`कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती`
Thursday, September 30, 2010
Tuesday, September 28, 2010
कौन सी कविताएं - नरेश सक्सेना
जैसे चिड़ियों की उड़ान में
शामिल होते हैं पेड़
क्या मुसीबत में
कविताएं होंगी हमारे साथ
जैसे युद्ध में काम आए सैनिक के
शस्त्रों और वर्दी के साथ-साथ
खून में डूबी मिलती हैं उसके बच्चों की तस्वीर
क्या कोई पंक्ति डूबेगी खून में
जैसे चिड़ियों की उड़ान में शामिल होते हैं पेड़
मुसीबत के वक़्त
कौन सी कविताएं होंगी हमारे साथ
लड़ाई के लिए उठे हाथों में
कौन से शब्द होंगे
(मार्च-अप्रैल १९९२ में राजेश जोशी के संपादन में छपे वर्तमान साहित्य के कविता विशेषांक से)
शामिल होते हैं पेड़
क्या मुसीबत में
कविताएं होंगी हमारे साथ
जैसे युद्ध में काम आए सैनिक के
शस्त्रों और वर्दी के साथ-साथ
खून में डूबी मिलती हैं उसके बच्चों की तस्वीर
क्या कोई पंक्ति डूबेगी खून में
जैसे चिड़ियों की उड़ान में शामिल होते हैं पेड़
मुसीबत के वक़्त
कौन सी कविताएं होंगी हमारे साथ
लड़ाई के लिए उठे हाथों में
कौन से शब्द होंगे
(मार्च-अप्रैल १९९२ में राजेश जोशी के संपादन में छपे वर्तमान साहित्य के कविता विशेषांक से)
Friday, September 17, 2010
नामवर सिंह के भक्त और लोकसमाज के लोकसेवक -जगदीश्वर चतुर्वेदी
हिन्दी में अनेक आलोचक हैं जो अभी भी चेतना की आदिम अवस्था में जी रहे हैं. कुछ ऐसे हैं जो सचेत रूप से आदिम होने की चेष्टा कर रहे हैं। समाज जितना तेजी से आगे जा रहा है वे उतनी ही तेजी से पीछे जा रहे हैं। हमें इस फिनोमिना पर गौर करना चाहिए कि हिन्दी का आलोचक और शिक्षक तेजी से कूपमंडूक क्यों बन रहा है ? कूपमंडूकता का आलम यह है कि जिनकी ज्यादा बेहतर विश्वविद्यालय,यानी जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय ,में शिक्षा हुई है वे और भी ज्यादा कूपमंडूक बनते जा रहे हैं ।
यह भी कह सकते हैं हिन्दी के कुछ आलोचकों में जल्दी -जल्दी कूपमंडूक बनने की होड़ लगी है। कहीं इस कूपमंडूकता की जड़ें हमारे हिन्दी के पठन-पाठन में तो नहीं हैं ? यह भी हो सकता है हमारी हिन्दी साहित्य की शिक्षा-दीक्षा खास किस्म का हनुमान तैयार करती हो ? हमें सोचना चाहिए कि आखिरकार वे कौन से कारण हैं जिनके कारण हिन्दी का सबसे शिक्षित तबका तेजी से कूमंडूकता,अतीतप्रेम और पुराने के नशे में मजा लेने लगा है।
इस भूमिका को बनाने का एक कारण है,पिछले दिनों कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद ने एक सेमीनार किया जिसमें हिन्दी के एक नामी ‘आलोचक’ को बुलाया गया और उन्होंने बड़ी ही ‘विद्वतापूर्ण शैली’ में अपनी बातें रखीं। वह मेरा दोस्त है, हम साथ पढ़े हैं,वह समझदार और संवेदनशील भी है। गुरूभक्ति में उसने सभी साथियों को पछाड़ा है और जितने भी आशीर्वाद गुरूवर नामवर सिंह से मिल सकते थे वे प्राप्त किए हैं।
वह नामवर सिंह ( हिन्दी के द्रोणाचार्य हैं) का अर्जुन है। यह सच है गुरूवर नामवर सिंह ने हिन्दी के द्रोणाचार्य के रूप में जितने अर्जुन पैदा किए हैं उससे ज्यादा एकलव्य पैदा किए हैं। जिन्हें कभी गुरू का आशीर्वाद नहीं मिला,हां, गुरूदक्षिणा लेने में गुरूवर ने कभी देरी नहीं की।
गुरूवर नामवर सिंह का व्यक्तित्व महान है । जो उनके महान व्यक्तित्व के प्रभाव में आकर भक्ति करता है वह कूपमंड़ूकता के मार्ग पर जाता है । दूसरी ओर उनके व्यक्तित्व की भक्ति किए बिना जो उनका सम्मान करते हैं वे शिष्य वैज्ञानिकचेतना के करीब पहुँचे हैं। नामवर सिंह के व्यक्तित्व के इस दुरंगे प्रभाव की आमतौर पर हिन्दी में अनदेखी हुई है। कहने का अर्थ है नामवर सिंह की शिक्षा में शिष्य को मनुष्य और बंदर एक ही साथ बनाने की विलक्षण क्षमता है। समस्या यह है गुरूवर नामवर सिंह से शिष्य क्या सीखता है ? किस परंपरा में जाता है। बंदर,भक्त और अर्जुन की परंपरा में जाता है या वैज्ञनिकचेतना संपन्न आधुनिक और मार्क्सवादी की परंपरा में जाता है।
यह सच है गुरूवर नामवर सिंह की दो परंपराएं हैं, एक भक्त परंपरा जो सीधे भक्ति साहित्य तक ले जाती है और दूसरी मार्क्सवादी परंपरा जो अत्याधुनिक विषयों और आधुनिक समाज की समस्याओं की ओर ले जाती है। जिन शिष्यों ने भक्तिमार्ग का अनुसरण किया वे लेखन में पुराने विषयों के प्रेमी बने। अतीत के प्रचारक बने। वे वर्तमान में लौटते ही नहीं हैं। वे सत्ता के चाकर बने। वर्चस्वशाली ताकतों का हिस्सा बने। भीड़ बने।
नामवर सिंह की कक्षा में हमेशा भक्त और आलोचक दो कोटि के विद्यार्थी रहे हैं। भक्तों को मेवा मिली ,डिग्री मिली,ग्रेड मिले,पद मिले,पुरस्कार मिले,लेकिन ज्ञान नहीं मिला। आलोचक शिष्यों को ज्ञान मिला,सम्मान मिला,आलोचनात्मक विवेक मिला,संघर्ष का रास्ता मिला,चुनौतियां मिलीं और जनता का बेइंतिहा प्यार मिला।
गुरूवर नामवर सिंह के जो आलोचक शिष्य थे वे उनकी बातों पर विवाद करते थे, उनकी बातों,धारणाओं पर असहमति व्यक्त करते थे। इस कारण उन्हें अनेकबार क्षति भी उठानी पड़ती थी और क्षति का सिलसिला बाद में भी बना रहता था। इसके बावजूद नामवर सिंह की विद्वतापूर्ण परंपरा का विकास इन्हीं आलोचक शिष्यों ने किया ,भक्त शिष्यों ने नहीं किया।
गुरूवर नामवर सिंह की शिष्य परंपरा का जिक्र करना इसलिए भी जरूरी है कि उसमें जो कूपमंडूक शिष्य रहे हैं ,जो इन दिनों गुरूकृपा और सिंहों (स्व.विश्वनाथप्रताप सिंह,अर्जुन सिंह,दिग्विजय सिंह आदि) की कृपा से परमपदों को प्राप्त कर चुके हैं,वे इन दिनों ज्ञान में दूर की कौडियां फेंक रहे हैं उनमें से ही एक जनाब पिछले दिनों कोलकाता आए और बताकर गए कि 12वीं सदी में ही लोकसमाज था और उस लोकसमाज की अभिव्यक्ति का भक्ति साहित्य लिखा गया। अब बताइए इस अतीतप्रेम का क्या करें ?
हमारे बीच में अतीतपूजकों की भीड़ है और वे सब जगह उपलब्ध हैं। श्रोताओं ने वाह-वाह की,अध्यक्षता कर रहे एक स्थानीय विद्वान ने प्रशंसा करते-करते चरण ही पकड़ लिए। मेरी समस्या यह नहीं है कि बोलने वाले कितने बड़े विद्वान हैं, विद्वान तो वे हैं ही, वे जेएनयू में प्रोफेसर रहे हैं, इन दिनों लोकसंघसेवा आयोग के सदस्य हैं। उनका नाम पुरूषोत्तम अग्रवाल है। वे सुंदर वक्ता हैं। लोग उनकी भक्ति करें और प्रशंसा में बिछ जाएं, मुझे इससे भी कोई शिकायत नहीं है। मेरी समस्या यह है कि भारत में 12वीं सदी में लोकसमाज कहां से पैदा हो गया ?
आज के जमाने में कोई व्यक्ति ,वह भी जेएनयू का पढ़ा-लिखा,वहां का भू.पू. प्रोफेसर जब यह कहे तो निश्चित रूप से चिंता की बात है। तथ्य , सत्य और सामाजिक इतिहास इन तीनों ही दृष्टियों से यह बात गलत और आधारहीन है। मजेदार बात यह है कि यह सच्चाई किसी भी मध्यकाल के मार्क्सवादी और गैर मार्क्सवादी इतिहासकार को नजर नहीं आयी। स्वयं कार्ल मार्क्स,एंगेल्स को एशियाई उत्पादन पद्धति का विश्लेषण करते हुए दिखाई नहीं दी। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय से लेकर के.दामोदरन तक किसी भी दर्शनशास्त्री को नजर नहीं आयी। रामशरण शर्मा से लेकर रोमिला थापर,मोहम्मद हबीब से लेकर इरफान हबीब तक किसी को भी 12 वीं सदी में लोकसमाज की धारणा हाथ नहीं लगी।
तकरीबन सभी बड़े इतिहासकारों ने भक्ति आंदोलन पर काम किया है उन्हें भी वहां लेकसमाज दिखाई नहीं दिया। यहां तक कि समाजशास्त्री धूर्जटि प्रसाद मुखर्जी को भी भक्ति आंदोलन के मूल्यांकन के क्रम में यह धारणा नजर नहीं आयी। मार्क्सवादी समाजशास्त्री टाम बाटमोर को भी दिखाई नहीं दी। मानवविज्ञानियों को भी यह बात नजर नहीं आयी और यह दूर की कौड़ी पुरूषोतम अग्रवाल को दिख गई है। धन्य हैं वे और उनका ज्ञान । लोकसमाज समाज कभी औद्योगिक पूंजीवाद के बिना जन्म नहीं लेता। व्यापारिक पूंजीवाद में किसी भी देश में लोकसमाज नहीं बना है।
हिन्दी में पुरूषोत्तम अग्रवाल अकेले ‘आलोचक’ नहीं हैं जो 12वीं सदी में लोकसमाज खोज लाए हैं यह काम बड़े ही अवैज्ञानिक ढ़ंग से रामविलास शर्मा पहले कर चुके हैं। अन्य छुटभैय्ये आलोचक तो अनुकरण करके रामविलास शर्मा का भावानुवाद करते रहे हैं।
12वीं शताब्दी का भारत कैसा था और सामाजिक संरचनाएं कैसी थीं इस पर मध्यकाल के इतिहासकार अधिकारी विद्वानों ने इतना लिखा है कि उसे भी यदि गंभीरता से पुरूषोत्तम अग्रवाल ने पढ़ लिया होता तो उनका उपकार होता। लेकिन वे अतीतप्रेम और मौलिक खोज के चक्कर में जिन तर्कों के आधार पर 12 वीं सदी में लोकसमाज खोज रहे हैं वैसा और उससे भी सुंदर लोकसमाज तो वैदिककाल में भी है। ईसा के जमाने और देश में भी था। कुरान के रचनाकाल में था।
लोकसमाज एक समाजशास्त्रीय केटेगरी है। हिन्दी का आलोचक इसका बड़े ही चलताऊ ढ़ंग से इसका इस्तेमाल करता है और उसका यही चलताऊ ढ़ंग ही है जो उसे अवैज्ञानिक अवधारणात्मक समझ तक ले जाता है।
12 वीं सदी में लोकसमाज नहीं था बल्कि वर्ण व्यवस्था पर आधारित जाति समाज था। यह निर्विवाद सत्य है। जाति समाज में क्षय के लक्षण नजर आ रहे थे। लेकिन जाति संरचनाओं के सामाजिक आधार को कभी उस दौर में चुनौती नहीं दी गयी। भक्ति आंदोलन के कवियों के यहां जो जाति व्यवस्था का विरोध है वह एक मानसिक कोटि के रूप में है ,भक्ति के कवि जातिप्रथा के सामाजिक आधार को कभी चुनौती नहीं देते। भौतिक तौर पर यह संभव भी नहीं था।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि लोकसमाज के उदय और विकास के लिए प्रकृतिविज्ञान का उदय जरूरी है। प्रकृतिविज्ञान की खोजों के पहले लोकसमाज,औद्योगिक पूंजीवाद जन्म नहीं लेता। कम से कम 12 वीं सदी में प्रकृतिविज्ञान का उदय सारी दुनिया में कहीं पर भी नहीं हुआ था। भारत में भी नहीं। प्रकृतिविज्ञान और आधुनिक विज्ञान की अन्य खोजों के कारण लोकसमाज के निर्माण की प्रक्रिया 18वीं सदी के आरंभ से दिखती है। उसके पहले नहीं।
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यह भी कह सकते हैं हिन्दी के कुछ आलोचकों में जल्दी -जल्दी कूपमंडूक बनने की होड़ लगी है। कहीं इस कूपमंडूकता की जड़ें हमारे हिन्दी के पठन-पाठन में तो नहीं हैं ? यह भी हो सकता है हमारी हिन्दी साहित्य की शिक्षा-दीक्षा खास किस्म का हनुमान तैयार करती हो ? हमें सोचना चाहिए कि आखिरकार वे कौन से कारण हैं जिनके कारण हिन्दी का सबसे शिक्षित तबका तेजी से कूमंडूकता,अतीतप्रेम और पुराने के नशे में मजा लेने लगा है।
इस भूमिका को बनाने का एक कारण है,पिछले दिनों कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद ने एक सेमीनार किया जिसमें हिन्दी के एक नामी ‘आलोचक’ को बुलाया गया और उन्होंने बड़ी ही ‘विद्वतापूर्ण शैली’ में अपनी बातें रखीं। वह मेरा दोस्त है, हम साथ पढ़े हैं,वह समझदार और संवेदनशील भी है। गुरूभक्ति में उसने सभी साथियों को पछाड़ा है और जितने भी आशीर्वाद गुरूवर नामवर सिंह से मिल सकते थे वे प्राप्त किए हैं।
वह नामवर सिंह ( हिन्दी के द्रोणाचार्य हैं) का अर्जुन है। यह सच है गुरूवर नामवर सिंह ने हिन्दी के द्रोणाचार्य के रूप में जितने अर्जुन पैदा किए हैं उससे ज्यादा एकलव्य पैदा किए हैं। जिन्हें कभी गुरू का आशीर्वाद नहीं मिला,हां, गुरूदक्षिणा लेने में गुरूवर ने कभी देरी नहीं की।
गुरूवर नामवर सिंह का व्यक्तित्व महान है । जो उनके महान व्यक्तित्व के प्रभाव में आकर भक्ति करता है वह कूपमंड़ूकता के मार्ग पर जाता है । दूसरी ओर उनके व्यक्तित्व की भक्ति किए बिना जो उनका सम्मान करते हैं वे शिष्य वैज्ञानिकचेतना के करीब पहुँचे हैं। नामवर सिंह के व्यक्तित्व के इस दुरंगे प्रभाव की आमतौर पर हिन्दी में अनदेखी हुई है। कहने का अर्थ है नामवर सिंह की शिक्षा में शिष्य को मनुष्य और बंदर एक ही साथ बनाने की विलक्षण क्षमता है। समस्या यह है गुरूवर नामवर सिंह से शिष्य क्या सीखता है ? किस परंपरा में जाता है। बंदर,भक्त और अर्जुन की परंपरा में जाता है या वैज्ञनिकचेतना संपन्न आधुनिक और मार्क्सवादी की परंपरा में जाता है।
यह सच है गुरूवर नामवर सिंह की दो परंपराएं हैं, एक भक्त परंपरा जो सीधे भक्ति साहित्य तक ले जाती है और दूसरी मार्क्सवादी परंपरा जो अत्याधुनिक विषयों और आधुनिक समाज की समस्याओं की ओर ले जाती है। जिन शिष्यों ने भक्तिमार्ग का अनुसरण किया वे लेखन में पुराने विषयों के प्रेमी बने। अतीत के प्रचारक बने। वे वर्तमान में लौटते ही नहीं हैं। वे सत्ता के चाकर बने। वर्चस्वशाली ताकतों का हिस्सा बने। भीड़ बने।
नामवर सिंह की कक्षा में हमेशा भक्त और आलोचक दो कोटि के विद्यार्थी रहे हैं। भक्तों को मेवा मिली ,डिग्री मिली,ग्रेड मिले,पद मिले,पुरस्कार मिले,लेकिन ज्ञान नहीं मिला। आलोचक शिष्यों को ज्ञान मिला,सम्मान मिला,आलोचनात्मक विवेक मिला,संघर्ष का रास्ता मिला,चुनौतियां मिलीं और जनता का बेइंतिहा प्यार मिला।
गुरूवर नामवर सिंह के जो आलोचक शिष्य थे वे उनकी बातों पर विवाद करते थे, उनकी बातों,धारणाओं पर असहमति व्यक्त करते थे। इस कारण उन्हें अनेकबार क्षति भी उठानी पड़ती थी और क्षति का सिलसिला बाद में भी बना रहता था। इसके बावजूद नामवर सिंह की विद्वतापूर्ण परंपरा का विकास इन्हीं आलोचक शिष्यों ने किया ,भक्त शिष्यों ने नहीं किया।
गुरूवर नामवर सिंह की शिष्य परंपरा का जिक्र करना इसलिए भी जरूरी है कि उसमें जो कूपमंडूक शिष्य रहे हैं ,जो इन दिनों गुरूकृपा और सिंहों (स्व.विश्वनाथप्रताप सिंह,अर्जुन सिंह,दिग्विजय सिंह आदि) की कृपा से परमपदों को प्राप्त कर चुके हैं,वे इन दिनों ज्ञान में दूर की कौडियां फेंक रहे हैं उनमें से ही एक जनाब पिछले दिनों कोलकाता आए और बताकर गए कि 12वीं सदी में ही लोकसमाज था और उस लोकसमाज की अभिव्यक्ति का भक्ति साहित्य लिखा गया। अब बताइए इस अतीतप्रेम का क्या करें ?
हमारे बीच में अतीतपूजकों की भीड़ है और वे सब जगह उपलब्ध हैं। श्रोताओं ने वाह-वाह की,अध्यक्षता कर रहे एक स्थानीय विद्वान ने प्रशंसा करते-करते चरण ही पकड़ लिए। मेरी समस्या यह नहीं है कि बोलने वाले कितने बड़े विद्वान हैं, विद्वान तो वे हैं ही, वे जेएनयू में प्रोफेसर रहे हैं, इन दिनों लोकसंघसेवा आयोग के सदस्य हैं। उनका नाम पुरूषोत्तम अग्रवाल है। वे सुंदर वक्ता हैं। लोग उनकी भक्ति करें और प्रशंसा में बिछ जाएं, मुझे इससे भी कोई शिकायत नहीं है। मेरी समस्या यह है कि भारत में 12वीं सदी में लोकसमाज कहां से पैदा हो गया ?
आज के जमाने में कोई व्यक्ति ,वह भी जेएनयू का पढ़ा-लिखा,वहां का भू.पू. प्रोफेसर जब यह कहे तो निश्चित रूप से चिंता की बात है। तथ्य , सत्य और सामाजिक इतिहास इन तीनों ही दृष्टियों से यह बात गलत और आधारहीन है। मजेदार बात यह है कि यह सच्चाई किसी भी मध्यकाल के मार्क्सवादी और गैर मार्क्सवादी इतिहासकार को नजर नहीं आयी। स्वयं कार्ल मार्क्स,एंगेल्स को एशियाई उत्पादन पद्धति का विश्लेषण करते हुए दिखाई नहीं दी। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय से लेकर के.दामोदरन तक किसी भी दर्शनशास्त्री को नजर नहीं आयी। रामशरण शर्मा से लेकर रोमिला थापर,मोहम्मद हबीब से लेकर इरफान हबीब तक किसी को भी 12 वीं सदी में लोकसमाज की धारणा हाथ नहीं लगी।
तकरीबन सभी बड़े इतिहासकारों ने भक्ति आंदोलन पर काम किया है उन्हें भी वहां लेकसमाज दिखाई नहीं दिया। यहां तक कि समाजशास्त्री धूर्जटि प्रसाद मुखर्जी को भी भक्ति आंदोलन के मूल्यांकन के क्रम में यह धारणा नजर नहीं आयी। मार्क्सवादी समाजशास्त्री टाम बाटमोर को भी दिखाई नहीं दी। मानवविज्ञानियों को भी यह बात नजर नहीं आयी और यह दूर की कौड़ी पुरूषोतम अग्रवाल को दिख गई है। धन्य हैं वे और उनका ज्ञान । लोकसमाज समाज कभी औद्योगिक पूंजीवाद के बिना जन्म नहीं लेता। व्यापारिक पूंजीवाद में किसी भी देश में लोकसमाज नहीं बना है।
हिन्दी में पुरूषोत्तम अग्रवाल अकेले ‘आलोचक’ नहीं हैं जो 12वीं सदी में लोकसमाज खोज लाए हैं यह काम बड़े ही अवैज्ञानिक ढ़ंग से रामविलास शर्मा पहले कर चुके हैं। अन्य छुटभैय्ये आलोचक तो अनुकरण करके रामविलास शर्मा का भावानुवाद करते रहे हैं।
12वीं शताब्दी का भारत कैसा था और सामाजिक संरचनाएं कैसी थीं इस पर मध्यकाल के इतिहासकार अधिकारी विद्वानों ने इतना लिखा है कि उसे भी यदि गंभीरता से पुरूषोत्तम अग्रवाल ने पढ़ लिया होता तो उनका उपकार होता। लेकिन वे अतीतप्रेम और मौलिक खोज के चक्कर में जिन तर्कों के आधार पर 12 वीं सदी में लोकसमाज खोज रहे हैं वैसा और उससे भी सुंदर लोकसमाज तो वैदिककाल में भी है। ईसा के जमाने और देश में भी था। कुरान के रचनाकाल में था।
लोकसमाज एक समाजशास्त्रीय केटेगरी है। हिन्दी का आलोचक इसका बड़े ही चलताऊ ढ़ंग से इसका इस्तेमाल करता है और उसका यही चलताऊ ढ़ंग ही है जो उसे अवैज्ञानिक अवधारणात्मक समझ तक ले जाता है।
12 वीं सदी में लोकसमाज नहीं था बल्कि वर्ण व्यवस्था पर आधारित जाति समाज था। यह निर्विवाद सत्य है। जाति समाज में क्षय के लक्षण नजर आ रहे थे। लेकिन जाति संरचनाओं के सामाजिक आधार को कभी उस दौर में चुनौती नहीं दी गयी। भक्ति आंदोलन के कवियों के यहां जो जाति व्यवस्था का विरोध है वह एक मानसिक कोटि के रूप में है ,भक्ति के कवि जातिप्रथा के सामाजिक आधार को कभी चुनौती नहीं देते। भौतिक तौर पर यह संभव भी नहीं था।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि लोकसमाज के उदय और विकास के लिए प्रकृतिविज्ञान का उदय जरूरी है। प्रकृतिविज्ञान की खोजों के पहले लोकसमाज,औद्योगिक पूंजीवाद जन्म नहीं लेता। कम से कम 12 वीं सदी में प्रकृतिविज्ञान का उदय सारी दुनिया में कहीं पर भी नहीं हुआ था। भारत में भी नहीं। प्रकृतिविज्ञान और आधुनिक विज्ञान की अन्य खोजों के कारण लोकसमाज के निर्माण की प्रक्रिया 18वीं सदी के आरंभ से दिखती है। उसके पहले नहीं।
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Wednesday, September 15, 2010
दूसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल
२४ से २६ सितम्बर, २०१० शैले हाल, नैनीताल क्लब, मल्लीताल, नैनीताल, उत्तराखंड.
(गिर्दा और निर्मल पांडे की याद में)
युगमंच और द ग्रुप, जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजितप्रमुख आकर्षण :फीचर फिल्म:दायें या बायें (निर्देशिका: बेला नेगी), खरगोश(निर्देशक: परेश कामदार), छुटकन की महाभारत (निर्देशक: संकल्प मेश्राम) डाक्यूमेंटरी:वसुधा जोशी की फिल्मों पर ख़ास फोकस ( फिल्में : अल्मोडियाना, फॉर माया, वायसेस फ्राम बालियापाल)जश्ने आज़ादी (निर्देशक: संजय काक), कित्ते मिल वे माह़ी (निर्देशक: अजय भारद्वाज ), फ्राम हिन्दु टू हिन्दुत्व (निर्देशक: देबरंजन सारंगी ), आई वंडर ( निर्देशिका: अनुपमा श्रीनिवासन ), अँधेरे से पहले (निर्देशक: अजय टी जी ) और मेकर्स ऑफ़ दुर्गा (निर्देशक: राजीव कुमार)।अन्य आकर्षण :प्रयाग जोशी और बी मोहन नेगी का सम्मान, बी मोहन नेगी के चित्रों और कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी, अफ्रीका के जन जीवन पर पत्रकार राजेश जोशी का व्याख्यान -प्रदर्शन , युगमंच के बाल कलाकारों द्वारा लघु नाटक, तरुण भारतीय और के मार्क स्वेअर द्वारा संयोजित म्यूजिक विडियो का गुलदस्ता, लघु फिल्मों का पैकेज,फिल्मकारों के साथ सीधा संवाद और फैज़, शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय और गिर्दा की कविताओं के पोस्टरों का लोकार्पण । ख़ास बात: यह आयोजन पूरी तरह निशुल्क है । फिल्म फेस्टिवल में प्रवेश के लिए किसी भी तरह के औपचारिक आमंत्रण की जरुरत नहीं है.संपर्क: ज़हूर आलम , संयोजक , दूसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल इन्तखाब, मल्लीबाज़ार, मल्लीताल, नैनीताल, उत्तराखंड फ़ोन: 09412983164, 05942- 237674 संजय जोशी, फेस्टिवल निदेशक, दूसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल C-303 जनसत्ता अपार्टमेंट्स , सेक्टर 9, वसुंधरा गाज़ियाबाद , उत्तर प्रदेश -201012 फ़ोन: 09811577426, 0120-४१०८०९०
नैनीताल में सितम्बर के महीने में मौसम सुहावना रहता है लेकिन फिर भी गरम कपड़ों की जरुरत पड़ सकती है. सस्ते और सुन्दर होटल के लिए आप फेस्टिवल के संयोजक ज़हूर आलम से बात कर सकते हैं या खुद भी internet के जरिये अच्छे विकल्प तलाश सकते हैं. फेस्टिवल 24 सितम्बर को दुपहर में 3.30 बजे शुरू होगा. उस दिन वसुधा जोशी की अल्मोड़े के दशहरे पर केन्द्रित डाक्यूमेंटरी अल्मोडियाना और बेला नेगी की पहाड़ के जीवन पर आधारित फीचर फ़िल्म दायें या बाएं का प्रदर्शन होगा. इस फ़िल्म में हाल ही में दिवंगत गिर्दा का भी जीवंत अभिनय है. अगले दोनों दिन यानि 25 और २६ सितम्बर को फेस्टिवल सुबह 10.30 बजे से शुरू होकर रात 9 बजे तक चलेगा .- संजय जोशी
(गिर्दा और निर्मल पांडे की याद में)
युगमंच और द ग्रुप, जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजितप्रमुख आकर्षण :फीचर फिल्म:दायें या बायें (निर्देशिका: बेला नेगी), खरगोश(निर्देशक: परेश कामदार), छुटकन की महाभारत (निर्देशक: संकल्प मेश्राम) डाक्यूमेंटरी:वसुधा जोशी की फिल्मों पर ख़ास फोकस ( फिल्में : अल्मोडियाना, फॉर माया, वायसेस फ्राम बालियापाल)जश्ने आज़ादी (निर्देशक: संजय काक), कित्ते मिल वे माह़ी (निर्देशक: अजय भारद्वाज ), फ्राम हिन्दु टू हिन्दुत्व (निर्देशक: देबरंजन सारंगी ), आई वंडर ( निर्देशिका: अनुपमा श्रीनिवासन ), अँधेरे से पहले (निर्देशक: अजय टी जी ) और मेकर्स ऑफ़ दुर्गा (निर्देशक: राजीव कुमार)।अन्य आकर्षण :प्रयाग जोशी और बी मोहन नेगी का सम्मान, बी मोहन नेगी के चित्रों और कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी, अफ्रीका के जन जीवन पर पत्रकार राजेश जोशी का व्याख्यान -प्रदर्शन , युगमंच के बाल कलाकारों द्वारा लघु नाटक, तरुण भारतीय और के मार्क स्वेअर द्वारा संयोजित म्यूजिक विडियो का गुलदस्ता, लघु फिल्मों का पैकेज,फिल्मकारों के साथ सीधा संवाद और फैज़, शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय और गिर्दा की कविताओं के पोस्टरों का लोकार्पण । ख़ास बात: यह आयोजन पूरी तरह निशुल्क है । फिल्म फेस्टिवल में प्रवेश के लिए किसी भी तरह के औपचारिक आमंत्रण की जरुरत नहीं है.संपर्क: ज़हूर आलम , संयोजक , दूसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल इन्तखाब, मल्लीबाज़ार, मल्लीताल, नैनीताल, उत्तराखंड फ़ोन: 09412983164, 05942- 237674 संजय जोशी, फेस्टिवल निदेशक, दूसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल C-303 जनसत्ता अपार्टमेंट्स , सेक्टर 9, वसुंधरा गाज़ियाबाद , उत्तर प्रदेश -201012 फ़ोन: 09811577426, 0120-४१०८०९०
नैनीताल में सितम्बर के महीने में मौसम सुहावना रहता है लेकिन फिर भी गरम कपड़ों की जरुरत पड़ सकती है. सस्ते और सुन्दर होटल के लिए आप फेस्टिवल के संयोजक ज़हूर आलम से बात कर सकते हैं या खुद भी internet के जरिये अच्छे विकल्प तलाश सकते हैं. फेस्टिवल 24 सितम्बर को दुपहर में 3.30 बजे शुरू होगा. उस दिन वसुधा जोशी की अल्मोड़े के दशहरे पर केन्द्रित डाक्यूमेंटरी अल्मोडियाना और बेला नेगी की पहाड़ के जीवन पर आधारित फीचर फ़िल्म दायें या बाएं का प्रदर्शन होगा. इस फ़िल्म में हाल ही में दिवंगत गिर्दा का भी जीवंत अभिनय है. अगले दोनों दिन यानि 25 और २६ सितम्बर को फेस्टिवल सुबह 10.30 बजे से शुरू होकर रात 9 बजे तक चलेगा .- संजय जोशी
Saturday, September 11, 2010
नूर ज़हीर से एक मुलाकात : दहलीज़ के सफ़र की विचारोत्तेजक शुरुआत
नूर ज़हीर से एक मुलाकात : दहलीज़ के सफ़र की विचारोत्तेजक शुरुआत
--रोहित कौशिक
मौसम बहुत नास्टेल्जिक था. सुबह से हो रही बारिश थम चुकी थी.रविवार ५ सितम्बर की शाम में दिल्ली महानगर के कुछ अदीब, कुछ कलाकार उस 'दहलीज़' के अन्दर अपने ख्वाब, अपनी फ़िक्र के साथ दाखिल हुए जो अभी चंद रोज पहले तामीर हुआ था. पहली मुलाकात तय थी कथाकार, पत्रकार, नाटककार, डांसर और रिसर्चर नूर ज़हीर से. वे आयीं तो जैसे आम आदमी के जबान की खुशबू फ़ैल गयी हर सिम्त. उन्होंने अपने नावेल 'बड़ उरैया' से एक अंश सुनाया. जिसमे एक भोलेभाले किसान मम्दू के सहज गुस्से और उसके द्वारा पडोसी के खच्चर को मार देने के इलज़ाम में चल रहे मुकदमे की दास्तान थी. इस दास्तान में आम आदमी के जबान का जादू तो था ही, उसके ईमान का जबरदस्त रंग भी था. मम्दू जिसकी गेहूं की फसल दीन मुहम्मद से झगडे की वजह से बर्बाद हो गयी थी, क्योंकि उसने उसके खेत तक पानी जाने नहीं दिया था और आम को आंधी ने बर्बाद कर दिया था. एक तरकारी का खेत बचा था, जब उसे भी खच्चर बर्बाद करने लगा तो गुस्से में उसने उसे मार दिया. उसे समझ में नहीं आता कि इसमें गलत क्या है. वकील जिनका धंधा झूठ बोलने पर ही चलता है वे उसे झूठ बोलने को कहते हैं. अदालत में वह कोशिश करता है झूठ बोलने की, लेकिन चूँकि उसने सच बोलने की कसम भी खाई थी, इस वजह से सच बोल देता है. उसे समझ में नहीं आता कि वकील साहब लाल-पीले क्यों हो रहे हैं. आगे उसे बताया जाता है कि अदालत का ईमान और घर का ईमान अलग-अलग होता है. उसे लगता है कि यह तो धोखा है. ईमान तो इन्सान का होता है.
मम्दू के जबान और ईमान से फिर बातों का सिलसिला शुरू हुआ, जो हमारे समय में मौजूद कई जरूरी सवालों तक पंहुचा. विचारो और बहसों की आंच में बारिश के बाद की वह शीतल शाम सुलग उठी और सबको गहरी सार्थकता का एहसास हुआ. नूर ज़हीर ने इस पर चिंता ज़ाहिर की कि हमारे यहाँ कोई जबान ढंग से नहीं सिखाई जा रही है. प्रोग्रेसिव तहरीक के अगुआ रहे सज्जाद ज़हीर और रजिया ज़हीर कि छोटी बेटी नूर ज़हीर ने बताया कि घर का जो अदबी और कल्चरल माहौल था उसमें लिखने कि शुरुआत उन्होंने बहुत डरते हुए की. हालाँकि प्रोत्साहन बहुत मिला. बच्चो के लिए नाटक करने, डांस का प्रशिक्षण पाने और बौद्ध मठों पर अपने शोध के अनुभव को भी उन्होंने साझा किया. उन्होंने एक विचारोत्तेजक बात कही कि बौद्ध काल में पितृसत्ता मजबूत हुई और जो इस्लाम में तो बहुत ताकतवर है. एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि वे नहीं मानतीं कि भारत में मुस्लिम समाज इतने खौफ और असुरक्षाबोध में घिरा है कि मुस्लिम औरतों की आज़ादी और बराबरी की लड़ाई को उसके बहाने धीमा किया जाए या रोक दिया जाए. पत्रकार भाषा सिंह ने इससे सहमति जाहिर करते हुए कहा कि गुजरात में सारी लड़ाई औरतें ही लड़ रही हैं. समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट ने याद दिलाया कि वहां हिन्दू औरतों ने हमले भी किये इसे भी नहीं भूलना चाहिए. हालाँकि उन्होंने जोर देकर कहा कहा कि इस वक्त महत्वपूर्ण लड़ाइयों की कमान औरतों ने सँभाल रखी है. मेघा पाटेकर से लेकर अरुंधती तक इसका उदाहरण हैं. सुधीर सुमन ने नूर ज़हीर और यशपाल की एक कहानी का हवाला देते हुए कहा कि दरअसल पूरी जद्दोजहद ऐसे लोकतान्त्रिक मूल्यों के निर्माण के लिए है, जिसमे कोई स्त्री पुरुष खुद को न शोषित समझे न किसी का शोषण करे. आज़ादी और बराबरी के मूल्य दोनों के लिए समान हों. आलोचक- व्यंग्यकार प्रेमपाल शर्मा ने हिंदी पट्टी की सामन्ती सामाजिक संरचना को बदलने की जरूरत पर जोर दिया.आलोचक आशुतोष ने इज्जत के नाम पे होने वाली हत्याओं के मामले में छात्रों की राय का जिक्र करते हुए समाज के लोकतान्त्रिक रूपांतरण के सवाल को लेकर चिंताजनक सवाल खड़ा किया. फिर जेंडर इश्यू पर जम के चर्चा हुई. खाप पंचायतों, हिंदी साहित्य में स्त्री लेखन और कुछ पत्रिकाओं द्वारा चलाए जा रहे स्त्री विमर्श के तौर तरीके पर गर्मागर्म बहसें चलीं. नूर ज़हीर ने कहा कि हिंदी कि तुलना में देखें तो उर्दू अदब में तो जेंडर इश्यू उठा पाना बहुत मुश्किल है.
सेकुलरिज्म और हिन्दू मुस्लिम रिश्तों के सबंध में भी बातें हुई. पत्रकार भूपेन ने कहा कि मजहब को मानते हुए सेकुलरिज्म संभव नहीं है. नूर ज़हीर ने अपने दादा की दो हिन्दू बहनों का हवाला देते हुए कहा कि उन लोगों को अपने अपने धर्म और रिवाज में आस्था थी, पर इसके बावजूद रिश्ते बहुत मधुर थे, बल्कि वे एक दूसरे के हितों की फ़िक्र करते थे. एक खास तरह की राजनीति ने दोनों सम्प्रदायों के बीच जो दूरी बढाई है, जिस तरह का अविश्वास और नफरत पैदा किया है उसे लेकर भी चिंता जाहिर की गयी. नूर जहीर ने कहा कि लेफ्ट idealogy के बिना आजाद हिंदुस्तान को देखना उनके लिए संभव ही नहीं है. पंकज बिष्ट ने कहा कि कोई अगर डेमोक्रेटिक है तो वह एंटी वुमेन या एंटी सेकुलर नही हो सकता. उन्होंने कहा कि इस वक्त भारतीय स्टेट अपना रोल प्ले करने में असफल रहा है, कई समस्याएँ इस वजह से भी बनी हुई हैं. बहस में कवि कुमार मुकुल, मुकुल सरल, पत्रकार श्याम सुशील ने भी महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया. इस मौके पर खालीद. उपेन्द्र स्वामी, सीरज सक्सेना, मुकुल पन्त, वंदना, सुलेखा और मनीषा भी मौजूद थे.
इस तरह दहलीज़ के सफ़र की शुरुआत हुई. दहलीज़ एक कोशिश है अदब, कला और विचार को जीवन शैली का हिस्सा बनाने की. इस कोशिश के तहत हर महीने के पहले रविवार को १३३, कला विहार, मयूर विहार फेज १ में रचनाकारों से मुलाकात और बात होगी. दहलीज़ का ईमेल है- dahleez@rediffmail.com, mobile n. 9818999500. संयोजक हैं रोहित कौशिक.
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