असद ज़ैदी अक्सर कुछ खरी बातें कर देते हैं और भाई लोग खफा भी हो जाते हैं। इस बार उन्होने अपनी पुरानी किताब बहनें और अन्य कविताएँ के पुनर्प्रकाशन के मौक़े पर दो शब्द लिखें हैं और गाफिल आलोचकों पर भी कुछ फ़रमाया है। वैसे इस जरूरी गुस्ताखी के अलावा भी हाल के दौर के हादसों पर कवि की चिंता सभी बेकल लोगों की चिंता है-
`.......1980 से पहले के समय, सत्तर के दशक के उत्तर भारतीय समाज और राजनीति के साये में ये कविताएँ लिखी गयी थीं। बहुत-से हादसे तब तक नहीं हुए थे और आज जो दौर ताबूत में पड़ा-सा नज़र आता है, उस वक़्त जिंदा और चलता-फिरता था। लिखते और सोचते हुए जिन लोगों के चेहरे सामने रहते थे, वे कभी के ओझल हो चुके हैं, और जो जीवित भी हैं, उनमें से कुछ से मिलते हुए, बकौल कवि मनमोहन- कैसा शर्मनाक समय है/ जीवित मित्र मिलता है/ तो उससे ज्यादा उसकी स्मृति/ उपस्थित रहती है/ और स्मृति के प्रति/ बची-खुची कृतज्ञता।
जहाँ तक साहित्य और संस्कृति की बात है, उस दौर के कवि और थे, लेखक और। महज़ उस दौर के आलोचक आज भी वैसे ही हैं। हिन्दी आलोचना की मुख्यधारा न सिर्फ जीवन से बल्कि मरण से भी परे है।
जिस दौर में ये कविताएँ लिखी और पढी गयीं तब के हालात और सूरतों की झलक ज़रूर इन कविताओँ में मिलेगी - शायद तब से ज्यादा अब, जोकि एक स्वाभाविक बात है। पर मेरे अनेक समकालीनों को तब इनमें हताशा और पलायन - बल्कि हताशा की ओर पलायन - की प्रवृत्ति नज़र आयी थी। चूंकि मैं कुछ सवभाव से और कुछ परिस्थिति के दबाव से काफी पहले से, बिना जाने, अंतोनियो ग्राम्शी के खेमे में जा पड़ा (पैसिमिज़्म ऑफ़ द इन्टेलेक्ट, ओप्टिमिज्म ऑफ़ द विल, यानी बुद्धिजन्य नैराश्य -इछाशक्तिजन्य आशावाद ) और वहाँ से निकलने की कोई राह मुझे नहीं मिली। इसलिए मुझे इसमें कोई बुराई भी न दिखी। पर सच यह है कि इन कविताओं पर आज नज़र डालता हूँ तो इनमें मौजूद नाराज़ ऊर्जा और रूहानी वलवले और उससे पैदा मासूम आशावाद को देखकर झेंपता हूँ। क्योंकि है इस दरम्यान वह हिन्दुस्तान ही गायब हो गया है जिसमें लड़ते-मरते-झींकते हम जवानी का दौर पार कर रहे थे। उस वक़्त कतई अंदाज़ नहीं था कि हम अचानक एक नए लेकिन नितांत अमौलिक और उबाऊ दौर में ला पटके जायेंगे।
हिंदुस्तान के इतिहास में आज हम एक वीभत्स लेकिन लचर, रक्तरंजित लेकिन उत्सवधर्मी और नंगे लेकिन गाफिल युग में प्रवेश कर चुके हैं। हमारे मध्यवर्ग का विशालतर हिस्सा अब अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी कारखाने के फुर्तीले पर संवेदनहीन पुर्जे की तरह काम कर रह है। समाज और इतिहास के प्रति अज्ञान पहले से बढ़ा है - एक जोशीला अज्ञान जो राजनीतिज्ञ और व्यापारी, अफसर और पेशेवर, शिक्षक, पत्रकार और बौद्धिक सबके बीच एक नयी परिणिति तक पहुंच चुका है। यह एक गुणात्मक परिवर्तन है। उन्नीस सौ सत्तर के दशक में ( और अस्सी के शुरुआती सालों में ) संभावनाएं कुछ और ही दिखा करती थीं। मध्यम वर्ग का बेशतर हिस्सा जनता ही का - इस मुल्क के अवामुन्नास का - हिस्सा था, और ख़ुद को वैसा समझता भी था। मध्यवित्त, निम्न-मध्यवर्ग, सर्वहारा, समता, जनवाद, आन्दोलनधर्मिता, मजदूर, किसान, भूमिहीन इन कोटियों की सामाजिक और नैतिक अर्थवत्ता बुद्धिजीवियों और लेखक के मन में स्पष्ट थी - ये यथार्थ की स्वीकार्य श्रेणियां थीं। पढे-लिखे लोग तमाम विषमता और सामाजिक कटुता, मोहभंग और आशावाद, जीविकोपार्जन और राजनीतिक प्रतिरोध के बीच डोलते हुए भी अपने समाज को लेकर चिंतित और सक्रिय पाए जाते थे। यह संग्रह इसी गुज़रे वक्त को - जैसा भी था - समर्पित है।
जनवरी, 2008 -असद ज़ैदी
`.......1980 से पहले के समय, सत्तर के दशक के उत्तर भारतीय समाज और राजनीति के साये में ये कविताएँ लिखी गयी थीं। बहुत-से हादसे तब तक नहीं हुए थे और आज जो दौर ताबूत में पड़ा-सा नज़र आता है, उस वक़्त जिंदा और चलता-फिरता था। लिखते और सोचते हुए जिन लोगों के चेहरे सामने रहते थे, वे कभी के ओझल हो चुके हैं, और जो जीवित भी हैं, उनमें से कुछ से मिलते हुए, बकौल कवि मनमोहन- कैसा शर्मनाक समय है/ जीवित मित्र मिलता है/ तो उससे ज्यादा उसकी स्मृति/ उपस्थित रहती है/ और स्मृति के प्रति/ बची-खुची कृतज्ञता।
जहाँ तक साहित्य और संस्कृति की बात है, उस दौर के कवि और थे, लेखक और। महज़ उस दौर के आलोचक आज भी वैसे ही हैं। हिन्दी आलोचना की मुख्यधारा न सिर्फ जीवन से बल्कि मरण से भी परे है।
जिस दौर में ये कविताएँ लिखी और पढी गयीं तब के हालात और सूरतों की झलक ज़रूर इन कविताओँ में मिलेगी - शायद तब से ज्यादा अब, जोकि एक स्वाभाविक बात है। पर मेरे अनेक समकालीनों को तब इनमें हताशा और पलायन - बल्कि हताशा की ओर पलायन - की प्रवृत्ति नज़र आयी थी। चूंकि मैं कुछ सवभाव से और कुछ परिस्थिति के दबाव से काफी पहले से, बिना जाने, अंतोनियो ग्राम्शी के खेमे में जा पड़ा (पैसिमिज़्म ऑफ़ द इन्टेलेक्ट, ओप्टिमिज्म ऑफ़ द विल, यानी बुद्धिजन्य नैराश्य -इछाशक्तिजन्य आशावाद ) और वहाँ से निकलने की कोई राह मुझे नहीं मिली। इसलिए मुझे इसमें कोई बुराई भी न दिखी। पर सच यह है कि इन कविताओं पर आज नज़र डालता हूँ तो इनमें मौजूद नाराज़ ऊर्जा और रूहानी वलवले और उससे पैदा मासूम आशावाद को देखकर झेंपता हूँ। क्योंकि है इस दरम्यान वह हिन्दुस्तान ही गायब हो गया है जिसमें लड़ते-मरते-झींकते हम जवानी का दौर पार कर रहे थे। उस वक़्त कतई अंदाज़ नहीं था कि हम अचानक एक नए लेकिन नितांत अमौलिक और उबाऊ दौर में ला पटके जायेंगे।
हिंदुस्तान के इतिहास में आज हम एक वीभत्स लेकिन लचर, रक्तरंजित लेकिन उत्सवधर्मी और नंगे लेकिन गाफिल युग में प्रवेश कर चुके हैं। हमारे मध्यवर्ग का विशालतर हिस्सा अब अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी कारखाने के फुर्तीले पर संवेदनहीन पुर्जे की तरह काम कर रह है। समाज और इतिहास के प्रति अज्ञान पहले से बढ़ा है - एक जोशीला अज्ञान जो राजनीतिज्ञ और व्यापारी, अफसर और पेशेवर, शिक्षक, पत्रकार और बौद्धिक सबके बीच एक नयी परिणिति तक पहुंच चुका है। यह एक गुणात्मक परिवर्तन है। उन्नीस सौ सत्तर के दशक में ( और अस्सी के शुरुआती सालों में ) संभावनाएं कुछ और ही दिखा करती थीं। मध्यम वर्ग का बेशतर हिस्सा जनता ही का - इस मुल्क के अवामुन्नास का - हिस्सा था, और ख़ुद को वैसा समझता भी था। मध्यवित्त, निम्न-मध्यवर्ग, सर्वहारा, समता, जनवाद, आन्दोलनधर्मिता, मजदूर, किसान, भूमिहीन इन कोटियों की सामाजिक और नैतिक अर्थवत्ता बुद्धिजीवियों और लेखक के मन में स्पष्ट थी - ये यथार्थ की स्वीकार्य श्रेणियां थीं। पढे-लिखे लोग तमाम विषमता और सामाजिक कटुता, मोहभंग और आशावाद, जीविकोपार्जन और राजनीतिक प्रतिरोध के बीच डोलते हुए भी अपने समाज को लेकर चिंतित और सक्रिय पाए जाते थे। यह संग्रह इसी गुज़रे वक्त को - जैसा भी था - समर्पित है।
जनवरी, 2008 -असद ज़ैदी
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