Monday, March 2, 2009

सुदीप बनर्जी की ग़ैरहाज़िरी -असद ज़ैदी

कवि, विचारक, योजनाकार और जन-सेवक सुदीप बनर्जी (1946–2009) पिछले कुछसमय से मौत के घेरे में थे. बड़ी हिम्मत और ज़ब्त के साथ उन्होंने अपनीबीमारी – कैंसर – का सामना किया. उनके जाने से बहुत सी जगहों में एकसूनापन पैदा हुआ है जो एक लंबे अरसे तक बना रहेगा. वह ऐसे मित्र नहीं थेजिन्हें आप भूले रहें. जिनसे उनकी मुलाक़ात कम-कम होती थी – और ऐसे लोगहज़ारों में हैं – उनके यहाँ भी उनकी मौजूदगी का अहसास हमेशा बना रहताथा. दोस्ताना पैदा कराने का उनका ख़ामोश अंदाज़ और शरीफ़ाना तरीक़े सेलोगों के दिल और दिमाग़ में एक हस्तक्षेपकारी रोल हासिल कर लेना उन्हेंआता था. तमाम उम्र उन्होंने इस हुनर को माँजा. इससे उनकी बुनियादी फ़ितरतऔर इंसानी महत्वाकांक्षा का पता चलता है. वह इस बात की इजाज़त नहीं देतेकि आप उन्हें एक नेक और दर्दमंद इंसान के अलावा किसी और रूप में यादकरें.

वह अपने कैरियर की शुरूआत से ही से भारतीय प्रशासनिक सेवा के एकअवाम-दोस्त अफ़सर के रूप में मशहूर होने लगे थे. जैसे जैसे वक़्त बिगड़तागया और भारतीय राजनीति पर दक्षिणपन्थी साये गहराने लगे और सिविल सर्विसनेहरू-युगीन परम्पराओं को लात मारकर तत्परता से एक आत्मकेंद्रित, भ्रष्टऔर जन-विमुख संस्थान में बदलने लगी, सुदीप जैसे अफ़सर की यह अवाम-दोस्तशोहरत ज़्यादा पुख्ता और जोखिम-भरी होती गयी. नौकरशाही हलक़ों मेंवामपंथी के रूप में उनकी ख्याति दरअसल एक दुधारी तलवार थी और लोगों कोपहले ही से आगाह करने का ज़रिया थी. इस स्थिति ने सुदीप को बहुत सावधानआदमी तो बनाया, पर उनका ईमान कभी नहीं बदला.

वह मूलतः उन संकल्पों के प्रति वफ़ादार रहे जिनके साथ आज़ाद हिन्दुस्तानने अपना लोकतांत्रिक-संवैधानिक सफ़र शुरू किया. वह हमेशा स्थापित नियमोंकी अधिकतम प्रगतिशील और जनहितकारी व्याख्या की गुंजाइश निकालते रहते थे. आजहालत यह है कि कोई इतना न करे, बस हुकूमत और अफ़सरशाही निज़ाम केनियम-क़ायदों के भीतर रहते हुए जन-हित में काम कर दे तो ऐसे अफ़सर कोतत्काल फ़रिश्ते का दर्जा हासिल हो जाता है. सुदीप के ऊपर फ़रिश्ता होनेके अलावा एक साधारण, विनम्र और अच्छे इंसान होने का भार भी था. इस दोहरेभार को लिए हुए ही वह विदा हुए हैं.
अपने प्रशासनिक जीवन के पहले हिस्से में उन्हों ने मध्यप्रदेश मेंआदिवासी और ग़रीब जनों के कल्याण की जो योजनाएं बनाईं और क्रियान्वितकिया वे आज भी याद की जाती हैं. मसलन मध्यप्रदेश की तेंदू-पत्ता नीति औरस्लम-निवासियों को आवासीय पट्टे दिलाने में उनकी भूमिका. भोपाल गैस काण्डके लिए ज़िम्मेदार अमरीकी कंपनी यूनियन कार्बाइड को घेरने और उसकेख़िलाफ़ पक्के सबूत मुहैया कराने में सुदीप का हाथ था. शायद बहुत लोगोंको यह मालूम न हो कि अर्जुन सिंह के राज्यपाल वाले कार्यकाल के दौरानपंजाब समझौते (राजीव-लोंगोवाल समझौते) का आधार तैयार करने वाले अधिकारीसुदीप ही थे. उन्हीं ने मध्यप्रदेश में मलखान सिंह और फूलन देवी कोआत्मसमर्पण के लिए राज़ी किया था. अपने कैरियर के उत्तरार्ध में उन्होंनेशिक्षा के क्षेत्र में यादगार काम किए. राष्ट्रीय साक्षरता मिशन केमहानिदेशक के रूप में उन्होंने साक्षरता अभियान में जान डालने, इसेव्यापक बनाने और बुद्धिजीवी वर्ग को – लेखकों, फ़िल्मकारों औरसमाज-विज्ञानियों को – इसमें खींचकर लाने का काम किया. बाद में जब वहउच्च-शिक्षा सचिव बने तो कई ऐसे क़दम उठाए जिनका महत्त्व आने वाले वक़्तमें साफ़ हो जाएगा. दिल्ली का जामिया मिल्लिया अगर आज एक ज़्यादा जीवंत,रौशन और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है या होता नज़र आता है तो इसका मुख्यश्रेय सुदीप बनर्जी को ही जाना चाहिए.

सुदीप को शायद ही कभी फुरसत देखने को मिली हो. उनके असमय निधन का एकमार्मिक पहलू यह भी है कि अपनी बीमारी के आख़िरी दौर में उनका ध्यान शायदपहली बार इतनी शिद्दत के साथ जीवन की मामूली खुशियों और छोटे छोटे शग़लोंकी तरफ़ जाने लगा था. बड़े अरमान के साथ एक रोज़ अचानक बोले कि अगरसिर्फ़ पलुस्कर (शास्त्रीय गायक दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर) को सुनने केलिए एक जीवन जीना पड़े तो वह जीना सार्थक और काफ़ी होगा. उनके कमरे मेंएक सी डी प्लेअर रखा था जो उनका बेटा गौरव किसी वक़्त अपने लिए लायाहोगा. अब वह बाजा काम न करता था. मेरे और मंगलेश डबराल के आग्रह परउन्होंने किसी को बुलाकर उस बाजे को सुधरवाया और कुछ दिन तक उसपर संगीतसुना. शायद अब्दुल करीम खां को सुनते रहे. कुछ दिन तक चलने के बाद वहबाजा फिर ख़राब हो गया. तब तक वह ख़ुद भी इतने बीमार हो गए थे कि कि कुछऔर करने की हालत में नहीं रह गए थे.

उन्हें आभास था कि उनकी बीमारी आसानी से जाएगी नहीं, और शायद घातक हीहोगी. तीन चार महीने पहले आल इंडिया इन्स्टिट्यूट के प्राइवेट वार्ड मेंमैं उनसे मिलने गया. वह बहुत कमज़ोर हो गए थे और एक ख़ाके या रेखाचित्रकी तरह लग रहे थे. कहा कि मैं तो खुशक़िस्मत हूँ कि यहाँ हूँ, और इतनीअच्छी देख-भाल हो रही है, अपनी ज़िंदगी को लंबा खींचने की कोशिश कर सकताहूँ. ज़्यादातर लोग तो दवा-इलाज की पहली स्टेज पर ही हार जाते हैं,उन्हें तो संसाधनों की कमी ही मार डालती है. राजकीय सेवा में होने की वजहसे मुझे यह सब मयस्सर है. फिर इस ज़िक्र से थक कर बोले: बताओ क्या ख़बरहै? दोस्त लोग क्या कर रहे हैं? मैंने सोचा कि हो सकता है इस हालत मेंउन्हें यह बताने की किसी को सूझी न हो इसलिए मैं ही बता दूँ : किज्ञानरंजन ने 'पहल' को बंद करने का ऐलान कर दिया है. उन्होंने कहा :अरे...! फिर बोले : कहीं शरारत में तो नहीं कह रहे हो? मैंने कहा : काशऐसा ही होता! कुछ देर बाद बोले : अभी मेरी साँस चढ़ी हुई है, बाद में शामको या कल ज्ञान को फ़ोन करूंगा. वह ऐसा नहीं करें. मेरी बात मान जाएँगे.कुछ दिन बाद बताया कि उन्होंने दो-तीन बार कोशिश की, एक बार नंबर मिल भीगया पर ख़ाली घंटी जाती रही, किसी ने उठाया नहीं.

सुदीप को वह सामान्य जीवन मयस्सर नहीं हुआ जिसमें आदमी कुछ काम करता है,कुछ ठाला बैठता है, बे-इरादा टाइमपास, कुछ मटरगश्ती, कुछ अनियोजितमनोरंजन और फ़ालतू मेल-जोल वग़ैरा करता है, जिसमें फ़राइज़ को पूरा करनेका बोझ भी होता है और उनसे फ़रार की ख़्वाहिश भी और जिसमें डिस्ट्रैकशनभरे होते हैं. जो फ़ुरसत उन्हें मिलती भी, जिसमें वह मित्र-मिलन औरपुर-लुत्फ़ गुफ़्तगू में गुज़ारना चाहते तो भी पूरी तरह नहीं गुज़ार सकतेथे – या तो देश-समाज की बात निकल आती थी, या मित्र लोग अपनी समस्याएँ औरबदनसीबियाँ बताने लगते, और सुदीप अपने स्वभाव के मुताबिक़ उन समस्याओं काहल सोचने लगते. रही सही कसर उनका साहित्य-प्रेम पूरा कर देता था. इसप्रकार सुदीप ने एक भरा पूरा जीवन जिया – काम, ज़िम्मेदारी और उपलब्धिसे भरा जीवन, और हज़ारों लोगों का उन्हें प्यार मिला. पर एक दूसरे जीवन,मामूली जीवन, और उसके हर्ष और विषाद को उन्होंने अपने मित्रों, परिचितोंके जीवन के आईने में ही देखा. उसको जीने का वक़्त उन्हें नहीं मिला.

उनकी कविता की अपनी जगह है. चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, विनोद कुमारशुक्ल, लीलाधर जगूड़ी और ऋतुराज के बाद और आलोकधन्वा, मंगलेश डबराल सेपहले के अंतराल के सबसे अच्छे हिन्दी कवि निःसंदेह सुदीप ही हैं. पर तमामशोहरे और इज़्ज़त के बावुजूद सुदीप समकालीन हिन्दी कविता के सबसेउपेक्षित और अल्पज्ञात कवियों में हैं. मुझे याद नहीं आता कि मैंने उनकेकृतित्व पर कोई अच्छी समीक्षा, आलेख या टिप्पणी पढ़ी हो. सुदीप ऐसे अकेलेकवि नहीं हैं. (हमारे सामने के लोगों में यह क़िस्सा बहुत से संजीदाकवियों के साथ घटित हुआ है.) पर यह हमारी साहित्यिक अंतरात्मा को खटकनेवाली बात ज़रूर है. यह एक मिथ है कि सुदीप की अपनी कविता के प्रतिनिस्संगता ही इसका एक कारण है. वह बहुत गहरे ढंग से अपने लेखन से, ख़ासकरकविता से, लगाव रखते थे, और उसे लेकर चिंतित भी रहते थे. वह साहित्य-समाजकी उदासीनता और ख़ामोशी से मायूस भी होते थे. कविता लिखकर उसे छपाने,मित्रों को सुनाने और व्यापक पाठक समाज की राय जानने की व्यग्रता उनमेंबहुत थी. अब सुदीप चले गए हैं तो हमारी यह ज़िम्मेदारी है कि उनकेकृतित्व का खुले दिमाग़ से आकलन करें.
--असद ज़ैदी
बी-957 पालम विहार, गुड़गाँव 122017
फ़ोन 09868126587
(श्री सुदीप बनर्जी का निधन १० फरवरी २००९ को हुआ था. स्वास्थ्य कारणों से इन दिनों केरल में होने की वजह से मुझे यह खबर नहीं मिल सकी. फोन पर श्री असद ज़ैदी से इस बारे में पता चला. उन्होंने अनुरोध करने पर अपनी यह टिप्पणी भी मेल कर दी जो तत्काल श्रद्धांजलि के रूप में 'आज समाज' के लिए लिखी गयी थी. - धीरेश)

9 comments:

Udan Tashtari said...

श्रद्धांजलि

Unknown said...

बड़ी मार्मिक टिपण्णी है, सुदीप बनर्जी का ही नहीं बल्कि हिंदी समाज की मौत की भी खबर देती है. अशोक वाजपेयी जैसे अफसर होना अच्छा कि बेकार कविता भी दाद पाए. सुदीप जी की कवितायें भी दें.

Anonymous said...

अरे ! यह तो बहुत बुरा हुआ. अब सुदीप जी नहीं है !

डॉ .अनुराग said...

दुखद है ...बेहद दुखद ..

Ashok Pande said...

ज़रूरी पोस्ट! दिवंगत को नमन. उनकी एकाध कविताएं लगी होतीं तो शायद और अच्छा लगता.

बहरहाल शुक्रिया धीरेश भाई!

विजय गौड़ said...

kuch kahoon to yahi ki unki kavitain padhne ka man tha.

Arun Aditya said...

सुदीप जी का जाना हमारे कुटिल समय से एक प्रतिबद्ध और साहसी आवाज का कम हो जाना है। इंदौर में देवताले जी के घर पर उनसे दो-तीन मुलाकाते हुई थीं।अन्तिम मुलाक़ात करीब दो साल पहले भोपाल में अरेरा कालोनी में एक छोटी सी गोष्ठी में हुई थी, जहाँ हमने साथ-साथ कविता पढ़ी थी। अब वे अपनी रचनाओं में जिन्दा रहेंगे।

ravindra vyas said...

shayad maine sudeepji ke kavya sangrah ki samiksha poorvgrah men padhi thi , ise prabhat tripathi ne likhi thi>
main unhen apni shradhhanjali arpit kerta hoon.

Nakul said...

khuda bakse, bahut khoobiyan thi marne wale me. Hum sirf marne walo ki ijjat karne ke aadi hai