जनांदोलनों और मानवाधिकारों पर क्रूर दमन ढानेवाली छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा १० व ११ जुलाई को प्रायोजित 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान" कार्यक्रम में बहुतेरे वाम, प्रगतिशील और जनवादी लेखकों, संस्कृतिकर्मियों ने शिरकत की। वहीं कुछ ही दिनों पहले हिंदी के अप्रतिम कथाकार उदय प्रकाश उन भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ से सम्मानित हो आए जिनका नाम और संगठन यानी हिंदू युवा वाहिनी गोरखपुर से बहराइच तक के क्षेत्र को अल्पसंख्यकों के लिए दूसरा गुजरात बना देने का सपना पाले हुए है।
छत्तीसगढ़ में प्रमोद वर्मा की स्मृति को जीवित रखने के लिए किए जाने वाले किसी भी आयोजन या पुरस्कार से शायद ही किसी कि ऎतराज़ हो, लेकिन जिस तरह छ्त्तीसगढ के पुलिस महानिदेशक के नेतृत्व में इस कार्यक्रम को प्रायोजित किया गया, जिस तरह छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने इसका उदघाटन किया, शिक्षा और संस्कृतिमंत्री बृजमॊहन अग्रवाल भी अतिथि रहे और राज्यपाल के हाथों पुरस्कार बंटवाया गया, वह साफ़ बतलाता है कि यह कार्यक्रम एक साज़िशाना तरीके से एक खास समय में वाम, प्रगतिशील और लोकतांत्रिक संस्कृतिकर्मियों के अपने पक्ष में इस्तेमाल के लिए आयोजित था। कई साहित्यकारों को इस आयोजन के स्वरूप की जानकारी ही नहीं थी। वे तो स्व. प्रमोद वर्मा की स्मृति को सम्मान देने आए थे। लेकिन वहां उन्होंने पाया कि प्रमोद वर्मा की स्मृति का शासकीय अपहरण किया जा चुका है। मुख्यमंत्री बुलाए गए हैं जो विचारधारा से मुक्त होकर लिखने का उपदेश दे रहे हैं, मार्क्सवाद को अप्रासंगिक बता रहे हैं और लोकतंत्र का पाठ पढ़ा रहे हैं। कई लोगों का नाम कार्ड मे बगैर उनकी स्वीकृति के छापा गया। कार्ड पर मुख्यमंत्री, राज्यपाल आदि के पहुंचने की कोई सूचना नहीं छापी गयी। आखिर क्यों? कई लोग स्वीकृति देने के बाद भी नहीं आए, तो शायद इसलिए कि उन्हें इसका अनुमान हो गया होगा। आश्चर्य है कि श्री आशोक वाजपेई ने अपने कालम 'कभी कभार' में ऎसे लोगों को यह तोहमत दी है कि वे राज्यहिंसा के विरोध में नहीं आए, जबकि माऒवादी हिंसा इन की निगाह में 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति' की तर्ज़ पर आलोचना के काबिल नहीं है। श्री वाजपेई को बताना चाहिए था कि स्वीकृति देकर न आनेवालों में कौन से ऎसे लोग थे, जिन्होंने माओवादी हिंसा को उचित ठहराया हो। क्या उनमे से कोई माओवादी मंचों पर गया? यदि नहीं, तो राजसत्ता के साथ मंच का साझा करने का दबाव उनपर अशोकजी क्यों डालना चाहते हैं?
दरअसल छ्त्तीसगढ़ वह राज्य है जहां हर जनांदोलन या व्यक्तियों का भॊ माओवादी बताकर 'छत्तीसगढ़ पब्लिक सिक्योरिटी ऎक्ट' जैसे काले कानूनों के ज़रिए दमन किया जाता रहा है। एक फ़र्ज़ी एनकाउन्टर में कुछ आदिवासी जब माओवादी बताकर मारे गए, तो पी. यू. सी. एल. के राज्य सचिव और मानवतावादी चिकित्सक बिनायकसेन ने कहा कि मारे गए लोग सामान्य आदिवासी थे और उनका माओवाद से कोई संबंध नहीं था। इसके बाद ही उन्हें माओवादी बताकर दो साल जेल में डाला गया, फ़र्ज़ी गवाह और साक्ष्य जुटाए गए, हालांकि हाल ही में सर्वोच्च न्यायलय ने उन्हें ज़मानत दे दी। यह छत्तीसगढ़ राज्य ही है जहां के खनिजों, जल, जंगल और ज़मीन की कार्पोरेट लूट के लिए सरकार ने खुली सुविधा मुहैया कराई हुई है और जब आदिवासी अपनी ज़मीन और आजीविका को बचाने का संघर्ष चलाते हैं, तो माओवाद के नाम पर उनका दमन किया जाता है। राज्यप्रायोजित सलवा जुडुम जैसी सेनाएं आदिवासियों को जंगल और ज़मीन से खदेड़कर कारपोरेट अधिग्रहण और दोहन का रास्ता साफ़ कर रही हैं। हिमांशु जैसे गांधीवादी का दंतेवाड़ा में आश्रम पुलिस ने ढहा दिया क्योंकि ७९% आदिवासी जनसंख्या वाले इस इलाके में वे आदिवासियों का कथित रूप से पुनर्वास कर रहे थे। अजय टी.जी. एक फ़िल्मकार हैं और उन्हें भी माओवादी बताकर सताया गया। छ्त्तीसगढ़ राज्य बनने से पहले ही तमाम जनतांत्रिक आंदोलनों का गला घोटने में यह युक्ति काम में लाई जाती रही है। वर्षों पहले भारत के एस सी/एस टी कमिश्नर रहे गांधीवादी समाजसेवी डा. बी.डी. शर्मा को भाजपा के ही शासनकाल में बस्तर में नंगा घुमाया गया। महान ट्रेड यूनियन नेता और समाजसेवी शंकर गुहा नियोगी की एक कारपोरेट समूह ने हत्या करा दी। इस तरह हर लोकतांत्रिक आंदोलन का गला घोंटकर वहां की सत्ता ने खुद ही माओवाद का रास्ता प्रशस्त किया। ऎसी राजसत्ता के पुलिस मुखिया के आमंत्रण पर क्यों कोई साहित्यकार मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री और राज्यपाल का उपदेश सुनने जाए? फ़िर छतीसगढ़ राज्य की साहित्य अकादमी जैसी स्वायत्त सांस्कृतिक संस्थाएं भी तो प्रायोजन कर सकती थीं, पुलिस के मुखिया से ही कराने की क्या मजबूरी थी? क्यों अशोक वाजपेई को इसमे राजनीति नही दिखती?
दर असल यह पूरा आयोजन ही इसलिए किया गया कि बिनायक सेन और सलवा जुडुम के मसले पर विश्वस्तर पर निंदित सरकार यह दिखला सके कि उसके साथ तमाम प्रगतिशील, जनवादी लोग भी खड़े हैं। यह सत्ता द्वारा साहित्यकारों का घृणित उपयोग है। पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन राजसता का साहित्यिक चेहरा हैं। अपने कवि होने और महान शायर फ़िराक़ गोरखपुरी के वंशज होने का खूब उपयोग वे छ्त्तीसगढ़ की जनविरोधी सरकार के कारनामों को वैधता प्रदान कराने में कर रहे है। अशोक वाजपेई शायद चाहते हैं कि भले ही राजसत्ता साहित्यकारों का शातिराना उपयोग करे, लेकिन साहित्यकार को गऊ होना चाहिए, सत्ता को छूट है कि साहित्य के नाम पर उन्हें कहीं भी हंका कर ले जाए। छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक की निगाह में शंकर गुहा नियोगी नक्सली/माओवादी थे, जबकि सलवा जुडुम जनांदोलन है।
हम सब जानते हैं कि भारत की ८०% खनिज संपदा और ७०% जंगल आदिवासी इलाकों में हैं। छत्तीसगढ एक ऎसा राज्य है जहां की ३२% आबादी आदिवासी है। लोहा, स्टील,अल्युमिनियम और अन्य धातुओं, कोयला, हीरा और दूसरे खनिजों के अंधाधुंध दोहन के लिए; टेक्नालाजी पार्क, बड़ी बड़ी सम्पन्न टाउनशिप और गोल्फ़ कोर्स बनाने के लिए तमाम देशी विदेशी कारपोरेट घरानों ने छ्त्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों पर जैसे हमला ही बोल दिया है। उनकी ज़मीनों और जंगलों की कारपोरेट लूट और पर्यावरण के विनाश पर आधारित इस तथाकथित विकास का फ़ायदा सम्पन्न तबकों को है जबकि उजाड़े जाते आदिवासी और गरीब इस विकास की कीमत अदा कर रहे हैं। वर्ष २००० में स्थापित छ्त्तीसगढ राज्य की सरकारों ने इस प्रदेश के संसाधनों के दोहन के लिए देशी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ पचासों समझौतों पर दस्तखत किए हैं। १०,००० हेक्टेयर से भी ज़्यादा ज़मीन अधिग्रहण की प्रक्रिया में है। आदिवासी अपनी ज़मीन, आजीविका और जंगल बचाने का संघर्ष चलाते रहे हैं। लेकिन वर्षों से उनके तमाम लोकतांत्रिक आंदोलनों का गला घोटा जाता रहा है। कारपोरेट घरानों के मुनाफ़े की हिफ़ाज़त में केंद्र की राजग और संप्रग सरकारों ने, छ्त्तीसगढ़ में गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा कर दी है। कांग्रेस और भाजपा ने मिलकर सलवा जुडुम का फ़ासिस्ट प्रयोग चला रखा है। आज देशभर में हर व्यवस्था विरोधी आंदोलन या उस पर असुविधाजनक सवाल उठाने वाले व्यक्तियों को माओवादी करार देकर दमन करना सत्ताधारियों का शगल बन चुका है। दमनकारी कानूनों और देश भर के अधिकाधिक इलाकों को सुरक्षाबलों और अत्याधुनिक हथियारों के बल पर शासित रखने की बढ़ती प्रवृत्ति से माओवादियों पर कितना असर पड़ता है, कहना मुश्किल है, लेकिन इस बहाने तमाम मेहनतकश तबकों, अकलियतों, किसानों, आदिवासियों, मज़दूरॊं और संस्कृतिकर्मियों के आंदोलनों को कुचलने में सत्ता को सहूलियत ज़रूर हो जाती है।
उदय जी द्वारा योगी आदित्यनाथ से सम्मानित होने के प्रकरण में उनके पक्ष में कई दलीलें आईं हैं। पहली तो यह कि उदय जी का मूल्यांकन उनके साहित्य से होगा, न कि जीवन से, मानो ये दोनों पूरब पश्चिम की तरह कहीं मिलते ही न हों। यह युक्ति नई समीक्षा के दौर में लाई गई। ईलियट ने कहा कि आलोचना के लिए लेखक का जीवन वृत्तांत अप्रासंगिक है। लेकिन इसके चलते एज़रा पाउंड जैसे आधुनिकतावादी या पाल डी मान जैसे उत्तर आधुनिकों द्वारा फ़ासिस्टों के समर्थन की आलोचना से न तो आधुनिकतावादियों ने गुरेज़ किया और न ही उत्तर-आधुनिकों ने। लेकिन हिंदी में मार्क्सवदियों से यह मांग हो रही है वे जीवन और विचार में किसी साहित्यकार के विचलन पर इसलिए खामोश रहें क्योंकि वह साहित्य में प्रगतिशील मूल्यों का सर्जक है। मज़े की बात है ऐसी मांग करनेवाले कथित प्रगतिशील ही हैं जिन्हें कलावाद की पचास साल पुरानी उतारन पहनने में आज शर्म की जगह गर्व की अनुभूति हो रही है।
१९९० के बाद से सोवियत संघ के ढहने, भूमंडलीकरण की आंधी, समाजवाद के संकट, उत्तर-आधुनिकतावाद की सैद्धांतिकी और भारत में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताकतों के उभार ने बहुत से प्रगतिशील और जनवादियों को विचलित किया। उदय प्रकाश इस मामले में ज़रूर ईमानदार कहे जाएंगे कि जहां बाकी लोग इस विचलन को खुलकर स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जूटा पाए और जनवादी, प्रगतिशील मूल्यों वाले सांस्कृतिक संगठनों में बने रहते हुए भी साहित्य को विचारधारा और प्रतिबद्धता से मुक्त रहने, साहित्य की वर्गदृष्टि को खारिज करने और राज्याश्रय को उचित बताने में लगे रहे और नवोदित साहित्यकारों को गलत राह सिखाते रहे, वहीं उदय जी ने खुलेआम मार्क्सवाद से अपने मोहभंग को घोषित किया, उत्तर-आधुनिकता से प्रभाव ग्रहण को स्वीकार किया और हर तरह की वैचारिक प्रतिबद्धता से इनकार किया, शायद संगठनों से भी किनाराकशी की। ऐसा नहीं कि उदय जी की इस दौर की कहानियों पर उनके वैचारिक बदलाव का असर नहीं है, भले ही इस दौर में भी उन्होंने अनेक उत्कृष्ट काहानियां लिखीं। इस दौर में उदय जी का व्यक्तिवाद और अराजकता की प्रवृत्ति ज़्यादा उभरकर आई जो पहले भी उनकी व्यक्तियों को निशाना बनाकार परपीड़न में लुत्फ़ लेनेवाली कहानियों में दिखती है, उनके यथार्थबोध को क्षतिग्रस्त करती हुई। लेकिन तब भी उनकी बेहतरीन कहानियां बहुत दूर तक इस दोष से मुक्त रहीं। आलोचना को जूते की नोंक पर रखते हैं। इसीलिए उनके क्षमा-प्रस्ताव में भी धमकी की गूंज है. कभी अपनी आलोचना को ब्राह्मणवादी षड़यंत्र बताते हैं, कभी पहाड़ी लाबी की करतूत. दरअसल, उदय जी को क्षमा किसी और से नहीं, अपने भीतर के कथाकार से मांगनी चाहिए.
१९९० के बाद से सोवियत संघ के ढहने, भूमंडलीकरण की आंधी, समाजवाद के संकट, उत्तर-आधुनिकतावाद की सैद्धांतिकी और भारत में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताकतों के उभार ने बहुत से प्रगतिशील और जनवादियों को विचलित किया। उदय प्रकाश इस मामले में ज़रूर ईमानदार कहे जाएंगे कि जहां बाकी लोग इस विचलन को खुलकर स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जूटा पाए और जनवादी, प्रगतिशील मूल्यों वाले सांस्कृतिक संगठनों में बने रहते हुए भी साहित्य को विचारधारा और प्रतिबद्धता से मुक्त रहने, साहित्य की वर्गदृष्टि को खारिज करने और राज्याश्रय को उचित बताने में लगे रहे और नवोदित साहित्यकारों को गलत राह सिखाते रहे, वहीं उदय जी ने खुलेआम मार्क्सवाद से अपने मोहभंग को घोषित किया, उत्तर-आधुनिकता से प्रभाव ग्रहण को स्वीकार किया और हर तरह की वैचारिक प्रतिबद्धता से इनकार किया, शायद संगठनों से भी किनाराकशी की। ऐसा नहीं कि उदय जी की इस दौर की कहानियों पर उनके वैचारिक बदलाव का असर नहीं है, भले ही इस दौर में भी उन्होंने अनेक उत्कृष्ट काहानियां लिखीं। इस दौर में उदय जी का व्यक्तिवाद और अराजकता की प्रवृत्ति ज़्यादा उभरकर आई जो पहले भी उनकी व्यक्तियों को निशाना बनाकार परपीड़न में लुत्फ़ लेनेवाली कहानियों में दिखती है, उनके यथार्थबोध को क्षतिग्रस्त करती हुई। लेकिन तब भी उनकी बेहतरीन कहानियां बहुत दूर तक इस दोष से मुक्त रहीं। आलोचना को जूते की नोंक पर रखते हैं। इसीलिए उनके क्षमा-प्रस्ताव में भी धमकी की गूंज है. कभी अपनी आलोचना को ब्राह्मणवादी षड़यंत्र बताते हैं, कभी पहाड़ी लाबी की करतूत. दरअसल, उदय जी को क्षमा किसी और से नहीं, अपने भीतर के कथाकार से मांगनी चाहिए.
उपनिवेशवाद से लड़कर जो भी देश आजाद हुए, उनकी भाषाओं और साहित्य में प्रतिरोध की मूल्य चेतना इतिहासत: विकसित हुई। इसलिए जब भी कोई जनद्रोही सरकार,कारपोरेट घराना, संस्थान या फिर व्यक्ति साहित्यकारों को सम्मानित या पुरस्कृत करता है, तो ऐसे साहित्य में स्वाभाविक रूप से विरोध के स्वर उठते हैं। यह इन भाषाओं और साहित्य का संस्कार है। इतिहास से प्राप्त मूल्य चेतना है। कई बार ऐसे विरोधों को ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित बताकर, किन्हीं राजनीतिक प्रतिबद्धताओं का षडयंत्र बताकर हल्का बनाने की कोशिश की जाती है। दुर्भाग्य से उदय जी शायद अब इस समझ पर पहुंच चुके हैं कि उनके जैसे विश्वस्तरीय कथाकार के योग्य हिंदी भाषा और समाज नहीं है। वे गुस्से में दोनों को खारिज करते हैं। मनमाना करते हैं।
हिंदी में लम्बे समय से कुछ लोग यह कह रहे हैं कि साहित्यकार को अपनी स्वायत्तता की रक्षा के लिए विचारधारा और संगठन से मुक्त रहना चाहिए, लेकिन ऐसे लोग कभी भी यह नहीं कहते कि लेखकों को दमनकारी राजसत्ताओं और बहुराष्ट्रीय पूंजी के घरानों से मुक्त रहना चाहिए। उनकी निगाह में इनसे उनकी स्वायत्तता खंडित नहीं होती। अच्छा तो यही होता कि साहित्य संस्कृति के लिए जनता के पैसे का उपयोग सरकारें करना ही चाहती हैं तो वे ऐसी संस्थाओं को वह धन सौंप दें, जो पूर्णत: स्वायत्त और पारदर्शी हों, फिर साहित्य संवर्धन के लिए पुरस्कार ही एकमात्र उपाय तो है नहीं। लेकिन इन संस्थाओं की स्वायत्तता की एकमात्र गारंटी है कि साहित्यकारों की अपनी संस्थाएं स्वतंत्र रूप से मजबूत हों, सांस्कृतिक आंदोलन मजबूत हो, ताकि इन संस्थाओं पर लोकतांत्रिक, स्वायत्त और पारदर्शी होने का दबाव बनाया जा सके।
(समयांतर से साभार)
5 comments:
मध्यप्रदेश के संदर्भ में कांग्रेस के लंबे राज में सत्ता प्रतिष्ठानो के करीब लोग पांच साल के बनवास में टूट गये हैं और इस बार की भाजपा की जीत ने जिस तरह से उनकी उम्मीद तोडी है उसका प्रतिबिंबन तमाम रूपों में हो रहा है।
उदय पर अब रमन सिंह सरकार का बचाव करने के बाद कुछ कहना मुश्किल है। वह अब पतन का मामला नहीं रहा बल्कि वह साफ़ पाला बदल चुके हैं।
मुझे समयांतर पढते समय भी लगा कि पुरस्कार के पूरे तंत्र पर कुछ विशेष लिखना चाहिये था। साहित्य में पुरस्कार का मामला अब इतना गंभीर हो चुका है कि इस पर अब खुल के बात होनी चाहिये।
्हां आर्थिक विषयों पर रुचि हो तो इसे देखें
http://economyinmyview.blogspot.com
और कोई इस पर लिखना चाहे तो सूचित करें
’चरणदास चोर‘ और उदय प्रकाश
अब यह महज एक संयोग है या कुछ और कि उदय प्रकाश जी पुरस्कार ’कुंवर नरेन्द्र प्रताप सिंह‘ के नाम पर बनी संस्था का लेने गए। योगी भी कुंवर साहब हैं और जिन डॉ. रमन सिंह के पैरोकार उदय जी बने हैं वह भी कुंवर साहब हैं। यह इल्जाम नह है, संदेह है। अक्सर ऐसा होता है। हमें याद है जब मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू की गई थीं, तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बडे नेता हुआ करते थे कामरेड रामसजीवन सिंह। कई बार सांसद भी रहे थे और बहुत जुझारू भी थे, वैशाली में नहीं रहते थे, बांदा में रहते थे और मजलूमों के लिए संघर्षरत रहते थे। वाकई में ईमानदार आदमी थे। उन्होंने उस समय मंडल कमीशन की शान में भाकपा के मुखपत्र ’मुक्ति संघर्ष‘ और ’जनयुग‘ में कई पन्ने काले किए और जमकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को गालियां दीं। थोडे समय बाद ही रामसजीवन तो बसपा में चले गए और उनके दूसरे अनुयायी मित्रसेन यादव तुरंत यादव हो गए और समाजवादी पार्टी में चले गए। लेकिन जिन ब्राह्मणवादियों को रामसजीवन और मित्रसेन यादव गालियां दे रहे थे, वे सारे ब्राह्मणवादी आज भी भाकपा का झण्डा उठा रहे हैं। क्या रामसजीवन जैसा ही कुछ उदय प्रकाश के साथ तो नहीं हो रहा? लगता यही है कि उदयप्रकाश के लाल झण्डे का रंग नीला करते करते पुरस्कारों की बौछार में भगवा पडता जा रहा है और उदय प्रकाश को पुरस्कार देते वक्त भगवा मंडली उसी परम सुख का अनुभव कर रही है जिस सुख का अनुभव ’पीली छतरी वाली लडकी‘ का ’राहुल‘, ’सुधा जोशी‘ को ’झटके‘ देते हुए हर झटके पर महसूस करता है। उदय जी जरा जोर से बोलें- जय श्री……..
http://newswing.com/?p=3252
आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव पर अपने विचारों को स्पष्ट करें. उनका गुनाह उदय प्रकाश के गुनाह से कम नहीं. तो फिर लानत मलामत उदय प्रकाश की ही क्यों ? आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव को क्यों नहीं कुछ कहा जा रहा ?
रामेश्वर
असल सवाल सिर्फ यही नहीं है कि क्या किसी संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य को 'सलवा-जुडूम 'जैसा अभियान चलाने का हक़ दिया जा सकता है?असल सवाल यह भी है कि क्या संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य के मूल्यों की निरंतरता में अभियान कौन चलायेगा ? क्या नक्सली छत्तीसगढ़ में ऐसा कर रहे हैं जिनके लिए उन्हें राज्य सरकार द्वारा सम्मानित किया जाना चाहिए और उनकी ऐसी संदिग्ध गतिविधियों को संवैधानिक लोकतंत्र के लिए मान्य किया जाना चाहिए ? यदि लेखकों के पास इसका उत्तर नहीं है तो वे स्वयं समझ सकते हैं कि वे किसके भाड़े पर ऐसा लिख रहे हैं ? और ऐसे लेखन का अंततः प्रभाव प्रजातंत्र में किस ओर हो सकता है ? क्या नक्सलवादी संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य तंत्र को संपुष्ट कर रहे हैं ? यदि वे नहीं कर रहे हैं तो भी क्या नक्सलवादियों के जुल्म से निपटने के लिए आदिवासियों के साथ खड़े नहीं होना चाहिए ? और इस रूप में ऐसे लेखकों उस राज्य सरकारों पर भी विश्वास करना होगा जो संवैधानिक लोकतंत्र की परिधि में रहकर कार्य कर रही है । और वह इसलिए कि वे एकतरफ़ा संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य के मूल्यों, कानूनों, हकों का लाभ नहीं उठा सकते, उसका दंभ भी नहीं भर सकते
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