Tuesday, January 26, 2010
सेक्युलर रिपब्लिक और उसकी चुनौतियाँ : सुभाष गाताड़े
इस `सेक्युलर रिपब्लिक` में साम्प्रदायिकता से लड़ने की चुनौती बहुत बड़ी है। उस समय (१९४७ में) बंटवारा हुआ, कत्लेआम हुआ पर फिर भी सेक्युलरिज्म को इस मुल्क की आत्मा से अलग नहीं किया जा सका था। तब लोगों में इतनी दूरियां पैदा नहीं की जा सकी थीं जितनी कि आज हैं। सही मायने में सेक्युलर रिपब्लिक कैसे बनेगा और इसके लिए कौन लडेगा, यह बड़ी चुनौती है।
डॉ. आंबेडकर ने कुछ ऐसा कहा था कि यह संविधान सही काम न करे तो इस जला देना चाहिए। संविधान बनाने के काम में आंबेडकर के योगदान को देखें तो साफ़ है कि जिस प्रगतिशील और न्यायपूर्ण समाज के सपने के साथ उन्होंने इस प्रक्रिया में शामिल होना स्वीकार किया था, वह पूरा नहीं हो सका है. संविधान के प्रगतिशील और न्यायपूर्ण मूल्यों पर लगातार फासिस्ट हमले हुए हैं. सच्चे आंबेडकरवादियों का फ़र्ज़ है कि वे आंबेडकर को पूजा की तस्वीर बनाये जाने की निरंतर साजिशों के बरक्स उनके मूल्यों को लेकर लड़ाई को आगे बढ़ाएं. दुनिया भर में जो हालात हैं और अपने यहाँ भी जो हो रहा है, उसके मद्देनजर हिन्दुस्तान में वामपंथ और दलित आन्दोलन को मिलकर लड़ाई लड़नी होगी. मुख्यधारा के दलित आन्दोलन और मुख्यधारा के वामपंथ की बात मैं नहीं कह रहा लेकिन रेडिकल वाम और रेडिकल दलित आन्दोलन से इस एकता की उम्मीद की जा सकती है.
मुझे लगता है कि फिलहाल संघर्ष के टूल के तौर पर इसी सिस्टम के अधिकारों का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना होगा. देश में विभिन्न हिस्सों में संघर्ष चल रहे हैं. जहाँ तक नक्सलवाद के नाम पर सरकारी दमन का सवाल है, उसका विरोध किया जाना चाहिए। लेकिन इस संघर्ष की अहमियत स्वीकार करते हुए यह कहना भी जरूरी है कि यह संघर्ष एक ख़ास तरह के गतिरोध का शिकार हुआ है. देश भर में कैसे परिवर्तन होगा, उनके पास इसका कोई नक्शा नहीं है. दिशाहीन हिंसा भी ठीक नहीं है.
मौजूदा हालात में दिक्कत यह है कि आम लोगों में भी पूंजीवाद का वर्चस्व बढ़ा है. पूंजीवाद की मार झेल रहे किसी गरीब को भी लगता है कि वह अम्बानी बन सकता है.
समाजवाद को लेकर मायूसी है पर नाउम्मीदी नहीं है. पूंजीवाद का नंगा नाच है, बदलाव तो होगा ही. एक रास्ता यह हो सकता है कि फासीवाद आए. समाजवाद तुरंत न आए तो हो सकता है कुछ अधिक जनपक्षीय व्यवस्था आए. हो सकता है समाजवाद को आने में समय लगे और लम्बा संघर्ष करना पड़े. पहली बार ऐसी चुनौती दरपेश है कि किसी पूंजीवादी जनतांत्रिक मुल्क में समाजवाद के लिए संघर्ष करना है.
देश का बुद्धिजीवी वर्ग तो खुश है। उसके छोटे-छोटे स्वार्थ पूरे हो रहे हैं। वेतन और सुविधाएं बढ़ गए हैं। उसका मुख्य स्वर संतोष ही है। लेखक भी संतुष्ट दिखाई देता है. फासीवादियों से पेक्ट भी होने लगे हैं. हालत यह कि दो-चार पुरस्कार दे दो तो लेखक खुश रहेगा वर्ना व्यवस्था का विरोध करेगा.
(लेखक-एक्टिविस्ट सुभाष गाताड़े साम्प्रदायिकता और दलित उत्पीड़न के सवालों पर प्रमाणिक और धारदार स्वर के रूप में जाने जाते हैं। आज `गणतंत्र दिवस` की सुबह उनसे फोन पर हुई बातचीत के कुछ टुकड़े यहाँ दिए गए हैं। )
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8 comments:
nice
सुभाष हिन्दी के साहित्यग्रस्त समय में समय की नब्ज़ पकड़ने वाले ज़रूरी लेखक हैं।
उनके विचार प्रस्तुत करने का आभार्॥
सुभाष जी की चिंताएं आज की सबसे ज्वलंत समस्याएं है। कथनी और करनी में बढ़ते फर्क ने हमारी मुश्किलें बढ़ा दी हैं। सच कहा जाए तो आज हमारे पास रोल माडल की कमी है। जिसके अभाव में मध्य वर्ग का बड़ा तबका पूंजीवादी रोल माडलों के पीछे खिंचा चला जाता है। हमारे रोल माडलों का हाल यह कि न पूछो तो ही भला। मध्यवर्गीय नौकरीपेशा युवाओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो तथाकथित समाजवादियों के दोगलेपन से पीड़ित है। एक व्यक्ति के स्तर पर उसे समाजवाद के खोल में दोगलापन करने के बनिस्बत खुलेआम उपभोक्तावाद का दामन पकड़ना ज्यादा नैतिक लगता है। भूतपूर्व क्रँातिकारी लोग बुर्जूआ डेेमोक्रेसी तक का अनुसरण नहीं करते। सीधे जातिवाद और सांमतवाद की शरण लेते दिखते हैं। ऐसे स्थिति में कई बार पूंजीवाद ज्यादा प्रगतिशील दिखाई देता है। खासतौर पर मध्यवर्ग के नौजवानों को। क्योंकि चुनाव करने की स्थिति में वही होता है। खैर हजार बाते हैं। हजार सवाल हैं। अंत में फैज के शब्दों में यही कहँुगा कि
दिल नाउम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है / लम्बी है गम की शाम मगर शाम ही तो है
bahut sahi baaten kahin gayin hai iss lekh men . yah bilkul sach hai ki aam aadami bhi poonjivad ke hi sapane dekhata hai .
मुझे लगता है सब पढ़ें-सब बढ़ें की तर्ज़ पर सबको समान अवसर उपलब्ध कराये जाने चाहिये। सेक्युलर रिपब्लिक की चुनौती भी इसी रास्ते से ही हल हो सकती है। और ये वाद का चक्कर तो जी बस बातें ही हैं।
Gan to hain par Tantra Shesh nahi,
ab bharat mahapurusho ka desh nahi,
"देश का बुद्धिजीवी वर्ग तो खुश है"
? ? ?
लेकिन वर्षा यह कोई जादू नहीं है कि हम तो अच्छा-अच्छा चाहते हैं, हो जाए अच्छा. इस तरह की बात बाबा लोग बहुत करते हैं और आखिर वे करते क्या हैं, सब जानते हैं? जिस बराबर अवसर मिलने की बात आप कर रही हैं, क्या जो व्यवस्था उसे सिरे से ख़ारिज करती हो, उसे वाद का चक्कर बताकर चुप हो जाएँ. आखिर राजनीतिक संघर्ष ही व्यवस्थाओं को बदलते हैं.
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