(पिछली कड़ी से जारी)
हमने अपनी लोक-प्रज्ञा की उपेक्षा की है, उस पारंपरिक ज्ञान के भण्डार की भी उपेक्षा की है जो पंचायत प्रशासन का आधार थी. इस व्यवस्था में पेड़-पौधों और जड़ी-बूटियों की प्रचुर जानकारी थी, फसलों के आवर्तन, देशी खाद्य व्यवस्था,महाकाव्यों की मौखिक परंपरा,लोक साहित्य,गाथा-गीत,लोक-गीत और ठेठ देशी प्रदर्शन कलाओं का प्राचुर्य था. इस लोक ज्ञान के दायरे में आदिवासी मांझी समुदाय की सामाजिक न्याय पर आधारित व्यवस्था,विधिशास्त्र,पेड़ों को संरक्षित करने से सम्बंधित वर्जनाएं,जंगल का जीवन एवं मानवाधिकार सभी कुछ शामिल था. इस लोक-ज्ञान का तिरस्कार कर हमने सर्वाधिक भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था को, जिसमें चुनाव व्यवस्था भी शामिल थी, ऊपर से नीचे तक पनपने का मौका दिया और ऐसा हमने इसलिए किया क्योंकि यह हमारे निहित स्वार्थ को पोषित करता था और प्रशासन भी सुविधाजनक था. मानक प्रशासनिक व्यवस्था सबसे अधिक सुरक्षित एवं सुविधाजनक थी क्योंकि इसमें आम आदमी की कोई निर्णायक भूमिका नहीं थी.
एकरूपता के सिद्धांत पर आधारित बाज़ार व्यवस्था से सीख लेकर कला,संस्कृति एवं लोक रीति-रिवाजों को भी खरीदी-बिक्री की उपभोक्ता सामग्री में तब्दील कर दिया गया. जैसा कि प्रोफ़ेसर अमिय बागची ने संकेत किया था कि जन जातियों के कल्याण,बड़ी पूँजी एवं बड़े उद्योग तथा कृषि आधारित उद्योगों की ज़रूरतों के हिसाब से विकास के अलग-अलग ढांचों की तलाश को निहायत असुविधाजनक बताते हुए खारिज कर दिया गया. दूसरी तरफ हमने भूमि-वितरण के मुद्दे की वर्षों तक अवहेलना की,जिससे बिचौलियों का शोषण तंत्र पनपता रहा.जंगल एवं जंगल से जुड़े उत्पादों पर से आदिवासियों के अधिकार छीन लिए गए जिसके परिणामस्वरूप जनजातीय विकास में बाधा उपस्थित हुई और वे कंगाल हो गए. इस तरह से उनकी सामुदायिक समझ को नष्ट कर दिया गया और उन्हें दिहाड़ी मजदूर,पियक्कड़ और वेश्या में तब्दील कर दिया गया. इनके स्थान पर हमने असंख्य भ्रष्ट अंतर्राष्ट्रीय दूरदर्शन चैनलों को पनपने दिया जिन्होंने 'चमचमाते भारत' को ग्रामीण एवं जनजातीय सामुदायिक केन्द्रों में प्रदर्शित किया और इस प्रक्रिया में लोक एवं जनजातीय प्रस्तुति कलाओं को विकृत और कमज़ोर कर नष्ट कर दिया गया.हमने जानबूझकर और लगातार बीजों,जड़ी-बूटियों,औषधि-वनस्पतियों और फलों से सम्बंधित अपनी बौद्धिक संपत्ति और अधिकारों की अवहेलना की जिसके फलस्वरूप हल्दी,जीरा,नीम और अन्य मसाले तथा बासमती, आम आदि फल के अधिकार शिकागो,कैलिफोर्निया,फ्रांस आदि की झोली में चले गए. इस तरह से, संस्कृति जो दूसरे शब्दों में हमारी जीवन-शैली थी, उसे विनिमय-वस्तु में तब्दील कर दिया गया और परिणामस्वरूप हमें मिले विदेशी कपडे,नियमित भोजन और नृत्य और संगीत के अपरिचित तरीके.
कला और संस्कृति जो जीवन के हर पक्ष से सम्बंधित है उसे सिर्फ एक विभाग,एक फ़ाइल तक सीमित कर दिया गया और इस छलावे द्वारा संस्कृति को बचाने पर जोर दिया गया. सूचना एवं प्रसारण,वाणिज्य एवं वित्त मंत्रालय के सहयोग एवं तालमेल के बिना ही संस्कृति को सुरक्षित किया गया. इस तरह भारतीय बाज़ार इन मंत्रालयों की खुली छूट की वजह से विदेशी सांस्कृतिक आक्रमण झेलने को अभिशप्त होकर रह गए. हमें इस बात का कभी ख्याल ही नहीं आया कि हम एक सार्थक सांस्कृतिक नीति बनाएं जो रक्षा एवं विदेश मंत्रालयों सहित सभी विभागों के कार्यक्रमों हावी रहे. पोटा जो अब शायद समाप्त होने वाला है, उसे शुरू किया गया और अब एक बार फिर वह विरोधी दलों की कार्यसूची में शामिल है. हम शायद भूल रहे हैं कि रूढ़िवाद, रूढ़िवाद को ही जन्म देता है, साम्प्रदायिकता से साम्प्रदायिकता ही पैदा होती है और आतंकवाद से आतंकवाद. एक बम अनेक बमों की श्रृंखला को जन्म देता है और इस अंधी दौड़ में हम जनसंहार के हथियारों का ढेर लगाते जा रहे हैं.
फासिज़्म जो लोकतंत्र की पूजीवादी व्यवस्था का हिस्सा है, उसके भयानक चेहरे पर से १९६४ में तब नकाब हट गया जब सैकड़ों बस्तर आदिवासियों को उनके राजा समेत मौत के घाट उतार दिया गया. १९८४ में सैकड़ों सिखों का कत्लेआम हुआ, उनकी संपत्ति को या तो लूट लिया गया या जला दिया गया. १९९० में इन दंगों के परिणामस्वरूप भीषण नरसंहार और लूट की वारदातें हुईं, जिंदा लोगों को उनके घर-परिवार से वंचित कर बेरोज़गारी की मार झेलने को छोड़ दिया गया. २००२ में हजारों मुसलमानों का संहार हुआ, जिसमें पहली बार दलित एवं पिछड़ी जनजातियाँ, कैबिनेट मंत्री और पुलिस भी दंगों में शामिल थी. २००४ में ईसाई आदिवासियों को धर्म-परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया. झाबुआ के ईसाई धर्मगुरुओं, चर्चों और ईसाई आदिवासी परिवारों और उनके घरों पर आक्रमण हुआ. इस दबाव के फलस्वरूप सैकड़ों की संख्या में लोग जंगलों में भाग गए और आज भी लापता हैं. इन घटनाओं से जहाँ एक ओर जातियों के समूल विनाश का पता चलता है, वहीँ फासिस्ट आक्रमणों से होने वाले घिनौने आर्थिक लाभ का भी पर्दाफाश होता है. क्या आप किसी अल्पसंखक समुदाय द्वारा प्रचारित किये गए फासिज़्म की कल्पना कर सकते हैं? फासिज़्म पर हमेशा बहुसंख्यक समुदाय का एकाधिकार रहा है, फिर वह चाहे इटली का हो, जर्मनी का या भारत का. सोनिया गांधी के नामांकन के बिना, जिसने कई महत्त्वाकांक्षी सदस्यों की आशाओं पर पानी फेर दिया, अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले मनमोहन सिंह शायद कभी प्रधानमंत्री नहीं बन पाते. आप अल्पसंख्यक समुदाय के किसी सदस्य को राष्ट्रपति के रूप में देख सकते हैं पर क्या आप कभी किसी ईसाई या मुसलमान की प्रधानमंत्री के रूप में कल्पना कर सकते हैं? गांधीजी की सलाह के बावजूद जिन्ना प्रधानमंत्री नहीं बन सके. यहाँ तक की जगजीवन राम जो शूद्र जाति के हिन्दू थे वे भी राजनीतिक दांव-पेंचों और चालों की वजह से प्रधानमन्त्री होते-होते रह गए.
फूट डालो और शासन करो की नीति ने न केवल अल्पसंख्यक समुदाय को अलग अलग वोट बैंकों में बांटा है, बल्कि हिन्दुओं को भी दलित,अनुसूचित जाति एवं जनजातियों में विभाजित कर पूरी चुनाव प्रणाली को ही विकृत व्यवस्था में तब्दील कर सत्ता का रास्ता साफ़ किया है. इस देश में सिर्फ गांधी को ही मारा नहीं गया, उनकी नीतियों का भी दम घोंट दिया गया है. आज गांधी सिर्फ जिह्वा-विलास की वस्तु होकर रह गए हैं, जिनकी तस्वीरें मंत्रियों के दफ्तरों की शोभा हैं और उनका नाम केवल सड़कों और पार्कों के नाम के साथ जुड़कर ही जीवित बचा है.
आज हम एक-ध्रुवीय विश्व में बड़े दादा अमरीका की निगरानी में जी रहे हैं. पर यह बड़ा भाई आज पश्चिमी विश्व के लिए भी एक खतरा बन चुका है. इसी वजह से यूरोपीय संघ का गठन हुआ और यह संघ सैन्य बल के रूप में भी खुद को अमरीका की एकपक्षीय मनमानी की प्रतिरोधी शक्ति के रूप में सुदृढ़ कर रहा है.
यह एक बुरा एवं अप्रिय समय है. अगर हम एक मजबूत भारत चाहते हैं, एक तेज व सक्रिय जीवन-शक्ति से समृद्ध भारत तो हमें कई ज़रूरी कदम उठाने होंगे. हमें समझना होगा की समदृष्टि के बिना कोई भी आर्थिक नीति न तो गरीबी कम कर सकती है, न ही संस्कृति को बचा सकती है और उसका चेहरा तो कदापि मानवीय नहीं हो सकता. सामाजिक न्याय के बिना कोई भी राजनैतिक योजना केवल फासिज़्म को ही जन्म देगी. मानवाधिकार संरक्षण की गारंटी के बिना गृह मंत्रालय की कोई भी नीति सिर्फ और सिर्फ आतंकवाद को ही पनपने में मदद करेगी. निःशस्त्रीकरण की अवधारणा के बगैर बनाई गई रक्षा-नीति सिर्फ तलवार खड़खड़ाने तक ही सीमित होकर रह जायेगी और कभी भी शान्ति कायम नहीं कर पाएगी. सांस्कृतिक सन्दर्भ से रहित विदेश नीति कदापि सद्भाव एवं सही विकास को जन्म नहीं दे पाएगी.
संक्षेप में, हाशिये पर जीवन जीने को अभिशप्त असंख्य वंचितों की भलाई ही मूल समस्या है. हमारे देश की मजबूती और जीवन-शक्ति इन्हीं वंचितों की भलाई से कायम रह सकती है. मैंने बहुत सरलीकृत ढंग से संस्कृति को दो भागों में विभाजित किया है: शोषक-वर्ग की संस्कृति और शोषितों की संस्कृति. आपको तय करना है, आप किसके साथ हैं : शोषकों के या शोषितों के?
(समाप्त)
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