Thursday, December 2, 2010

रोज़ा पार्क्स जिसने अपनी सीट से उठने से मना कर दिया था


एक दिन एक औरत ने कहा कि मैं भेदभाव नहीं मानूँगी और उसने उस सीट से उठने से मना कर दिया, जो नस्लवादी नियमों के अनुसार उसके लिए नहीं थी। आज यह एक सामान्य वाक्य सा लगता है। जैसे कोई कहानी हो। यह वाक्य बीसवीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक की रवानी है। इस घटना के बाद से एक आन्दोलन की शुरुआत हुई, जिसका सिलसिला ओबामा के राष्ट्रपति बन सकने तक जुड़ा है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में हालांकि दास प्रथा को उन्नीसवीं सदी के गृहयुद्ध (१८६२-६४) के बाद गैरकानूनी करार कर दिया गया था, पर जल्दी ही कई तरह के दाँवपेंचों के जरिए गोरे शासक काले लोगों की आजादी को निरर्थक कर डालने में सफल हो गए थे। दीवालिएपन के नाम पर उनसे मतदान का अधिकार छीन लिया गया। फिर दक्षिणी राज्यों में गोरी बहुलता वाली सभाओं में उनके खिलाफ मत पारित कर जिम क्रो कहलाने वाली एक ऐसी व्यवस्था बनाई गयी, जो अपने स्वरुप में दक्षिण अफ्रीका में १९४८ से १९९० तक चली अपार्थीड व्यवस्था के समान थी। कई सार्वजनिक जगहों पर कालों की उपस्थिति पर निषेध लागू किया गया। अन्य जगहों पर जैसे, रेस्तरां, दफ्तरों आदि जगहों पर उनके आने जाने के लिए अलग दरवाजे बनाए गए। इस व्यवस्था का विरोध तो होना ही था। विरोध की कई धाराएँ पनपीं। मार्कस गार्वे का 'बैक टू अफ्रीका', डब्ल्यू ई बी ड्युबोयस की बौद्धिक लडाई, यह सब एक लंबा इतिहास है। आखिर मुख्यधारा में रहते हुए ही संघर्ष होना था और इसकी शुरुआत एक अनोखे ढंग से हुई। अन्य दक्षिणी राज्यों की तरह अलाबामा के मांटगोमरी शहर की बसों में गोरे और काले लोगों के लिए अलग सीटें तय थीं। चूँकि बसों में चलने वाले लोग ज्यादातर काले होते थे, इसके बावजूद कि गोरों की सीटें खाली पडी होती थीं, काले लोगों को खड़े रहना पड़ता था। एक दिन, १ दिसंबर १९५५ को, बयालीस साल की रोजा पार्क्स ने सीट से उठने से मना कर दिया। इसके पहले भी ऐसी घटनाएं हो चुकी थीं। पर निहायत ही साधारण महिला होते हुए भी रोज़ा राष्ट्रीय कलर्ड जन संगठन (National Association for the Advancement of Colored People (NAACP)) की स्थानीय शाखा की सचिव थी। और उसके अपने शब्दों में वह 'अन्याय मानते रहने से थक चुकी थी'। उसके इस कदम लेने पर लोगों में व्यापक चेतना फैली और जल्दी ही यह नस्लवाद विरोधी व्यापक जनांदोलन में तब्दील हो गया जिसका नेतृत्व रेवरेंड मार्टिन लूथर किंग ने किया। साथ ही ब्लैक इस्लामिक आन्दोलनों और मार्क्सवादी आन्दोलनों ने भी जोर पकड़ा।

रोज़ा एक दूकान में कटाई सिलाई का काम करती थी और अपने ऐतिहासिक कदम के कारण उसकी नौकरी छूट गयी और कई तकलीफों का सामना उसे करना पडा। बाद में डेट्रायट में उसने फिर इसी काम की नौकरी मिली।

मैंने अपने शोध-छात्र दिनों में एक बार रोजा को बोलते सुना था। यकीन नहीं होता था कि अत्यंत साधारण दिखती यह महिला इतने बड़े आन्दोलन के सूत्रपात का कारण बनी। आम अधिकारों के उस संघर्ष की परिणति को आज हम ओबामा के राष्ट्रपति बनने में देखते हैं।

--लाल्टू

(पहली दिसंबर २०१० को रोज़ा पार्क्स के इस ऐतिहासिक कदम के पचपन बरस पूरे हुए. नवम्बर २००८ में रिकार्ड किया गया एमी डिक्सन-कोलार का यह गीत जो ओबामा की ऐतिहासिक जीत को सेलीब्रेट करता है, रोज़ा पार्क्स के उस कदम के महत्त्व को इंगित करता है)


4 comments:

वर्षा said...

गीत तो नहीं सुन सकी, रोज़ा पार्क्स के बारे में सुना था, यहां पढ़कर एक बार फिर अच्छा लगा।

Ashok Kumar pandey said...

रोज़ा पार्क्स के बारे में बस सुना भर था…यह जानकारी पा के बहुत अच्छा लगा…जब कोई लड़ता है/तो ख़ूबसूरत लगने लगता है!

Shalini said...

visited Memphis and museum of Civil war... met someone from that time in Greensboro, Alabama... it was overwhelming to see the respect and thankfulness to Gandhi ji by black people visiting that museum. An old lady had tears in her eyes...
it was heartbreaking to see the advertisement of selling of people from newborn to 70 years old.....

so wonderful to imagine that courage....

agreed with Ashok... I too find people very beautiful when they fight for a cause!!

luv to Roza Parks!!!

Unknown said...

रोजा पार्क्स के साहस की बदौलत ही अमेरिका जैसे राष्ट्र में एक ऐतिहासिक क्रांति का जन्म हुआ था ! आज ऐसी ही एक क्रांति भारत में होनी चाहिए, यह आज के समय ही सबसे आवश्यकता दिख रही है !