Friday, October 1, 2010

अयोध्या फैसले पर पुरातत्वविद, इतिहासकार और समाजशास्त्री

अयोध्या फैसले पर वक्तव्य

30 सितम्बर 2010 को इलाहाबाद उच्च-न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ द्वारा राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में दिए फैसले में इतिहास,तर्क और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की जो गति हुई है वह गहन चिंता का विषय है. सर्वप्रथम यह दृष्टिकोण,कि बाबरी मस्जिद किसी हिन्दू मंदिर के स्थान पर बनाई गई थी और जिसका तीन में से दो न्यायाधीशों ने समर्थन किया है, उन साक्ष्यों पर गौर नहीं करता जो इस तथ्य के विपरीत हैं और भारतीय पुरातत्व सर्वे (एएसआई) द्वारा स्वयं कराई गई खुदाइयों में सामने आये हैं: जानवरों की हड्डियों की सर्वत्र मौजूदगी और साथ ही साथ सुर्खी और चूने के गारे का इस्तेमाल (जो सब मुस्लिम उपस्थिति के अभिलक्षण हैं) वहाँ मस्जिद के नीचे किसी हिन्दू मंदिर के मौजूद रहे होने की सम्भावना को नकारते हैं. भारतीय पुरातत्व सर्वे की विवादास्पद रिपोर्ट जिसने 'आधार स्तंभों' की बिना पर इसके विपरीत बात कही, ज़ाहिर तौर पर कपटपूर्ण थी क्योंकि कोई खम्भे पाए ही नहीं गए, और 'आधार स्तंभों' की कथित मौजूदगी पुरातत्ववेत्ताओं के बीच विवाद का विषय रही है. अब यह ज़रूरी हो गया है कि एएसआई द्वारा करवाई गई खुदाई से जुड़ी साइट नोटबुकें, कलाकृतियाँ और अन्य भौतिक प्रमाण विद्वानों, इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा परीक्षण हेतु उपलब्ध कराए जाएँ.

इस तथ्य के बारे में भी कोई सुबूत पेश नहीं किया गया है कि भगवान राम की जन्मस्थली वहीं है जहाँ मस्जिद थी ऐसी हिंदू मान्यता, 'आदिकाल' से तो क्या हाल के वर्षों से थोड़ा पहले मौजूद भी थी. यह फैसला इसलिए गलत तो है ही कि यह इस मान्यता की प्राचीनता को स्वीकार करता है, बल्कि यह बात बेहद तकलीफदेह भी है कि इस स्वीकरण को मिल्कियत की हकदारी का फैसला करने के तर्क में तब्दील किया गया. यह न्याय और निष्पक्षता के सभी सिद्धांतों के विपरीत प्रतीत होता है.

इस निर्णय की सबसे आपत्तिजनक बात यह है कि यह हिंसा और बाहुबल को जायज़ ठहराता है. यह फैसला 1949 में हुई जबरन घुसपैठ को तो मान्य करता है जिसमें मस्जिद की गुम्बदों के नीचे मूर्तियाँ रखी गईं, पर अब यह बिना किसी तार्किक आधार के यह मान्य करता है कि उस स्थानान्तरण ने मूर्तियों को उनकी उचित जगह दिलाई. और भी आश्चर्यजनक बात यह है कि यह फैसला (जी हाँ, उच्चतम न्यायालय के ही आदेशों की अवज्ञा करते हुए) 1992 में हुए मस्जिद के विध्वंस को ऐसे कृत्य के तौर पर स्वीकार करता है जिसके नतीजे मंदिर बनाने की दुहाई देने वालों को मस्जिद के मुख्य हिस्से हस्तांतरित करके स्वीकार करने पड़ेंगे.

इन सारी वजहों से हम इस फैसले को हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष तानेबाने और न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को लगे आघात के तौर पर देखते हैं. इस मामले में आगे जो भी हो, देश जिसे खो चुका बदकिस्मती से वह तो ठीक होने से रहा.

रोमिला थापर
के.एन.श्रीमाली
डी.एन.झा
के.एन.पणिक्कर
अमिय कुमार बागची
इक़तिदार आलम खान
शीरीं मूसवी
जया मेनन
इरफ़ान हबीब
सुवीरा जैसवाल
केशवन वेलुथात
डी. मंडल
रामकृष्ण चटर्जी
अनिरुद्ध राय
अरुण बंदोपाध्याय
ए. मुरली
वी.रामकृष्ण
अर्जुन देव
आर.सी.ठकरान
एच.सी.सत्यार्थी
अमार फारुक़ी
बी.पी.साहु
बिस्वमय पती
लता सिंह
उत्सा पटनायक
ज़ोया हसन
प्रभात पटनायक
सी.पी.चंद्रशेखर
जयती घोष
अर्चना प्रसाद
शक्ति काक
वी.एम.झा
प्रभात शुक्ल
इंदिरा अर्जुन देव
महेंद्र प्रताप सिंह
और अन्य

(सहमत द्वारा जारी)
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(वक्तव्य की मूल अंग्रेजी प्रति नीचे दी जा रही है)
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SAHMAT


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Date 1.10.2010

Statement on Ayodhya Verdict


The judgement delivered by the Lucknow Bench of the Allahabad High Court in the Ram Janmabhoomi-Babri Masjid Dispute on 30 September 2010 has raised serious concerns because of the way history, reason and secular values have been treated in it. First of all, the view that the Babri Masjid was built at the site of a Hindu temple, which has been maintained by two of the three judges, takes no account of all the evidence contrary to this fact turned up by the Archaeological Survey of India’s own excavations: the presence of animal bones throughout as well as of the use of ‘surkhi’ and lime mortar (all characteristic of Muslim presence) rule out the possibility of a Hindu temple having been there beneath the mosque. The ASI’s controversial Report which claimed otherwise on the basis of ‘pillar bases’ was manifestly fraudulent in its assertions since no pillars were found, and the alleged existence of ‘pillar bases’ has been debated by archaeologists. It is now imperative that the site notebooks, artefacts and other material evidence relating to the ASI’s excavation be made available for scrutiny by scholars, historians and archaeologists.

No proof has been offered even of the fact that a Hindu belief in Lord Rama’s birth-site being the same as the site of the mosque had at all existed before very recent times, let alone since ‘time immemorial’. Not only is the judgement wrong in accepting the antiquity of this belief, but it is gravely disturbing that such acceptance should then be converted into an argument for deciding property entitlement. This seems to be against all principles of law and equity.

The most objectionable part of the judgement is the legitimation it provides to violence and muscle-power. While it recognizes the forcible break-in of 1949 which led to placing the idols under the mosque-dome, it now recognizes, without any rational basis, that the transfer put the idols in their rightful place. Even more astonishingly, it accepts the destruction of the mosque in 1992 (in defiance, let it be remembered, of the Supreme Court’s own orders) as an act whose consequences are to be accepted, by transferring the main parts of the mosque to those clamouring for a temple to be built.

For all these reasons we cannot but see the judgement as yet another blow to the secular fabric of our country and the repute of our judiciary. Whatever happens next in the case cannot, unfortunately, make good what the country has lost.


Romila Thapar

K.M. Shrimali

D.N. Jha

K.N. Panikkar

Amiya Kumar Bagchi

Iqtidar Alam Khan

Shireen Moosvi

Jaya Menon

Irfan Habib

Suvira Jaiswal

Kesavan Veluthat

D. Mandal

Ramakrishna Chatterjee

Aniruddha Ray

Arun Bandopadhyaya

A. Murali

V. Ramakrishna

Arjun Dev

R.C. Thakran

H.C. Satyarthi

Amar Farooqui

B.P. Sahu

Biswamoy Pati

Lata Singh

Utsa Patnaik

Zoya Hasan

Prabhat Patnaik

C.P. Chandrasekhar

Jayati Ghosh

Archana Prasad

Shakti Kak

V.M. Jha

Prabhat Shukla

Indira Arjun Dev

Mahendra Pratap Singh

and Others

5 comments:

Arvind said...

समझ नहीं आता आप सभी लोग इस तरह से माहौल खराब क्यों कर रहे हो?
अगर फैसला गलत है तो सुप्रीम कोर्ट जाओ, यहां इस तरह की बयानबाजी करके क्या प्राप्त करना चाहते हो?

देश को आप जैसे स्वार्थी बयानबाजों से मुक्ति प्राप्त करने की आवश्यकता है.. कब तक मन्दिर और मस्जिद का नाम लेते रहोगे...

कोई काम नहीं है क्या आप लोगों के पास करने को़?

परमेन्द्र सिंह said...

तर्कसंगत कथन का जवाब इस तरह से दिया जाएगा तो लोकतंत्र का क्या अर्थ ? अगर हताशा पर ‘सहमत’ इस प्रकार प्रतिक्रिया कर रहा है तो इसमें राजनीति हो गयी। जनाब हमारे देश की एक पार्टी तो खड़ी ही इस मंदिर-मस्जिद के मुद्दे पर हुई है। यदि ‘सहमत’ का यह वक्तव्य माहौल खराब कर रहा है तो विहिप का ‘संत समाज’ जो बचे हुए तीसरे हिस्से पर भी अपना दावा ठोकता घूम रहा है, उस कोशिश को क्या कहेंगे ?

अश्वनी said...

har tark sangat kathan ka bahut bahut swagat he. SAHAMAT KE TARK bhi kiafi ek tarfa lag rahe hain. yadi kuch tahtyon ko aur ujagar kiya jaye, ASI ki report ke kuch tathyon ko sabhi ke samne laya jaye to virodh acha lagega.
manneeye nyayadheesh khan ne jo nirnay diya he us per bhi kuch roshni dali jaye to tark karne me achha lagega

Ashwani Khandelwal.

Ek ziddi dhun said...

aSHWINI jI, SABSE PRATHMIK BAATO YAHI HAI KI KYA ADALAT MEN KOII MUQDMA KANOON KE ADHAAR PAR HONA YA CHAHIYE, YA PHIR ASTHA KE ADHAR PAR.PHIR YH SAHMAT KA BAYAN KISI SAHMAT NAAM KE VYAKTI KA NAHI HAI, BALKI DESH KE SABSE BADE PURATATVVIDO, ITIHASKARO AUR SAMAJSHASTRIYON KA HI HAI.
ASHCHRY HI HAI KI BAKAYDA HALLA BOLTE, KATL-O-GARAT KARTE HUE JINHONE BABRI MASJID KO TODA, UNKA JIKR TAK MUNASIB NAHI SAMJHA GAYA. aDWANI KO AKHIR ADALAT NE HI PAK-SAF KAH DIYA THA.

परमेन्द्र सिंह said...

एकदम सही कहा धीरेश जी आपने। सहमत का बयान तो खुद एएसआई की रिपोर्ट को सामने लाने की बात कर रहा है।