फिर सितम्बर आ गया। हिन्दुस्तान को आज़ाद हुए अभी पन्द्रह दिन न बीते थे कि दिल्ली में मार-धाड़ शुरू हो गई। मकानों, दुकानों और गली-कूचों में लहराते हुए तिरंगे झंडे अभी मैले भी न हो पाए थे कि उन पर खून की छींटें पड़ने लगीं। गड़बड़ी, बदमनी, दंगे-फसादों का एक सैलाब था जो पंजाब से चला आ रहा था। उसमें दिल्ली, मसूरी और देहरादून सब गर्क हो गए थे। कहते हैं, एक बार महफ़िल में हिन्दू-मुस्लिम फसाद का जिक्र हो रहा था। किसी ने कहा, फसादों की गंगा तो सारे हिन्दुस्तान में बह रही है। बापू हँसे और बोले- मगर उसकी गंगोतरी तो पंजाब में है। और सचमुच गंगोतरी वहीं से निकली। टेलीफोन गायब, डाक बंद, रेलें बंद, पुल टूटे हुए और इंसान थे कि कीड़े-मकोड़ों की तरह सड़कों पर, गलियों और मैदानों में रेंग रहे थे, मर रहे थे, कुचले जा रहे थे, लूटे जा रहे थे। लेकिन भगदड़ थी कि खुदा की पनाह! इधर से उधर खुदा की बेअवाज लाठी उनको हंका रही थी। मार-काट का इतना बड़ा तूफ़ान शायद ही कभी हिन्दुस्तान के इतिहास में आया हो। सुनती हूँ, बखते-नसर* यरूशलम की आबादी को गुलाम बनाकर बाबुल ले आया था। हजरत मूसा चालीस हजार यहूदियों को लेकर मिस्र से निकल गए थे। करताजना वाले जिस मुल्क को फतह करते थे उसके बाशिंदों को गुलाम बनाकर ले जाते थे और उनसे ईंट पथवाते थे। हिन्दुस्तान में भी महाभारत जैसी बड़ी जंग हुई और फिर नादिरशाह ने भी तीन दिन दिल्ली में कत्लेआम किया था। मगर ये तो सब पुरानी कहानियां थीं। तब तो एक सूबा और एक जिला भी मुल्क कहलाता था। कितना ही जुल्म होता, दस-बीस हजार से ज्यादा आदमी न मरते होंगे. लेकिन यह जो कुछ हमारी आँखों ने सामने हुआ है, दुनिया में शुरू से आज तक कहीं न हुआ होगा।
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(यह छोटा सा टुकड़ा एक महान किताब `आज़ादी की छांव से` लिया गया है. दरअसल यह किताब नहीं है बल्कि हिन्दुस्तान को आज़ादी के साथ मिली बदनसीबी की दास्तां है जो बेगम अनीस किदवई ने अपने लहू के आंसुओं से बयां की है। फिरकापरस्ती की आग ने खुद उनके घर को जला डाला पर वे गांधी के उसूलों में यकीन रखते हुए सेवा कार्यों में जुटी रहीं। इस दौरान देश के बड़े नेता और अफसर किस तरह इस आग को भड़काने में मशगूल थे और इंसानियत किस तरह तार-तार हो रही थी, उसकी सच्ची और दिल दहला देने वाली तस्वीरें इस किताब में हैं।)
1 comment:
Is pustak ki yad dilane ke shukriya. Ladakpan men ise padhte huye kai bar aankhen nam hue thi. ajadi hj pahli kitab yahi padhi thi. ek shar aaj bhi yad hai..
kisi ke munh se n nikla mere dafn ke vakt
ki enape khak n dalo ye hain nahaye huye.
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