Monday, October 4, 2010

अयोध्या फैसले पर जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा पारित प्रस्ताव


जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक (2 अक्टूबर 2010, नई दिल्ली) में अयोध्या मसले पर हाल के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर पारित प्रस्ताव


जन संस्कृति मंच विवादित अयोध्या मुद्दे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के उससे भी ज्यादा विवादित फैसले पर सदमे और दुख का इजहार करता है. यूं तो सर्वोच्च न्यायालय तक का सफर बाकी है, लेकिन इस फैसले के पक्ष में एक ओर संघ परिवार तो दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी जिस तरह राजनीतिक सर्वानुमति बनाने का प्रयास कर रही हैं, वह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है. यह फैसला सत्ता की राजनीति के तकाजों को पूरा करने वाला, तथ्यों और न्याय-प्रक्रिया के ऊपर धार्मिक आस्था को तरजीह देने वाला और पुरातत्व सर्वेक्षण की अत्यंत विवादास्पद रिपोर्ट से निकाले गए मनमाने निष्कर्षों पर आधारित है. इस फैसले ने अप्रामाणिक, निराधार, तर्कहीन ढंग से इस बात पर मुहर लगा दी है कि जहां रामलला की मूर्ति 1949 में षड्यंत्रपूर्वक रखी गई थी, वही राम का जन्मस्थान है. ऐसा करके न्यायालय के इस फैसले के परिणामस्वरूप न केवल 1949 की उस षड्यंत्रकारी हरकत, बल्कि 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने की बर्बर कार्रवाई को भी प्रकारांतर से वैधता मिल गई है. सवाल यह भी है कि क्या यह फैसला देश के संविधान के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष प्रतिज्ञाओं के भी विरुद्ध नहीं है?

यह पहली बार हुआ है कि आस्था और विश्वास को सियासत के तकाजे से दीवानी मुकदमे की अदालती प्रक्रिया में निर्णय के एक वैध आधार के रूप में मान्यता दी गई. मिल्कियत का विवाद सिद्ध किए जा सकने योग्य सबूतों के आधार पर नहीं, बल्कि अवैज्ञानिक आस्थापरक आधारों पर निपटाकर इस फैसले ने न्याय की समूची आधुनिक परिभाषा को ही संकटग्रस्त कर दिया है. इतना सबकुछ करने के बाद भी यह फैसला इस विवाद को सुलझाने में न केवल नाकामयाब रहा है, बल्कि उसने धर्मस्थानों को लेकर तमाम दूसरे सियासी विवादों के लिए भविष्य का रास्ता खोल दिया है. एक तो पुरातत्व सर्वेक्षण खुद में ही मिल्कियत के विवाद निबटाने के लिए एक संदिग्ध आधार है, दूसरे देश के तमाम बड़े इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने सर्वेक्षण की प्रक्रिया और तौर-तरीकों पर लगातार एतराज जताया है. अनेक विश्वप्रसिद्ध पुरातत्वविद पहले से ही कहते आए हैं कि इस भूखंड की खुदाई में ऐसे कोई भी खंभे नहीं मिले हैं, जिनके आधार पर पुरातत्व की रिपोर्ट वहां मंदिर होने की संभावना व्यक्त करती है, दूसरी ओर पशुओं की हड्डियों और अन्य पुरावशेषों से वहां दीर्घकालीन मुस्लिम उपस्थिति का अवश्य ही प्रमाण मिलता है. ऐसे में न्यायालय की खंडपीठ द्वाराबहुमत से यह मान लेना कि मस्जिद से पहले वहां कोई हिंदू धर्मस्थल था, पूरी तरह गैरवाजिब प्रतीत होता है.

‘‘वर्तमान की सियासत को जायज ठहराने के लिए हम अतीत को झुठला नहीं सकते."- इतिहासकार रोमिला थापर के इस वक्तव्य में निहित एक अध्येता, एक नागरिक और एक देशप्रेमी की पीड़ा में अपना स्वर मिलाते हुए हम इतना और जोड़ना चाहेंगे कि अमूल्य कुर्बानियों से हासिल आजादी, लोकतंत्र, न्याय और धर्मनिरपेक्षता के उसूलों के खिलाफ जाकर ‘आस्था की राजनीति’ के तकाजों को पूरा करने वाले किसी भी अदालती निर्णय को कठोर राजनैतिक-वैचारिक बहस के बगैर स्वीकार करना देश के भविष्य के साथ एक अक्षम्य समझौता होगा.


प्रणय कृष्ण
महासचिव, जन संस्कृति मंच
द्वारा जारी

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

अतीत को मरोड़कर वर्तमान को चौपट करने का काम न करें बुद्धिजीवीजन। अपनी मान्यताओं को सत्य कह प्रचारित करने से वह सत्य नहीं हो जाता है।
पहले अतीत सिद्ध कर लें तब अतीत का सहारा लें।