का अजैण्डा हो नहीं सकता।
इसलिए ऐसे आयोजनों को जब किसी उतावलेपन में, उत्साह में या अनुग्रहीत अनुभव करते हुए साहित्यिक उपलब्धि की तरह प्रचारित किया जाता है अथवा उस तरह से पेश करने की कोशिश की जाती है, इन आयोजनों के लिए फिर-फिर आकांक्षा प्रकट की जाती है तो कुछ सवाल नए सिरे से उठते हैं।
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(मैंने अपने प्रिय कवि-विचारक कुमार अम्बुज का यह लेख उनके ब्लॉग से साभार लिया है। मुझे लगताहै कि उन्होंने बड़ी ईमानदारी, गंभीरता और साफगोई के साथ जो बातें की हैं, उन पर व्यक्तिगत विवादों से ऊपर उठकर विचार किए जाने की जरूरत है। )
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