Tuesday, May 24, 2011

नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़तीं



अनिल यादव १९९४ में अचानक मुज़फ़्फ़रनगर के अमर उजाला के दफ्तर में नमूदार हुए थे. दरअसल, अमर उजाला के मुज़फ़्फ़रनगर जिले के प्रभारी जितेंद्र दीक्षित गंभीर रूप से बीमार हो गए थे, जिस वजह से अनिल को मेरठ से हमारे इस कस्बाई शहर में रवाना किया गया था. मैं तब अपनी चौबीसों घंटों की मस्त आवारगी को अखबार की चौबीसों घंटों की अहमकाना रिपोर्टिंग के जुनून में तब्दील कर चुका था. वे दो-ढाई महीने मुज़फ़्फ़रनगर में बिताकर चले गए. उसके बाद बरसों तक उनसे कोई मुलाक़ात नहीं हुई पर उनके किस्से यहाँ-वहाँ सुनने में आते रहे. ये किस्से किसी संपादक-मालिक को किसी खबर से परेशानी में डाल देने, वजह-बेवजह टकरा जाने, किसी रात किसी कब्रिस्तान में होने या किसी गुम्बद पर रात काट देने से लेकर किसी भी हद तक रोमांचित करने वाले हुआ करते थे. किस्से सुनाने वाले इस शख्स की बेपरवाहियों को मिथक की तरह सुनाते गए और धीरे-धीरे अख़बारों की दुनिया में बड़े पदों पर सुरक्षित होते गए. जाहिर है, अनिल यादव की `हाकिम-ए-शहर` से टकराने की जो चीज़ यारों को आसानी में रखने में मदद करती थी, अब उन्हें अपने सुरक्षित ठिकानों को मुश्किल में डालने वाली लगने लगी थी.
एक दिन अचानक खबर मिली कि हजरत दाग़ की नसीहत मानते हुए यह क्रोनिक किस्म का `आवारा` घुमक्कड़ प्रेम की छाँव में जा बैठा है (गो घुमक्कड़ी अभी तक जारी है). और अफसानों के केंद्र में रहने के बाद अफसानानिगार बन चुका है. उनके पास ज़िंदगी के ठेठ अनुभवों का जखीरा है, जो उन्होंने मुश्किलें उठाते हुए बल्कि मुठभेड़ करते हुए पायी हैं और अखबारों की ख़बरों में गर्क होती रही शानदार भाषा है.

अनिल यादव के पहले कहानी संग्रह ‘नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़तीं` पर हमारे समय के महत्वपूर्ण कहानीकार-विचारक योगेंद्र आहूजा की राय गौरतलब है-
`हिंदी में कहानी की दुनिया में इस वक्त एक खलबली, एक उत्तेजना, एक बेचैनी है। एक जद्दोजहद जारी है कहानियों के लिए एक नया स्वरूप, नयी संरचना, नया शिल्‍प पाने की। इस जद्दोजहद का हिस्सा अनिल यादव की कहानियां भी हैं। इस समय जबकि संकल्पनाएं टूट रही हैं, प्राथमिकताएं बदल रही हैं, हमारे राष्‍ट्रीय और सामाजिक जीवन में नयी सत्ताएं और गठजोड़ उभर रहे हैं, आर्थिक संबंध तेजी से बदल रहे हैं और उसके नतीजे में सामाजिक ढांचा और यथार्थ जटिल से जटिलतर होते जा रहे हैं – स्वाभाविक है कि उन्हें व्यक्त करने की कोशिश में कहानी का स्वरूप वही न रहे, उसका पारंपरिक रूपाकार भग्न हो जाये। लेकिन अपने समकालीनों से अनिल यादव की समानता यहीं तक है, इतनी ही – और उनकी कहानियों का वैशिष्‍ट्य इसमें नहीं है।
अनिल जानते हैं कि नये शिल्‍प के माने यह नहीं कि कहानी शिल्‍पाक्रांत हो जाये या भाषिक करतब को ही कहानी मान लिया जाए। ऐसी रचना जिसमें चिंता न हो, विचार न हो, कोई पक्ष न हो, किसी तरह की बौद्धिक मीमांसा न हो, वह महज लफ्जों का एक खेल होती है, कहानी नहीं। अनिल का सचेत चुनाव है कि वे कहानी की दुनिया में चल रहे इस फैशनेबल, आत्महीन खेल से बाहर रहेंगे। वे कहानियों के लिए किसी ऐसे समयहीन वीरान में जाने से इनकार करते हैं, जहां न परंपरा की गांठें हों, न इतिहास की उलझनें। वे अपने ही मुश्किल, अजाने रास्ते पर जाते हैं। तलघर, भग्न गलियों, मलिन बस्तियों, कब्रिस्तान, कीचड़, कचरे और थाने जैसी जगहों से वे कहानियां बरामद कर लाते हैं। तभी लिखी जाती हैं ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ और ‘दंगा भेजियो मौला’ जैसी अद्वितीय ‘डार्क’ कहानियां, इस पुरानी बात को फिर याद दिलाती हुईं कि एक संपूर्ण और प्राणवान रचना केवल अनुभवों, विवरणों या सूचनाओं से या केवल भव्य और आकर्षक शिल्‍प से नहीं बनती, वह बनती है दोनों की एकता से। ‘लोक कवि का बिरहा’ और ‘लिबास का जादू’ में, अन्य कहानियों में भी, हम देखते हैं कहन का एक नया अंदाज, नैसर्गिक ताना बाना और संतुलित और सधा हुआ शिल्‍प, लेकिन अंततः उन्हें जो कहानी बनाता है, वह है जीवन की एक मर्मी आलोचना। इन कहानियों का अनुभवजगत जितना विस्तृत है, उतना ही गझिन और गहरा भी। आज के कथा परिदृश्‍य में ‘लोक कवि का बिरहा’ जैसी कहानी का, जो एक ग्राम्य अंचल में एक लोकगायक के जीवन का, उसकी दहशतों, अपमान, अवसाद और संघर्ष का मार्मिक आख्यान है, समकक्ष उदाहरण तलाश पाना मुश्किल होगा, और ऐसी कहानी शायद आगे असंभव होगी।

इस वक्त हिंदी की दुनिया में हर जानी पहचानी चीज के अर्थों में तोड़ फोड़ की जा रही है। जहां अस्‍पष्‍टता को एक गुण मान लिया जाए, वहां अर्थों की स्‍पष्‍टता भी एक अवगुण हो सकती है। इन कहानियों में न अस्‍पष्‍टता है, न चमकदार मुहावरे, न एकांत आत्मा का नाटक, न अनंत दूरी पर स्थित किसी सत्य को पाने की कोशिश या आकांक्षा, न आत्मालाप, न आत्मा पर जमी गर्द को मिटाने की कोशिश। लेकिन इनमें दर्द से भरे चेहरे बेशुमार हैं जिन्हें आप स्पर्श कर सकते हैं।`


नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़तीं
अंतिका प्रकाशन
सी-५६/यूजीएफ़-४
शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-II
ग़ाज़ियाबाद-२०१००५ (उ.प्र.)

3 comments:

varsha said...

achcha laga padhkar...lagta hai kahaniyan bhi padhi jaani chahiye aur yah ray bhi
अनिल जानते हैं कि नये शिल्‍प के माने यह नहीं कि कहानी शिल्‍पाक्रांत हो जाये या भाषिक करतब को ही कहानी मान लिया जाए।

स्वप्नदर्शी said...

I have read the title story on Harmonium. Its wonderful. Congratulations to author.

शिरीष कुमार मौर्य said...

anil bhai ko badhai...kitab jald padhi jayegi.