Thursday, March 26, 2009

पर यह वही दुनिया है : असद ज़ैदी


आज से तीस पैंतीस साल पहले के वक़्त को याद करते हुए लगता है कि वो कोई और ही दौर था. बार बार ध्यान बदलाव पर ही जाता है, निरंतरता पर नहीं. मन भी नैरन्तर्य को, बहाव को स्वीकार करने का नहीं होता, सिर्फ़ खंडित यथार्थ का ही हम रोना रोते रहते हैं. लेकिन अक़्ल जानती है कि यह सही नहीं है. जैसे सत्तर के दशक में यह अकल्पनीय था कि दुनिया एकध्रुवीय हो जाएगी, और समाजवादी विश्व -- सोवियत संघ, चीन, पूर्वी यूरोप, विएतनाम, उत्तरी कोरिया और कई देशों की अर्धसमाजवादी व्यवस्थाएं -- अपने दुश्मनों की कल्पनाओं के परे जाकर इतनी जल्दी टूटकर बिखर जाएंगी. क्यूबा एक अपवाद की तरह खडा रहेगा, समाजवादी विश्व के विघटन के बीस साल बाद भी.
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पर आज हम कुछ और ही हाल देख रहे हैं. विश्व पूंजीवाद चारों दिशाओं में जयघोष करने के बाद आज ख़ुद अपने ही पैदा किए ज़लज़लों की चपेट में है, यह उन्हीं पिछले हादसों का नतीजा है. समाजवादी विकल्प के कमज़ोर पड़ने और हालिया तौर पर ध्वस्त होने के बाद अमरीकी और पश्चिमी दुनिया को लगा कि अब दुनिया पूंजीवाद के लिए 'सेफ़' है : विकसित देशों की पूंजीवादी सरकारों ने एक एक करके वे सब कल्याणकारी नीतियाँ त्याग दीं जो समाजवादी विश्व से प्रतियोगिता के कारण उन्हें अपनानी पड़ीं थीं. अब पूंजीवाद बिना रंग रोगन के, बिना 'मानवीय चेहरे' के धड़ल्ले से राज कर सकता है. पिछले बीस सालों के आर्थिक 'नव-उदारवाद' और ग्लोबलाइज़ेशन ने जिस लूटमार और बर्बरता की शुरूआत की है वह इतिहास में बेमिसाल है.
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विश्व अर्थव्यवस्था एक ऐसे संकट में फँस गयी है कि बहुत जल्दी ग़रीब और निम्न मध्यवर्ग के लोगों को खाने के लाले पड़ जाएंगे. पीने तक का पानी दूभर हो जाएगा, आम बीमारियों का इलाज करना सबके लिए सम्भव न रह जाएगा, आम
सार्वजनिक सुविधाएं भी पैसे देने पर ही उपलब्ध होंगी. हमारा इतना बड़ा हिंदुस्तान देश एक पिद्दी और असुरक्षित से खित्ते की तरह अमरीका और इस्राइल जैसे देशों की सस्ती दलाली पर उतर आया है. यह भी पूंजी की इस बेलगाम और विचाररहीन 'प्रगति' का ही अंजाम है.
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'नव-उदारीकरण' के घोड़े पर बैठे हिन्दुस्तानी शासक वर्ग को इस का भी तजरुबा नहीं है कि पूंजीवाद की चरम अराजकता को कैसे सम्भाला जाए. हिन्दुस्तान में बहुत जगह ऐसी हालत आ रही है कि ज़मीन के चप्पे चप्पे का निजीकरण हो रहा है, बैठने के लिए जगह और चलने के लिए फ़ुटपाथ तक ग़ायब होते जा रहे हैं. पूरे मुल्क पर बस दस-पन्द्रह प्रतिशत लोगों का क़ब्ज़ा हो रहा है : ज़मीन, पानी, हवा, खनिज संपदा हर चीज़ बस इन्हीं चुने हुए लोगों के लिए है, बाक़ी लोग तो जैसे ग़ैर-ज़रूरी आबादी का हिस्सा हैं! लोकतंत्र एक एलीटिस्ट निज़ाम -- भद्रलोक-तंत्र -- में बदलकर रह गया है. अवाम का डर अब किसी को नहीं रहा. एक जन-बहुल देश में पूंजीवाद और व्यक्तिवाद की ऐसी शक्ल अंत में भयानक गृहयुद्ध , नरसंहार और फ़ासिज़्म की ही भूमिका बना सकती है. कई बार लगता है कि वह वक़्त भी आ ही गया.
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आज यह भी साफ़ है कि सत्तर के दशक में जो उम्मीदें और आरज़ुएं उभरी थीं, और हार-जीत का जो सिलसिला राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बना था, उससे लोगों के मन में आशा-निराशा के साथ साथ अगला क़दम उठाने, अपने को सही करने का जज़्बा पैदा होता था, न कि अपनी कार्यसूची को फेंक कर बैठ जाने और अपने को हालात के हवाले कर देने का. वियतनाम में अमरीका की शिकस्त ने एक पीढ़ी को साम्राज्यवाद-विरोध में दीक्षित किया, भारत में इंदिरा गांधी के आपातकालीन शासन ने राजनीतिक मदरसे का ही काम किया. इससे पहले बिहार आन्दोलन, रेल हड़ताल, नक्सलबाड़ी आन्दोलन ने मुल्क की
अंतरात्मा को झकझोरा था. इस दौर में अवाम ने अपनी ताक़त का इस्तेमाल किया, लगा कि जनशक्ति ही आने वाले भारत की कार्यसूची तय करेगी.
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सत्तर के दशक में जवान हुए लोगों की ट्रेजेडी यही है कि उनमें से बहुत से लोग लड़े थे, उन्होंने बड़े सपने देखे थे, फिर उनमें से कुछ सिस्टम में जज़्ब हो गए, उसकी खाद बन गए, बाक़ी का अधिकांश क्रिकेट की भाषा में कहें तो 'रिटायर्ड हर्ट', यानी थक कर या चोट खाकर बैठ गया. उनके पास अगली पीढ़ी से कहने के लिए कुछ नहीं था. अगली पीढ़ी ने भी उनसे कुछ नहीं लिया, अगर लिया भी तो उत्तरकालीन अवसरवाद.
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हिन्दुस्तान में आज फासिस्ट ताक़तें सार्वजनिक जीवन में जगह बना चुकी हैं और हर तरफ़ दनदनाती फिरती हैं. यह पिछले दौरों की राजनीतिक और सामाजिक अदूरदार्शिताओं और हमारे लोकतांत्रिक निज़ाम के लंगड़ेपन का नतीजा हैं. कौन कह सकता है कि साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर स्वर्गीय संजय गांधी की राजनीतिक वारिस नहीं हैं. इतिहास, या कहिये कि समय, पहले के अनदेखे सूत्रों को स्पष्टता से दिखा देता है. हर तरफ़ दलालों और सटोरियों की बन आई है. विचार, राजनीति, संस्कृति और मीडिया के क्षेत्र भी इन से मुक्त नहीं हैं, बल्कि कुछ मामलों में तो पहल इन्हीं की तरफ़ से होती है.
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जो लोग पिछली सदी के सातवें और आठवें दशक में राजनीतिक और वैचारिक स्तर पर सक्रिय थे उनके लिए आज के ज़माने में जीना एक शर्म के साथ जीना है (मैं उन मोटी खाल वाले बेशर्मों का ज़िक्र नहीं करता जो हर युग में मस्ती से जीना सीख लेते हैं). यहाँ तक कि वे संगठन, आन्दोलन और राजनीतिक तंजीमें जो बदलाव का परचम लेकर चलती थीं आज अपने ही अतीत से मुंह फेरे खड़ी हैं या हताश हैं, व्यक्तियों की तो बात ही क्या. पर ऐसा नहीं है कि आशा के सारे स्रोत सूख गए हैं. ये स्रोत आज के सामाजिक और नैतिक कबाड़ के बीच ही दबे हुए हैं. पूंजीवादी समाज की अपनी उथल पुथल इन स्रोतों का
रास्ता दिखा देगी. यह मेरा अक़ीदा है और इसकी जांच भी फ़ौरन हो जाएगी कि भारतीय राज्य बहुत जल्द ही – फ़ौरन से पेश्तर – अमरीकी साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिक फ़ासीवाद पर अपनी निर्भरता की महँगी क़ीमत चुकाएगा. व्यापक
अवामी प्रतिरोध ही मुल्क को उस गड्ढे से निकाल पाएगा. देखना यह है कि क्या आज बाएँ बाजू के जो संगठन मौजूद हैं वे इस प्रक्रिया को संभाल पाएंगे!
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मैं अपनी ही पीढ़ी की बात करूँ. मेरी सब से बड़ी मायूसी इस बात से है कि बहुत से प्रगतिकामी लोग, प्रतिरोध की राजनीति में विश्वास रखने वाले लोग, भी दौलत, सत्ता और ताक़त के केन्द्रों से अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकते. वे पता नहीं क्यों एक प्रकार की हीनता और नाकामी के अहसास के साथ जीते हैं, जैसे प्रतिरोध और संघर्ष से बने अपने अतीत को लेकर शर्मसार हों या भूलना चाहते हों. अपनी जिन बातों पर उन्हें गर्व करना चाहिए उन्हें छिपाते फिरते हैं. ऐसे लोग एक दोहरी यातना में जीते हैं, क्योंकि वे अपनी उपलब्धियों को बड़े सस्ते में लुटा दे रहे हैं. उनका सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि वे आने वाले लोगों के लिए प्रेरणा बनने में असफल हैं.
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(यह "आज समाज" अखबार के 'यह दशक–वह दशक' नाम के स्तम्भ के लिए लिखा गया था, और जनवरी में किसी तारीख को छपा था.)
इसी ब्लॉग पर यह पुरानी पोस्ट भी देखें -
`बहनें और अन्य कविताएं` की भूमिका

9 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

इस आलेख का अन्तिम पैरा बहुत निराशा पैदा करता है। या तो हम इस रास्ते को ही असफल मान लें। या फिर उन कारणों की तलाश करें जिन से प्रगति को आगे बढ़ाया जा सकता है। मुझे नहीं लगता कि यह लोगों के प्रयासों की कमी का नतीजा है। मुझे लगता है कि यह प्रयासों की दिशा सही न होने के कारण है। दिशा तो तलाश करनी होगी।

anurag vats said...

itne saaf aur nirbhrant dhang se sirf asadji hi kah sakte hain...mujhe bataur lekhak unka naitik samrthya bal deta hai...

महेन said...

धीरेश भाई मुझे तो यह लगता है कि साम्राज्यवाद अपनी शक्ल बदलकर मौजूद है और हमें पूँजीवाद की ऐसी खाद बना रहा है जो वैचारिक रूप से कुपोषित है.

Unknown said...

and the big question is ----
देखना यह है कि क्या आज बाएँ बाजू के जो संगठन मौजूद हैं वे इस प्रक्रिया को संभाल पाएंगे!
ise ap nirasha kah sakte hain. lekin sach se kab tak munh chura sakte hain?

Unknown said...

असद जी की बात से हम सहमत हों या असहमत रहें पर उनका प्रोज़ पढ़कर अच्छा लगता है. उनको बात कहना आता है. वह अपना दृष्टिकोण ऐसे आकर्षक ढंग से रखते हैं कि सहमत होने को मन करने लगता है. पता नहीं असद जी क्यों कविता ही ज़्यादा लिखते हैं! सुनील

Unknown said...

asad ji ka gadya hamesha bahut enlightening & maarmik hota hai. unki kisi bhi utkrishta kavita ke hi samkaksha ! bahut-bahut aabhaar !
-----pankaj chaturvedi
kanpur

Anonymous said...

...ऐसा नहीं है कि आशा के सारे स्रोत सूख गए हैं. ये स्रोत आज के सामाजिक और नैतिक कबाड़ के बीच ही दबे हुए हैं. पूंजीवादी समाज की अपनी उथल पुथल इन स्रोतों का रास्ता दिखा देगी...
Lekh bahut maarmik aur saargarbhit hai. Asad jee se ek jigyaasaa hai. Vah yah nahin bata rahe ki ye aashaa shrot kaun se hain. Kyaa vah is mahatvpoorn bindu ko pathakon kee samajh par chhod rahen hain? Ya khud unko bhi sankoch hai ki kyaa kahen? Ashutosh

sushilnayal said...

यदि हम अमेरिका की बात करे, तो धीरेश जी क्या आपको नहीं लगता की वहां साम्यवाद आ रहा हैं, क्योकि US Govt. साभी बड़ी कम्पनियों को खरीद रहीं हैं, जो घाटे में चार रहीं हैं. जिन का वहां की अर्थ वयवस्था को चलने में बड़ा हाथ होता था.

दीपा पाठक said...

बढिया विश्लेषण, खास तौर पर आपने जो अपनी मायूसी का सबब बयान किया है। कभी प्रगतिकामी, प्रतिरोध की राजनीति में विश्वास रखने वाले कुछ नहीं बल्कि कई सारे लोगों के मौजूदा तौर-तरीके सचमुच अजीब सी दयनीयता से भरे लगते हैं तो हताश करते हैं।