३० सितंबर
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दिल तो टूटा है बारहा लेकिन
एक भरोसा था वो भी टूट गया
किससे शिकवा करें, शिकायत हम
जबकि मुंसिफ ही हमको लूट गया
ज़लज़ला याद दिसंबर का हमें
गिर पड़े थे जम्हूरियत के सुतून
इंतज़ामिया, एसेंबली सब कुछ
फिर भी बाक़ी था अदलिया का सुकून
छै दिसंबर का ग़िला है लेकिन
ये सितंबर तो चारागर था मगर
ऐसा सैलाब लेके आया उफ!
डूबा सच और यकीं, न्याय का घर
उस दिसंबर में चीख़ निकली थी
आह! ने आज तक सोने न दिया
ये सितंबर तो सितमगर निकला
इस सितंबर ने तो रोने ने दिया
(इंतज़ामिया- कार्यपालिका, एसेंबली- विधायिका, अदलिया- न्यायपालिका, चारागर- इलाज करने वाला)
4 comments:
bahut khoob
dabirnews.blogspot.com
प्रतिबिम्ब पुष्ट हैं।
सितम्बर और सितमगर का जवाब नहीं ।
सुना है, आहों से कुछ चीजें बरबाद हो जाती है.
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