नक्सलबाड़ी के आरम्भिक नेताओं के सामने यह स्पष्ट था कि भारतीय क्रांति के स्वप्न के पीछे इस देश की किसान और मेहनतकश जनता के गौरवशाली संघर्षों की लंबी विरासत है। उन्होंने १८५७ के पहले स्वाधीनता संग्राम से लेकर भगतसिंह जैसे क्रांतिकारी देशभक्तों की लम्बी परंपरा की खुद को एक कड़ी माना। उन्होंने भाकपा(माले) नाम की नई पार्टी बनाई लेकिन सदैव खुद को गदर पार्टी के समय से ही चली आ रही कम्यूनिस्ट विरासत का हिस्सा माना. इस आधार पर खड़े होकर उन्होंने देश और देशभक्ति की एक अभिनव परिभाषा गढ़ी. अभिजन के राष्ट्र्वाद के विरुद्ध क्रांतिकारियों की देशभक्ति. '७० के क्रांतिकारियों का सबसे प्रिय गीत 'मुक्त होगी प्रिय मातृभूमि' अकारण न था. वे अपनी निगाह में भारत की मुक्ति का संघर्ष ही छेड़े हुए थे-
मिट जाए रात का अंधार
लाल सूरज की किरणों में
करेगी मातृभूमि मुक्तिस्नान
"भारत-
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी प्रयोग किया जाये
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में हैं
जो आज भी वृक्षों की परछाइयों से
वक्त मापते हैं
उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते हैं
उनके लिए जिंदगी एक परंपरा है
और मौत के अर्थ हैं मुक्ति
.........................................
कि भारत के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन खेतों में दायर हैं
जहां अन्न उगता है जहां सेंध लगती है..."
नक्सलबाड़ी से प्रेरित कवि अकेले हैं जो देश और देशभक्ति के शासकवर्गीय भाष्य को उलटते हैं., ' शायनिंग इंडिया' के झूठ को जो ४० साल पहले से जानते हैं और सिर्फ़ यही नहीं बताते कि उनका प्यारा भारतवर्ष क्या है, बल्कि यह भी कि उसे क्या नहीं होना चाहिए-
"यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
यह जल्लादों का उल्लासमंच नहीं है मेरा देश..."(नबारुण भट्टाचार्य)
इस विद्रोह के महान शिल्पी चारू मजूमदार का व्यक्तित्व ही गहरे में सांस्कृतिक था.१९५० से ही सिलीगुडी़ में राजनीतिक कामकाज सम्भाल चुके युवा चारू मजूमदार की पहलकदमी पर ही सिलिगुड़ी शहर के मुख्य क्लब में 'रवीन्द्र-नज़रुल-सुकांत दिवस' , बांगला वैशाख(बांगला कैलेंडर में वैशाख से वर्ष की शुरुआत होती है और इसका पहला दिन रवीन्द्रनाथ के जन्मदिन के रूप में भी मनाया जाता है) आदि मौकों पर क्रांतिकारी सांस्कृतिक कार्यक्रमों की परंपरा शुरू हुई. चारूबाबू का शास्त्रीय संगीत के प्रति भी प्रबल आकर्षण था और बड़े गुलाम अली का गाया 'बाजूबंद खुल खुल जाए' उनका ऎसा पसंदीदा गीत था जो भूमिगत जीवन की कठिनाइयों में भी उनका साथी रहा.सन १९६४ में जब उन्हें गंभीर दिल की बीमारी डाक्टरों ने बताई और तबकी उनकी पार्टी का नेतृत्व उनके इलाज के प्रति उदासीन बना रहा तो 'कथा ओ कलम' नामक सांस्कृतिक संगठन ने अपने प्रदर्शन आयोजित कर उनके इलाज के लिए जितना बन पड़ा, पैसा इकट्ठा किया.१९६७ का विद्रोह जब शुरु हुआ और चारूबाबू के घर देशी-विदेशी पत्रकारों की भीड़ लगी रहती, तो उन्हीं दिनों धर्मयुग के पत्रकार ने उनसे पूछा, " आपके घर में रवींद्रनाथ की फोटो लगी हुई है. क्या आप उनको मानते हैं? चारूबाबू ने जवाब दिया,"सवाल मानने या न मानने का नहीं है. सवाल तो है एक महान शिल्पी के सकारात्मक पहलू के विवेचन का'. इसके बाद उन्होंने रवींद्र की 'मृत्युंजय' शीर्षक कविता पूरी सस्वर सुनाई. १९६१ की पार्टी की ६ठीं विजयवाड़ा कांग्रेस में चारुबाबू नहीं गए. इन दिनों अचानक उन्होंने नाटकों के निर्देशन का मन बना लिया. 'कथा ओ कलम' के नाटकों का रिहर्सल कराते, वे मानिक बंदोपाध्याय के सपनों के समाजवाद 'मैनाद्वीप' का मर्म साथी कलाकारों को समझाते हुए घंटों बोलते चले जाते. उनके साथी सरोजदत्त न केवल क्रांतिकारी नेता थे, बल्कि बांगला के उत्कृष्ट कवि भी. वे भी चारुबाबू की तरह जेल में ही शहीद हुए. समीर मित्र, मुरारी मुखोपाध्याय, द्रोणाचार्य घोष भी ऎसे बांगला कवि थे जिन्होंने नक्सलबाडी विद्रोह में भाग लिया और पुलिस के हाथों शहीद कर दिए गए. चारूबाबू शासक वर्ग के हाथों में हिंसा के एकाधिकार को तोडने के पक्षधर थे, न कि बेलगाम, प्रतिशोधात्मक और उद्देश्यहीन हिंसा के. यही कारण है कि १८७० के दशक की क्रांतिकारी बांगला कविता में बराबर गरीबों, मेहनतकशों पर बर्बर सामंती और पुलिसिया दमन के चित्र, जेल में दी जाने वाली यातनाओं और फ़र्ज़ी मुठभेडों में में ढेर किए जा रहे नौजवानों के चित्र ज़्यादा मिलते हैं, प्रतिशोधात्मक हिंसा का उत्सव विरल ही है-
इस तरह पीटो कि
सिर से पांव तक कोड़े का दाग बना रहे
इस तरह पीटो कि
दाग काफ़ी दिनों तक जमा रहे.
इस तरह पीटो कि
तुम्हारी पिटाई का दौर खत्म होने पर
मैं धारीदार शेर की तरह लगूं
('तुम्हारी पिटाई का दौर खत्म होने पर' शीर्षक विपुल चक्रवर्ती की कविता से)
क्रांति के आह्वान पर सैकड़ों नौजवान बंगाल में शहीद हुए थे. ऎसे में शहीद बेटे की मां का चित्र इस दौर की कविता में बार बार कौंधता है-
जेल के सींकचे पकड़ सब कुछ खोई, हे जननी
अलग से
किसका चेहरा ढूंढ लेना चाहती हो?
('जेल के सींकचे पकड़कर' शीर्षक धूर्जटि चटोपाध्याय की कविता से)
"भोमा जंगल। भोमा आबाद.भोमा गांव.हिंदुस्तान की पचहत्तर फ़ीसदी आबादी गांव में रहती है. भोमाओं का खून पीकर हम रहते हैं शहरों में"
बंगाल में सृजन की हर विधा को नक्सलबाड़ी की चेतना ने भीतर तक मथा। '९० के दशक तक में शहरी मध्यवर्ग से आए लोकप्रिय गायकों की एक पीढ़ी जिसमें सुमन चट्टोपाध्याय, नचिकेता, प्रतुल और प्रबीर बल विशेष उल्लेखनीय हैं,'७० के क्रांतिकारी दशक के रोमान को आज भी अपनी कला में जीते हैं. आश्चर्य है कि खुद को नक्सलबाड़ी की चेतना से प्रेरित मानने वाले बहुत से बांग्ला बुद्धिजीवी आज वाममोर्चा के कुशासन के खिलाफ़ तृणमूल के साथ खड़े हैं. नक्सलबाड़ी ने और उसके बौद्धिकों ने क्रूरतम दमन झेलकर भी पारंपरिक वाम का एक स्वतंत्र वाम विकल्प ही रचा था, किसी पूंजीवादी दल का दामन नहीं थामा था.
क्रांतिकारी गीतों और नाटकों के प्रति समर्पित चारुबाबू जन नाट्य संगठन बनाए जाने के खिलाफ़ रहा करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि ये मध्यवर्ग का अड्डा बन जाएंगे. लेकिन जिस आंदोलन के वे महानायक थे, उससे प्रेरणा लेकर तमाम सांस्कृतिक और लेखक संगठन बने. नक्सलबाड़ी के ही समानांतर चल रहे 'श्रीकाकुलम' के किसान विद्रोह की प्रेरणा से तेलुगू साहित्यकारों ने पहले १९६६ में वरवर राव की पहल पर 'साहिति मित्रलु'(साहित्य के मित्र), फ़िर 'तिरगबदु'(विद्रोही, १९७०) जैसे संगठन बनाए जिनका अंतत: 'विप्लव रचयिताल संघम' (विरसम:१९७०) यानी 'क्रांतिकारी लेखक संघ' के रूप में विकास हुआ. तेलुगु में आधुनिक चेतना के जनक महाकवि श्री श्री जिन्होंने १९६२ के हिंद-चीन युद्ध के समय कम्यूनिस्टों की सामूहिक गिरफ़्तारी के खिलाफ़ १९६५-६६ में पहले नागरिक अधिकार संगठन की नींव रखी थी नौजवान संस्कृतिकर्मियों के साथ आ मिले. महान मुक्तियोद्धा और कवि सुब्बाराव पाणिग्रही १९६९ में शहीद हुए.'विरसम' ने पाणिग्रही को ही अपना प्रेरणा-स्रोत घोषित किया. श्री श्री, आर.वी. शास्त्री, के.वी. रमन रेड्डी,चेराबंडराजू, वरवर राव, सी. विजयलक्ष्मी, ज्वालामुखी, सत्यमूर्ति,निखिलेश्वर,अशोक टंकसाला आदि ने तेलुगू साहित्य में क्रांतिकारी बदलाव लाया. बीच बीच में विरसम प्रतिबंधित भी होता रहा लेकिन मंच के रूप में इन संगठनों से जुड़े लेखकों की 'सृजन' पत्रिका २०० से ज़्यादा अंक निकाल चुकी है और समकालीन तेलुगू साहित्य को इसने दूर तक प्रभावित किया है. १९७१ में गद्दर ने 'जन नाट्यमंडली' की स्थापना की. तब से आज तक गद्दर गांव गांव में अपने नृत्य-गीत-नाटकों का ज़बर्दस्त प्रदर्शन कर जनता में क्रांतिकारी चेतना फ़ैलाते रहे हैं. चेराबंडराजू का यह लोकप्रिय गीत गद्दर झूमझूम कर गाते हुए जनता में क्रांतिकारी प्रश्नाकुलता पैदा करते हैं-
'पर्वतों को तोड़कर, पर्थरों को फोड़कर
बनाईं योजनाएं ईंट लोहू से जोड़कर
श्रम किसका है?
धन किसका है?
जंगल को काटकर धरती को जोतकर
फ़सलें उगाई स्वेद लहरों से सींचकर
भात किसका है?
माड़ किसका है?
अफ़्रीका, लातीन अमेरिका
उत्पीड़ित हर अंग एशिया
आदमखोरों की निगाह में
खंजर सी उतरो!
.........................................
शोषण छल-छंदों के गढ़ पर,
टूट पड़ो नफ़रत सुलगाकर
क्रुद्ध अमन के राग,
युद्ध के पन्नों से गुज़रो!
उल्टे अर्थ विधान तोड़ दो
शब्दों से बारूद जोड़ दो
अक्षर-अक्षर पंक्ति-पंक्ति को
छापामार करो!
(गोरख पाण्डेय, 'कविता युग की नब्ज़ धरो')
फ़िल्मों की दुनिया में 'जुक्ति ताक्को गप्पो'(रित्विक घटक,बांगला,१९७४), 'नक्सलाइट' (ख्वाज़ा अहमद अब्बास, हिंदुस्तानी,१९८०), चोख(उत्पलेंदु चक्रवर्ती,बांग्ला, १९८३), अम्मा आरियां( जान अब्राहम, मलयालम, १९८६), पिरावी (शाजी एन। करुना, मलयालम, १९८८) के ज़रिए इस आंदोलन का अक्स उकेरा गया. कन्नड़ में 'वीरप्पअ नायक'(एस. नारायण,१९९०), 'माथाद माथाद मल्लिगे'( नागातिहल्ली चंद्रशेखर, २००७) जैसी फ़िल्में नक्सलबाड़ी की चेतना के पक्ष से गांधीवाद के साथ संवाद और विवाद की फ़िल्में हैं. मलयाली फ़िल्म 'तलप्पवु' (२००९) '७० के दशक में शहीद क्रांतिकारी वरगीज़ के जीवन पर केंद्रित है॥मलयाली फ़िल्म 'गोलमोहर'(जयराज, २००८) भी नक्सल थीम पर आधारित है.' हज़ार चौरासी की मां'(गोविंद निहलानी,हिंदी,१९९८) इसलिए भी काफ़ी चर्चित रही और देखी गई क्योंकि महाश्वेता जी के उस उपन्यास से लोग पहले से ही परिचित थे,जिसपर फ़िल्म बनी. इससे पहले भी निहलानी १९८४ में 'आघात' बनाकर मुबई में गुंडा गिरोहों द्वारा वामपंथी ट्रेड यूनियनों के खात्मे से निपटने के लिए 'तीसरे रास्ते' का संकेत दे चुके थे. 'लाल सलाम'( गगनविहारी बोराटे,२००२) 'हज़ारों ख्वाहिशें ऎसी' (सुधीर मिश्रा, २००५) वगैरह भी चर्चित फ़िल्में रही हैं.
"दरअसल मैनें तो पकड़ा ही एक अलग रास्ता
वह छोटा नहीं था न आसान
फ़कत फ़ितूर जैसा एक पक्का यकीन
एक अलग रास्ता पकड़ा मैनें...."
(वीरेन डंगवाल,`कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा`,'स्याही-ताल' कविता-संग्रह, २००९ से)
( 'प्रभात खबर' के 'दीपावली विशेषांक', नवम्बर, २००९ में प्रकाशित)
चित्र मनोज कचंगल का है जो रवीन्द्र व्यास जी के ब्लॉग `हरा कोना` से लिया है.