हमारे बेहद पिछडे समाज में अरसे पहले राधामोहन गोकुल, भगत सिंह, राहुल आदि नेताओं, बुद्धिजीवियों ने कट्टरताओं, अंधविश्वासों, लीचड़ मान्यताओं, सामंतवाद, जातिवाद, साम्राज्यवाद, बराबरी आदि मुद्दों पर समग्र रूप से मुखर मोर्चे लिए थे। टुकडों-टुकडों में अलग-अलग मसलों पर भी मोर्चे लिए गए और इन सभी को तब के पुरातनपंथी कथित बुद्धिजीविओं के भरी विरोध का सामना करना पड़ा था. दुर्भाग्य से आज का बुद्धीजीवी मामूली रिस्क उठाने को भी तैयार नहीं है और कल के नवजागरण विरोधी पुरातनपंथी भारतेंदु सरीखों के वंशजों के आगे घुटने टिका रहे हैं. असद जैदी जैसे लेखक-कवि जब सच को सामने रखते हैं, तो धूर्त हमले किए जाते हैं. उन पर निजी हमले कर रहे एक ब्लॉग मोहल्ला ने उनके जनसत्ता के सती विषयक रूख पर आलोचना के रवैये को भी ग़लत ठहराने की कोशिश की है और आधे-अधूरे ढंग से यह साबित करना चाह ही की जनसत्ता तब सती विरोध का चैम्पियन था. हकीकत यह है कि दिवराला कांड को लेकर इस अखबार ने कट्टर सम्पादकीय तक लिखे थे और उसकी थू-थू भी हुई थी. इस बारे में १० अक्टूबर १९८७ को सरला महेश्वरी का एक लेख कहीं छापा था, जो अब उनकी किताब `नारी प्रश्न`` में संगृहीत है, इसकी बानगी देता है. ब्लॉग संचालक को चाहिए ४ सितम्बर87 दिवराला कांड के बाद के अक्टूबर ८७ तक के जनसत्ता के समाद्कीय सामने रखें. जो एक समाद्कीय दिया गया है, वो भी बहुत बाद का है और जिस एक पत्रकार के साहस से यह छाप पाया था, उसे भी संपादक और उनके लग्गो-भग्गो (जो आज भी वहां ताकतवर हैं) का गुस्सा झेलना पड़ा था. खैर आप सरला महेश्वरी का इस बारे में लेख एक जिद्दी धुन पर पढ़ सकते हैं...
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रूपकँवर प्रकरण में कुछ ख़ास किस्म के कलमघसीटू पोंगापंथियों ने अपने को बुरी तरह बेनकाब किया है. यद्यपि इन मामलों में वे काफी बढ़-चढ़ कर आदर्शों की बात करते हैं और ख़ुद के बारे में उनका इतना दावा है कि `जो आग से खेलते हैं उनके दिमाग में भूसा और हाथ में काठ की तलवार नहीं होती`. लेकिन हम इतना अवश्य कहेंगे कि जिनके दिमाग में भूसा और हाथ में काठ की तलवार नहीं होती, जरुरी नहीं कि वे अच्छे इंसान भी हों।
हमारा संकेत यहाँ बिल्कुल स्पष्ट है. पिछले दिनों जब इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप पर केन्द्रीय सरकार ने बदले की भावना से छपे मारे थे, तब जनसत्ता दैनिक के संपादक प्रभाष जोशी ने `दिमाग में भूसा और हाथ में काठ की तलवार` की बात कही थी. लेकिन उस घटना के चंद दिनों बाद ही दिवराला के रूपकँवर हत्याकांड ने उनके दिमाग की उस कुटिलता को अवश्य जाहिर कर दिया जो हर कर्मकांडी का जन्मजात गुन होता है।
लगभग १५० वर्ष पहले राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ जबरदस्त शास्त्रार्थ करके इस घिनौनी प्रथा को शास्त्र सम्मत बताने की सारी संभावनाओं को समाप्त कर दिया था; परम्परा के नाम पर बर्बरता को अपनाने के तर्कों की धज्जियाँ उडा दी थीं. लेकिन, जो बहुत अधिक बौद्धिक बनते हैं, जो समाज और जनता के हित की क़समें खाते नहीं थकते, ऐसे लोग जब डेढ़ सौ बरसों बाद फ़िर ख़ुद को राममोहन के वक्त के कर्मकांडी घोंघा-बसंतों की कोटि में रखने में कोई हिचक नहीं दिखाते, तो इसे कुटिलता के सिवाय और क्या कहा जाएगा, क्योंकि इसके पीछे उनका सिर्फ़ यही विश्वास काम कर रहा होता है कि लोगों ने अब तक राममोहन के कामों को विस्मृत कर दिया है तथा आज अब `राम जन्मभूमि मुक्ति` युग का सूत्रपात हो गया है; उन्हें आदिम हिंस्र बर्बरता सिर्फ़ इसलिए कबूल क्योंकि हजारों लाखों लोगों की अंधश्रद्धा उसके पीछे है. कबीर ने ऐसे ही कलमघसीटुओं को देखकर शायद कहा होगा - `पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। `
रूपकँवर को सती बनाकर मार क्या डाला गया, प्रभाष जोशी की तो बांछें खिल गयीं. तत्काल जनसत्ता का एक सम्पादकीय आया - अंगरेजी पढ़े लिखे लोग इसकी महानता को कत्तई नहीं समझ सकेंगे. ``यह तो एक समाज के धार्मिक और सामाजिक विश्वासों का मामला है.`` इतिहास में पहले भी एक बार अंग्रेजी शिक्षा के असर वालों तथा ईसाई धर्म के प्रचारकों ने ``भारत के धर्म और परम्परा को बदनाम करने की कोशिश की.`` सतीप्रथा पर विचार किया जाए, लेकिन इसका अधिकार उन्हीं को है जो भारत के आम लोगों की आस्था और मान्यताओं को जानते समझाते हैं।
यह सब सतीप्रथा की नग्न वकालत नहीं तो और क्या है? शास्त्र इनकी नज़र में वही है जो सैकडों हज़ार वर्ष पहले देववाणी में कहा गया हो. विगत २०० वर्षों के बीच भारतीय चिंतन में जो नए विकास हुए हैं, राजा राममोहन राय से लेकर अन्य तमाम मनीषियों तथा प्रेमचंद तक ने हमारी मनीषा को जो कुछ दिया है, क्या वह सब किसी शास्त्र या जनता की आस्था के रूप में अपना कोई स्थान नहीं रखते? शास्त्रों की ऐसी जड़ व्याख्या किसी भी सच्चे वेदांती और तर्कशास्त्री को भी सचमुच स्तब्ध कर देगी!कुछ जनवादी महिलाओं ने जब महिला हत्या के ऐसे नग्न समर्थक को आदे हाथों लिया, तब प्रभाष जोशी ने अजीब ढंग से कलाबाजियां शुरू कर दी. तब उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया की सिर्फ़ बातों से क्या होगा, क्यों नहीं वे महिलाएं लाखों उन्मत्त लोगों के मुकाबले के लिए दिवराला में उसी वक्त मैदान में उतरीं. पैंतरा बदल कर अपनी सफाई में उन्होंने लिखा ``समस्या की पेंचीदगी और गंभीरता बताने के लिए ही हमने उसे धार्मिक और सामजिक विश्वासों का मामला बताया. अगर ऐसा न होता तो रूपकँवर के चून्दडी समारोह में लाखों लोग न उमड़ पड़ते.`` -जनसत्ता, २० सितम्बर
(यह अभी अधूरा है, इसे कल तक पूरा पढ़ सकते हैं )
6 comments:
बहुत सही लिखा था सरला जी ने... आपका बहुत-बहुत शुक्रिया जिद्दी धुन।
oh, thanks, cheejen saaf karne ke liye.
so gaye dasta.n kahte-kahte..second part kaha.n hai
mujhe pahchana..sd inter college?
gurudaspur hoon..
josh to hai par time naheen hai. hum samajh gaye aapki kathinaee.
Harsha
गडा मुर्दा उखाडना था तो अच्छी तरह उखाडते। जनसत्ता का ये मुर्दा आधा जमीन में है और आधा ऊपर। इस का ठीक से उद्धार करो न भाई।
आपकी बातें कुबूल हैं लेकिन इरादा गड़े-मुरदे उखाड़ने का कतई नहीं है, केवल झूठ को सच बना देने की साजिश से अवगत कराने की कोशिश है। बार-बार की बीमारी परेशान कर देती है, इसिलए इतनी तेजी से पोस्ट नहीं कर पा रहा हूं. एक-दो दिन में पूरा कर दूंगा इसे. माफी की दरकार है.
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